परम पूज्य योग-ऋषि श्रद्धेय स्वामी जी महाराज की शाश्वत प्रज्ञा से नि:सृत शाश्वत सत्य ...
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राममय हो रहा है रोम-रोम व सम्पूर्ण अस्तित्व। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम मात्र एक व्यक्ति नहीं, मात्र मन्दिर की एक प्रतिमा भर नहीं हैं। राम राष्ट्र के स्वाभिमान, राम हमारे आराध्य परात् परब्रह्म व सनातन धर्म के साक्षात् विग्रह हैं। राम आत्मानुशासन हैं, राम सुशासन, रामराज्य की प्रेरणा एवं सृष्टि के समस्त नाम रूप व स्वरूपों में अभिव्यक्त परमेश्वर की जीवन्त मूर्त अभिव्यक्ति हैं।
राम हमारे प्राण व सर्वस्व हैं। जीवन के सबसे बड़े प्रतिमान आदर्श व सर्वोच्च अधिष्ठान हैं। राम को कोई अपना पूर्वज तो कोई पूज्य तो कोई उन्हें अखिल कोटि ब्रह्माण्ड नायक व जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। राम मन्दिर में प्रतिष्ठा के साथ-साथ जीवन में भगवान् श्रीराम जी के आदर्शों की भी पूर्ण प्रतिष्ठा हो, यह हम सब रामभक्तों का संकल्प होना चाहिए।
राम मन्दिर निर्माण, चरित्र निर्माण, राष्ट्र निर्माण एवं नये दिव्य-भव्य युग के निर्माण की प्रेरणा बनें तथा जैसे महर्षि वाल्मीकि जी तथा पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीराम जी का चरित्र लिखा है। हम प्रतिदिन रामायण का स्वाध्याय करें। श्रीराम जी के जीवन की प्रत्येक लीला से बहुत कुछ सीखें। श्रीराम जी ने जन्म से लेकर वनवास, राज्याभिषेक एवं धर्म प्रतिष्ठापन की सारी लीलाएं हम मनुष्यों के कल्याण के लिए की हैं।
आईये! हम सब भगवान् राम-कृष्ण, हनुमान, शिव, सीता, लक्ष्मी, दुर्गा, भवानी, भगवती के साक्षात विग्रह बनकर जीवन जीने का व्रत, संकल्प लें एवं जीवन को पूर्ण धर्ममय बनायें।
साधना सेवा एवं सिद्धि की यात्रा
१. पूर्ण विवेक, पूर्ण श्रद्धा व पूर्ण पुरुषार्थ से स्वकर्म को स्वधर्म संन्यास धर्म, सेवा धर्म, सना धर्म, भागवत् धर्म मानकर जीया। एक क्षण के लिए अपने योग धर्म से विमुखता का विचार भी मन में भगवत् कृपा, गुरु कृपा से नहीं आया और अनजाने में यदि कोई सूक्ष्म प्रमाद आया भी तो एक क्षण में उसे हटाया।
२. गुरु भगवान् की पूर्ण शरणागति ही एक मात्र योग का साधन है। १००% गुरु आज्ञा का पालन, एक क्षण भी गुरु आज्ञा में प्रमाद न ही मनमानी, रत्ती भर भी नहीं। गुरु, शास्त्र एवं समर्थ अधिकारी आत्माओं के प्रति १००% श्रद्धा। गुरु, शास्त्र, देवता व अमूर्त अदृष्ट धर्म तत्त्व में पूर्ण विश्वास रखना ही आस्तिकता है। दृष्ट भौतिक तत्त्वों के अस्तित्व को तो सभी मानते ही हैं। अदृष्ट की आंशिक व परोक्ष अनुभूति होती है। अदृष्ट का परिणाम दिखता है। अदृष्ट के सबसे बड़े तत्त्व हैं- कर्मफल व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, प्रारब्ध एवं अतीन्द्रिय अनुभूतियां व अतीन्द्रिय शक्तियां। एक तत्त्व बहुत बड़ा है, ब्रह्माण्ड का मूर्त तो संभवत: शतांश है। अमूर्त ही मूर्त का आधार है। ये सारा भगवान् का शाश्वत सनातन विधान या ईश्वरीय संविधान ही सृष्टि या ब्रह्माण्ड का सबसे बड़ा सत्य है।
३. सिद्धियां सबको क्यों नहीं मिलती- प्रथम बात तो यह है कि मनुष्य अपनी मानवीय क्षमताओं को ही न तो ठीक-ठीक जानता है न ही उन्हें जगाता है और न ही पूर्ण सदुपयोग में लगाता है। अतीन्द्रिय शक्तियों की जहां पात्रता होती है। भगवान् एवं उनके गण या शक्तियां उनका चयन करके उनको अपना यंत्र बना लेती हैं।
४. अतीन्द्रिय शक्तियों का अनुशासन- यह १००% सत्य पर आधारित हैं। यहाँ झूठ, फरेब, लौकिक व पारमार्थिक नियमों एवं ईश्वरीय विधान या संविधान का रत्तीभर भी अतिक्रमण नहीं हो सकता। यदि अतिक्रमण होता है तो सिद्धि समाप्त हो जाती है। भगवान् के नियम अकाट्य हैं।
५. सिद्धि का उपयोग- सबकी सनातन धर्म में निष्ठा हो। स्वकर्म में १००% पुरुषार्थ हो। पुरुषार्थी बनें, प्रमादी, स्वप्रवादी, आभासी, काल्पनिक, मिथ्या बातों में न जीयें, मिथ्यावादी न बनें। किसी का भी किसी भी प्रकार से मन, वचन, कर्म से अहित न करें, पीड़ा न दें।
६. मेरा संकल्प- १००% गुरु आज्ञा व गुरु के मार्गदर्शन में ही चलना।
७. मेरा ध्येय- प्रत्येक श्वास लोका: समस्ता: सुखिनो भवन्तु के लिए है।
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