किशोरावस्था: संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण अवस्था
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डॉ. वैशाली गौड़ विभागाध्यक्षा (सह-प्राध्यापिका)
मनोविज्ञान विभाग, पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार
‘अन्नदानं परं दानं विद्यादानमत: परम्।
अन्नेन क्षणिकातृप्ति: यावज्जीवं च विद्यया॥’
भोजन का प्रसाद महान है; शिक्षा की पेशकश और भी अधिक है। जबकि भोजन केवल क्षणिक रूप से तृप्त करता है, शिक्षा जीवन भर तृप्त करती है।’
शिक्षा एक ऐसी अनमोल धरोहर है जिसका अधिगम, धारणा और दान करने से श्रेष्ठ व्यक्तित्व का विकास होता है। भारतीय ज्ञान परंपरा पर आधारित शिक्षा को ग्रहण करने से सेवा एवं परोपकार के भाव में वृद्धि होती है। यद्यपि, शिक्षा जीवन के विकास की प्रत्येक आयु अवस्था के लिए नितांत आवश्यक है फिर भी किशोरावस्था में शिक्षा का महत्व अति आवश्यक होता है। किशोरावस्था व्यक्तित्व के विकास की एक ऐसी अवस्था है जिसमें शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन तीव्र गति से होते हैं और इन परिवर्तनों का प्रभाव व्यक्ति के ज्ञानात्मक, भावनात्मक एवं क्रियात्मक व्यवहार पर पड़ता है। भौतिकवादी युग में आज का युवक अप्रत्यक्ष संवेगात्मक संबंधों के माध्यम से अपना जीवन यापन कर रहा है। जिसका नकारात्मक प्रभाव उनके व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है। किशोरावस्था में नई-नई उमंगे-तरंगे जन्म लेती हैं व जिज्ञासु प्रवृत्ति अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाती है। इस अवस्था में आत्म-स्वरूप की पहचान एवं स्वतंत्रता के भाव को लेकर व्यक्ति के मन में विभिन्न प्रकार के प्रश्न जन्म लेते हैं। अत: इस अवस्था में सम्यक दृष्टि, सम्यक् चिंतन एवं कुशल मार्गदर्शन की नितांत आवश्यकता होती है।
क्या केवल शिक्षा ग्रहण करने से श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण सम्भव है? नहीं, यहाँ यह बात बहुत अधिक महत्वपूर्ण है कि शिक्षा का यथार्थ स्वरूप कैसा होना चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे बुद्धि का प्रशिक्षण, हृदय का शोधन, विवेक का विकास और आत्मा- अनुशासन का समावेश हो।
‘येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म: ।
ते मत्र्यलोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥ ’
‘चाणक्य नीति के इस श्लोक में कहा गया है कि जिन लोगों के पास विद्या, तपस्या, दान, ज्ञान, शील, गुण, और धर्म नहीं होते, वे मनुष्य लोक एवं पृथ्वी पर भार-स्वरूप होते हैं और मानव स्वरूप में मृग की की भाँति जीवन को व्यतीत करते हैं। इस श्लोक के अनुसार मनुष्य जीवन का मूल्यांकन विद्या, तप, दान, शील, धर्मं आदि दिव्य गुणों के आधार पर होना चाहिए। सिर्फ मनुष्य देह प्राप्त कर लेना ही पर्याप्त नही है।’
भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति एवं महान दार्शनिक ‘डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी’ ने अपनी ओजस्वी वाणी से सम्पूर्ण विश्व को अवगत कराया है कि संपूर्ण विश्व एक पाठशाला है और शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। किशोरावस्था में प्रदान की जाने वाली शिक्षा, मन की निर्भरता, अंतरात्मा की शक्ति और उद्देश्य की अखंडता आदि के विकास को प्रोत्साहित करने वाली होनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार किशोरावस्था बचपन और वयस्कता के बीच की अवस्था है, जिसकी आयु सीमा 10 से 19 वर्ष के मध्य होती है। यह मानवीय विकास की अनोखी, संवेदनशील और जटिल अवस्था है। इस अवस्था में बालक एवं बालिकाओं को अतिरिक्त सहायता, अतिरिक्त समय, कुशल मार्गदर्शन एवं परामर्श की आवश्यकता होती है। इस अवस्था में माता-पिता एवं गुरुजनों का महत्व सर्वाधिक होता है। माता-पिता एवं गुरुजनों के द्वारा नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा के माध्यम से बालक एवं बालिकाओं के मन और शरीर को सम एवं दिव्य स्थिति में लाया जा सकता है। यह अति महत्वपूर्ण अवस्था आदर्श व्यक्तित्व एवं सफल जीवन की आधारशिला है।
वास्तविक साक्ष्य और अनुसंधान द्वारा प्राप्त परिणामों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि किशोरावस्था के समय आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करने से स्वस्थ आत्म-छवि का निर्माण होता है, परिवर्तन और चुनौतीपूर्ण जीवन की घटनाओं एवं परिस्थितियों का समाधान करने की कुशल क्षमता विकसित होती है, शैक्षणिक निपुणता एवं मनोवैज्ञानिक कल्याण की भावनाओं का विकास होता है।
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