राजसूय का आरंभ और जरासंध का वध

प्रो. कुसुमलता केडिया

   भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘क्षत्रियों ने पूर्वजों की परंपरा का पालन करते हुए यह नियम बना लिया है कि हममें से जो समस्त क्षत्रियों को जीत लेगा, वही सम्राट होगा। चन्द्रवंशी सम्राट पुरूरवा तथा सूर्यवंशी सम्राट इक्ष्वाकु के वंश के 100 कुल इस समय विद्यमान हैं।
देव ऋषि नारद ने महाराज युधिष्ठिर से विदा लेने से पहले कहा कि तुम्हारे पिता पांडु ने तुम्हारे लिये संदेश भेजा है कि ‘तुम सारी पृथ्वी को जीतने में समर्थ हो। अत: राजसूय नामक श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान करो।’ अत: हे पुरूष सिंह पाण्डुनन्दन, तुम अपने पिता के संकल्प को पूरा करो-
विज्ञाय मानुषं लोकमायान्तं मां नराधिप।
प्रोवाच प्रणतो भूत्वा वदेथास्त्वं युधिष्ठिरम्।।
समर्थोऽसि महीं जेतुं भ्रातरस्ते स्थिता वशे।
राजसूयं क्रतुश्रेष्ठमाहरस्वेति भारत।।
तस्य त्वं पुरूषव्याघ्र संकल्पं कुरू पाण्डव।
गन्तासि त्वं महेन्द्रस्य पूर्वे: सह सलोकताम्।।
(महाभारत, सभापर्व, अध्याय 12, श्लोक 24, 25 एवं 28)
यहाँ यह स्मरणीय है कि देवर्षि नारद सभी लोकों में जाने में समर्थ महाज्ञानी, अतीत, वर्तमान और भविष्य के दृष्टा, वेदों और उपनिषदों सहित समस्त ज्ञान के ज्ञाता, इतिहास-पुराण के मर्मज्ञ, धर्मतत्व को जानने वाले, न्याय के अधिकारी विद्वान, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छंद और ज्योतिष - इन छहों वेदांगों के ज्ञाता, राजनीति के महापंडित, सांख्य और योग के परम अधिकारी, संगीत और नृत्य सहित समस्त कलाओं से सम्पन्न परम बुद्धिमान थे। (कुछ लोग उन्हें पत्रकार टाइप कोई महापुरूष बताते हैं और ऐसा करते हुए अपनी मूढ़ता का निर्लज्ज प्रदर्शन करते हैं।) इसी कारण उनका अत्यधिक सम्मान महाराज युधिष्ठिर ने किया और सभी लोग करते थे। उन्होंने महाराज पाण्डु का संदेश महाराज युधिष्ठिर को दिया क्योंकि वे विभिन्न लोकों में सहजता से आते-जाते रहते थे। 
देवर्षि नारद ने महाराज युधिष्ठिर को सावधान भी किया कि राजसूय जैसे महान यज्ञ में बहुत से विघ्नों की संभावना रहती है और यह राजसूय यज्ञ क्षत्रशमन है अर्थात अन्य सब क्षत्रियों का शमन करने वाला है। अत: यदि अन्य क्षत्रिय शांतिपूर्वक सहमत नहीं हुए तो कई बार राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान होने पर पृथ्वी पर विनाशकारी युद्ध भी उपस्थित हो सकता है। परंतु चारों वर्णों की रक्षा के लिये अप्रमत्त रहकर राजकाज करना सम्राट का धर्म है। अत: तुम्हें जो उचित हो वह करो, जो अपने लिये कल्याणकारी लगे वह करो। 
देवर्षि के इन वचनों को सुनकर महाराज युधिष्ठिर गहरे सोच-विचार में पड़ गये और बहुत देर तक चिंतन करते रहे। पूर्वजों के प्रताप का स्मरण कर उन्होंने राजसूय यज्ञ करने का संकल्प किया। क्योंकि उन्हें लगा कि यही हमारा धर्म है और इसी में सबका कल्याण है। इसके बाद श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने अपने सभी भाइयों और मंत्रियों से राजसूय यज्ञ के विषय में परामर्श कर उनकी सम्मति चाही। सबका यह सर्वसम्मत कथन था कि आप सम्राट के गुणों को पाने के सर्वथा योग्य हैं। अत: आपको राजसूय यज्ञ अवश्य करना चाहिये। यहाँ स्पष्ट है कि राजसूय यज्ञ सम्पन्न करने वाला ही सम्राट होता है। अन्यथा महाराज होकर अर्थात अनेक राजाओं के द्वारा मान्य सम्प्रभु होकर भी कोई सम्राट नहीं कहा जा सकता। वह केवल महाराज ही कहा जायेगा। 
महाराज युधिष्ठिर ने स्वयं भगवान वेदव्यास तथा अन्य महर्षियों से भी उनका इस विषय पर मत पूछा। सभी ने राजसूय यज्ञ करने के पक्ष में मत दिया। तब महाराज युधिष्ठिर ने विचार किया कि केवल अपने ही निश्चय से यज्ञ का आरंभ नहीं किया जाता। भगवान श्रीकृष्ण की सम्मति आवश्यक है। ऐसा विचार कर उन्होंने दूत भेजा। भगवान श्रीकृष्ण अपनी बुआ कुन्ती और अपने फफ़़ुेरे भाई महाराज युधिष्ठिर तथा अन्य पाण्डवों से मिलने इन्द्रप्रस्थ पधारे। पाण्डवों ने उनका स्वागत किया और महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय के विषय में उनकी सम्मति मांगी। 
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘क्षत्रियों ने पूर्वजों की परंपरा का पालन करते हुए यह नियम बना लिया है कि हममें से जो समस्त क्षत्रियों को जीत लेगा, वही सम्राट होगा। चन्द्रवंशी सम्राट पुरूरवा तथा सूर्यवंशी सम्राट इक्ष्वाकु के वंश के 100 कुल इस समय विद्यमान हैं। अत: उन सबका विश्वास और सबकी सम्मति से ही आप सम्राट पद पर अभिषिक्त हो सकेंगे। वर्तमान में जरासंध सम्राट के पद पर अभिषिक्त है। उसने सभी क्षत्रियों को जीत लिया है और महाराज शिशुपाल, करूषराज दन्तवक्र सहित सभी राजा उनके साथ हैं तथा यवनाधिपति राजा भगदत्त भी वाणी और क्रिया के द्वारा उनके साथ ही हैं, यद्यपि मन ही मन वे तुम्हारे प्रति स्नेह रखते हैं। इसी प्रकार कुन्तीभोज कुल के महावीर महाराज पुरूजित भी तुम्हारे प्रति प्रेम और स्नेह रखते हैं परंतु अनेक राजा जरासंध से मिले हुये हैं और यह आवश्यक है कि तुम जरासंध को पराजित करो। तभी तुम सम्राट कहलाने योग्य हो सकोगे। कंस भी जरासंधा का ही साथी था। कंस का भय तो अब जाता रहा परंतु अनेक राजाओं को जरासंध ने बंदी बना रखा है। अत: उसे जीतना आवश्यक है।’ इसी क्रम में भगवान श्रीकृष्ण ने समकालीन सभी राजाओं और महाराजाओं का विस्तार से वर्णन किया जो सभापर्व के 14वें अध्याय में वर्णित है। अंत में उन्होंने बताया कि कैसे वे स्वयं जरासंध से बचने के लिये ही द्वारकापुरी गये हैं और कैसे जरासंध ने भगवान शंकर की कृपा प्राप्त कर अनेक राजाओं को बंदी बना रखा है। अत: उस पर विजय पाना आवश्यक है। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण मनुष्य रूप में भी समकालीन राजनीति और समकालीन भारतीय परिदृश्य के एक बहुत बड़े ज्ञाता और विशेषज्ञ दिखते हैं। 
इसके बाद जरासंध के विषय में महाराज युधिष्ठिर, भीम तथा भगवान श्रीकृष्ण के मध्य मंत्रणा हुई और आगे की कार्ययोजना बनी। युधिष्ठिर इस विषय में शंकालु हो गये और हिचक से भर गये। तब अर्जुन तथा भगवान श्रीकृष्ण ने कई प्रकार से उन्हें समझाया और अंत में  भगवान श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन और भीमसेन जरासंधा के साम्राज्य मगध की ओर चले। तीनों ने तेजस्वी स्नातक ब्राह्मणों का वेश धारण किया। इस यात्रा का वर्णन समस्त भौगोलिक विवरणों के साथ महाभारत में दिया हुआ है जिससे स्पष्ट है कि यह कितनी यथार्थ घटना है। वहाँ वर्णित सभी भौगोलिक स्वरूप आज भी देखे जा सकते हैं। वे तीनों कुरूदेश से चलकर कुरूजांगल के बीच से होते हुये पद्म सरोवर पहुँचे और इसके बाद गण्डकी, महाशोण तथा सदानीरा नदियों सहित अन्य सभी नदियों को पार करते हुये सरयू नदी पार कर पूर्वी कोसल प्रदेश में प्रविष्ट हुये और उसे पार करके गंगाजी को तथा शोणभद्र को पार किया और पूर्व की ओर चलते चले गये तथा गोरथ पर्वत पर पहुँच कर उन्होंने मगध देश की सुन्दर और विशाल राजधानी को देखा। राजधानी धन-धान्य से सम्पन्न थी। जल की भरपूर सुविधा वहाँ उपलब्ध थी और सभी निवासी स्वस्थ सबल थे। अनेक महलों और भवनों तथा उद्यानों और पर्वतों से सुशोभित यह राजधानी सुन्दर और सुगन्धित फ़ूलों से भरी हुई थी। गौतम मुनि द्वारा शूद्र जाति की कन्या से उत्पन्न अनेक पुत्रों के द्वारा राजधानी रक्षित थी। अनेक मुनि और यति वहाँ निवास करते थे। तीनों राजधानी में मुख्य द्वार से न जाकर एक अन्य द्वार से प्रविष्ट हुए और राजधानी गिरिव्रज पहुँचकर जरासंध के सामने उपस्थित हुये। तीन ब्राह्मणों को सामने देखकर सम्राट जरासंध उठकर खड़े हो गये और विधिपूर्वक उनका आतिथ्य सत्कार किया तथा उनसे प्रयोजन पूछा। श्रीकृष्ण ने कहा कि हम आधी रात के बाद ही आपसे बात करेंगे क्योंकि इन दोनों ब्राह्मणों ने यही प्रतिज्ञा कर रखी है कि वे आधी रात से पहले नहीं बोलते। सम्राट जरासंध ब्राह्मणों का बहुत सम्मान करते थे। अत: उनकी बात मान गये। आधी रात के बाद जब सम्राट जरासंध पहुँचे तो तीनों क्षत्रिय के वेश में सामने थे। इस पर जरासंध ने पूछा कि आप लोग कौन हैं तथा इस तरह बार-बार वेश क्यों बदल रहे हैं? तब श्रीकृष्ण ने अपना परिचय दिया और कहा कि हम आपसे मल्लयुद्ध करना चाहते हैं। तीनों महान वीरों को सामने देखकर अपने भविष्य के विषय में पूर्व में की गई भविष्यवाणी का ध्यान रखकर सम्राट जरासंध ने अपने पुत्र सहदेव का राज्याभिषेक सम्पन्न किया और इसके बाद मल्लयुद्ध के लिये तत्पर हुये। 
भीम और जरासंध का भीषण युद्ध हुआ। उस मल्लयुद्ध का भी विस्तार से वर्णन महाभारत में सभापर्व के 23वें अध्याय में है। पहले दोनों ने हाथ मिलाये। फिऱ एक-दूसरे के चरणों का अभिवन्दन किया और फिऱ ताल ठोककर भिड़ गये। वे एक-दूसरे को बार-बार रगडऩे लगे तथा चित्रहस्त आदि दाँव दिखाते हुए कक्षाबंध का प्रयोग किया। अर्थात कांख या कमर में दोनों हाथ डालकर प्रतिद्वन्द्वी को बांध लेने की चेष्टा की। दोनों एक दूसरे को बांध नहीं पाये और फिऱ कंठ तथा कपोलो पर परस्पर तीव्र आघात करने लगे। फिऱ एक-दूसरे के पैरों पर भीषण प्रहार किया और फिऱ पूर्णकुम्भ नामक दाँव लगाया और फिऱ उरोहस्त का प्रयोग किया अर्थात छाती पर घूसे मारने लगे और एक-दूसरे को दबाने लगे तथा सिंहनाद करने लगे। उस समय वे दो प्रतापी और प्रबल सिंहों की भांति ही गुंथे हुये दिख रहे थे। यहाँ महाभारत में बीसों दाँवपेचों का विस्तार से वर्णन है। मल्लयुद्ध को देखने सभी वर्णों के नर-नारी एकत्र हो गये और मनुष्यों की अपार भीड़ वह युद्ध देखने लगी। जब युद्ध और तीव्र हो गया तो बहुत से दर्शक देखने से भी डरने लगे और भाग खड़े हुये। 14 दिनों तक यह भीषण युद्ध बिना खाये पिये अविराम गति से चलता रहा। इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने संकेत किया और भीमसेन ने उनके उकसावे पर सम्पूर्ण बल लगाकर महाबलवान जरासंध को उठाकर आकाश में घुमाना आरम्भ किया। फिऱ भगवान के संकेत के अनुसार 100 बार घुमाकर उसे धारती पर पटक दिया और उसका एक पैर पकडक़र तथा दूसरे पैर पर अपना पैर रखकर दो खण्डों में चीर डाला। परंतु वे दोनों खण्ड बार-बार जुड़ जाते थे। दोनों प्रचंड गर्जना कर रहे थे। जरासंध पीड़ा से चीत्कार करने लगा। अंत में श्रीकृष्ण ने संकेत किया कि दोनों भागों को अलग-अलग दिशाओं में फ़ेंको। भीमसेन ने वही किया और तब जरासंध का वधा सम्पन्न हो गया। 
तदुपरान्त जरासंध के अभिषिक्त पुत्र को राजधानी में राज्य करने की अनुमति देकर भगवान श्रीकृष्ण और भीमसेन तथा अर्जुन ने उन सब राजाओं को बंधन से मुक्त कराया जिन्हें जरासंध ने एक बहुत बड़ी पहाड़ी खोह में बंदी बनाकर रखा था और वहीं उन्हें भोजन आदि की सुविधायें सुलभ कराता रहता था। मुक्त राजाओं ने पाण्डवों और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। भगवान श्रीकृष्ण ने सभी से आदरपूर्ण व्यवहार किया और ब्राह्मणों का तथा अन्य सभी नागरिकों का सम्मान करते हुये विदा ली। 
जरासंध के एक विशिष्ट दिव्य रथ पर बैठकर भगवान श्रीकृष्ण भीमसेन और अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ की ओर चले और सम्राट जरासंध के पुत्र महामना सहदेव ने आदरपूर्वक उन्हें विदा किया। भगवान श्रीकृष्ण ने सहदेव को तथा मुक्त किये गये सभी राजाओं को राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया और वे इन्द्रप्रस्थ पहुँचे। भगवान श्रीकृष्ण ने जरासंध के पुत्र सहदेव को अपना अभिन्न सुहृद् बना लिया। अत: भीमसेन और अर्जुन ने भी उनका बड़ा सत्कार किया। उपहारों के साथ जब भीमसेन और अर्जुन सहित भगवान श्रीकृष्ण महाराज युधिष्ठिर के पास पहुँचे तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुये और इसके बाद दिग्विजय के लिये चारों भाई चार अलग दिशाओं में अपनी-अपनी सेनाओं के साथ विजय यात्रा पर चल पड़े।

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