महाभारत सर्वगुण सम्पन्न

महान राजवंशों द्वारा पृथ्वी विजय की गाथाएं

महाभारत सर्वगुण सम्पन्न

प्रो. कुसुमलता केडिया

    जब हम महाभारत पढ़ते हैं, तो प्रथम अध्याय में ही हम भारत के उन महान और सर्वगुण सम्पन्न राजवंशों के विषय में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करते हैं, जिन्होंने अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा धर्मयुद्ध से पृथ्वी पर विजय प्राप्त की थी। महाभारत की संपूर्ण कथा अपनी संरचना में ही पूर्ण प्रामाणिक दिखती है और इसलिये कुछ मूर्ख अथवा दुष्ट लोगों द्वारा उसकी प्रामाणिकता को संदिग्ध बताने वाली चर्चा हमारे लिये अप्रासंगिक है। क्योंकि ये लोग मुख्यत: या तो ईसाइयत से प्रेरित लोग होते हैं या इस्लाम के नाम पर कभी भी कुरान और हदीस का पालन नहीं करते हुये स्वयं को मुस्लिम कहने वाले मुनाफिकीन होते हैं या फिर इन दोनों के अनुगत होते हैं। अत: उनके उछाले गये जुमलों पर चर्चा महाभारत के संदर्भ में पूरी तरह विषयान्तर होगी। हमारी दृष्टि में महाभारत एक पूर्णत: प्रामाणिक इतिहास ग्रंथ है। जो कि उसे सदा से कहा जाता रहा है। 
प्रथम अध्याय में बताया गया है कि युद्ध की समाप्ति के बाद जब केवल कौरव पक्ष के तीन लोग तथा पाण्डव पक्ष के सात लोग ही युद्ध से बचे हैं, तब महाविलाप करते हुये धृतराष्ट्र को सांत्वना देने के लिये सूतपुत्र संजय कहते हैं कि हे राजन, आपने विधिवत् राज्य संबंधी शिक्षा प्राप्त की है तथा देवर्षि नारद और महर्षि वेदव्यास के मुख से भारत के महान उत्साह सम्पन्न, महाबलवान राजाओं का चरित्र सुना है। वे सर्वसदुगुण सम्पन्न महान राजा और सम्राट दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा धर्मयुद्ध से पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर यशस्वी हुये और फिर काल के गाल में समा गये। अत: काल महाबलवान है और उससे कोई नहीं बच पाता। इसके बाद वे 24 ऐसे महान राजाओं का वर्णन करते हैं जो उसके पूर्व भारत में यशस्वी हो चुके थे तथा इसके बाद साठ और ऐसे ही प्रतापी सम्राटों का वर्णन करते हुये तथा अंत में यह स्मरण दिलाते हुये कि ऐसे ही अन्य असंख्य राजा भारत वर्ष में होते रहे हैं जो बड़े बुद्धिमान और शक्तिशाली हुये परंतु वे सब भी विपुल वैभव भोग कर निधन को प्राप्त हुये। यहां दो बातें महत्वपूर्ण हैं। पहली यह कि राजाओं की संख्या गिनाते समय वे उनकी संख्या पद्मों में बताते हैं। दस हजार करोड़ का एक पद्म होता है। इससे ध्यान आता है कि हमारे यहां गणना की लघुतम से लेकर विराटतम इकाइयां तक अतिप्राचीन काल से सामान्य गणित का अंग रही हैं, जबकि यूरोप में मिलियन, बिलियन और ट्रिलियन के आगे गति नहीं रही है। 
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रथम 24 महान सम्राटों में महारथी सम्राट शैव्य से लेकर रन्तिदेव, काक्षीवान, बाह्लीक, शर्याति, नल, विश्वामित्र, अम्बरीष, मरूत, मनु, इक्ष्वाकु, गय, चक्रवर्ती सम्राट भरत, श्रीराम, भगीरथ, कृतवीर्य, जनमेजय और ययाति का वर्णन है। जिन्होंने समस्त पृथ्वी को यज्ञ के खंभों से अंकित कर दिया था। इन 24 में इक्ष्वाकु वंश के स्वयं इक्ष्वाकु, भगवान श्रीराम और भगीरथ ही उल्लिखित हैं। इससे पहता चलता है कि रघुवंश के सैकड़ों सम्राटों का यहां तक कि स्वयं रघु का उल्लेख इस सूची में करने योग्य नहीं माना है। इससे स्पष्ट होता है कि यह कितनी विरल सूची है। रघु, ककुत्स्थ, युवनाश्व, सगर आदि का उल्लेख अगली सूची में है जो इन 24 के बाद गिनाई गई है। उसमें सम्राट पुरू, कुरू, वीतिहोत्र, वेन आदि का भी उल्लेख है। सूची से स्पष्ट है कि ये नाम अत्यन्त प्राचीन काल से प्रसिद्ध राजाओं में से ही छाटें गये हैं। यह भी कहा गया है कि अन्य हजारों प्रतापी राजाओं का वर्णन सैकड़ों बार किया गया है। जो यह स्मरण दिलाता है कि भारत में इतिहास ग्रंथों की अत्यन्त प्राचीन परंपरा रही है और यह भी कि यह दुनिया का सबसे बड़ा लिक्खाड़ समाज है। यूरोपीय ईसाइयों ने अपने यहां की ‘ओरल ट्रेडिशन’को यहां भी आरोपित कर दिया और उनसे प्रभावित लोग उसका अनुवाद कर वाचिक परंपरा की बात दोहराने लगे। परंतु सत्य यह है कि प्राचीनतम काल से भारत में सभी अनुशासनों में लेखन की विराट पंरपरा रही है। 
महाभारत के आदिपर्व को पढ़ते हुये ही एक अन्य महत्वपूर्ण बात सामने आती है कि अपने महान राजाओं और राजपुरूषों तथा वीरों के श्रेष्ठ गुणों और गौरव को भुलाना अनुचित है। यहां इस संदर्भ में हम तीन ऐसी विभूतियों का उल्लेख करेंगे जो प्रथम पर्व में ही उल्लेखित हैं। धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर और भीम। 
सर्वप्रथम तो स्वयं धृतराष्ट्र की बात करते हैं। प्रथम अध्याय में ही सूतपुत्र उग्रश्रवा जी बताते हैं कि गंगापुत्र भीष्म पितामह की आज्ञा से और अपनी माँ सत्यवती की आज्ञा से शक्तिशाली और धर्मात्मा श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने विचीत्रवीर्य की पत्नियों तथा दासी से तीन अग्नियों के समान तेजस्वी तीन कुरूवंशी पुत्र पैदा किये - धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर। महर्षि वेदव्यास का एक भी शब्द निरर्थक या निराधार नहीं है। अत: जब वे स्वयं इन्हें अग्नि के समान तेजस्वी कह रहे हैं तो उस शब्द का महत्व असंदिग्ध है।  
महाभारत से स्पष्ट होता है कि धृतराष्ट्र बहुत नीतिमान, बुद्धिमान, राजनीतिशास्त्र के ज्ञाता, अत्यन्त गंभीर और प्रज्ञाचक्षु हैं। उन्हें जिन महत्वपूर्ण घटनाओं के समय ही यह आभास होता रहा था कि पाण्डव पक्ष की जीत सुनिश्चित है और हमारे पुत्रों की हार निश्चित है, उनमें से अनेक का उल्लेख उन्होंने स्वयं किया है। स्पष्ट है कि वे नीतिज्ञ और घटनाओं के आधार पर संभावित परिणामों के आँकलन में समर्थ दूरदर्शी सम्राट हैं, परन्तु पुत्र के प्रति स्वाभाविक मोह से बंधे हैं क्योंकि स्वयं के नेत्रहीन होने के कारण राज्याभिषेक में प्राथमिकता नहीं मिलने का दंश उनके भीतर है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि राजोचित बुद्धिमत्ता, ज्ञान और विवेक की उनमें कोई कमी है। कई बार कालप्रवाहवश बड़े बुद्धिमान भी इस प्रकार मोह में फंस जाते हैं, इतना ही उनकी कथा से पता चलता है। वे कोई पुत्रमोह में अंधे साधारण व्यक्ति नहीं हैं और उन्हेें इस तरह देखना मूढ़ों के द्वारा किये गये प्रचार से प्रभावित होना है। 
गुप्तचर सेवाओं का महत्व प्राचीनतम काल से
धृतराष्ट्र जिन घटनाओं से आगामी परिणामों का सही अनुमान कर लेते हैं उनमें से कुछ महत्वपूर्ण हैं। यथा, वे कहते हैं कि ‘जब मैंने सुना कि विराट की राजधानी में पांचों पांडव द्रौपदी सहित निवास कर रहे थे और हमारे सारे गुप्तचर उनका कोई पता नहीं लगा पाये थे, तभी मैंने अपनी विजय को असंभव मान लिया था। जब मैंने सुना कि द्रौपदी से कीचक द्वारा किये गये अनुचित व्यवहार का बदला भीमसेन ने कीचक को सौ भाईयों सहित मार कर लिया, तभी मैंने विजय की समस्त आशायें त्याग दीं। गायों के हरण के लिये गये हमारे पक्ष के श्रेष्ठ महारथियों और हमारे पुत्रों को धनंजय ने अकेले ही हरा दिया तभी से मुझे विजय की कोई आशा नहीं रही। 
इससे पता चलता है कि ‘इंटेलिजेंस’सेवाओं का महत्व उस समय भी कितना अधिक था और ‘इंटेलिजेंस' की विफलता पराजय का कारण बनती है। यदि हम यूरोप के दोनों महायुद्धों का विवरण पढ़ें तो पता चलता है कि सोवियत संघ, अमेरिका, जापान, फ्रांस और इंग्लैंड तथा जर्मनी सभी के ‘इंटेलिजेंस’ सेवाओं की उसमें कितनी बड़ी भूमिका रही है और स्वयं भारत की भी ‘इंटेलिजेंस’सेवाओं ने उन युद्धों में निर्णायक भूमिका निभाई थी। 
यह अत्यंत दुखद तथ्य है कि कांग्रेस ने योजना पूर्वक ‘इंटेलिजेंस’सेवाओं को कमजोर किया। बाद में इंदिरा गांधी जी ने अपनी आवश्यकता के कारण ‘इंटेलिजेंस’सेवा में कुछ महत्वपूर्ण दक्षता लाने का प्रयास किया परंतु फिर विशेषकर सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह के समय भारत के ‘इंटेलिजेंस’ को बुरी तरह तोड़ा गया। जिसका विवरण हमें महत्वपूर्ण गुप्तचर अधिकारी श्री मणि की पुस्तक ‘दि सैफ्रन टेरर' (भगवा आतंक) में पढऩे को मिलता है। 
यही कारण है कि हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ‘इंटेलिजेंस’सेवाओं को पुन: सुदृढ़ करने की ओर गंभीर हैं। हमारे पास श्री अजीत डोभाल जैसे अनेक श्रेष्ठ गुप्तचर हैं जो राज्य की महत्वपूर्ण सेवा करते हैं। इनकी उपेक्षा राष्ट्र को कमजोर करती है। संतोष की बात है कि मोदी जी और अमित शाह इस पक्ष में पूर्णत: सजग हैं। 
राजा के आत्मसंयम का महत्व
इसी प्रकार वे कहते हैं कि ‘जिस दिन मैंने सुना कि मत्स्यराज विराट ने अपनी प्रिय एवं सम्मानित पुत्री उत्तरा को अर्जुन को देना चाहा परंतु उत्तरा को शिक्षा देने वाले अर्जुन ने गुरू शिष्य परंपरा का मान रखते हुए उत्तरा को अपनी पुत्री जैसा मानकर उसे अपने पुत्र अभिमन्यु के लिये स्वीकार किया, तभी ऐसे विवेकवान और संयमी अर्जुन के बारे में जानकर मुझे पाण्डवों की विजय सुनिश्चित लगने लगी। इससे पुन: स्पष्ट होता है कि विवेक और संयम का महत्व तथा परंपरा के सम्मान का अर्थ धृतराष्ट्र अच्छी तरह जानते थे। वस्तुत: क्षुद्रता और चालाकी से छोटे-मोटे ‘बैटिल्स’(लड़ाइयां) भले ही जीत लिये जायें, परन्तु ‘वॉर’(युद्ध) में विजय तो नैतिक बल और चरित्र तथा सदाचरण से प्राप्त बल द्वारा ही संभव है। भारत में आये दिन क्षुद्र चालाकियों और दांवपेचों को कृष्णनीति कहने या बताने वाले क्षुद्र लोग कभी भी बड़े पुरूषार्थ नहीं कर सकते। 
शांतिवार्ता का निरादर राजनैतिक विफलता है
इसी प्रकार धृतराष्ट्र गिनाते हैं कि जब स्वयं श्रीकृष्ण लोक कल्याण के लिये शांति की इच्छा से हमारे यहां आये और शांति संधि का प्रयास किया, परंतु असफल रहे और लौट गये, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। शांति प्रस्तावों का कितना महत्व है और उस समय सही ढंग से वार्ता न कर पाना कितना बड़ी विफलता है, यह धृतराष्ट्र जानते हैं। इससे पुष्ट होता है कि धृतराष्ट्र महाबुद्धिमान, नीतिज्ञ और प्रज्ञाचक्षु हैं। 
काल और बुद्धि में विरोध नहीं
इसी प्रकार यूरोपीय कहानियों और फिल्मों के प्रभाव से लोगों में यह छवि फैली है कि दस हजार हाथियों का बल रखने वाले और गदा युद्ध में अद्वितीय कुशल महान योद्धा भीमसेन बलवान तो बहुत हैं परंतु वे उतने बुद्धिमान नहीं हैं। ऐसा इसलिये क्योंकि यूरोप में किसी समय यह मान्यता फैल गई कि जिसमें शरीर बल है, उसमें बुद्धिबल कम होता है और ब्रिटिश काल में कुशिक्षा द्वारा यही बात भारत में भी फैला दी गई। परंतु महाभारत में आदि पर्व के प्रथम अध्याय में 125वे श्लोक में लिखा है कि राष्ट्र की सम्पूर्ण प्रजा भीमसेन की धृति से बहुत प्रसन्न होती थी। पाद टिप्पणी में बताया गया है कि अपनी इच्छा के अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थों की प्राप्ति होने पर चित्त में विकार ना होना ही ‘धृति’ है। यह बहुत बड़ा गुण है। वाल्मीकि रामायण में हम भगवान श्रीराम के इस गुण का वर्णन पाते हैं कि वे राज्याभिषेक की सूचना प्राप्त होने पर भी शांत रहे और वनवास जाने का पिता का आदेश पाकर भी शांत ही रहे, उनका चित्त तनिक भी म्लान नहीं हुआ। इससे स्पष्ट है कि ‘धृति’बहुत बड़ा गुण है और आंतरिक बोध तथा संयम से ही संभव है। अत: स्पष्ट है कि भीम जितने बलवान हैं, उतने ही बुद्धिमान हैं और संयमी हैं। 
युधिष्ठिर की बुद्धिमत्ता बेजो
इसी प्रकार, धारावाहिकों में तथा फिल्मों में और समकालीन कहानियों आदि में युधिष्ठिर को कुछ मूर्खतापूर्ण सरलता और धर्म का विवेकनिरपेक्ष आग्रह रखने वाला व्यक्ति दिखलाया जाता है। परंतु महाभारत बतलाता है कि राष्ट्र की प्रजा युधिष्ठिर के शौचाचार से सदा प्रसन्न होती थी। साथ ही सब लोग पांडवों के शौर्य गुण से संतोष का अनुभव करते थे। बलवान शत्रु को पराजित कर देने का अध्यवसाय ही ‘शौर्य’है। शौचाचार को हम लोग सामान्यत: आंतरिक और बाहरी स्वच्छता के ही अर्थ में लेते हैं। परंतु महाभारत में प्रथम अध्याय के 125वें श्लोक की टिप्पणी में बताया गया है कि शास्त्रोक्त आचार का परित्याग न करना, सदाचारी सत्पुरूषों का संग करना और सदाचार में दृढ़ता से स्थित रहना - इसको ‘शौच’कहते हैं। 
युधिष्ठिर की परम बुद्धिमत्ता तथा सदाचार में दृढ़ता से स्थित रहने और शास्त्रोक्त आचार का परित्याग ना करने का एक बहुत बड़ा साक्ष्य हम महाभारत के भीष्म पर्व में 43वें अध्याय में पाते हैं, जब गीता की धर्मविवेचना के उपरांत अर्जुन धनुष बाण धारण कर रथारूढ़ होकर सिंहनाद करते हैं और दोनों ओर से शंख, भेरियां, पेश्य वाद्य, क्रकच और नरसिंघा बज उठते हैं और चारों ओर महान शब्द गूंजने लगता है, उसके बाद महाराज युधिष्ठिर अपने कवच खोलकर और अपने आयुधों को रथ में नीचे डालकर रथ से उतरकर पैदल ही हाथ जोड़े पितामह भीष्म की ओर चल पड़ते हैं। सभी पाण्डव और स्वयं योगेश्वर कृष्ण उनके पीछे-पीछे जाते हैं। भाई लोग प्रश्न करते हैं कि आप इस प्रकार शत्रु सेना की ओर क्यों जा रहे हैं परंतु वे उन्हें उत्तर ना देकर चुपचाप चलते जाते हैं और भगवान कृष्ण हंसते हैं कि वे क्यों जा रहे हैं यह मुझे ज्ञात है, वे पितामह भीष्म और आचार्यों से तथा मामाजी से आज्ञा लेकर शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे क्योंकि यही प्राचीन परंपरा है और ऐसा ना करने वाला माननीय लोगों की दृष्टि में गिर जाता है। जबकि इस विषय में भी शास्त्र की आज्ञा मानने वाले योद्धा की विजय अवश्य होती है। 
सभी कौरव चकित होकर युधिष्ठिर को ताकते रहते हैं और कई लोग उन्हें कायर मानकर उन्हें कुलकलंक आदि भी कहते हैं, परंतु वे सीधे पितामह भीष्म के सामने जाकर दोनों हाथों से उनके चरण दबाते हैं। फिर हाथ जोडक़र उनसे उनके ही साथ युद्ध की आज्ञा मांगते हैं और विजय का आशीर्वाद मांगते हैं। पितामह भीष्म कहते हैं कि हे पृथ्वीपति, भरतकुलनंदन महाराज, यदि तुम युद्ध के समय इस प्रकार मेरे पास नहीं आते तो मैं तुम्हें पराजित होने का शाप देता, परंतु अब मैं प्रसन्न हूँ, आज्ञा देता हूँ और विजय का आशीर्वाद देता हूँ। युधिष्ठिर हाथ जोडक़र कहते हैं कि हे महाबाहु, आप सदा मेरे हितैषाी रहे हैं और कौरवों के लिये युद्ध करें, मुझे सही सलाह देते रहें। इसके उपरांत वे पितामह द्वारा और आग्रह करने पर सीधे उनकी पराजय का उपाय पूछ लेते हैं। जब पितामह कहते हैं कि मैं अपराजेय हूँ तो वे उनसे शत्रुओं द्वारा मारे जाने का उपाय ही पूछ लेते हैं। जो पितामह उस समय नहीं बताते। बाद में बताने कहते हैं। 
इसी प्रकार युधिष्ठिर आचार्य द्रोण के पास जाते उन्हें प्रणाम कर उन गुरूदेव की देवता रूप में परिक्रमा करते हैं और तब उनसे अपने हित की बात पूछते हैं। द्रोणाचार्य भी वही कहते हैं कि यदि तुम युद्ध का निश्चय करने के बाद, मेरे पास नहीं आते तो मैं निश्चय ही पराजय का शाप देता। परंतु अब तुमने मेरा आदर किया है, मेरी पूजा की है अत: मैं संतुष्ट हूं और आज्ञा देता हूँ कि तुम लड़ो और विजय प्राप्त करो। युधिष्ठिर उनसे भी अंत में उनके वध का उपाय पूछ लेते हैं और वे बता भी देते हैं। इसी प्रकार वे आचार्य कृप के पास जाते हैं और उनकी भी हाथ जोडक़र परिक्रमा करते हैं तथा युद्ध की अनुमति और विजय का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और आगे कुछ बोल नहीं पाते तो कृपाचार्य स्वयं बताते हैं कि राजन, मैं अवध्य हूँ जाओ, युद्ध करो और विजय प्राप्त करो, मैं शुभकामना करता हूँ। 
अपने मामा शल्य का भी वे इसी प्रकार सम्मान करते हैं और उनसे भी विजय का आशीर्वाद मांगते हैं। जब वे विजय का आशीर्वाद देकर और अपेक्षित सहयोग के विषय में पूछते हैं तो युधिष्ठिर यह मांगते हैं कि जब कर्ण का अर्जुन से युद्ध हो, उस समय आप कर्ण का उत्साह ना बढ़ायें अपितु उसका तेजोवध करें। मामा यह आशीर्वाद दे देते हैं।
इस प्रकार संग्राम के प्रारंभ में ही स्थिर और संतुलित बुद्धि से तथा जाग्रत विवेकपूर्वक वे इतने महत्वपूर्ण कार्य संपादित करते हैं जो और किसी को उस समय सूझता ही नहीं। इस तरह शास्त्र विधि में सदा सजग रहकर संलग्न रहना और तदनुकूल आचरण में दृढ़ रहना ही सदाचार और शौचाचार है। जिसमें युधिष्ठिर सबसे आगे हैं। इस तरह हमें इन दिनों सामान्य अर्थ में प्रचलित महत्वपूर्ण शब्दों के गंभीर अर्थ महाभारत को पढऩे से ज्ञात होते हैं। 
इसी प्रकार नकुल और सहदेव की गुरूशुश्रुषा, क्षमाशीलता और विनय से प्रजा प्रसन्न रहती है, यह बात आदिपर्व के प्रथम अध्याय में कही गई है। गीताप्रेस गोरखपुर के संस्करण में पादटिप्पणी में बताया गया है कि सद्वृत्त की अनुवृत्ति ही ‘शुश्रुषा’है। किसी के द्वारा अपराध हो जाये तो भी उसके प्रति चित्त में विकार का ना होना अर्थात् चित्त का शांत और स्वस्थ रहना ही क्षमाशीलता है। स्पष्ट है कि किये गये अपराध के लिये वांछित न्यूनतम दंड तो देना ही होगा। क्योंकि न्याय के लिये यह आवश्यक है। परंतु दंड देते समय चित्त का शांत और स्वस्थ रहना ही क्षमाशीलता है। स्पष्ट है कि इन दिनों जो दुर्दान्त अपराधियों और आतंकवादियों को राष्ट्रपति के द्वारा दंडमुक्त कर दिया जाता है, वह हमारे शास्त्रों की दृष्टि में क्षमाशीलता नहीं है। वह तो ईसाई राजनीति का विमूढ़ अनुकरण मात्र है। क्षमाशीलता का शास्त्रीय अर्थ इससे नितान्त भिन्न है और उसी अर्थ में नकुल और सहदेव क्षमाशील हैं। इसी प्रकार जितेन्द्रिय रहना और उद्धत नहीं होना ही विनय है। किसी नरम व्यवहार या नरमी दिखाने वाले बाहरी व्यवहार के दिखावे को शास्त्रों में विनय नहीं कहा गया है। इस अध्याय में इस प्रसंग में अर्जुन के विम से समस्त प्रजा को प्रसन्न होते कहा गया है। विक्रम का अर्थ पादटिप्पणी में बताया गया है कि सबसे बढक़र सामथ्र्य का होना ही विक्रम है। इन सब गुणों का वर्णन करने वाला श्लोक भी वहीं पर उद्धत है। 
इस प्रकार अपने महान वीरों और महापुरूषों के गुणों का सही-सही स्मरण, चिंतन और मनन ही कर्तव्य है। इन दिनों हमारे महापुरूषों और इतिहास की महान घटनाओं के विषय में जिस प्रकार हल्के भावों के साथ सामान्य विशेषणों का प्रयोग कर दिया जाता है अथवा उनका हल्का चित्रण किया जाता है, वह  सर्वथा दोषपूर्ण है। इस दोष की पराकाष्ठा हमें समकालीन लेखन में धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन का चित्रण हल्के ढंग से किये जाने में दिखती है। धृतराष्ट्र को पुत्रमोह में आसक्त कोई सामान्य राजा, युधिष्ठिर को सामान्य धर्मभीरू, भीम को उद्धत पहलवान और अर्जुन को महाभारत युद्ध से डर जाने वाला व्यक्ति बताना भयंकर दोष है। यह प्रज्ञापराध है। इसी प्रज्ञापराध वाली बुद्धि से महाभारत को मात्र दो भाईयों की आपसी लड़ाई की तरह देखा और बताया जाता है और अर्जुन को अपने परिजनों की हत्या होने से डर गया व्यक्ति बताया जाता है। यह इन घटनाओं और इन महापुरूषों की विराटता को ना देख पाने की बौद्धिक दीनता का लक्षण है। जबकि इन्हें सम्यक रूप से देखने पर चित्त की गहराई और विराटता का, उत्साह और सत्यनिष्ठा का तथा बुद्धिमत्ता का उन्मेष होता है।