राजधर्म के 3 आधार 

ज्ञान-बल, प्रभु- बल, विक्रम-बल

राजधर्म के 3 आधार 

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

   भारत वर्ष सनातन काल से हिन्दू राष्ट्र है। परंतु कालप्रवाह वश इसका बहुत बड़ा अंश पापपरायण राजाओं और उनके संरक्षण में पापमूलक विचारों और पैशाचिक कर्मों का अड्डा बन गया है। 15 अगस्त 1947 के बाद इसका जो अंश भारत के रूप में है, वह इसका मर्मभाग और सत्व है। इसमें अभी भी सनातन धर्म के संस्कार भरपूर हैं। कमी केवल ऐसे राज्य की है जो सनातन धर्म को उचित संरक्षण दे। क्योंकि इस क्षेत्र में सनातन धर्म को खतरा केवल दस्युदलों से है। ये दस्युदल भिन्न-भिन्न आवरण लेकर कहीं किसी मजहब की आड़ में, कहीं किसी रिलीजन की आड़ में और कहीं किसी ऑइडियालॉजी की आड़ में दुराचरण और लूट-खसोट तथा नृशंसता का अपना धंधा करते हैं। उसे राजदंड के द्वारा ही नियंत्रित किया जा सकता है। 
भारत में राजनीति का पर्याय है दंडनीति। वस्तुत: विश्व में भी राज्य का मुख्य बल उसका दंडबल ही है। अंतर इतना है कि भारत में दंड को सदा धर्ममय रखने पर बल दिया गया है। 
धर्ममय राजदंड का महत्व
रामायण, महाभारत, मानव धर्मशास्त्र, कौटिलीय अर्थशास्त्र, शुक्रनीति आदि में राजनीति और दंडनीति का विस्तार से विवेचन है। महाभारत में भीष्म पितामह शांतिपर्व में युधिष्ठिर से कहते हैं कि ‘सभी विद्यायें राजधर्म से ही पोषित होती हैं और समस्त लोक अर्थात दृश्यमान जीवजगत का परिपालन राजधर्म का अंग है।’अत: हिन्दू राष्ट्र की स्थापना धर्ममय राजदंड के द्वारा ही संभव है। 
सौभाग्यवश संसद के नये भवन में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने धर्ममय राजदंड (सेंगोल) की प्रतिष्ठा विधि विधान से की है। अत: यदि शासन धर्ममय राजदंड का सम्यक प्रयोग करेगा तो हिन्दू राष्ट्र निश्चित ही सशक्त होगा और विश्व के लिये भी कल्याणकारी सिद्ध होगा। क्योंकि भारत में राजधर्म का अर्थ है सनातन धर्म का रक्षण और पोषण। जो कि सार्वभौम मानवीय मूल्यों का ही रक्षण और पोषण है। इसलिये उसमें विश्व का कल्याण समाहित है। 
राजधर्म की विवेचना हमारे समस्त धर्मशास्त्रों में है। शुक्राचार्य का कहना है कि धर्म और अधर्म का रक्षण और प्रशिक्षण राजधर्म है और इसीलिये राजा ही युग का प्रवर्तक होता है। यदि किसी राष्ट्र में अधर्म है तो उसके लिये न तो प्रजा दोषी है, न ही युग या काल। राजा ही उसके लिये दोषी है। दंडनीति के द्वारा ही धर्म की स्थापना होती है। 
महाभारत में शांतिपर्व का कथन है कि ‘दंड के द्वारा ही राष्ट्र को सन्मार्ग पर चलाया जाता है, इसीलिये यह विद्या दंडनीति के नाम से विख्यात है। दंडनीति ही संधि, विग्रह, यान आदि छहों राजनैतिक गुणों का सार है। दंड के द्वारा ही धर्म की प्रतिष्ठा राजा करता है।’
चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता को इंद्र ने स्वयं कहा था कि ‘हे निष्पाप नरेश, किसी राज्य में दंडनीति का विलोप तभी होता है, जब राजा स्वयं दुष्ट हो। ऐसी स्थिति में राजधर्म की उपेक्षा होती है और सभी प्राणी कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक खोकर अपने-अपने मोह के अनुसार बरसने लगते हैं और काम और क्रोध से प्रेरित होकर कुमार्ग पर चलने लगते हैं।’इस प्रकार दंडनीति का अत्यधिक महत्व है। वस्तुत: राज्य की मुख्य शक्ति दंडबल ही है। दंडबल से कंटक शोधन होता है और राष्ट्र के मार्ग के सारे कंटक सम्यक दंडनीति से दूर होंगे।
राजधर्म के पालन के लिये शास्त्रों में तीन बलों का महत्व प्रतिपादित है। ये हैं - ज्ञान बल, प्रभु बल एवं विक्रम बल। महाभारत के आश्रमवासिक पर्व के 7वें अध्याय में महाराज धृतराष्ट्र महाराज युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश देते हुये इन्हें मंत्रशक्ति, प्रभुशक्ति और उत्साहशक्ति का उपदेश देते हैं। इसके साथ ही वे सैन्यबल, धनबल, मित्रबल, भृत्यबल और श्रेणीबल तथा चारबल (दूतों और गुप्तचरों का बल) का भी संग्रह आवश्यक बताते हैं। विशेषकर मित्रबल और धनबल को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताते हैं। 
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में छठे अधिकरण में दूसरे अध्याय में कहा है कि ‘शक्ति से ही सिद्धि होती है। बल का नाम ही शक्ति है और उससे जो आनंदप्रद फ़ल प्राप्त होते हैं, उसे ही सिद्धि कहा जाता है। शक्ति तीन प्रकार की है - ज्ञानबल, प्रभुबल और विक्रमबल।’
"ज्ञानबल"
आगे उन्होंने स्पष्ट किया है कि ज्ञानबल का अर्थ है मंत्रशक्ति। प्रभुबल का अर्थ है कोषबल और दंडबल तथा विक्रम बल का अर्थ है उत्साहशक्ति या उत्साहबल। इनमें भी विक्रम बल या उत्साहबल को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। शासक को सदा महोत्साह से सम्पन्न रहना चाहिये। संधि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय एवं द्वैधीभाव - इन छह: प्रकार के गुणों या उपायों का यथोचित निर्धारण करना ही मंत्रबल या मंत्रशक्ति और ज्ञान बल कहा जाता है। 
"प्रभु-बल"
शक्तिशाली सेना और भरा पूरा राजकोष - इन दोनों को मिलाकर प्रभुबल होता है। उत्साहशक्ति ही विक्रमबल है। कौटिल्य के अनुसार इनमें से मंत्रशक्ति या ज्ञानबल सर्वोपरि हैं। प्रभुशक्ति अर्थात सेना और कोष उसके बाद आते हैं तथा शासक का उत्साह सबसे अंत में कौटिल्य ने गिनाया है।
"विक्रमबल"
उत्साह की सर्वाधिक प्रशंसा धर्मशास्त्रों में की गई है क्योंकि उत्साहशक्ति के अभाव में प्रभुबल और ज्ञानबल का भी सम्यक उपयोग नहीं होता। इसीलिये उत्साहशक्ति को ही विक्रम बल कहा गया है। शासक का उत्साह ही उनके विक्रमबल का सूचक भी है और आधार भी। इस विषय में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी का विक्रम बल अद्वितीय है क्योंकि वे सदा महोत्साह से भरे रहते हैं और सेना तथा राज्यतंत्र का भी उत्साहवर्धन करते रहते हैं। यह विक्रमबल ही अनेक पुरूषार्थों की सिद्धि का मूल आधार है। हिन्दू राष्ट्र की सिद्धि में विक्रम बल ही निर्णायक होगा और सौभाग्यवश वह प्रधानमंत्री जी में भरपूर है। 
कंटक शोधन
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के चौथे और पांचवे अधिकरण में कंटक शोधन के उपाय विस्तार से बताये हैं। इनमें से पंचम अधिकरण का नाम योगवृत्त है। उसके प्रथम अध्याय में राज्य कर्मचारियों के बीच के कंटकों के कंटकशोधन के उपाय बताये गये हैं। उस प्रथम अध्याय का नाम है ‘दाण्डकर्मिकम्’। 
चौथे अधिकरण का तो नाम ही है कंटकशोधन। यह पूरा अधिकरण तेरह अध्यायों का है और इसमें तेरहों अध्यायों में कंटकशोधान के विषय में विस्तार से निर्देश दिये गये हैं। वर्तमान में जो भारतीय दंडसंहिता लागू है, उसमें भी यही उपाय थोड़े परिवर्तन के साथ निरूपित हैं। अत: कंटकशोधन में वर्तमान भारतीय दंड सहिंता भी सहायक है, बाधक नहीं है। आवश्यकता विक्रम बल या उत्साहशक्ति के उचित प्रयोग की है। 
शासन पर सदा ही आपराधिक या विद्रोही तत्व आपत्तियाँ लाते रहते हैं। ये आपत्तियाँ अनेक प्रकार की होती हैं। महाभारत में भी आश्रमवासिक पर्व के सातवें अध्याय में धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को उन आपत्तियों के विविध प्रकार बताये हैं और साथ ही उनसे निपटने के भी उपाय बताये हैं। उसमें भी सब जगह राजा या शासक के अभ्युदयशील और उत्साहपूर्ण होने पर ही सर्वाधिक बल दिया गया है।
ऐसा कोई राज्य नहीं है, जिस पर उसके विरोधी या दस्यु लोग भांति-भांति की आपत्तियाँ न लाते हों। इसलिये भारत में इस समय जो-जो आपत्तियाँ दस्यु दलों के द्वारा उपस्थित की जाती हैं, वे अप्रत्याशित नहीं हैं और उनका आवरण लेकर शासन की शिथिलता का स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। इन्हीं आपत्तियों के निवारण और कंटकशोधन के लिये ही राज्य है। विक्रमबल और महोत्साह से सम्पन्न राजा सदा सभी आपत्तियों का शमन करने में समर्थ होता है। राजा कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। उसके पास राज्य का बल होता है। वह बल इसीलिये समाज द्वारा दिया जाता है कि राजा सदा कंटकशोधन करता रहे। अत: महोत्साह के साथ निरंतर कंटकशोधन प्रमुख राजधर्म है। 
मंत्रशक्ति या ज्ञानबल के लिये वर्तमान में न केवल अपने देश के विषय में ज्ञान रखना आवश्यक है, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों और घटनाक्रमों पर भी उतनी ही पैनी दृष्टि आवश्यक है। क्योंकि वर्तमान में विश्व का हर सशक्त राज्य संसार में जहाँ भी संभव है, वहाँ अपना प्रभाव बढ़ाने और अपने पक्ष में हस्तक्षेप करने के लिये सक्रिय है। इसीलिये राजधर्म को कंटकों से भरा हुआ कहा गया है। यह केवल दक्षता और स्फ़ूर्ति के साथ विकास कार्यों को करने की सामथ्र्य नहीं है अपितु सब प्रकार से कंटकों का शोधन करने की सामथ्र्य ही सर्वोपरि है। इस समय समस्त विश्व की प्रमुख शक्तियों का ज्ञान रखना और उनसे समीकरण स्थापित करना तथा राष्ट्रहित के अनुकूल आवश्यक हस्तक्षेप एवं समायोजन करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है। सौभाग्यवश वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी और उनकी टीम इस कार्य हेतु सर्वाधिक समर्थ है। 
इस प्रकार मंत्रशक्ति, प्रभुशक्ति और उत्साहशक्ति के सम्मिलित प्रयोग के द्वारा भारत की शक्ति को पुन: बाधाओं से मुक्त कर ऊर्जावान बनाया जा सकता है और बनाना चाहिये। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी इस दिशा में अनेक निर्णायक कदम उठा चुके हैं और आशा है कि आगे भी उठायेंगे। 
इस प्रकार राष्ट्र के कंटकों का शोधन होने के बाद हिन्दू राष्ट्र की सिद्धि सहज ही हो जायेगी।