अर्धसत्य से अंधकार फ़ैलता है

अर्धसत्य से अंधकार फ़ैलता है

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

   अर्धसत्य सदा आध्यात्मिक अंधकार फ़ैलाता है। मजहबी और बाहरी रेलिजस प्रभावों से सनातन धर्म के कतिपय अनुयायियों में भी अर्धसत्य ही बोलने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यद्यपि सनातन संस्कारों के गहरे प्रभाव के कारण सभी सनातनधर्मी विद्वान और साधक यह सत्य जानते हैं कि वे जो बोल रहे हैं, वह अर्धसत्य है और प्रसंगवश ही बोला जा रहा है। परंतु बारम्बार सत्य का केवल आधा पक्ष दोहराने से नई पीढ़ी में सत्य का शेष पक्ष विस्मृत या कुंद होता जा रहा है। इसलिये सभी सत्यनिष्ठ लोगों को चाहिये कि वे केवल अर्धसत्य न बोलें, पूर्ण सत्य बोलें। अन्यथा आध्यात्मिक अंधकार  और भ्रांति फ़ैलने की संभावना बढ़ती जायेगी।
एक जीवित मनुष्य में केवल आत्मा ही नहीं
उदाहरण के लिये, सभी हिन्दू यह सत्य दोहराते रहते हैं कि ‘तुझमें राम, मुझमें राम, सबमें राम समाया’। या यह कि ‘परमात्मा का वास सभी के हृदय में है’। या यह कि ‘तुझमें नारायण, मुझमें नारायण, सबमें नारायण, जहाँ देखो वहाँ नारायण-नारायण’। परंतु मानव जीवन का यह अर्धसत्य है। क्योंकि एक जीवित मनुष्य में केवल आत्मा ही नहीं होती। आत्मा तो होती है परंतु साथ ही देह, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, बुद्धि, संस्कार, आकांक्षायें, संकल्प, स्मृति, अभ्यास और पुरूषार्थ की सामथ्र्य भी होती है। सबके भीतर एक ही परमात्मा का वास है, यह सत्य है। परंतु सबके संस्कार, सबके मन की वृत्ति और संरचना, बुद्धि का स्वरूप और स्तर, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का सामथ्र्य, संकल्प का स्वरूप, आकांक्षाओं और लालसाओं के रूप, स्मृति का स्वरूप और भंडार तथा अभ्यास का स्वरूप और पुरूषार्थ की सामथ्र्य भिन्न-भिन्न होती है। प्राय: भिन्न-भिन्न लालसाओं और आकांक्षाओं के कारण समाजों और व्यक्तियों के मध्य टकराहट और संघर्ष होते रहते हैं। मानव जीवन का यही इतिहास है। सबके भीतर परमात्मा का वास होने के तथ्य से आज तक व्यक्ति और व्यक्ति, व्यक्ति और समाज तथा समाज और समाज यानी एक समाज की दूसरे समाज से टकराहटें टली नहीं हैं। इतना ही नहीं, स्वयं सनातन धर्म के ज्ञान के वाहक भारत में भी व्यक्तियों, कुलों, सम्प्रदायों और भिन्न-भिन्न समूहों की टकराहटें सदा होती रही हैं। साथ ही सनातन धर्म के ज्ञान के कारण उन टकराहटों का न्यायपूर्ण समाधान भी निकाला जाता रहा है। सम्पूर्ण भारतीय इतिहास इसका साक्षी है। इसके साथ ही पुरूषार्थों और संकल्पों के अलग-अलग रूपों से ही विद्या, कला, राज्य तथा शिल्पों के क्षेत्र में ऐश्वर्य की विविधता साकार होती है। इस विराट वैविध्य को देखते हुये भी अनदेखा करना सत्य का अनादर है। केवल सबमें एक परमात्मा का वास होने की रट में सत्य का यही अनादर सन्निहित है। दूसरी बात यह है कि इस अर्धसत्य के रट से कि सबमें एक ही परमात्मा का वास है, सामने दिख रहे संसार की विविधता का स्वरूप और कारण स्पष्ट नहीं होता।
सर्वत्र सर्वव्याप्त नारायण केवल वीतराग संन्यासियों की दृष्टि 
सर्वत्र सर्वव्याप्त नारायण को देखना सिद्ध वीतराग संन्यासियों की दृष्टि है। जिन्हें जगतगति नहीं व्यापती और जिनमें कोई भी लौकिक लालसा तथा भोग के संस्कार शेष नहीं हैं। इस प्रकार वे समाज के बीच रहते हुये एक महान प्रकाशपुंज की तरह है। उनकी उपस्थिति और उनके सामीप्य से सबको आध्यात्मिक लाभ होता है और चैतन्य का जागरण होता है। अत: उनका होना स्वयं में किसी भी समाज का सौभाग्य है परंतु उतने से लोकव्यापार नहीं चलता। लोक में व्यवहार और पुरूषार्थ के अनंत रूप अनादिकाल से प्रवर्तित और प्रवाहित हैं। समस्त धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, व्यापारिक, वाणिज्यिक, शिल्पगत, व्यवहारगत और राजनैतिक पुरूषार्थ विविध प्रकार की आकांक्षाओं और संकल्पों तथा क्रियाओं का परिणाम है। वे केवल वीतराग संन्यासियों के पुरूषार्थ का परिणाम नहीं है। अत: सर्वत्र नारायण के दर्शन से तथा परस्पर की भिन्नता और भेद की विस्मृति से लोकव्यवहार और लोकव्यापार संभव नहीं है। यह सर्वविदित है। 
कथाएँ व गाथाएँ शिक्षा का प्रमुख अंग
परम्परा से हमारे यहाँ कथाओं, आख्यानों तथा इतिहास-पुराण की गाथाओं की प्रस्तुति कथावाचकों और उपदेशकों तथा धर्मक्षेत्र की विभूतियों के द्वारा होती रही है। इसलिये विश्व की विविधता की व्याख्या जन-जन में व्याप्त रही है। तात्विक स्तर पर अभेद का ज्ञान और व्यावहारिक स्तर पर भेद का ज्ञान सनातन सत्य है, जिसका ज्ञान इन कथाओं, आख्यानों और इतिहास की गाथाओं से निरंतर समाज में प्रसारित होता रहा है। परंतु 15 अगस्त 1947 के बाद औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र से ये कथायें और गाथायें यह कहकर बहिष्कृत कर दी गई हैं कि ये शिक्षा के मुख्य प्रवाह का अंग नहीं हैं। फ़लस्वरूप विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में होने वाली विद्वत-चर्चाओं में ये कथायें और इतिहास के ये तथ्य प्राय: अनुपस्थित रहते हैं। इसलिये नई पीढ़ी के चित्त से यह सत्य बौद्धिक स्तर पर ओझल या अस्पष्ट रहता है। इससे संसार के प्रति तामसिक अभेदवाद पैदा होता है। विशेषकर हिन्दुओं की नई पीढ़ी में यह तामसिक अभेदवाद संभवत: जानबूझकर बढ़ाया गया है। परंतु इससे बहुत अनिष्ट होता है।
नई पीढ़ी की अज्ञानता से बढ़ रहा आध्यात्मिक अंधकार
भारत में इन दिनों ऐसे अनेक समूह सक्रिय हैं जो हिन्दू धर्म को पिछड़ा, अज्ञानपूर्ण और नष्ट होने योग्य बताते रहे हैं और इसके स्थान पर अपने पंथ या अपने मत को प्रस्थापित करने का प्रस्ताव करते रहते हैं। एक ओर वे हिन्दू धर्म के प्रति सार्वजनिक रूप से शत्रुता का भाव रखते देखे जाते हैं और दूसरी ओर सभी मजहब एक हैं की रट से हिन्दुओं की नई पीढ़ी को लगता है कि जब सब में एक ही परमात्मा का वास है तो क्या अंतर पड़ता है कि सनातन धर्म रहे या अमुक लोगों का मजहब या रिलीजन रहे। दूसरी ओर हिन्दू धर्म की निंदा कर रहे समूह यह कभी नहीं कहते कि हमारा मजहब रहे या हमारा रिलीजन रहे अथवा सनातन धर्म ही रहे, इससे क्या अंतर पड़ता है। इसके स्थान पर वे सदा ही अपने मजहब या रिलीजन या पंथ अथवा मतवाद को हिन्दू धर्म की जगह प्रतिस्थापित करने को तत्पर रहते हैं। यह बड़ी विषम स्थिति है। अर्धसत्य की चपेट में आये हिन्दुओं की युवा पीढ़ी इस स्थिति को सम्भाल नहीं पाती।
राजनैतिक लाभ के लिए हमारे शासकों ने फ़ैलाई अर्धत्य की प्रवृत्ति
अर्धसत्यों की यह प्रवृत्ति सबसे पहले 1947 ईस्वी के बाद हमारे शासकों ने फ़ैलाई। उन्होंने विश्व के विषय में देश में अर्धसत्य फ़ैलाया। जिस समय विश्व में आणविक और परमाणु हथियारों की होड़ चल रही थी और प्रत्येक शक्तिशाली राष्ट्र सम्पूर्ण विश्व में केवल अपना प्रभुत्व फ़ैलाने के लिये सब प्रकार के कूटनैतिक प्रयास और प्रपंच कर रहा था, उस समय श्री जवाहरलाल नेहरू और उनके नेतृत्व में शासन से जुड़े सभी प्रमुख बौद्धिक लोग देश को यह बता रहे थे कि हम विश्व में शांति और पंचशील लाने जा रहे हैं और सम्पूर्ण विश्व से हथियारों की होड़ समाप्त करके शांतिपूर्ण सहअस्तित्व संभव बनायेंगे। यह बताते-बताते 70 वर्ष से अधिक हो गये और न तो दुनिया में हथियारों की होड़ थमी और न ही भीषण युद्ध थमें तथा न ही शक्तिशाली देशों द्वारा सम्पूर्ण विश्व में अपना ही एकाधिकार फ़ैलाने और अन्य देशों तथा समाजों को अपने नियंत्रण अथवा अपने प्रभाव में लेने की रणनीतियाँ थमी। अपने देशवासियों से अर्धसत्य बोलकर उन्होंने देश के मानस को विश्व के सत्य से काट दिया। इससे एक राष्ट्रीय बुद्धि मंदता फ़ैली। हिन्दुओं का बहुत बड़ा वर्ग विश्व के विषय में अपने नेताओं की गप्पों के आधार पर राय बनाने लगा और स्वप्नजीवी हो गया। उसने मान लिया कि विश्व में सब लोग भारत के नेतृत्व में शांति और सद्भाव स्थापित करने के लिये ही प्रयासरत हैं। जबकि इस बीच सभी शक्तिशाली राज्य विश्व में केवल युद्ध और अन्यों पर नियंत्रण की ही रणनीति पर काम कर रहे थे। इतना ही नहीं, बौद्धिक स्तर पर भी हिन्दू धर्म को लांछित करने और भारत के गौरवशाली इतिहास को छिपाने या मलिन करने के प्रयास भी चल रहे थे। इस प्रकार नेताओं द्वारा फ़ैलाये गये अर्धसत्य के कारण भारत के हिन्दुओं की बहुत बड़ी जनसंख्या विश्व की वास्तविकताओं से कट गई। हिन्दू धर्म को नष्ट करने वाले सभी समुदायों को वे सद्भाव से प्रेरित और सत्यनिष्ठ समूह मानते रहे। यह आत्मघाती वृत्ति समाज को सब प्रकार से हानि पहुँचाने वाली सिद्ध हुई।
कुछ कथावाचक व उपदेशकों ने भी फ़ैलाया भ्रम
नेताओं के अनुसरण में कुछ कथावाचक, उपदेशक आदि भी सम्पूर्ण विश्व में शांति और सद्भाव फ़ैल रहे होने की बात कहने लगे। आचार्य विनोबा भावे जैसे विद्वान ने यह व्याख्या ही प्रस्तुत कर दी कि सम्पूर्ण विश्व निरंतर अहिंसा की ओर बढ़ रहा है और हम निरंतर आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो रहे हैं। स्पष्ट है कि यह सर्वथा असत्य और भ्रांत बात थी। विश्व का सत्य तो कुछ और ही है। लगातार नास्तिकता और अविवेकपूर्ण भोगवाद भी फ़ैल रहा है। भारत में भी यही प्रवृत्तियाँ फ़ैलीं। इन प्रवृत्तियों को थामने का काम भी सत्यनिष्ठ और पुरूषार्थी धार्मिकजनों ने ही किया है। न कि नेताओं के अनुसरण में विश्व के विषय में भ्रांति फ़ैलाने वाले लोगों ने।
हिन्दुओं में व्याप्त तामसिक अभेदवाद को विश्व के किसी भी मजहब या रिलीजन वालों ने नहीं किया स्वीकार 
जिन लोगों ने तामसिक अभेदवाद का अनुसरण कर हिन्दू धर्म और एकपंथवादी मतों या मजहबों को एक समान माना, उनके कारण यह स्थिति आ गई कि सनातन धर्म को भारत में ही सब प्रकार से लांछित किया जाने लगा और हिन्दू धर्म का परित्याग या उसकी निंदा को नई चेतना का पर्याय बताया जाने लगा। भारत से बाहर के किसी भी मजहब या रिलीजन ने आज तक तामसिक अभेदभाव के इस स्वरूप को नहीं अपनाया है। किसी ने भी यह नहीं कहा है कि हमारे मजहब या हमारे रिलीजन का आराध्य देव वही हैं, जो हिन्दुओं के परमात्मा हैं या जो श्रीराम, श्रीकृष्ण, भगवान शिव, जगदम्बा दुर्गा, माता सरस्वती और माता लक्ष्मी हैं। यह कभी कोई नहीं कहता। यह केवल कतिपय मूर्ख अथवा दुष्ट हिन्दू नेताओं ने और उनका अनुसरण करने वाले धार्मिक नेताओं ने कहा है कि जो राम हैं, वे ही अल्लाह भी हैं और वे ही यीशु हैं। इसके स्थान पर अल्लाह को मानने वालों ने अन्य सभी आराध्य देवों को असत्य बताया है और यीशु को मानने वालों ने अल्लाह सहित शेष सबको असत्य बताया है। इस प्रकार हिन्दुओं में व्याप्त तामसिक अभेदवाद को विश्व के किसी भी मजहब या रिलीजन वालों ने स्वीकार नहीं किया है। 
तो क्या उनके भीतर परमात्मा का वास नहीं है? निश्चय ही है। लेकिन अन्यों के आराध्यदेवों अथवा अन्यों की उपासना पद्यति या अन्यों की संस्कृति या धर्म को नष्ट करने का कोई निर्देश सर्वान्तर्यामी परमात्मा ने नहीं दिया है। यह तो संबंधित समूहों द्वारा अन्यों पर आधिपत्य की लालसा से उपजा विचार मात्र है। केवल सर्वव्यापी परमात्मा पर बल देने से विश्व की इन घटनाओं और प्रवृत्तियों का कोई भी स्पष्टीकरण संभव नहीं है। क्योंकि उनके भीतर बैठे परमात्मा ने अन्यों के भीतर बैठे परमात्मा को अस्वीकार करने या नष्ट करने का कोई भी निर्देश नहीं दिया है। ऐसा कोई निर्देश वे दे ही नहीं सकते। क्योंकि ऐसा निर्देश देने वाला परमात्मा हो ही नहीं सकता। यह तो संबंधित समूहों की सत्ता और सम्पत्ति तथा प्रभुत्व और नियंत्रण की लालसायें हैं जो उन्हें अपने आराध्यदेव के अतिरिक्त अन्य सब आराध्यों को असत्य बताकर उन पर अपना प्रभुत्व और अपना नियंत्रण स्थापित करने की प्रेरणा देती हैं और उस प्रकार के विचार फ़ैलाती हैं। अत: सत्य के इस पक्ष का भी न केवल ध्यान रखना आवश्यक है, अपितु सार्वजनिक प्रचार भी आवश्यक है। कम से कम हिन्दू समाज के भीतर यह सम्पूर्ण सत्य फ़ैलना आवश्यक है। क्योंकि तभी हिन्दू समझेंगे कि जिन्हें वे अपने ही जैसा परमात्मा का उपासक मानते हैं, वे अकारण हिन्दू धर्म को नष्ट क्यों करना चाहते हैं? हिन्दू धर्म ने उनको क्या हानि पहुँचाई है या उनसे क्या छीना है? अगर कुछ भी नहीं छीना है तो फिऱ वे लोग अकारण हिन्दुओं के प्रति आक्रामक क्यों हैं? 
इसीलिये सम्पूर्ण सत्य को जानना और बोलना दोनों आवश्यक हैं। जिस समाज में केवल अर्धसत्य फ़ैलता है, वहाँ आध्यात्मिक अंधकार फ़ैल जाता है। सामने नष्ट करने को उपस्थित आततायी भी ऐसे अंधे लोगों को आत्मीय नजर आते हैं और अंत में उनकी पराजय सुनिश्चित हो जाती है। इसलिये सत्य के दोनों ही पक्षों का प्रचार और कथन कर्तव्य है। केवल सब में परमात्मा का वास बताना अलग-अलग लोगों के भीतर जाग्रत लालसाओं और वासनाओं की आग तथा ईष्र्या और द्वेष की आग एवं प्रभुत्व और विनाश की धधकती ज्वाला को छिपाना है। उससे प्रत्यक्ष सत्य की सम्यक व्याख्या नहीं हो पाती। केवल आध्यात्मिक अंधकार फ़ैलता है। इसीलिये पूर्ण सत्य का बोध जाग्रत रहना आवश्यक है।
 

Advertisment

Latest News

परम पूज्य योग-ऋषि श्रद्धेय स्वामी जी महाराज की शाश्वत प्रज्ञा से नि:सृत शाश्वत सत्य ... परम पूज्य योग-ऋषि श्रद्धेय स्वामी जी महाराज की शाश्वत प्रज्ञा से नि:सृत शाश्वत सत्य ...
ओ३म 1. सनातन की शक्ति - वेद धर्म, ऋषिधर्म, योग धर्म या यूं कहें कि सनातन धर्म के शाश्वत, वैज्ञानिक,...
अतिथि संपादकीय
डेंगुनिल डेंगू का सफल उपचार
अर्धसत्य से अंधकार फ़ैलता है
आर्थराइटिस
शाश्वत प्रज्ञा
2000  वर्ष के पूर्व के आयुर्वेद और वर्तमान समय के आयुर्वेद की कड़ी को जोडऩे का माध्यम है
जड़ी-बूटी दिवस के अवसर पर पतंजलि योगपीठ हरिद्वार में एक लाख पौधों का निशुल्क वितरण एवं वृक्षारोपण
78वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर पतंजलि योगपीठ में ध्वजारोहण
साक्ष्य आधारित लिवोग्रिट एक प्रभावी और सुरक्षित औषधि