योग एवं आयुर्वेद

स्वास्थ्य की अनूठी भारतीय शैली

योग एवं आयुर्वेद

वंदना बरनवाल
राज्य प्रभारी-महिला पतंजलि योग समिति, उ.प्र.(मध्य)

   हम सभी के जीवन को बहुत से कारक प्रभावित करते हैं। हम किस संस्कृति में पले-बढ़े हैं, वह हमारे जीवन को प्रभावित करने वाला बहुत महत्वपूर्ण कारक होता है। प्राय: हम सभ्यता और संस्कृति में भ्रमित होते हैं। संस्कृति एक व्यापक क्षेत्र है और सभ्यता तो संस्कृति का ही एक अंग है। अगर हमारी भौतिक प्रगति सभ्यता से होती है तो मानसिक प्रगति संस्कृति में दिखलाई देती है। संस्कृति एक ऐसा व्यापक क्षेत्र है जिसमें हमारा जीवन जीने का तरीका अहम भूमिका निभाता है। इसी क्रम में जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो इसमें जो तत्व सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक बनकर उभरता है, वह है सनातन मूल्य। इस सनातन मूल्य में हमारा पहनावा, खान-पान, भाषा, व्यवहार ही नहीं बल्कि जीवन से लेकर मृत्यु तक हमारी पूरी जीवन शैली शामिल है और इसी में शामिल है योग और आयुर्वेद पर आधारित स्वास्थ्य की अनूठी और अद्भुत भारतीय शैली। भारत की इस संस्कृति पर ना जाने कितनी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं जिसकी बदौलत प्रकृति और मनुष्य की दोस्ती आज भी बनी हुई है। ऐसे में जब इसी संस्कृति के विज्ञान सम्मत ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए किसी विज्ञापन को कानून के फ्रेम में फिट किया जाता है तो उसका अर्थ यही निकलता है कि सनातन मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए अभी और भी प्रयास की आवश्यकता है।
आयुर्वेद दवाओं का संग्रह मात्र नहीं 
हम सभी जानते हैं कि आयुर्वेद हजारों वर्षों से प्रचलित एक चिकित्सा विज्ञान है पर इसे केवल दवाओं का संग्रह मान लेना ज्ञान की अशुद्धता और अपूर्णता को प्रदर्शित करता है। क्योंकि आयुर्वेद तो जीवन जीने का एक तरीका है। जीवन के इस तरीके में चिकित्सा के संग अत्यंत प्राकृतिक रूप से सामाजिक और सांस्कृतिक का सम्मिश्रण भी है। आयुर्वेद न सिर्फ भारत के पारंपरिक ज्ञान का एक जीवित भंडार है जो हर भारतीय के जन्म के साथ ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकसित, कायम और हस्तांतरित होता चला आ रहा बल्कि यह हमारे देश की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान का अटूट हिस्सा भी है। आयुर्वेद का पारंपरिक ज्ञान वास्तव में वह ज्ञान है जिसकी जड़ें प्राचीन हैं और जो अक्सर अनौपचारिक और मौखिक ही रहा है। एक ऐसा ज्ञान जो भारत में कभी भी पारंपरिक बौद्धिक संपदा संरक्षण प्रणालियों द्वारा संरक्षित नहीं हुआ। बचपन से दादी-नानी के नुस्खे की बदौलत कब हम सब बड़े हो गये, पता ही नहीं चला। ना कोई अंग्रेजी दवा ना कोई चुभती हुई सुई, अनेकों बीमारियों में रसोई में प्रयोग किये जाने वाले हल्दी, काली मिर्च, मेथी, धनिया, जीरा, सौंफ, हींग, दालचीनी, अजवाइन जैसे मसाले और नीम एवं तुलसी की पत्तियां ही कमाल कर देते थे। पर विडंबना देखिये कि उसी हल्दी और नीम को पेटेंट की कैद से छुड़ाने के लिए भारत ने दशक भर से ज्यादा समय तक लड़ाई लड़ी। क्या आप जानते हैं कि एक बारगी अमेरिका ने तो यह मानने से इनकार ही कर दिया था कि हल्दी भारतीय है। वित्तीय वजहों से नहीं बल्कि देश के गौरव के लिए और भारत के पारंपरिक ज्ञान को सहेजने के लिए हल्दी के लिए लड़ाई लडऩी पड़ी।
स्वास्थ्य का विज्ञान है आयुर्वेद 
आयुर्वेद दुनिया की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति में से एक है जिसका अर्थ ही है ‘जीवन का विज्ञान' और ‘जीवन का ज्ञान’। आयुर्वेदिक चिकित्सा का मुख्य लक्ष्य अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देना और बीमारी को रोकना है, लडऩा नहीं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि यह रोग प्रबंधन नहीं बल्कि स्वास्थ्य प्रबंधन की पद्धति है और शायद इसीलिए इस चिकित्सा पद्धति को व्यापक विस्तार मिलना अब भी शेष है। दूसरी तरफ आयुर्वेद के करीब दो हजार वर्ष बाद प्रचलन में आई एलोपैथी प्रयोग और अनुसंधान के दम पर काफी आगे निकल गयी। हालाँकि विगत वर्षों में पारंपरिक और असरदार चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को आधार और विस्तार देने के लिए पतंजलि योगपीठ ने बड़े पैमाने पर पहल की है जिसके परिणाम स्वरूप आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का प्रसार हर वर्ग में बढऩे लगा है। उस वर्ग में भी जो इसे केवल जड़ी-बूटी भर समझता था। इस बढ़त से नि:संदेह स्वास्थ्य लाभ तो सबका हुआ पर कुछ लोगों को व्यावसायिक नुकसान भी हुआ और शायद यही कारण है कि आयुर्वेद का जितना विरोध है उससे कई गुना इसे समर्थन प्राप्त है।          
खामियां नहीं खूबियाँ गिनें 
एक बार श्रेष्ठता को लेकर आम और नीम में बहस छिड़ गयी कि श्रेष्ठ कौन। दोनों ही हार मानने के लिए तैयार नहीं थे। अपनी खूबियाँ और दूसरे की खामियां गिनाते गिनाते पूरा दिन बीत गया। परिणाम नहीं निकलता देख दोनों ने तय किया कि मामले में किसी और की राय ली जाये। सामने से एक खुशहाल व्यक्ति आता दिखा। आम और नीम ने अपनी समस्या बताई और उसकी खुशी का राज पूछा तो उसने इसका बहुत ही छोटा सा जवाब दिया, किसी की खामियां नहीं खूबियाँ गिनो। आम और नीम दोनों को मर्म समझ में आ गया और अब दोनों ही एक दूसरे की उपयोगिता का गुणगान कर रहे थे। आम नीम के हर हिस्से को अचूक औषधि बताने में लग गया और नीम आम को फलों का राजा कहकर सम्मानित कर रहा था। शुभ कार्य में पत्तों के वन्दनवार, हवन में लकड़ी के महात्म्य से लेकर खूबियों का गुणगान होता रहा। दोनों ही खुश थे। इसलिए आयुर्वेद हो या एलोपैथ, दोनों ही चिकित्सा पद्धतियों को इस कहानी से सीख लेनी होगी। उन्हें एक दूसरे को कमतर आंकने और खुद को श्रेष्ठ बताने की होड़ से बाहर आना होगा। चिकित्सा पद्धति कोई भी हो उद्देश्य तो बीमार को स्वस्थ करते हुए स्वस्थ और समृद्ध भारत के निर्माण का ही होना चाहिए। 
भ्रम से निकलें बाहर
सार तो यही निकलता है कि अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था की तरह ही अंग्रेजी चिकित्सा व्यवस्था यानि एलोपैथ का प्रचार प्रसार ज्यादा है। लिखा-पढ़ी में भी अंग्रेजी शिक्षा की तरह ही अंग्रेजी चिकित्सा की मान्यता ज्यादा है जबकि यदि आयुर्वेद या अन्य किसी भी चिकित्सा पद्धति का अवलोकन करें तो उसमें लोगों को भरोसा बहुत है। इन दोनों स्थितियों के कारण बीमारी से घिर जाने पर समाज में चिकित्सा और चिकित्सकों को लेकर एक भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। इस भ्रम को दूर करने के लिए आकस्मिक चिकित्सा के अतिरिक्त मामलों में परम पूज्य स्वामी जी महाराज ने पूरी प्रमाणिकता के साथ स्थायी समाधान सुझाया ही नहीं बल्कि उपलब्ध भी करवाया है। गत तीन दशकों में पतंजलि द्वारा दिए गए समाधान और वो भी बिना किसी दुष्प्रभाव वाले समाधान ने भारत की चिकित्सा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी बदलाव ला दिया है। इस बदलाव ने जहाँ लोगों को यह भरोसा दिलाया है कि उनकी बीमारी जड़ से ठीक हो सकती है तो वहीं इलाज के नाम पर वर्षों से चली आ रही लूट को पीछे भी धकेला है। यही कारण है कि पूज्य स्वामी जी महाराज श्रद्धेय आचार्यश्री बहुतों की आँखों में किरकिरी बन रहे हैं। फिर भी बदलाव तेजी से हो रहा और इसके दूरगामी परिणाम तो अभी आने बाकी हैं क्योंकि आयुर्वेद पर शोध कार्य लगातार चल रहे हैं और परिणाम अत्यंत उत्साहजनक हैं।
स्वस्थ भारत से ही होगा समृद्ध भारत
क्या आप जानते हैं कि भारत में हर साल अपनी बीमारी के कारण करीब 7 करोड़ लोगों को गरीबी से जूझना पड़ता है। लोग स्वस्थ हों, इसके लिए देश में चिकित्सा सुविधाएं दुरुस्त होनी चाहिए। पर क्या भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश, जिस पर अपनी 140 करोड़ के आबादी के सेहत का ख्याल रखने की बड़ी जिम्मेदारी है, उसकी चिकित्सा व्यवस्था दुरुस्त है। कोई एक ही प्रकार की पैथी इस पूरी आबादी के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी नहीं ले सकती है और ना ही हर पैथी सबके लिए सुलभ हो सकती है। यदि एलोपैथी की बात करें तो आबादी के बाद से इन सात दशकों में इसकी मदद से हमने बहुत से संक्रामक रोगों पर काबू पाया है। आजादी के बाद भारत को कई महामारियों ने भी अपना शिकार बनाया मगर देश ने उनका डटकर सामना किया और जीत भी हासिल की। पर इस जीत में सभी की हिस्सेदारी थी और इसका एक हालिया उदाहरण कोरोना संक्रमण भी है। पर इन्हीं सात दशकों में स्वास्थ्य सेवा का जो निजीकरण हुआ है, उसको कैसे भुलाया जा सकता है। लोग सरकारी स्वास्थ्य देखभाल की तुलना में एक मरीज को मिलने वाली सुविधाएं जैसे बिस्तर, भोजन की गुणवत्ता, उपचार और यहां तक कि डॉक्टर का चयन जैसी बातों को लेकर निजी अस्पतालों को प्राथमिकता देने लगे। जैसे-जैसे लोगों की जीवन शैली बदलने लगी तो बीमारियाँ भी बढऩे लगीं। बीमारियाँ बढ़ीं तो उसी अनुपात में दवाओं की खपत, फार्मा कम्पनियाँ, अस्पताल और चिकित्सक सब बढ़ गए। परिणामस्वरूप चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में समृद्ध अतीत वाले देश के लिए स्वस्थ भारत समृद्ध भारत का नारा स्वयं में एक चुनौती बन गया।
सबका सहयोग आवश्यक है 
बीमारी के खिलाफ और स्वास्थ्य के लिए युद्ध अकेले किसी एक वर्ग या एक पैथी के द्वारा नहीं लड़ी जा सकती है। यह एक जनयुद्ध है जिसमें पूरी आबादी को स्थायी रूप से लामबंद होना होगा। परम पूज्य स्वामी जी महाराज एवं श्रद्धेय आचार्यश्री ने हमेशा से यही माना है कि महर्षि धनवंतरी, चरक, सुश्रुत, पतंजलि और उनके जैसे अनेक महर्षियों के अथक प्रयासों के चलते उन्हें इस अमूल्य ज्ञान की प्राप्ति सम्भव हो सकी है। इस ज्ञान से भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व रोगमुक्त रह सके इसके लिए पतंजलि के चिकित्सा वैज्ञानिकों ने इस ज्ञान की गहराइयों में जाकर इसके मानव शरीर पर इसके प्रभावों का गहन अनुसंधान कर रहे हैं। गुणवत्ता के साथ इस ज्ञान और अनुसंधान के परिणामों को जन जन तक पहुँचाने और इसकी उपयोगिता को बढ़ाने के लिए संसाधनों की आवश्यकता होती ही है और वह नि:शुल्क नहीं मिलती। एक तरफ जहाँ फार्मा इंडस्ट्री अपने बजट का 40 प्रतिशत से अधिक सिर्फ अपनी मार्केटिंग पर खर्च करती है और 10 प्रतिशत भी मूल रिसर्च पर नही लगातीं। ऐसे में पतंजलि आयुर्वेद के अनुसंधान के लिए चुनौती और बड़ी हो जाती है। अत: ज्ञान के इस विज्ञान के विज्ञापन को देश के अंतिम व्यक्ति तक दृढ़ता से पहुँचाना ही होगा। इसलिए सोचना हमें है कि हम सभी ऐतिहासिक कार्य में कैसे सहयोग कर सकते हैं। 
आलोचक नहीं शोधार्थी बनें 
प्राचीन आयुर्वेदिक चिकित्सकों ने हर औषधि के गुणों और उनका शरीर पर पडऩे वाले प्रभाव का गहराई से अध्ययन किया था और आज भी यह विज्ञान आधुनिक शोधकर्ताओं को शोध करने के नए-नए विषय प्रदान कर रहा है। पैथी कोई भी हो, पर लक्ष्य तो सबका एक ही होना चाहिए, सबको अच्छा स्वास्थ्य। पैथी कोई भी हो पर सबकी अपनी विशेषता है। सभी विज्ञान हैं और उनकी अपनी सीमाएं हैं। मधुमेह और रक्तचाप से विश्व का बड़ा भाग पीडि़त है। इन रोगों को समाप्त करने की दवा नहीं है। पारकिंसन (कम्पन रोग), अवसाद आदि बिमारियों की भी दवा नहीं है। इन्हें संयत करने की दवाइयां आजीवन खानी पड़ती है क्योंकि मस्तिष्क की गतिविधि का बड़ा भाग अज्ञेय है। मानव मस्तिष्क जटिल संरचना है। सुख, दुख, ज्ञान व बुद्धि की अनुभूति मस्तिष्क क्षेत्र की गतिविधि से होती है। सुनते हैं कि प्रार्थना का प्रभाव गहन होता है। अवसाद का जन्म और विकास मस्तिष्क में होता है तो विषाद का भी। सोच उल्लास और प्रसन्नता देते हैं तो इसका उल्टा भी होता है। पर पतंजलि के योग सूत्रों में चित्त की पांच प्रवृत्तियों को ही सुख-दुख का कारण बताया गया है। इसलिए आज आवश्यकता है कि हम आलोचक नहीं शोधार्थी बनें। पतंजलि योगपीठ के दवारा निरंतर अनुसंधान से भारत का प्राचीन ज्ञान फिलहाल आधुनिक हो रहा है। आपको इसकी गति धीमी लग सकती है पर विज्ञान की दूसरी धाराओं की तरह भारतीय चिकित्सा की प्राचीन पद्धति में निरंतर शोध जारी है और जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों से निबटने के लिए इसमें कई तरह के प्रयोग हो रहे हैं, आवश्यकता है धैर्य और विश्वास को बनाये रखने की।
एलोपैथी बनाम आयुर्वेद नहीं 
ज्ञान के विज्ञान का विज्ञापन एलोपैथी बनाम आयुर्वेद करने या किसी को बरगलाने के लिए नहीं है बल्कि यह तो रोगों के विरुद्ध एक संत के संघर्ष की गाथा है। इस संघर्ष का उद्देश ना तो किसी की किसी से तुलना करना है और ना ही श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता की लड़ाई लडऩा है। यह किसी के छोटा होने या किसी को छोटा साबित करने का उद्देश्य लिए हुए भी नहीं है। इसका तो बस एक ही उद्देश्य है, सभी स्वस्थ हों और शरीर से बीमारियाँ जड़ से मिट जाएँ। एलोपैथी को मानने वाले लोग भी यह जानते हैं कि इसमें जो दवाएं दी जाती हैं वो बीमारी के स्रोत को ठीक करने के लिए नहीं बल्कि बीमारी को दूर करने के लिए होती हैं। भले ही इसके लिए शरीर में टेबलेट, कैप्सूल और सुइयों के माध्यम से रासायनिक बमबारी और उथल-पुथल क्यों ना मचानी पड़े। जबकि आयुर्वेद में इलाज के नियम पूरी तरह से अलग हैं। इसमें रोग से लडऩे की बजाए उसके विरुद्ध शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाने का प्रयास ज्यादा होता है। ताकि रोग के कारण से लडऩे की बजाय शरीर को प्राकृतिक रूप से स्वस्थ रखा जा सके। कोशिश यही होती है कि शरीर स्वयं ही अपनी ऊर्जाओं का प्रयोग कर बीमारी ठीक कर ले। शरीर द्वारा अपनी ही ऊर्जा से स्वस्थ होने की इस तकनीक को आयुर्वेद में ‘स्वभावोपरमवाद' भी कहा जाता है।
एक मौका हम सभी के लिए 
आयुर्वेद ही नहीं बल्कि योग भी ‘स्वभावोपरमवाद’में ही विश्वास करता है और इन दोनों की ही मान्यता है कि प्रकृति ही स्वभाव है विकृति नहीं। अत: मनुष्य स्वभावत: ही विकृति से उबर कर प्रकृति या स्वास्थ्य की ओर अग्रसर होता है। चिकित्सा तो केवल सहायक मात्र है। योग प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा शरीर के सभी अंगों, तंत्रों को अपने तरीकों द्वारा स्वस्थ बना के रखता है। इसीलिए आजकल चिकित्सा के क्षेत्र में यह भी अहम भूमिका निभा रहा है। यहाँ तक कि अब तो एलोपैथी चिकित्सक भी योगाभ्यास करने का परामर्श देते हैं। परम पूज्य गुरुवर ने हम सभी को योग की इस विधा में निपुण बनाकर स्वस्थ भारत के निर्माण के लिए सेवा का एक मौका दिया है, योग सेवा के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा। आइये! गुरु द्वारा प्रदत्त स्वास्थ्य के इस ज्ञान, विज्ञान को हम सभी योग शिक्षक, शिक्षिका मिलकर योग और आयुर्वेद के ज्ञान को हर घर-आँगन तक स्वयं लेकर जाएँ। पूज्य स्वामी जी के अथक प्रयासों से जन-जागरण तो वैसे भी हो ही चुका है, लोग स्वास्थ्य का अर्थ समझने लगे हैं और स्वयं ही योग और आयुर्वेद का विज्ञापन भी कर रहे हैं। 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में पूरी दुनिया ने देखा, हमको और आपको तो गुरु की कृपा से बस श्रेय लेना है।