हिपेटाइटिस लिवर सिरोसिस (Liver Cirrhosis) तथा लिवर कैंसर
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डॉ. नागेन्द्र ‘नीरज’ निर्देशक व चिकित्सा प्रभारी
योग-प्राकृतिक-पंचकर्म चिकित्सा एवं अनुसंधान केन्द्र
योग-ग्राम, पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार
गतांक से क्रमश:
18. गिलबर्ट सिण्ड्रोम (Gilbert Syndrome)
यह जेनेटिक्स बीमारी है। इसमें GT1A नामक जीन जो माता-पिता के किसी एक से संतान में आता है। UGT1A जीन की गड़बड़ी से बिलिरूबिन बाइण्डिंग एन्जाइम मेटाबॉलिज्म गड़बड़ हो जाता है। यह सामान्य (Benign) स्थिति है। इसमें किसी उपचार की आवश्यकता नहीं होती है। हल्का शरीर एवं आँख पित्ताभ दिखते हैं। ज्यादा थकान, तनाव या उपवास में पीलिया के लक्षण उभर जाते हैं। हल्का पेट के दाहिनी तरफ दर्द, खुजली, थकान, मितली, भूख की कमी तथा कमजोरी दिखती है।
19. बडचिआरी सिण्ड्रोम (Budd-ChiariSyndrome)
बडचिआरी सिण्ड्रोम में हिपेटिक वेन जो लिवर की सफाई करती है। वहाँ रक्त के थक्के होने के कारण सकरी या जाम हो जाती है, जिसके चलते रक्त पुन: वापस लिवर में पहुँचने लगता है। फलत: लिवर रोग ग्रस्त होकर उसका आकार में वृद्धि (हिमेटोमिगली) हो जाता है। इसके कारण तथा तीव्र जीर्ण, जटिल लिवर के रोगों में पोर्टल हाइपरटेन्सन, एसोफेजियल वेरीसेज, सिरोसिस, उदर मलाशय तथा गुदा का वेरीकोस वेन्स के लक्षण उभरते हैं। इन्फ्लामेटरी बॉवेल डिजीज, सिकल सेल एनीमिया, पॉलीसाइथेमिया में हिपेटिक वेन में रूकावट आ सकती है तथा उपर्युक्त रोग लक्षण दिखते हैं।
20. लिवर सिरोसिस
लिवर सिरोसिस भी दो प्रकार का होता है-
क) प्राइमरी बिलिअरी सिरोसिस में पिताशय नली धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त हो जाती है। जिससे पित्त को छोटी आंत जाने का रास्ता ही बन्द हो जाता है, लिवर में पित्त का जमाव बढ़ जाता है दुष्परिणामत: प्राइमरी बिलियरी सिरोसिस होता है, उपचार नहीं होने पर लिवर फेल्योर की स्थिति पैदा हो जाती है।
ख) प्राइमरी स्क्लोरोसिंग कोलेन जाइटिस (Primary Sclerosing Cholangitis) यह पित्ताशय के सृजन, जलन, दर्द, इन्फ्लामेटरी स्थिति के कारण पित्त की नली क्षतिग्रस्त हो जाती है। दुर्घटनावश पित्त प्रवाह का रास्ता बन्द होने से लिवर में पित्त का जमाव तथा दबाव बढक़र यकृत कोशिकाओं को नष्ट विनष्ट करने लगती है। इससे लिवर सिरोसिस तथा लिवर फेल्योर की स्थिति पैदा होती है। इसमें रक्तस्राव पैर, हाथ पेट में देह द्रव जमने से सूजन, पेशाब गहरे रंग का तथा त्वचा पर रक्त का जमाव से काले, लाल भूरे बैंगनी धब्बे ((Brusing) दिखते है।
उपर्युक्त लिवर रोगों का प्रारम्भ में उचित उपचार नहीं होने पर, लिवर रोग होने पर भी लोग अल्कोहल या फैटी फूड खाते रहते हैं, धूम्रपान करते रहते हैं। वे ही लिवर सिरोसिस से ग्रस्त हो जाते हैं। सिस्टिक फाइब्रोसिस तथा सिफलिस के कारण भी लिवर क्षतिग्रस्त होकर सिरोसिस हो जाता है। लिवर में स्वत: अपनी क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को पुनर्जीवित एवं स्वस्थ करने की क्षमता होती है। लिवर को थोड़ा सा भी आराम एवं आहार-विहार विचार सही होने से यकृत कोशिकाएँ पुन: पुनर्जीवन प्राप्त करने की क्षमता से लैस होती हैं। लेकिन क्षतिग्रस्त कोशिकाएं संख्या में अधिक होने से वे लिवर को अत्यन्त कठोर एवं सख्त बना देती हैं, जिससे लिवर फंक्शन भलीभांति नहीं हो पाता है तथा लिवर सिरोसिस की नींव पड़ती है। लिवर सबसे वृहद् जैविक फार्मेस्युटिकल फैक्टरी है जहाँ लाखों कोशिकाएं सतत कार्यशील रहते हुए आवश्यकता अनुसार 500 प्रकार की जैव रसायन औषध तैयार निर्माण, नियंत्रण, नियोजन एवं नियमन कर शरीर को स्वस्थ रखती है। स्कार उत्तकों की वृद्धि के कारण लिवर की स्थिति अत्यन्त जटिल एंव गम्भीर हो जाती है। चौथी स्थिति में अत्यन्त विकट एवं लिवर रोग की अन्तिम स्थिति (End stage of liver disease) होती है तथा 5वीं स्थिति में लिवर कैंसर होता है जहाँ से आरोग्य की ओर लौटना मुश्किल हो जाता है। कई रोगी लिवर ट्रान्सप्लान्ट कराते हैं लेकिन उसकी सर्वाइवल रेट 5 साल के लिए 11 प्रतिशत ही है।
21. लिवर कैंसर
किसी भी अंग में फैले कैंसर के कारण लिवर का कैंसर होता है तो उसे सेकण्ड्री लिवर कैंसर तथा किसी लिवर रोग के कारण से लिवर का कैंसर होता है उसे प्राइमरी लिवर कैंसर कहते है। लिवर में सामान्य कैंसर की ऊपज एक नन्हे से बिन्दु आकार स्पोट, दाग, गांठ से प्रारम्भ होकर एक सिंगल ट्यूमर बनाता है जो धीरे-धीरे बढ़ते हुए अन्य अंगों में भी फैल जाता है।
22. जलोदर (एसाइटिस)
उपर्युक्त जटिल लिवर रोगों में एसाइटिस यानि पेट के निचले हिस्से में तरल पदार्थ जमा होकर जलोदर की स्थिति पैदा होती है जो बाद में गम्भीर हो जाती है।
जेनेटिक या हाइपर टायरोसिनेमिया रोग में टायरोसिन तथा फेनाइलएलानिन नामक प्रोटीन का शरीर में ब्रेकडाऊन अच्छी तरह नहीं होने से उसका उपयोग नहीं हो पाता है, परिणामत: ये लिवर, किडनी, नर्वस सिस्टम तथा अन्य अंगों में जमा होकर जहरीला प्रभाव डालते हैं। ये तीन प्रकार के टायरोसिन टाइप-1 जिसमें लिवर तथा किडनी क्षतिग्रस्त होने लगता है। शरीर पीला, आँखे सफेद, सल्फर कम्पाउण्ड जैसी गंध, नाक से रक्त स्राव, डायरिया तथा वमन, हड्डियाँ कमजोर, रिकेट्स के लक्षण दिखते हैं। अन्त में लिवर कैंसर हो जाता है। ऐसे बच्चों की उम्र 10 साल तक होती है। टाइप-2 तथा टाइप-3 उतना खतरनाक नहीं होता है। इसमें आँख लाल तथा आसू बहते रहते हैं। हाथ पैर की त्वचा मोटी तथा दर्द, मानसिक विकास की क्षति, टाइप-3 में प्राय: विटामिन-सी की कमी होती है। टाइप-1 मे FAT टाइप-2 में FAT तथा टाइप-3 में HPD जीन को डिफेक्टिव म्यूटेशन के कारण होता है, जो माता-पिता दोनों से बच्चों में आता है। इसमें बच्चों को टायरोसिन तथा फेनाइल एलानिन रहित आहार देते हैं। नार्वे तथा कनाडा में इसके रोगी ज्यादा मिलते हैं। रोग बढऩे पर लिवर ट्रान्सप्लान्टेशन का सलाह दी जाती है।
विशेष लक्षण : लिवर जब क्षतिग्रस्त हो चुका है, भलिभांति अपना काम नहीं कर पा रहा है तो उपर्युक्त तथा विभिन्न लिवर रोग तथा लिवर सिरोसिस लिवर फेल्योर की स्थिति में पहुँचने लगता है। प्रारम्भ में इसका लक्षण नहीं दिखता है। लेकिन कुछ समय बाद निम्न लक्षण परिलक्षित होने लगते है। इसमें (1) पीलिया, (2) अतिसार, (3) भ्रम (Confusion), (4) थकान, (5) कमजोरी, (6) मितली एवं उल्टी, उदर में रक्तस्राव, हिपेटिक एन्सफेलोपैथी, लिवर तथा प्लीहा वृद्धि आदि (7) पेट में पानी भरना (Spider angiomos), (8) पेट के दाहिनी तरफ दर्द लक्षण दिखते हैं।
एस्ट्रोजन का लेवल बढऩे से त्वचा पर छोटी-छोटी कोशिकाएँ मकड़ी के जाले की तरह स्पाइडर एन्जियोमॉस ((Spider angiomos) तथा चेरिएन्जियोमॉस (Chcrriangiomos) संरचना दिखने लगती है।
पित्त के सीधे खून में मिलने से त्वचा के नीचे जमा होने लगता है, फलत: त्वचा में खुजली होने लगती है। लिवर सिरोसिस, विल्सन डिजीज, हिमोक्रोमेटोसिस आदि लिवर रोग तथा गर्भावस्था में हार्मोनल उतार-चढ़ाव के कारण, पैर तथा हाथो की सूक्ष्म रक्त वाहिनियाँ विस्फारित होने से रक्त सतह पर आ जाता है इसे ही पामर एरिथेमा (Palmer Erythema) लिवर पाम, रेड पाम यानि हथेली एवं पगतली लाल हो जाते है। इसे लान्स रोग (Lane’s Disease) भी कहते हैं। लाल हथेली के लक्षण मधुमेह, थॉयरॉयड टॉक्सिकोसिस, शराब, धूम्रपान, मर्करी पॉयजनिंग, एड्स, ब्रेन ट्यूमर तथा आटोइम्यून रोग में कभी-कभी पामर एरिथेमा के लक्षण दिखता है।
रक्त का थक्का (Blood Cloting) बनने से रोकने के लिए लिवर लंग्स तथा मास्ट तथा बेसोफिल रक्त कोशिकाए हिपेरिन (वारफेरिन) का निमार्ण करती हैं। लिवर हिपेरिन तथा एण्टी कोएग्यूलेन्ट प्रोटीन सी तथा प्रोटीन एस और एण्टीथ्रोम्बिन III प्रोटीन निर्माण करता है। लेकिन लिवर के क्षतिग्रस्त होने या जन्म जात बीमारी में फैक्टर वी जीन में परिवर्तन (Mutation) होने से प्रोटीन सी की सक्रियता बढ़ जाती है। हिपेटिक वेन तथा हिपेटिक आरटरी नील पड़ जाती है। उनसे खून के चक्कते (Clot) बनने की प्रक्रिया भी तेज हो जाती है परिणामत: त्वचा रक्त वाहिनियाँ भी क्षतिग्रस्त होती हैं तथा जगह-जगह नील पड़ जाती है और खून भी निकलने लगता है।
Fetor Hepaticus में वोलाटाइल सल्फर कम्पाउण्ड डाइमिथाइल सल्फाइड, एसिटोन, ब्यूटानोन तथा पेन्टानॉन, मिथाइलमर कैप्टन, हाइड्रोजन सल्फाइड की मात्रा रक्त में बढ़ जाती है। प्राय: लिवर के जटिल रोगों सिरोसिस के कारण पोर्टल हाइपर टेन्सन हो जाता है। पोर्टल हाइपर टेन्सन के चलते उपर्युक्त टॉक्सिक दुर्गन्धित रसायन छनकर फेफड़े में पहुच जाता है। जिससे लिवर डैमेज वाले रोगी के मुँह एवं श्वासों से दुर्गन्ध आनी शुरू हो जाती है। इस स्थिति को Fetor Hepaticus कहते हैं। इतना ही नहीं, इन गैसों के साथ ट्राइमिथाइल एमिन तथा अमोनिया भी जुड़ जाते हैं। यह खतरनाक हिपेटोसेलुलर फेल्योर तथा ऑनसेट ऑफ हिपेटिक एन्सेप्लोपैथी की स्थिति को प्रदर्शित करता है।
लिवर रोग की अंतिम स्थिति में रोगियों में पोर्टल हाइपरटेन्सन तथा प्लेटलेट्स की कमी कारण लिवर में रक्त संचार में रूकावट आ जाती है। इससे ओएसोफेजियल वेरीसेस यानि गले की रक्त वाहिनियाँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं जिससे रक्तस्राव होने लगता है। लिवर में रक्त का थक्का जमा होने या स्कार टिशूज के कारण ऐसा होता है।
पाचक अंगों से रक्त को लिवर तक पहुँचाने वाली पोर्टल वेन में रक्तचाप बढ़ जाता है। ऐसा प्राय: लिवर सिरोसिस रोग अथवा लिवर की रक्त वाहिनियाँ में थक्का जमने (Thrombosis) से उत्पन्न रूकावट के कारण होता है। पोर्टल हाइपरटेन्शन के कारण लिवर तथा स्प्लीन (तिल्ली प्लीहा) बढ़ जाती है। आमाशय तथा गले एसोफेगस का वेन्स फूल (Varices) जाती है। इसके कारण आन्तरिक हेमारॉयडस, वजन की कमी कुपोषण, फेफड़े तथा पेट में पानी भरना, एसाइटिस तथा गुर्दे एवं फेफड़े के कार्य अस्त-व्यस्त होता है।
शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि लगभग 350 पौण्ड की होती है। लिवर में दाहिना तथा बायाँ दो मुख्य लोब होते हैं। दाहिना लोब बायें से 5-6 गुना बड़ा होता है। दोनो लोब्स चार लोब्स दाहिना, बायाँ, कॉडेट (दुमदार) तथा क्वाड्रेट (चौकोर) में विभक्त है। क्वाड्रेट लोब दाहिने लोब के नीचे (Inferior) तथा कॉडेट लोब बायें तथा दाहिने लोब के मध्य में आगे की ओर स्थित है। दोनों लोब में 8 सेगमेन्ट होते हैं। सेगमेन्ट में छोटे-छोटे लाबुल्स होते हैं।
प्रत्येक लोबुल्स में हजार से अधिक षट्कोणाकार (Hexagonally Shaped) नन्हें लोबुल्स होते हैं जिनमें असंख्य लिवर कोशिकाएँ हिपेटोसाइट्स होती हैं। ये कोशिकाएँ मेटाबॉलिज्म, डिटॉक्सीफिकेशन, रक्त का फिल्ट्रेशन, भोजन का पाचन, प्रोटीन संश्लेषण, अनेक विटामिन तथा मिनरल्स का स्टोर करना तथा जीवन के लिए उपयोगी 500 प्रकार के जैव रसायनिक औषधियों का निर्माण आदि अनेक कार्य करती हैं।
लिवर फंक्शन जाँच में SGPT तथा SGO की वृद्धि लिवर कोशिकाओं के डैमेज होने, पित्त स्रावित कोशिकाओं में मौजूद अल्कलाइन फॅास्फेट की अत्यधिक उपस्थिति लिवर से निकलने वाली पित्त प्रवाह की रूकावट, रक्त में अमोनिया, बिलुरूबिन की उपस्थिति लिवर की खराबी, एल्बुमिन की मौजूदगी लिवर की स्थिति को प्रदर्शत करता है।
लिवर सिरोसिस को पहली स्थिति में लिवर में फैट (चर्बी) का जमाव होने से लिवर के आकार में वृद्धि होती है। ऐसी स्थिति में सजग होना चाहिए। खानपान में सुधार आवश्यक हो जाता है। उनमें प्रदाह शुरू हो जाता है। दूसरी अवस्था में लिवर की स्वस्थ कोशिकाएँ सूजन के कारण नष्ट होने से उनमें क्षत उत्तको (Scar tissue) की संख्या में वृद्धि होकर फाइब्रोसिस की स्थिति पैदा होती है। तीसरी अवस्था सिरोसिस की होती है। यकृत में फाइब्रस टिशूज की अधिकता यानि फाइब्रोसिस के कारण लिवर क्षतिग्रस्त एवं निष्क्रिय हो जाता है। लिवर मोटा, सख्त, कठोर स्कार के कारण क्षतिग्रस्त हो जाता है। उनमें इतनी क्षत कोशिकाओं की वृद्धि होती है कि लिवर कोशिकाओं का काम करना मुश्किल हो जाता है।
वजन का तेजी से कम होना, उदर दर्द, आँख एवं त्वचा पीली, लिवर द्वारा डिटॉक्सीफिकेशन नहीं होने से लिवर एनसेफेलोपैथी यानि मस्तिष्क की क्रियाओं में गड़बड़ी शुरू हो जाती है। संक्रमण, दस्त एवं रक्तस्राव बढ़ जाता है। रोगी की स्थिति भयावह हो जाती है। भ्रम, मीठी बासी गंध, हाथ कम्पन, उल्टा-पुल्टा बोलना आदि मानसिक रोग लक्षण, उल्टी, रक्त स्राव, देह द्रव में वृद्धि से रक्तायतन में वृद्धि, लिवर पोर्टल हाइपरटेन्शन के कारण गले के शिराओं में वृद्धि एवं सूजन के कारण शिराओं के क्षतिग्रस्त होने से रक्तस्राव जो उल्टी तथा मल द्वारा निकलता है, काला पाखाना आता है। रोग बढऩे पर मू्र्छा, पीला पडऩा, अनियमित सांस गति एवं हृत् धडक़न, बेहोशी की स्थिति पैदा हो जाती है।
लिवर रोगों की जांच के लिए लिवर फंक्शन टेस्ट, हिपेटाइटिस वायरल लोड, अल्टसाउण्ड, सी.टी. स्कैन तथा बायोप्सी कराया जाता है। कथित एलोपैथी चिकित्सा में लिवर रोगों का कोई इलाज नहीं है। इसका मुख्य इलाज प्राकृतिक चिकित्सा एवं आहार, योग एवं आयुर्वेद का सम्यक प्रयोग ही है।
प्राकृतिक चिकित्सा : गरम ठण्डा सेक पेडू तथा लिवर का देकर मिट्टी की पट्टी दें। पुन: नीम के पानी में एक नींबू निचोड़ कर एनिमा दें। पुन: रोगी के स्थिति के अनुसार गरम-ठण्डा कटि स्नान, वाष्प स्नान, गरम ठण्डा कम्प्रेस खास करके लिवर का, सावना बाथ, पूर्ण टब इमरसन बाथ, सर्कुलर बाथ, गीली चादर लपेट, सर्वांग मिट्टी की लेप, मडपूल स्नान, व्हर्लपूल, रेत स्नान आदि योगग्राम में मौजूद 125 जल चिकित्सा की प्रविधियाँ के साथ सूर्य स्नान, कलर थर्मोलियम, ग्रीन हाउस थर्मोलियम, अभ्यान्तर एवं बाह्य वायु स्नान दें।
लिवर कैंसर तथा लिवर के अन्य रोगों में कॉफी एनिमा का प्रभाव अतुल्य होता है। बहुत सारी खोजों से ज्ञात हुआ है कि दिन में 2-3 बार कॉफी एनिमा तथा कॉफी पीना लिवर के उपरोक्त सभी रोगों, खास करके एनिमा से बहुत लाभ होता है।
एनिमा के लिए 50 ग्राम कॉफी बीज को मिक्सी में पीसकर एक लीटर पानी में 3 मिनट अच्छी तरह उबाले पुन: उसे कम तापमान पर 15 मिनट तक धीरे-धीरे गरम करें। ताकि 600 ग्राम तक बच जाये। सुबह-दोपहर एवं शाम में 15 दिन तक रोगी को घुटना एवं छाती के बल लिटाकर कॉफी एनिमा दें। 18-20 मिनट तक रोकने का प्रयास करें। इस एनिमा का जादुई प्रभाव होता है। इसके प्रभाव से ग्लूटेथिओन लिवर को जहरीले टॉक्सिन्स तथा फ्री रेडिकल को बाहर निकालता है तथा इनसे बचाता है। बढ़े हुए रोग मार्कर एन्जाइम सामान्य स्तर पर आ जाते हैं।
रक्त सिरम तथा इनके घटकों की पूर्णतया सफाई हो जाती है। वे विष मुक्त हो जाते है। यह काफी द्रव वायटल द्रव का काम करता है, लिवर से गुजर कर उन्हें कैफिनेटेड कर देता है। कॉफी एनिमा रोकने से आंत्रिक विसरल नर्वस सिस्टम के उद्यीपन से आंत की सर्पिल गति (Peristalsis) प्रक्रिया बढ़ जाती है। इससे बाइल पतला हो जाता है। उसका बहाव तेज हो जाता है। टॉक्सिक बाइल के फ्लश एवं सफाई होने से शरीर का एन्जाइमेटिक उत्प्रेरक (Catalyst) ग्लूटाथिओन-एस-ट्रान्सफेरेस (GST) सुप्रभावित होता है। शरीर में इसका लेवल 700 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। जिसका शानदार प्रभाव फ्री रेडिकल्स तथा टॉक्सीडेन्टो के निष्कासन एवं उदासीन करने पर होता है। वे खतरनाक जहरीले टॉक्सीडेन्ट लिवर, गौल ब्लैडर से ड्यूडिनम में आ जाते हैं तथा पाखाने से बाहर निकल जाते हैं। GST लिवर कैंसरकारी तत्वों को जरूरत के अनुसार ऑक्सीडेशन तथा रिडक्शन प्रक्रिया द्वारा नष्ट कर निकाल बाहर करता है।
कॉफी बीन बीज में दो मुख्य डायटरपेनेस कैफेस्टॉल तथा कहबिओल्स (Diterpenes Cafestol & Kaneweol) होते हैं। इन दोनों का इनविट्रो तथा इनवाइको प्रयोगों के दौरान पाया गया कि इन दोनों का बायो एक्टिविटीज तथा फार्मेकोलॉजिकल गुण कमाल का है। इसके बहुआयामी गुणों में एण्टीइन्फ्लामेशन, हिपेटो प्रोटेक्टिव, एण्टी कैंसर तथा एण्टीडाइबिटीक तथा एण्टी ऑस्टियोक्लेस्टो जेनेसिस प्रक्रिया से हड्डियों के कैंसर की रोकथाम करता है। इसकी सक्रियता कमाल की है। ये इन्फ्लामेशन मेडिएटर का नियमन ग्लूथिओन को सक्रिय एवं वृद्धि करते हैं। कैंसर ट्यूमर सेल्स का एपोपटोसिस प्रक्रिया बढ़ाकर खत्म करने में सहायता करते हैं तथा एण्टी एन्जिओजेनेसिस प्रक्रिया द्वारा ट्यूमर को बढऩे से रोक देते हैं। दोनों डाइटपेन्सि अलग-अलग होते हुए इनका प्रभाव एक जैसा होता है। ये अद्भुत मल्टीटारगेट फंक्शन फूड है। इसके पूर्व में हुए अध्ययन के अनुसार कैफेस्टल तथा कहेवीओल सिरम लिपिड लेवल तथा लिवर एन्जाइम की वृद्धि करता है, लेकिन वृहद स्तर पर हुए खोज के अनुसार ऐसा कुछ ही केसों में पाया गया है।
कॉफी में मौजूद थियोफाइलिन तथा थियोब्रोमिन रक्तवाहिनियों को विस्फारित करके रक्त प्रवाह को नियमित करता है ताकि लिवर को भरपूर ऑक्सीजेनेटेड रक्त मिलता है जिससे इन्फ्लामेशन तथा ट्यूमर दोनों को दूर करने में सहायता मिलती है। 15 से 21 मिनट तक एनिमा रोकने से प्रत्येक तीसरे मिनट यानि 5 से 7 बार लिवर से गुजरते समय सारे शरीर का शुद्धिकरण करता है। आंतों के दिवार से गुजरने वाला एनिमा का कॉफी द्रव रक्त डायलाइसिस (अपोहन) या नैसर्गिक रक्तशोधन का काम करता है। कॉफी एनिमा से पोटेशियम आयन का उपयोग उन्नत होता है, सोडियम सतत् कम होता है, यानि दोनों आयनों का नियमन एवं नियंत्रण होता है। माइट्रोकॉण्ड्यिल सक्रियता बढ़ जाती है। शरीर की ऊर्जा लेवल बढ़ जाता है। माइक्रोन्यूट्एिन्ट की आपूत्ति एवं अवशोषण दोनों बढ़ जाती है।