शाश्वत प्रज्ञा

परम पूज्य योग.ऋषि श्रद्धेय स्वामी जी महाराज की शाश्वत प्रज्ञा से निःसृत शाश्वत सत्य

शाश्वत प्रज्ञा

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धर्मान्धता - धर्म के नाम पर अन्ध श्रद्धा व अंधविष्वास के नए-नए कीर्तिमान इस वैज्ञानिक युग में देखने को मिल रहे हैं। यह घनघोर अधर्म, पाप, अनैतिक असंवैधानिक, अमानवीय व दण्डनीय कृत्य है। भूत भगाना, नल के जल से कैंसर जैसे रोग मिटाना, पैरों व नाड़ी के टायर के बीच की धूल से जीवन के दुःख दर्द मिटाना यह सब धर्म की आड़ में भगवान के नाम पर ठीक नहीं है।
यह सत्य ही नहीं परम सत्य है कि धर्म का सम्बन्ध अदृष्ट अस्तित्व या परम सत्ता से भी है। धर्म विज्ञान से भी परे पराविद्या भी है। धर्म के पारमार्थिक अतीन्द्रिय अदृष्ट सत्य के नाम पर गरीब, कम पढ़े लिखे श्रद्धालुओं की श्रद्धा का दोहन यह धर्म व न्याय संगत नहीं है। पराविद्या संपन्न व्यक्ति का जीवन बहुत ऊँचा होता है, वहां ढ़ोंग, पाखंड, अंधविश्वास लेश मात्र भी नहीं होता।
सत्य धर्म- जीवन या आचरण की पूर्ण पवित्रता ही सच्चा धर्म है। धारण किया जाये वही धर्म है। धारणात् धर्मः धार्यते इति धर्मः। आहार, विचार, वाणी व्यवहार, स्वभाव, सम्बन्ध व जीवन के सभी क्षेत्रों में पवित्रतापूर्वक आचरण या व्यवहार धर्म का सार है। पूर्ण सात्विकता, दिव्यता और अन्ततः पूर्ण विवेक, पूर्ण श्रद्धा तथा पूर्ण पुरुषार्थ के साथ पूर्ण निष्कामता व पूर्ण निर्लोभता ही धर्म का श्रेष्ठतम स्वरुप है। मति भक्ति कृति व प्रकृति की पूर्ण दिव्यता ही धर्म है। धर्म के इसी शाश्वत स्वरुप को सनातन धर्म कहते हैं।
एक योग तत्व की महिमा - यदि आप आम का पेड़ लगाते है तो इससे सब फल नहीं प्राप्तकर सकते। एक प्रकार की खेती गेंहू, चावल आदि से सब प्रकार के धान्य नहीं पा सकते। एक प्रकार के व्यापार से संसार के सारे व्यवहार सिद्ध नहीं कर सकते लेकिन योग एवं योगमूलक कर्मयोग से वैयक्तिक व सार्वजनिक जीवन के सब प्रकार के सब कार्यों की सिद्धि कर सकते है।
योग से स्वास्थ्य की प्राप्ति तो प्रथम लाभ व प्रथम सीढ़ी है, योग से सुख, समृद्धि, शान्ति, सफलता, विजय, प्रसन्नता सब दिव्य गुणों दैवी सम्पद के साथ-साथ सम्पूर्ण लौकिक व पारमार्थिक सत्यों की सिद्धि योग का बड़ा ध्येय है। ये सब प्राप्त या अनुभव करके हम आपसे कह रहे हैं। अतः आईये योग करें एवं योग को जीयें। योग करना, करना तथा योगमय योगमय जीवन जीना तथा सबको इस योग पथ चलाना हमारा सामूहिक कर्त्तव्य या उत्तरदायत्वि है। योग अष्ट सिद्धि नवनिधि दशविद्या या पराविद्या या अध्यात्म विद्या का मूल साधन है, सिद्धि है।
दान की महिमा - यह सम्पूर्ण ब्रहााण्ड हमार पिण्ड जीवन जगत सब ब्रहमा के दान का परिणाम है। दान ब्रहााण्ड का मूल केन्द्र है परिधि में सम्पूर्ण अस्तित्व है। अतः हम सब मनुष्यों में दान की सहज प्रवृत्ति है। दान की परिधि छोटी या बड़ी होने स्वार्थ या परमार्थ कह जाता है। विचारधारा के आधार पर चीन, रसिया, यू.एस. मीडलिस्ट व ईसाई मतावलम्बी यूरोपीय देश एक विशेष विचारधारा को प्रक्षय देने हेतु दान देते हैं। बस सनातन धर्मियों के सामूहिक स्पोंसर्ड डोनेशन की कोई रूपरेखा नहीं है। आइये सनातन के शाश्वत मूल्यों को अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से आगे बढ़ाइये।

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