योग एवं आयुर्वेद एक समग्र चिकित्सा
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डॉ. रीना अग्रवाल, (हिंदी वैज्ञानिक-बी)
पतंजलि हर्बल अनुसंधान हरिद्वार, उत्तराखंड
योग शब्द ‘युजसमाधौ’आत्मनेपदीदिवादिगणीय धातु में ‘घं’प्रत्यय लगाने से बना है। ‘योग’शब्द का अर्थ समाधि अर्थात चित्त वृत्तियों को वश में करने से है। ‘योग’शब्द संस्कृत मूल ‘युज’से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘जोडऩा’‘जुडऩा’या ‘एकजुट होना’है। योग शास्त्रों के अनुसार योगाभ्यास व्यक्तिगत चेतना को सार्वभौमिक चेतना से जोड़ता है, जो तन, मन, व्यक्ति और प्रकृति के बीच पूर्ण सामंजस्य स्थापित करता है। योग शारीरिक व्यायाम, शारीरिक मुद्रा (आसन), ध्यान, सांस लेने की प्रविधि एवं व्यायाम को जोड़ता है। इसका अर्थ ‘योग’या भौतिकता का स्वयं से आध्यात्मिक के साथ मिलन है। योग मन के उतार-चढ़ाव (चित्त वृत्ति) का निग्रह (वश में) करता है।
योग के ज्ञान का विकास
योग की उत्पत्ति हजारों वर्षों पूर्व हमारे देश में ही हुई थी जो आज भी भारतीय संस्कृति से अद्भुत एवं अटूट रूप से जुड़ी है। योग दर्शन के जनक महर्षि पतंजलि ने लगभग 500 ईसा पूर्व योग सूत्र लिखे थे। इन सूत्रों को योग पर आधिकारिक ग्रंथ माना जाता है। इसके आठ अंगों की रूपरेखा इस प्रकार है- यम (सामाजिक नैतिकता), नियम (व्यक्तिगत नैतिकता), आसन (मुद्राएँ), प्राणायाम (श्वास क्रिया), प्रत्याहार (इंद्रियों को वापस खींचना), धारणा (एकाग्र ध्यान), ध्यान (ध्यान) और समाधि (स्वयं के साथ विलय)। भारतीय संस्कृति में भगवान शिव को आदि योगी और आदि गुरु के रूप में ध्यान और कलाओं का संरक्षक देवता माना जाता है। सूर्य देवता कौन हैं! सूर्य को बार-बार प्रणाम करते हुए इतना कह सकते हैं कि विश्व की सभी सभ्यताओं में सूर्य का स्थान सदैव ही पूजनीय रहा है। भगवद्गीता ने योग सूत्रों को सरल बनाया, श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपने संवाद के माध्यम से उनका और विस्तार किया। इस आदान-प्रदान से योग के तीन पृथक प्रकारों पर चर्चा की गई- क्रिया योग (कर्म योग), ज्ञान योग (ज्ञान योग)और भक्ति योग (भक्ति योग)।
आयुर्वेदिक ज्ञान का विकास
आयुर्वेद जीवन का विज्ञान है जो लाभ-हानि और सुख-दुख के साथ जीवन के लिए क्या अच्छा और क्या बुरा है इसका माप है। आयुर्वेद के रचयिता महर्षि धन्वंतरि को आयुर्वेद के जनक और देवत्व के रूप में स्थापित किया गया है। 000-700 ईसा पूर्व के मध्य, आयुर्वेद आठ शाखाओं में इस प्रकार विकसित हुआ- आंतरिक चिकित्सा (कायाचिकित्सा), सर्जरी (शल्य तंत्र), नेत्र, कर्ण, नासिका और ग्रीवा के रोग (शालाक्य तंत्र), बाल चिकित्सा (कौमारभृत्य), विष विज्ञान (अगद तंत्र), मनोचिकित्सा (भूत विद्या), कायाकल्प (रसायन) और यौन जीवन शक्ति (वाजीकरण)। इसके अलावाउस समय दो विद्यालय ‘धन्वंतरि स्कूल ऑफ़ सर्जन’और ‘आत्रेय स्कूल ऑफ़ फिज़ि़शियन’भी बनाए गए।
आयुर्वेदिक योग चिकित्सा एक मन-शरीर-आत्मा दृष्टिकोण है जो संवेदनाओं-भावनाओं को दबाने के बजाय उनसे जुडऩे में सहायता करता है। आयुर्वेद से मिलता जुलता शब्द आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका संबंध मानव शरीर को निरोगी रखने, रोग से मुक्त करने अथवा शमन करने और आयु बढ़ाने से है। आयुर्वेद, तंदुरुस्ती मन, शरीर, आत्मा और पर्यावरण के मध्य एक नाजुक संतुलन पर निर्भर करती है। आयुर्वेद का लक्ष्य अच्छे स्वास्थ्य में वृद्धि और व्याधियों से लडऩा नहीं बल्कि उन्हें रोकना है। आयुर्वेद का मूल आधार अथर्ववेद है। अथर्ववेद में आयुर्वेद से संबंधित विषयों का वर्णन है जिनमें मुख्य ‘वैद्य के गुण, कर्म या भिषज, भैषज्य, बाजीकरण, दीर्घायुष्य, रोगनाशक विभिन्न मणियाँ, प्राण चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, वशीकरण, सूर्य चिकित्सा, जल चिकित्सा तथा विविध औषधियों के नाम आदि उपलब्ध हैं।
वैदिक चिकित्सा
चरक, सुश्रुत और वाग्भट्ट जैसे आयुर्वेदिक ग्रंथों में ‘चिकित्सा या उपचार से संबंधित क्षेत्र’नाम से खंड सम्मिलित हैं। उनके निदान से संबंधित खंड और शरीर स्थान, ‘देहधारी आत्मा से संबंधित खंड’जैसे पूरक क्षेत्र हैं जिनमें भौतिक शरीर की संरचना और शरीर विज्ञान शामिल है। हमारे देहधारी स्वभाव (शरीर, मस्तिष्क और आत्मा) और यह कैसे कार्य करता है, संक्रमण के कारण और बीमारी का उपचार का आयुर्वेदिक दृष्टिकोण स्वास्थ्य और आदर्श कल्याण की एक उत्कृष्ट और अद्भुत प्रणाली में पूर्ण रूप से जुड़ा हुआ है। आयुर्वेद चिकित्सा में आहार एवं जड़ी-बूटियों का प्रयोग करके आयुर्वेदिक दवाएँ, सर्जरी, शरीर क्रिया और पंचकर्म जैसी असाधारण नैदानिक विधियाँ हैं। यह तन और मन दोनों के उपचार के लिए अनुष्ठान, मंत्र और ध्यान प्रदान करता है। इसके अलावा यह स्वास्थ्य, जीवन-काल और बीमारी से बचने के लिए जीवन-शैली के निर्देश, तन और मन के कायाकल्प के लिए असाधारण प्रक्रियाएँ भी प्रदान करता है। यह आसन व प्राणायाम से मंत्र और ध्यान तक योग के कार्यों को अपने स्वास्थ्य लाभ के प्रमुख पहलू के रूप में शामिल करता है। प्राणायाम आयुर्वेद के दोषों या जैविक हास्य (वात, पित्त और कफ) को प्रभावित करता है। प्राणायाम श्वसन संचार और तंत्रिका तंत्र की स्थितियों के उपचार में कारगर है। इनके माध्यम से शारीरिक एवं मानसिक स्थितियों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
आयुर्वेद का अर्थ जीवन का ज्ञान
सुखी व स्वस्थ रहने के लिए यह आवश्यक है कि शरीर में कोई व्याधि एवं विकार न हो,यदि कोई व्याधि एवं विकार हो भी जाए तो उसे शीघ्र दूर कर लिया जाए। आयुर्वेद का लक्ष्य उचित पेय, आहार और जीवन-शैली के साथ-साथ हर्बल चिकित्सा के द्वारा तन, मन और चेतना में संतुलन बनाकर व्याधि की रोकथाम व उपचार करना है। आयुर्वेद के मूल सिद्धांतों के अनुसार ब्रह्मांड पाँच तत्वों यथा; अंतरिक्ष, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से मिलकर बना है। ये तत्व प्रत्येक वस्तु में हैं जो तीन ऊर्जा बनाते हैं- वात (अंतरिक्ष और वायु), पित्त (अग्नि और जल) और कफ (जल और पृथ्वी। आयुर्वेद में 'तुलसी के पौधे’को अतुलनीय पवित्र जड़ी-बूटी माना गया है। विविध गुणों से भरपूर होने के कारण इसे ‘आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों की रानी’ कहा जाता है। यह एक ऐसा पौधा है जिसके पत्ते, तना, मंजरी एवं जड़ सबका प्रयोग आयुर्वेदिक औषधि के रूप में होता है। अश्वगंधा को ‘आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों का राजा’ माना जाता है। आयुर्वेदाचार्य अश्वगंधा को लगभग 3,000 से अधिक वर्षों से कई तरह के शारीरिक-मानसिक रोगों के उपचार के लिए प्रयोग करते आ रहें हैं। पाचन तंत्र संबंधित रोग इस प्रकार हैं- श्वसन तंत्र, नेत्र रोग, कर्ण रोग, मुख रोग, त्वचा रोग, ज्वर और यौन रोग। विभिन्न रोगों से संबंधित अधिकांश चिकित्सा-उपचार अथर्ववेद में उपलब्ध होते हैं। ‘चरक संहिता’आयुर्वेद की एक प्रसिद्ध पुस्तक है इसके लेखक अग्निवेश हैं। इस प्रकार आयुर्वेद का अर्थ जीवन का ज्ञान है।
योग और आयुर्वेद का प्रारंभिक इतिहास
वेद, प्राचीन ग्रंथ संस्कृत में रचित हैं। कहा जाता है कि इन्हें हज़ारों वर्ष पूर्व मान्यता मिली थीं। ये कविताओं एवं भजनों का एक संग्रह हैं जो मूल रूप से मौखिक परंपरा के माध्यम से पारित किए गए थे। अंतत: 1500 ईसा पूर्व-500 ईसवी के आसपास लिखे गए थे। आज चार वैदिक ग्रंथ ज्ञात हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। इनमें से प्रत्येक वेद विशिष्ट विषयों या उपवेदों पर केंद्रित है। आयुर्वेद और योग दोनों की उत्पत्ति का पता ऋग्वेद से लगाया जा सकता है। ऋग्वेद चिकित्सा के विषय में बात करता है, अथर्ववेद में आयुर्वेद से संबंधित अधिकांश चिकित्सा शामिल हैं। योग के मुख्यक प्रकार हैं, कर्म योग- जहाँ हम शरीर का उपयोग करते हैं, भक्ति योग- जहाँ हम भावनाओं का उपयोग करते हैं, ज्ञान योग- जहाँ हम मन और बुद्धि का उपयोग करते हैं और क्रिया योग- जहाँ हम ऊर्जा का उपयोग करते हैं।
योग और आयुर्वेद का प्रसार
19वीं सदी में योग को पश्चिम में प्रस्तुत किया गया था। इसका श्रेय स्वामी विवेकानंद को दिया जा सकता है जिन्होंने अमेरिका में योग दर्शन को आगे बढ़ाते हुए व्याख्यान एवं विभिन्न शिक्षण केंद्र स्थापित किए। परमहंस योगानंद (योगी की आत्मकथा के लेखक) ने 1920 के दशक में अपने व्याख्यान, केंद्र और लेखन के माध्यम से पश्चिम में योग के विस्तार में योगदान दिया। भारत में कृष्णमाचार्य ने शारीरिक अभ्यास या आसनों पर ध्यान केंद्रित करते हुए हठ योग को लोकप्रिय बनाया, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान में हम जिस तरह का योगाभ्यास देखते हैं वह आज प्रमुख बन गया है। भारत का इतिहास मुगल आक्रमणों और ब्रिटिश उपनिवेशवाद से भरा पड़ा है। अंग्रेजों ने भारतीय चिकित्सा विज्ञान के आयुर्वेद को दबाकर, 1833 में सभी आयुर्वेदिक कॉलेजों पर प्रतिबंध लगा दिया था। परिणामस्वरूप विभिन्न परंपराएँ, पद्धतियाँ एवं ज्ञान के भंडार नष्ट हो गए। 1947 में औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद आयुर्वेद को भारत सरकार द्वारा पुनर्जीवित और मानकीकृत किया गया।
आयुर्वेद और योग, समग्र दृष्टिकोण
इस क्षेत्र में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि आयुर्वेदिक घटक ऑस्टियोअर्थराइटिस से पीडि़तों की कार्यक्षमता में वृद्धि करते हैं। टाइप-2 मधुमेह से पीडि़तों में लक्षणों को प्रबंधित करने में मदद करती हैं। व्यक्ति हॉर्मोन्स के असंतुलन के कारण भी अक्सर बीमार रहता है इसके पीछे अधिक तनाव, थायरॉइड, प्रेग्नेंसी, मोनोपॉज के अलावा अन्य कारण भी हो सकते हैं। अधिक दवाओं के सेवन से हार्मोन असंतुलित हो जाते हैं। फलस्वरूप रात्रि प्रहर में सात से आठ घंटे की आरामदायक निद्रा, तनाव से बचने के उपाय, प्रतिदिन शारीरिक रूप से सक्रियता, सकारात्मक सामाजिक संबंध, प्रकृति के सानिध्य में रहना, माइंडफुलनेस का अभ्यास, तंबाकू-मादक पदार्थों एवं अतिरेत व्यवहार से बचना आदि सम्मिलित है। आज हमारे समक्ष कई बड़ी चुनौतियों में से एक बड़ी चुनौती महंगी चिकित्सा और उनके लिए वहनीय शुल्क की व्यवस्था न हो पाना है। आयुर्वेद और योगाभ्यास सकारात्मक और समग्र दृष्टिकोण से जीवन निर्वाह करने में सहायक है। अत: हम तनाव मुक्त शरीर और मन पा सकते हैं जिससे लंबी आयु सुनिश्चित होती है।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति अनेक विशेषताओं से समृद्ध है जो आज भी संपूर्ण भारतीय समाज को उच्चतम मूल्यों-आदर्शों की चेतना प्रदान करती है। आज योग और आयुर्वेद को पुन: एकीकृत किया जा रहा है ताकि पूर्ण उपचार और आध्यात्मिक दृष्टिकोण प्राप्त किया जा सके। योग और आयुर्वेद दोनों का अंतिम लक्ष्य जीवन को स्वस्थ और संतुलित करना है। हम स्वस्थ तब होते हैं जब हमारा तन, मन और आत्मा एक साथ होते हैं, एकाग्र होते हैं और पर्यावरण में पूर्ण सामंजस्य स्थापित करते हैं।
अत: योग और आयुर्वेद का यह पुन: जुड़ाव आधुनिक चिकित्सा के साथ वास्तविक आदान-प्रदान का आधार प्रदान करेगा जो विशिष्ट उपचारों को संबोधित करेगा, बीमारी के वास्तविक कारणों एवं समाज में स्वास्थ्य और समृद्धि को बनाए रखने के तरीकों को भी संबोधित करेगा।
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