सनातन भारतीय एवं सनातन धर्म और पाश्चात्य दर्शन

सनातन भारतीय एवं सनातन धर्म और पाश्चात्य दर्शन

डॉ. चंद्र बहादुर थापा 

वित्त एवं विधि सलाहकार- भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं

विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह

सनातनका शाब्दिक अर्थ है - शाश्वत यासदा बना रहने वाला, अर्थात जिसका आदि है अन्त।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:।।
(गीता अध्याय 2 - श्लोक 24)
अर्थात, हे अर्जुन! जो छेदा नहीं जाता। जलाया नहीं जाता। जो सूखता नहीं। जो गीला नहीं होता। जो स्थान नहीं बदलता, वह ही सनातन है। ऐसे रहस्यमय सात्विक गुण तो केवल परमात्मा में ही होते हैं, जो सत्ता इन दैवीय गुणों से परिपूर्ण हो, वही सनातन कहलाने के योग्य है। अर्थात ईश्वर को ही सनातन कहा गया है। सनातन संस्कृति कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है, जो आपको बताए कि आप इस पर विश्वास कीजिए, वर्ना आप मर जाएंगे, अथवा लाभ होगा, हानि होगा, मोक्ष मिलेगा, पाप से माफी मिलेगा, कयामत के समय में कोई खुदा निर्णय करेगा, पैगम्बर को मानने वाला मौमिन तो मानने वाला काफिर होगा, आदि। यह संस्कृति आपको निरंतर प्रश्न करने और समाधान के रूप में सभी के सुख, शांति, संतुष्टि के साथ अंतरात्मा के प्रस्फुरण से अपने सर्जक को जानने की तीव्र जिज्ञासा के प्रति लगे रहने के लिए प्रेरित करता है।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत। ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:, अर्थात, सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
 
धर्म
धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है। धारयति : इति धर्म:’ अर्थात जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: धर्म: -वैशेषिकसूत्र 1.1.2, अर्थात जिससे यथार्थ उन्नति (आत्म बल) और परम् कल्याण (मोक्ष) की सिद्धि होती है, वह धर्म है। धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। -मनुस्मृति 6.52, अर्थात धृति (धैर्य), क्षमा, दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना), अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना), सत्य और अक्रोध, धर्म के लक्षण हैं। धर्म का आचरण करने का अर्थ है कि धर्म के जो लक्षण शास्त्रों में गिनाये गए हैं, उनका हम पालन करें। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है। ऋग्वेद में कहा हैत्रीणि।। -दा। वि। -क्र-मे- विष्णु:।। गो-पा: अदा-भ्य: अत:- धर्मा-णि। धा-रय-न्।। ऋग्वेद (1/22/18) सन्धि विच्छेदसहित अन्वय - यत: अयम् अदाभ्य: गोपा विष्णु: ईश्वर: सर्वं जगत् धारयन् सन् त्रीणि पदानि वि चक्रमे अत: कारणात् उत्पद्य सर्वे पदार्था: स्वानि स्वानि धर्माणि धरन्ति।।18।। पद के अर्थ, (यत:)=जिस कारण से,  (अयम्)=यह, (अदाभ्य:) अविनाशित्वान्नैव केनापि हिंसितुं शक्य:=अपने अविनाशीपन से किसी को हिंसित नहीं कर सकता है, (गोपा:) रक्षक:=और सब संसार की रक्षा करने वाला  है, (विष्णु:) विश्वान्तर्यामी=संसार का अन्तर्यामी, (ईश्वर:)=परमेश्वर, (धारयन्) धारणां कुर्वन्=धारण करनेवाला, (सन्)=करते हुए, (त्रीणि) त्रिविधानि=तीन प्रकार के, (पदा) पदानि वेद्यानि प्राप्तव्यानि वा जाने=जानने और प्राप्त होने योग्य पदार्थों और व्यवहारों का, (वि) विविधार्थे=विविध अर्थों में, (चक्रमे) विहितवान्= निर्माण किया है, (अत:) कारणादुत्पद्य= इसी कारण से, (सर्वे)=सब, (पदार्था:)=पदार्थों में, (स्वानि)=अपने, (स्वानि)=अपने, (धर्माणि) स्वस्वभावजन्यान्=धर्मों को धारण, (धरन्ति)= धारण करते हैं ।।18।।, अर्थात, परमात्मा कृत किसी वस्तु या व्यक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग हो प्रकृति स्वभाव, नित्य नियम जैसे, आँख का धर्म देखना, शरीर का धर्म क्लांत होना, सर्प का धर्म काटना, दुष्ट का धर्म दु: देना। ईश्वर के धारण के बिना किसी पदार्थ की स्थिति होने का सम्भव नहीं हो सकता है। उसकी रक्षा के विना किसी के व्यवहार की सिद्धि भी नहीं हो सकती।
महाभारत के वनपर्व (313/128) में कहा हैधर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित: तस्माद्धर्मो हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।। अर्थात मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश, और रक्षित धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हमको ही मार डाले। इसी तरह भगवद्गीता में कहा है- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।, अर्थात,  (श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि) जब-जब धर्म की ग्लानि (पतन) होता है और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं अपना सृजन करता हूँ (अवतार लेता हूँ) जो अपने अनुकूल हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये- यह धर्म की कसौटी है। श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवत्र्यताम्। आत्मन: प्रतिकूलानि, परेषां समाचरेत् ।।, अर्थात,   मनु कहते हैं - धर्म का सर्वस्व क्या है, यह सुनो और सुनकर उस पर चलो! अपने को जो अच्छा लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये।
धर्म के पर्यायवाची युसेबीआ (εσέβεια 'Eusebeia), थ्रेसकीआ (θρησκεία 'thriskeía') और रिलिजन
प्राच्य पद्धति में वास्तविक धर्म सनातन है, हिन्दू मात्र सनातन का सूक्ष्म अंश मात्र है और धर्म का वास्तविक अर्थ सत आचरण अर्थात ऐसा आचरण जिसे धारण करके मानव कल्याण कार्य को किया जा सके धर्म की परिष्कृत परिभाषा है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से जो धर्म चला रहा है, उसी का नाम सनातन धर्म है। भारतीय परिष्पेक्ष में धर्म कर्तव्य पालन के नियमों को माना गया है। सनातन धर्म जिसे हिन्दू धर्म अथवा वैदिक धर्म के नाम से भी जाना जाता है, संसार के सबसे प्राचीनतम धर्म के रूप में स्वीकार किया जाता है। सम्राट अशोक द्वारा लिखवाया गया कान्धार का द्विभाषी शिलालेख (258 ईसापूर्व) में संस्कृत मेंधर्मऔर ग्रीक में उसके लिए 'Eusebeia' लिखा है, जिसका अर्थ है पवित्र, विस्मय और विशेष रूप से कार्यों में श्रद्धा तथा न्यू टेस्टामेंट ईसाई बाइबिल में इसका अर्थ देवताओं के लिए उचित कार्य करना है।
प्राचीन यूनानी धर्म और मिथक में यूसेबिया की अवधारणा को धर्मपरायणता, निष्ठा, कर्तव्य और संतान संबंधी सम्मान के प्रतीक के रूप में मानवरूपित किया गया है। शब्द εσέβεια 'Eusebeia'  जैसा कि ग्रीक न्यू टेस्टामेंट में उपयोग किया गया है, का अर्थईश्वरत्वहै। यूसेबिया (यूनानी: εσέβεια εσεβής सेपवित्रε यूसे जिसका अर्थ हैअच्छा, और σέβας सेबास, जिसका अर्थ हैश्रद्धा, जो स्वयंसेबसे बना है (जिसका अर्थ है पवित्र भय और विशेष रूप से कार्यों में श्रद्धा,) एक ग्रीक शब्द है जिसका उपयोग ग्रीक दर्शन के साथ-साथ नए नियम (New Testament) में भी बहुतायत से किया जाता है , जिसका अर्थ है देवताओं के लिए उपयुक्त कार्य करना। मूल सेब- ( σέβ- ) खतरे और उड़ान से जुड़ा हुआ है, और इस प्रकार श्रद्धा की भावना मूल रूप से देवताओं के डर का वर्णन करती है, और यह θρησκεία ( थ्रेस्किया ), Religion ‘धर्मसे अलग है। यूसेबिया का संबंध ईश्वर के साथ वास्तविक, सच्चे, महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक संबंध से है, जबकि थ्रेस्किया (threskia) का संबंध धार्मिक अनुष्ठानों या समारोहों के बाहरी कृत्यों से है, जो शरीर द्वारा किया जा सकता है। अंग्रेजी शब्दरिलीजनका प्रयोग सच्ची ईश्वरभक्ति के अर्थ में कभी नहीं किया गया। इसका तात्पर्य हमेशा पूजा के बाहरी रूपों से था।
धर्म - आधुनिक अवधारणा
धर्म की आधुनिक अवधारणा, प्रोटेस्टेंट सुधार काल में ईसाईजगत के विभाजन और अन्वेषण के युग के वैश्वीकरण, गैर-यूरोपीय भाषाओं के साथ कई विदेशी संस्कृतियों के संपर्क, इत्यादि के कारण 16वीं और 17वीं शताब्दी में बनाई गई तथा इस तरह के शब्द का उपयोग 18वीं शताब्दी के ग्रंथों के साथ शुरू हुआ। जबकि बाइबिल, कुरान और अन्य प्राचीन पवित्र ग्रंथों की मूल भाषाओं में एक भी आजके सन्दर्भ के शब्द या धर्म की अवधारणा नहीं थी।  उदाहरण के लिए, हिब्रू में धर्म का कोई सटीक समकक्ष नहीं है, और यहूदी धर्म धार्मिक, राष्ट्रीय, नस्लीय या जातीय पहचान के बीच स्पष्ट रूप से अंतर नहीं करता है। इसकी केंद्रीय अवधारणाओं में से एक हलाखा है, जिसका अर्थ है चलना या पथ जिसे कभी-कभी कानून के रूप में अनुवादित किया जाता है, जो धार्मिक अभ्यास और विश्वास और दैनिक जीवन के कई पहलुओं का मार्गदर्शन करता है। भले ही यहूदी धर्म की मान्यताएं और परंपराएं प्राचीन दुनिया में पाई जाती हैं, प्राचीन यहूदियों ने यहूदी पहचान को एक जातीय या राष्ट्रीय पहचान के रूप में देखा और इसमें अनिवार्य विश्वास प्रणाली या विनियमित अनुष्ठानों की आवश्यकता नहीं थी। पहली शताब्दी सीई में जोसीफस ने एक जातीय शब्द के रूप में यूनानी शब्द आयौडाइस्मोस (यहूदी धर्म) का इस्तेमाल किया था और वह धर्म की आधुनिक अमूर्त अवधारणाओं या विश्वासों के समूह से जुड़ा नहीं था।यहूदी धर्मकी अवधारणा का आविष्कार ईसाई चर्च द्वारा किया गया था। और 19वीं शताब्दी में यहूदियों ने अपनी पुश्तैनी संस्कृति को ईसाई के समान के रूप में देखना शुरू किया। यूनानी शब्द थ्रेस्किया, जिसका प्रयोग हेरोडोटस और जोसीफस जैसे यूनानी लेखकों द्वारा किया गया था, नए नियम में पाया जाता है। थ्रेस्केया को कभी-कभी आज के अनुवादों मेंधर्मके रूप में अनुवादित किया जाता है, हालांकि, मध्ययुगीन काल में इस शब्द को सामान्यपूजाके रूप में समझा जाता था। कुरान में, अरबी शब्द दीन को अक्सर आधुनिक अनुवादों में धर्म के रूप में अनुवादित किया जाता है, लेकिन 1600 के दशक के मध्य तक अनुवादकों ने दीन कोकानूनके रूप में व्यक्त किया। संस्कृत शब्द धर्म, जिसे कभी-कभी धर्म के रूप में अनुवादित किया जाता है, इसका अर्थ कानून भी है। पूरे दक्षिण एशिया में, कानून के अध्ययन में धर्मपरायणता और औपचारिक के साथ-साथ व्यावहारिक परंपराओं के माध्यम से तपस्या जैसी अवधारणाएं शामिल थीं। मध्यकालीन जापान में पहले शाही कानून और सार्वभौमिक या बुद्ध कानून के बीच एक समान संघ था, लेकिन बाद में ये सत्ता के स्वतंत्र स्रोत बन गए।
यद्यपि परंपराएं, पवित्र ग्रंथ और प्रथाएं पूरे समय मौजूद रही हैं, अधिकांश संस्कृतियां धर्म की पश्चिमी धारणाओं के साथ संरेखित नहीं हुईं क्योंकि उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी को पवित्र से अलग नहीं किया। 18वीं और 19वीं शताब्दी में, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, ताओवाद, कन्फ्यूशीवाद और विश्व धर्म शब्द सबसे पहले अंग्रेजी भाषा में आए। अमेरिकी मूल-निवासियों के बारे में भी सोचा जाता था कि उनका कोई धर्म नहीं है और उनकी भाषाओं में धर्म के लिए कोई शब्द भी नहीं है। 1800 के दशक से पहले किसी ने स्वयं को हिंदू या बौद्ध या अन्य समान शब्दों के रूप में पहचाना नहीं था।हिंदूऐतिहासिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के स्वदेशी लोगों के लिए एक भौगोलिक, सांस्कृतिक और बाद में धार्मिक पहचानकर्ता के रूप में इस्तेमाल किया गया है। अपने लंबे इतिहास के दौरान, जापान के पास धर्म की कोई अवधारणा नहीं थी क्योंकि कोई संबंधित जापानी शब्द नहीं था, ही इसके अर्थ के करीब कुछ भी, लेकिन जब अमेरिकी युद्धपोत 1853 में जापान के तट पर दिखाई दिए और जापानी सरकार को अन्य मांगों के साथ धर्म की स्वतंत्रता संधियों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया, जापान को इस विचार से जूझना पड़ा।
भारतीय परिपेक्ष
प्राचीन भारत मेंधर्मशब्द का अर्थ आध्यात्मिक प्रौढ़ता, भक्ति, दया, मानव समुदाय के प्रति कर्तव्य आदि था। कुछ हजार साल पहले तक हिन्दू धर्म जैसी कोई चीज अलग से नहीं थी। सिंधु नदी और उसके घाटी क्षेत्र सहित उसके पार पूर्व के क्षेत्र को समेटते हुए उत्तर पामीर के पठार पर्यन्त, हिमालय पर्वत श्रृंखला पर्यन्त हिन्द महासागर से घिरा हुआ प्रदेश भारतखण्ड, भारतवर्ष, आर्यावर्त आदि नाम से हजारों वर्षों से कहलाता गया और वर्तमान कलि-काल में सिंधु पार कर यूरोप और भूमध्य सागर के क्षेत्रों के तरह दुर्दांत लुटेरों और डकैतों अथवा आपस के समूहों के संघर्ष से बचा रहा, हिन्दू इस धरती का नाम था, और सनातन धर्म यहां का धर्म। सनातन धर्म विश्वास करना नहीं, अपितु खोजना सिखाता है। हमें अपनी समझ बुद्धि से खोज करने और अपनी आध्यात्मिक प्रक्रिया खुद तैयार करने की आजादी छह से आठ हजार सालों तक मिली। यहां बिना किसी दूसरों के हस्तक्षेप या बिना दूसरों के आक्रमण के हम अपना संगीत, अपना गणित, अपना खगोल शास्त्र, अपने वैज्ञानिक सोच, आध्यात्मिक सोच, इत्यादि को चरम ऊंचाइयों तक ले जा सके। ऐसा इसलिए संभव था, क्योंकि हिमालय और हिन्द महासागर हमारी रक्षा बचाव करते थे। हम लोग अपनी इन दोनों भौगोलिक पहचानों के प्रति गहन सम्मान की वजह से खुद को हिंदू कहने लगे, क्योंकि इन दोनों के बिना हम हजारों सालों से चली रही अपनी संस्कृति को बचाए नहीं रख सकते थे।
सनातन धर्म
धर्म को सम्प्रदाय या पन्थ से जोड़ कर देखना वास्तव में धर्म की समझ को सीमित करना है, चूँकि पश्चिमी-जगत का सम्बंध केवल सम्प्रदाय याविश्वाससे है अत: वह भारतीय-दृष्टि से अनभिज्ञ रहते हुएधर्मको भीमज़हबबताता रहता है जो नितान्त गलत है, वास्तव में विशुद्ध धर्म तो केवलसनातन-धर्मही है बाकी सब उसकी शाखाएँ मात्र हैं यानीसम्प्रदायऔरपन्थ धर्म केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं वह तो अखिल-विश्व/ब्रह्माण्ड में व्याप्त है; सजीव-निर्जीव सहित पशु-पक्षीयों और वृक्षों के अतिरिक्त पंच महाभूत भी धर्म से ही संचालित हैं, वास्तव में धर्म प्रकृति की संचालिका-शक्ति है! धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है। मध्ययुगीन धर्म के व्याख्याताओं ने संसार के प्रत्येक क्रियाकलाप को ईश्वर की इच्छा माना, दार्शनिकों ने व्यक्ति के वर्तमान जीवन की विपन्नता का हेतुकर्म-सिद्धान्तके सूत्र में प्रतिपादित किया। इसकी परिणति मध्ययुग में यह हुई कि वर्तमान की सारी मुसीबतों का कारणभाग्यअथवा ईश्वर की मर्जी को मान लिया गया। समाज या देश की विपन्नता को उसकी नियति मान लिया गया। समाज स्वयं भी भाग्यवादी बनकर अपनी सुख-दु:खात्मक स्थितियों से सन्तोष करता रहा।
आज के युग ने यह चेतना प्रदान की है कि विकास का रास्ता मानव ने स्वयं बनाना है। किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को सँवारने में अधिक है। उसका ध्यानभविष्योन्मुखी होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है। वह पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है। अर्थात सनातन के वास्तविकता के तरफ बढ़ रहा है।
-क्रमश:

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