ज्ञान से रहित भावना को ‘भक्ति’ नहीं कहते
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प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
ज्ञान-रहित भावना मन का उल्लास है, मन की तरंग है। वह भावक को सुख और उत्साह से भरती है। परंतु उसे भक्ति नहीं कह सकते। उसके वे परिणाम नहीं प्राप्त होंगे, जो भक्ति के होते हैं। ऐसा कोई ज्ञानी आज तक नहीं हुआ, जो भक्त न हो। ऐसा कोई बड़ा भक्त आज तक नहीं हुआ, जो ज्ञानी न हो। |
ईश्वर-भक्ति हो या राष्ट्र भक्ति, दोनों के लिए ज्ञान अनिवार्य है। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर की महिमा और गुणों का ज्ञान आवश्यक है। राष्ट्र-भक्ति के लिए राष्ट्र की महिमा और उसके गुणों, विशेषताओं, इतिहास, प्रकृति और स्वरूप का ज्ञान आवश्यक है।
ज्ञान-रहित भावना मन का उल्लास है, मन की तरंग है। वह भावक को सुख और उत्साह से भरती है। परंतु उसे भक्ति नहीं कह सकते। उसके वे परिणाम नहीं प्राप्त होंगे, जो भक्ति के होते हैं। ऐसा कोई ज्ञानी आज तक नहीं हुआ, जो भक्त न हो। ऐसा कोई बड़ा भक्त आज तक नहीं हुआ, जो ज्ञानी न हो। शंकराचार्य ज्ञानी के रूप में प्रसिद्ध हैं परंतु उनसे बड़ा भक्त भी कौन है। आज भी सनातन धर्म के मंदिरों में उनके भक्ति-भाव भरे श्लोक गाए जाते हैं। भगवान विष्णु, शिव, माता दुर्गा, माता लक्ष्मी, नरसिंह भगवान की स्तुतियाँ तो प्रसिद्ध ही हैं, गंगा मैया की भी सबसे भावमय स्तुति उन्होंने ही की है। उनके अन्नपूर्णा स्त्रोतं का नित्य गायन देश भर में होता है।
स्वामी दयानन्द की छवि तो शुष्क ज्ञानी की है। परम तेजस्वी, तर्क-सम्पन्न, प्रज्ञावान। वे भी ईश्वर के बड़े भक्त थे। उनकी भक्ति असंदिग्ध है।
गोपियाँ ज्ञानी भी थीं
ब्रज की गोपियों का प्रेम और भक्ति ही प्रसिद्ध है। उद्धव जब उन्हें ज्ञान देने लगे तो उन्होंने कहा- ‘निर्गुण कौन देश को बासी। को है मात, पिता को कहिमत, कौन दास, को दासी।’ उद्धव थोड़ी देर से समझे कि ये हंसी-हंसी में कितना ज्ञान व्यक्त कर रही हैं। नारद-भक्ति सूत्र में कहा है- ‘भक्ति परम प्रेम रूपा है। यथा ब्रज गोपिकानां’ जैसे ब्रज की गोपिकाएं परम पे्रम करती थीं श्रीकृष्ण से। परन्तु अगला ही सूत्र है- ‘न तत्रापि माहात्म्य-ज्ञान-विस्मृति-अपवाद:।’ अर्थात वे भी भगवान के माहात्म्य ज्ञान से सम्पन्न हैं। उन्हें कभी भी भगवान का महात्म्य विस्मृत नहीं होता। वे भी प्रेम और ज्ञान के समन्वय की अपवाद नहीं हैं। नियम ही है। उन्हें श्रीकृष्णा के माहात्म्य का पूरा ज्ञान है। वे किसी सामान्य किशोर पर अनुरक्त नहीं हैं। देह के रूप, गुण पर मुग्ध नहीं हैं। वे उनके भागवत-ऐश्वर्य, परम ज्ञानमय सम्पन्न शक्ति को जानती हैं। उन्हें सर्वज्ञ, सर्वगुणोपेत, सर्वतेजोमय, सर्वव्यापी सत्ता की ही अवतारी अभिव्यक्ति जानकर प्रेम करती हैं। इसी से वे भक्ति का मूर्तिमत स्वरूप हैं। श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंद में 31वें अध्याय में वे कहती हैं- हे परम प्रिय कृष्ण, आप केवल यशोदानन्दन और गोपिकानंदन नहीं हैं-
‘न खलु गोपिकानन्दनो भवान्
अखिल देहिनाम् अन्तरात्म-दृक।’
‘आप तो समस्त प्राणियों की अन्तरात्मा हैं।’ इससे स्पष्ट है कि ज्ञानपूर्वक ही भक्ति होती है। नारद- भक्तिसूत्र का अगला ही सूत्र है- ‘तद् विहीनं जाराणाम् इव।’ अर्थात भगवान के माहात्म्य ज्ञान से रहित जो उनसे प्रेम है, वह उस प्रकार का है जैसे कोई कुलटा स्त्री पति से प्रेम दिखाते हुए किसी अन्य से भी वैसा ही प्रेम दिखाए, अर्थात वह व्यभिचार है, प्रेम नहीं।
इस प्रकार के ज्ञान से रहित भाव मात्र प्रेम नहीं है। वह मात्र मन की तरंग है। सात्विक तरंग है जो चित्त में सात्विक उल्लास देती है। वह भावना उत्कट हो, तीव्र हो, सच्ची हो तो परमगुरु परमेश्वर स्वयं ऐसे भावकों को ज्ञान की दिशा दिखा देंगे। परन्तु वह भाव भक्ति तभी कहलाएगा, जब उसमें भगवान की महिमा का ज्ञान होगा। अन्यथा वह भाव की माया में भटकता रहेगा।
नारद जी कहते हैं- ‘क: तरति, क: तरति मायां? य: संगस्त्यजति, महानुभावं सेवते निर्ममो भवति।’ माया से वही तरता है जो मात्र भावुक आसक्ति नहीं रखता अपितु जो ज्ञानियों का सेवन करता है और निर्मम होता है, यानी अन्य विषयों में ममता नहीं रखता।
राष्ट्रभक्त वही है, जो राष्ट्र की महानता जानता है
जो बातें ईश्वर भक्ति के लिए सत्य हैं, वे ही नियम राष्ट्रभक्ति पर लागू होते हैं। राष्ट्र की महिमा का ज्ञान आवश्यक है। उसका इतिहास, उसके वैभव, उसके बड़प्पन, उसकी विराटता का ज्ञान होने पर ही राष्ट्रभक्ति कही जाएगी। किसी नेता का भाषण सुनकर या चारों ओर राष्ट्र की चर्चा और नारेबाजी सुनकर जो भाव जगता है, वह आरम्भ बिन्दू है, परन्तु फिर भारत की महिमा, भारत का सच्चा इतिहास, उसकी विशेषताएं, उसका वैभव, उसके गुण, उसकी धर्म-साधना का सतत् प्रवाह इन सबका ज्ञान आवश्यक है। तभी राष्ट्रभक्ति होगी, अन्यथा वह एक भावुक मतवाद होगा। उसमें आप राष्ट्र के सनातन आधारों पर आघात करते हुए भी स्वयं को राष्ट्रवादी मानते रहेंगे। यही माया है, भटकन है।
भटकाव भरे राष्ट्रवाद के दृष्टान्त
राहुल सांस्कृत्यायन नाम से एक प्रसिद्ध कम्युनिस्ट लेखक थे। वे स्वयं को भारत राष्ट्र का सेवक कहते थे। १९६२ ई० में उन्होंने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से और माओ जे दुंग से प्रार्थना की कि आप भारत के वर्तमान शासन को उखाड़ फेंको, हम सब जयमाला लेकर आपका स्वागत करेंगे। इसी उत्साह में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा- ‘आज मैंने बड़ा सुन्दर स्वप्र देखा। मैंने देखा कि चीनी वायुयान दिल्ली के अंतरिक्ष में मंडरा रहे हैं और ध्वनि-प्रसारक यंत्र से उद्घोषणा कर रहे हैं कि भारत के क्रांतिकारी भाई-बहनों, हम आपके मित्र हैं, आपका कल्याण करने आए हैं। नीचे दिल्ली केलाखों लोग फूल-मालाएँ लिए उनके स्वागत को तैयार खड़े हैं।’ यह राष्ट्रवाद वस्तुत: राष्ट्र द्रोह का पर्याय है।
इसी प्रकार एक अन्य कम्युनिस्ट हुए डॉ. रामविलास शर्मा। उन्होंने आर्य-आक्रमण की गप्प का बहुत व्यवस्थित खण्डन किया। वे निश्चय ही देश से प्रेम करते थे पर जब सोवियत संघ की सेनाओं ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया तो उनका स्वागत करते हुए उन्होंने लिखा कि इसी प्रकार का सैनिक हस्तक्षेप सोवियत सेनाओं को भारत में भी करना चाहिए और यहाँ की कांग्रेस सरकार को सत्ता से बलपूर्वक हटाकर कम्युनिस्ट शासन स्थापित करना चाहिए। यह स्पष्ट राष्ट्रघाती विचार है, पर वे इसे राष्ट्रप्रेम मान रहे थे।
भारत को गुलाम बताना अज्ञान है
इन दिनों अन्य कई समूह राष्ट्र से इसी प्रकार का प्रेम करते हैं। वे बिना सच्चा इतिहास जाने भारत को १००० वर्षों तक मुस्लिम शासन के अधीन और २०० वर्षों तक ब्रिटिश शासन के अधीन रहा मानकर हिन्दु समाज को नपुंसक, बुराइयों से भरपूर बताकर धिक्कारते रहते हैं, यही उनका राष्ट्रवाद है जो उनके नेता के भाषणों से उपजा है, भारत के ज्ञान से इसका काई भी सम्बंध नहीं है।
सत्य यह है कि इस्लाम का शासन भारत के किसी भी हिस्से में एक दिन नहीं रहा। उसका प्रयास अवश्य होता रहा है। मुस्लिम शासन उसे कहते हैं, जिसमें राजा, सेनापति, खजांची सहित सभी महत्वपूर्ण पद मुसलमानों के पास हों। ऐसा भारत में कभी कहीं नहीं था। हर मुस्लिम राजा के सेनापति, खजांची तथा अन्य अधिकारी हिन्दू होते थे। अत: वह हिन्दू-मुस्लिम साझा शासन कहलाएगा, मुस्लिम शासन नहीं। कुछ उग्रवादी गिरोह इस्लाम की आड़ लेकर मंदिर तोड़ देते थे तो हिन्दू लोग पुन: मंदिर बना लेते थे। अकबर के शासन में सैकड़ों छोटे-बड़े मंदिर बने।
दिल्ली से आगरा तक ही थी मुगलिया जागीर
दूसरी ओर जिसे भारत में मुगल शासन कहते हैं, वह दिल्ली से आगरा-फतेहपुर सीकरी तक फैली जागीर थी। शेष भारत के विशाल हिस्से में हिन्दू राजा थे जो मुगल क्षेत्र से लगभग २५ गुना बड़ा क्षेत्र था। राजा मानसिंह, महाराजा जसवंत सिंह आदि प्रसिद्ध सेनापति अकबर के थे। टोडरमल उनके कोषाध्यक्ष व भूमि प्रबंधन के अधिकारी थे। श्रेष्ठ हिन्दू कलाकार, संगीतज्ञ वहाँ सम्मान पाते थे। प्रख्यात जैन कवियों ने अकबर की कीर्ति में महाकाव्य रचे हैं। जो संगीत और चित्रकला इस्लाम में वर्जित है, उसको भरपूर संरक्षण अकबर ने दिया।
अकबर कभी भी हज करने नहीं गया, जो हर सच्चे मुसलमान के लिए अनिवार्य है। यहाँ तक कि औरंगजेब की सेना के भी मुख्य सेनापति जोधपुर नरेश थे और राजा उदय प्रताप ने छत्रपति शिवाजी से औरंगजेब के पक्ष में युद्ध किया था। महाराणा प्रताप से छत्रपति शिवाजी महाराज तक हिन्दू से मुसलमान राजाओं ने जो भी युद्ध किए, उनमें हिन्दू सेनापति, मुस्लिम राजा की ओर से भी थे। अत: इसे हिन्दू-मुस्लिम युद्ध नहीं कहा जा सकता।
स्वतंत्र हिन्दू राजाओं को गुलाम बताना अपराध है
अकबर की जागीर से बहुत बड़े क्षेत्र में राजपूतों के राज्य थे। जाटों, गूजरों, अहीरों और गोंडों की स्वतंत्र जागीरें थी। बुंदेलों का राज्य था। दक्षिण में बहुत बड़े-बड़े हिन्दू राज्य थे यादवों, पाण्ड्यों, चोलों, आन्ध्रों आदि के। विजयनगर साम्राज्य था। उड़ीसा में खंडाइतों का बड़ा राज्य था। असम में अहोमों का, नगा, मिजो, मैती, खासी, संथाल, भील, खैरवारों के स्वतंत्र राज्य थे। सबको गुलाम बताना अपराध है।
जब से औरंगजेब ने शिवाजी के साथ छल और वचन भंग किया, राजपूतों ने उससे दूरी बना ली। तो जाटों ने उस पर आक्रमण तेज कर दिए। जाटों के डर से औरंगजेब भागा-भागा २६ वर्षों तक दक्षिण में भटकता रहा और वहीं मर गया। उसके बाद से भारत में मराठों, राजपूतों, आन्ध्रों, चेरों, यादवों के राज्य रहे। कैसा मुस्लिम राज्य? औरंगजेब भी कभी हज करने नहीं गया। वस्तुत: कोई भी मुस्लिम राजा पक्का मजहबी नहीं था। ये सुविधा अनुसार लूटपाट, नृशंसता और छल के लिए इस्लाम की आड़ ले लेते थे तथा शेष समय हिन्दुओं से घुले-मिले रहते थे। उनके काल को मुस्लिम काल कहकर पहली बार इलियट एवं डाउसन ने 19वीं शती ईस्वी में प्रचारित किया।
इंग्लैंड का सच
जहाँ तक अंगे्रजों की बात है, पहले इंग्लैंड के सबसे कमजोर लोगों को कम्पनी ने कर्मचारी की आड़ में छिनैती-डकैती करने भेजा। क्लाइव आदि इंग्लैंड के बेरोजगार छोकरे थे। जीने-खाने के लिए कम्पनी की सेवा में आए इन लोगों के मन में लूट, ठगी, हत्या, विश्वासघात, छल करने में कोई झिझक नहीं थी क्योंकि उन दिनों इंग्लैंड का समाज इसी प्रकार का था और ये उसमें निचले तबके के लोग थे।
कुल 90 वर्ष रहा ब्रिटिश शासन
इन कम्पनी कर्मचारी अंगे्रजों की पत्नियां और बहनें भी भारत में वेश्यावृत्ति करती थीं धन के लिए, यह स्वयं इंग्लैंड में छपी अनेक पुस्तकों में लिखा है। कुछ नवाब तथा धनी इन गोरी वैश्याओं को शौक से पालते थे। इन्हीं से जासूसी कराकर कम्पनी के लोगों ने भारतीय राजाओं को आपस में लड़वाया। जब १८५७ में कम्पनी को मार भगाने को भारतीय राजा-रानी महारानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में संगठित हुए तो कतिपय अन्य राजाओं ने इंग्लैंड जाकर वहाँ की रानी से संधि कर ली और भारतीय राजाओं को हटाने में रानी की मदद की। यह बात स्वयं रानी विक्टोरिया ने १ नवंबर 1958 की सार्वजनिक घोषणा करते हुए बताई और अपने भतीजे कर्जन को भारत में ब्रिटिश वायसराय नियुक्त किया। स्वयं रानी ने कहा कि आज १ नवंबर 1857 से कम्पनी के प्रमुख क्षेत्र में पहली बार ब्रिटिश राज्य स्थापित हो रहा है और भारत के राजाओं-रानियों से हमारी इस पर संधि है। इस प्रकार स्वयं रानी विक्टोरिया के अनुसार कुल 90 वर्षों तक भारतीयों के सहयोग से आधे भारत में इंग्लैंड का शासन रहा। इसे 200 वर्षों तक सम्पूर्ण भारत में ब्रिटिश शासन बताना असत्य की पराकाष्ठा है। पर राष्ट्रवाद के नाम पर यह झूठ अनेक भारतीय नेता बोलते हैं। ऐसा झूठा कथन राष्ट्रभक्ति का द्योतक नहीं है।
ज्ञान रहित राष्ट्रवाद के खतरे
भारत के इतिहास के विषय में जब झूठ गढ़ा जाएगा तो वर्तमान का विश्लेषण भी झूठा ही होगा। उस झूठ के आधार पर राष्ट्र के लिए बनाई गई नीतियां भी राष्ट्र का अहित करेंगी। इसलिए ज्ञानरहित राष्ट्रवाद, राष्ट्रभक्ति नहीं है। वह मन की तरंग है, उसमें राष्ट्र का अहित है।
स्वयं अंग्रेजों ने १९वीं शती ईस्वी के पूर्वार्ध में आधे से अधिक भारत का सर्वेक्षण किया। उनकी रिपोर्टों का सार स्वयं प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी सार्वजनिक रूप में दो वर्ष पूर्व प्रसारित कर चुके हैं। तदानुसार भारत के प्रत्येक गांव में एक पाठशाला थी। कस्बों एवं शहरों में अधिक पाठशालाएँ जनसंख्या के अनुसार होती थी। इनमें हर एक जाति के बच्चे पढ़ते थे और शिक्षक भी सभी जातियों के होते थे। जब यह एक अधिकृत रिपोर्ट है तो कुछ जातियों को शिक्षा से वंचित रखने की बात कितनी अधिक झूठी है। ब्रिटिश शासन के ९० वर्षों में जो गरीबी बढ़ी, विषमता बढ़ी, कंगाली बढ़ी, उसमें सभी जातियों को बहुत कष्ट उठाना पड़ा। अब इस सत्य को छुपाकर राष्ट्रीय नीतियाँ बनाना राजनैतिक मतवाद तो है, किंतु राष्ट्रभक्ति नहीं।
इतिहास के अज्ञान से उपजी नीतियाँ सत्य पर आधारित नहीं हैं। कुछ तो ऐसे उत्साही राष्ट्रवादी युवक विगत वर्षों में हुए हैं जो अंग्रेजों का राज सैकड़ों साल का बताते हैं और मुसलमानों का हजारों वर्ष। इन कार्टून लोगों में राष्ट्र के प्रति भावना तीव्र है पर ज्ञान के अभाव में वे राष्ट्रभक्त नहीं हैं। उल्टे, राष्ट्र के लिए उनके झूठे प्रचार घातक हैं।
मिथ्या राष्ट्रवाद से क्षति
झूठ और प्रचार के आधार पर राष्ट्र को देखना राष्ट्रवाद कहा जाता है परंतु वह राष्ट्रभक्ति का अभाव है। कुछ लोगों में यह राष्ट्रवादी उत्साह इतना अधिक है कि वे कहते हैं कि भारत अभी भी अंग्रेेजों का गुलाम है। वे इसके लिए ‘इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट 1946-47’ का हवाला देते हैं। सत्य यह है कि कांग्रेस के नेता इस विषय में अधिक बुद्धिमान थे। संविधान लागू होने के साथ ही स्वयं संविधान में यह अंकित है कि आज से ‘इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट 1947’ ‘रिपील’ किया जाता है, जिसका अर्थ है कि ‘कालबाह्य एवं अप्रासंगिक हो जाने से अब वह रद्द किया जाता है।’ इस प्रकार ‘इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट 1947’ अधिकृत रूप से विधिक स्तर पर रद्द किया जा चुका है। इस ज्ञान से शून्य लोग भारत को अभी भी ब्रिटिश गुलाम बताने का प्रज्ञापराध करते रहते हैं।
भारत के विषय में तथा हिन्दु समाज के विषय में इसी प्रकार की सैकड़ों अज्ञानमूलक बातें विगत ७७ वर्षों में रची और फैलाई गई हैं। अनेक राष्ट्रवादी इन झूठे प्रोपेगेंडा की चपेट में हैं और उनसे प्रभावित हैं। वे भारत के गौरवशाली इतिहास, अभूतपूर्व न्याय व्यवस्था, अद्वितीय विद्या परम्परा एवं वीरता की भव्य परम्परा से अपरिचित हैं। इसलिए वे राष्ट्र के विषय में नितांत गलत विचार एवं धारणाएं, राष्ट्रवादी उत्साह में व्यक्त करते रहते हैं। यह उत्साह मन की तरंग है। इसे राष्ट्रभक्ति नहीं कहा जा सकता। ज्ञानपूर्वक ही राष्ट्रभक्ति सम्भव है। ज्ञान से रहित भावना भक्ति नहीं होती। वह मन की तरंग होती है।
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