जीवन की उत्पत्ति

जीव में सामाजिक और जाति व्यवस्था भाग-३

जीवन की उत्पत्ति

डॉ. चंद्र बहादुर थापा, वित्त एवं विधि सलाहकार

भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह

ब्रह्माण्ड के बनने का क्रम
प्राय: हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) से पूछा जाता है कि इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई, वेद अनुसार सृष्टि की रचना भगवान ने कैसे किया, और ब्रह्माण्ड के बनने का क्रम क्या है? वेद अनुसारभोक्ता भोग्यं प्रेरितारं मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्।।श्वेताश्वतर उपनिषद् 1.12, अर्थात, तीन तत्व है - अनादि (जिसका प्रारम्भ हो), अनंत, शाश्वत (सदैव के लिए) एक ब्रह्म, एक जीव, एक माया। माया ब्रह्माण्ड की शक्ति है, अर्थातभौतिक ऊर्जा शक्ति है, जिससे यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड बना है। वेद मंत्र में यह कहा गया है की तीन नित्य तत्व है जो अनादि (जिसका प्रारम्भ नहीं हुआ) है, अत: आत्मा का निर्माण माया से नहीं हुआ है और ही भगवान से हुआ है, लेकिन यह अवश्य है कि आत्मा और माया की सत्ता भगवान के कारण है। उपनिषद् अनुसार- ‘क्षरं प्रधानममृताक्षरं हर: क्षरात्मानावीशते देव एक:’ (श्वेताश्वतर उपनिषद् 1.10), अर्थात् - क्षर (माया), अक्षर (जीव) दोनों पर शासन करने वाला भगवान है, अतएव माया और जीव का भगवान अध्यक्ष है। गीता अनुसार- ‘भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।। (गीता 7.4-5) अर्थातपृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार, यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति तो अपरा अर्थात् जड़ प्रकृति (माया) है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात् चेतन प्रकृति (आत्मा) जान। इसके क्रम के सम्बन्ध में- ‘तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: सम्भूत: आकाशाद्वायु: वायोरग्नि: अग्नेराप: अद्भ्य: पृथिवी। पृथिव्या ओषधय: ओषधीभ्योन्नम्। अन्नात्पुरुष: वा एष पुरुषोऽन्नरसमय: तस्येदमेव शिर: अयं दक्षिण: पक्ष: अयमुत्तर: पक्ष: अयमात्मा। इदं पुच्छं प्रतिष्ठा। तदप्येष श्लोको भवति।।1।। - तैत्तिरीयोपनिषद् 2. 1, अर्थात्निश्चय ही (सर्वत्र प्रसिद्ध) उस, इस परमात्मा से (पहले पहल) आकाश तत्व उत्पन्न हुआ, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, (और) जल तत्व से पृथ्वी तत्व उत्पन्न हुआ, पृथ्वी से समस्त औषधियाँ उत्पन्न हुई, औषधियों से अन्न उत्पन्न हुआ, अन्न से ही (यह) मनुष्य शरीर उत्पन्न हुआ, वह- यह मनुष्य शरीर- निश्चय ही अन्न-रसमय है, उसका यह (प्रत्यक्ष दीखने वाला सिर) ही (पक्षी की कल्पना में) सिर है, यह (दाहिनी भुजा) ही, दाहिनी पंख है, यह (बायीं भुजा) ही बायाँ पंख है, यह (शरीर का मध्यभाग) ही, पक्षी के अङ्गों का मध्यभाग है, यह (दोनों पैर ही) पूँछ एवं प्रतिष्ठा है, उसी के विषय में यह (आगे कहा जाने वाला) श्लोक है।
इस मंत्र में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के साथ मनुष्य के हृदय रूपी गुफा का वर्णन करने के उद्देश्य से पहले मनुष्य शरीर की उत्पत्ति का प्रकार संक्षेप में बताकर उसके अंगों की पक्षी के अंगों के रूप में कल्पना की गयी है। इस मंत्र का भाव यह है कि परमात्मा से पहले आकाश तत्व उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु तत्व, वायु से अग्नि तत्व, अग्नि से जल तत्व और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई। पृथ्वी से नाना प्रकार की औषधियाँ-अनाज के पौधे हुए और औषधियों से मनुष्यों का आहार अन्न उत्पन्न हुआ। उस अन्न से यह स्थूल मनुष्य शरीर उत्पन्न हुआ। अन्न के रस से बना हुआ यह जो मनुष्य शरीर है, उसकी पक्षी शरीर के रूप में कल्पना की गयी है। उपर्युक्त वेद मंत्र में पृथ्वी जल से उत्पन्न होने की बात संक्षेेप में कही गयी है। पृथ्वी का प्राकट्य विस्तार से ऋग्वेद में इस प्रकार कहा है- ‘भूर्जज्ञ उत्तानपदो भुव आशा अजायन्त।- ऋग्वेद: 10.72.4, अर्थात्पृथ्वी सूर्य से उत्पन्न होती है। वह शक्ति, जिसको सनातन भगवान कहते हैं, की प्रेरणा से यह ब्रह्माण्ड बनता और प्रलय होता है। यह ब्रह्माण्ड का प्रलय बिलकुल ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति के विपरीत होता है। अर्थात्, पृथ्वी जल में विलीन हो गयी, जल अग्नि में, अग्नि वायु में, वायु आकाश में और आकाश भगवान में। अंत में केवल वे अज्ञात, अजन्मा परम शक्ति परमात्मा-भगवान ही रहते हैं। आत्मा भगवान के महोदर में रहती है तथा माया जड़ के समान हो जाती है।
यह आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है की यह पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति समय समय पर बदलती रही है, जैसे, अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन द्वारा परिभाषितभूवैज्ञानिक समय पैमाना (Geological time scale -GTS) पृथ्वी की शुरुआत से लेकर वर्तमान तक के समय की बड़ी अवधि को दर्शाता है, और इसके विभाजन पृथ्वी के इतिहास की कुछ निश्चित घटनाओं को दर्शाते हैं। इसके अनुसार पृथ्वी का निर्माण सौर निहारिका से अभिवृद्धि द्वारा लगभग 4.54 अरब वर्ष पहले हुआ था, जो कि ब्रह्मांड की आयु का लगभग एक तिहाई है, ज्वालामुखी विस्फोट से संभवत: आदिम वातावरण और फिर महासागर का निर्माण हुआ, लेकिन प्रारंभिक वातावरण में लगभग कोई ऑक्सीजन नहीं थी। अन्य पिंडों के साथ लगातार टकराव के कारण पृथ्वी का अधिकांश भाग पिघल गया था जिसके कारण अत्यधिक ज्वालामुखी उत्पन्न हुआ। जब पृथ्वी अपने प्रारंभिक चरण (प्रारंभिक पृथ्वी) में थी, तो माना जाता है कि थिया नामक ग्रह के आकार के पिंड के साथ एक विशाल टक्कर के कारण चंद्रमा का निर्माण हुआ। समय के साथ, पृथ्वी ठंडी हो गई, जिससे एक ठोस परत का निर्माण हुआ और सतह पर तरल पानी की स्थिति बनी। जून 2023 में, वैज्ञानिकों ने सबूत दिया कि पृथ्वी ग्रह का निर्माण केवल तीन मिलियन वर्षों में हुआ होगा, जो कि पहले सोचे गए 10-100 मिलियन वर्षों की तुलना में बहुत तेज़ है।
महत्वपूर्ण बात स्पष्ट है की 2023 से पहले के आधुनिक वैज्ञानिकों के खोज और 2023 के अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में भाग लेने वाले वैज्ञानिकों के तथ्यों में फर्क था, क्योंकि समय अनुसार वनस्पतियों के बीजों की तरह मरने के बाद किसी प्रकार संचित मानव बीजों के द्वारा जन्मे मानव में अपने पूर्वजों के डी.एन.. में निहित/अंकित पूर्व में परिष्कृत ज्ञान की प्रगटीकरण परिस्थितिवश होने से कुछ तथ्यों को सत्यापित किया जा सका कुछ परिवर्धन किया जा सका और विकास क्रम में एक कड़ी जुड़ गई भविष्य में और परिमार्जन और संसोधन सहित और उत्कृष्टता की और जाने के लिए।
जाति वास्तव में सप्तर्षियों से निकले गोत्र
शास्त्रों में 14 मन्वन्तर के 14 मनु - प्रथम स्वायम्भुव मनु, दूसरे स्वरोचिष, तीसरे उत्तम, चौथे तामस, पांचवें रैवत, छठे चाक्षुष हो चुके हैं, वर्तमान सातवें वैवस्वत मनु ही वर्तमान कल्प के मनु हैंइसके बाद अष्टम सावर्णि मनु, नवम दक्ष सावर्णि मनु, दशम ब्रह्म सावर्णि मनु, एकादश धर्म सावर्णि मनु, द्वादश रुद्र सावर्णि मनु, त्रयोदश रौच्य या देव सावर्णि मनु, और चतुर्दश भौत या इन्द्र सावर्णि मनु नाम से मनु होंगे। प्रत्येक मनु 71 चतुर्युगी अर्थात 30.67 करोड़ से ज्यादा वर्ष पृथ्वी भर के, अधिकतम औसत आयु 100 वर्ष के मानव को, अन्य निम्न जैविक स्तर से विकसित होते होते चरम स्तर के मानव में पहुँचने के बाद बीज रूप में छोडक़र प्रलय में विलीन होकर दूसरे मनु के प्रारंभिक स्तर से सूक्ष्म कोष से आरम्भ करते करते चौदहवें मन्वन्तर के अंत में ब्रह्माण्ड में विलीन हो जाते हैं। पुराणों में सप्तऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती हैं। विष्णु पुराण के अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि हैं- वशिष्ठकाश्यपोऽत्रिर्जमदग्निस्सगौतम: विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात्, सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज। ये सातऋषि आगे चल कर गोत्रकर्ता या वंश चलाने वाले हुए। जिनके गोत्र ज्ञात हों उन्हें काश्यपगोत्रीय माना जाता है- गोत्रस्य त्वपरिज्ञाने काश्यपं गोत्रमुच्यते। यस्मादाह श्रुतिस्सर्वा: प्रजा: कश्यपसंभवा:।। (हेमाद्रि चन्द्रिका)
वर्तमान पृथ्वी के सप्तर्षि और सातवें मन्वन्तर के सप्तर्षि
प्रथम मन्वन्तर के मनु स्वायंभुव मनु को प्रथम मानव कहा गया है। शास्त्रों में कहा गया है की सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई है। स्वायंभुव मनु एवं पत्नी शतरूपा के कुल पांच सन्तानें थीं जिनमें से दो पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा तीन कन्याएं आकूति, देवहूति और प्रसूति थे। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, कर्तु, पुलस्त्य तथा वशिष्ठ-ये सात ब्रह्माजी के पुत्र उत्तर दिशा में स्थित हैं, जो स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहूति का विवाह प्रजापति कर्दम के साथ हुआ। रुचि के आकूति से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम यज्ञ रखा गया। इनकी पत्नी का नाम दक्षिणा था। कपिल ऋषि देवहूति की संतान थे। हिंदू पुराणों अनुसार इन्हीं तीन कन्याओं से संसार के मानवों में वृद्धि हुई।
उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नी थीं। राजा उत्तानपाद के सुनीति से धु्रव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुए। ध्रुव ने बहुत प्रसिद्धि हासिल की थी, और धु्रव तारा के रूप में अभी आकाश में अवस्थित हैं। दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिष्र्मती से विवाह किया था जिनसे आग्नीध्र, यज्ञबाहु, मेधातिथि, वसु, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, हव्य, सबल और पुत्र आदि दस पुत्र उत्पन्न हुए। प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से उत्तम तामस और रैवत- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए जो अपने नाम वाले मनवंतरों के अधिपति हुए। महाराज प्रियव्रत के दस पुत्रों मे से कवि, महावीर तथा सवन ये तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे और उन्होंने संन्यास धर्म ग्रहण किया था।
द्वितिय स्वारोचिष मनु : प्रथम मन्वन्तर के अंत के प्रलय में विलुप्त बीजों के रूपमे प्रकृति के अनुकूलन अनुरूप द्वितीय मन्वन्तर में द्वितिय स्वारोचिष  मनु हुए और इन के मन्वन्तर में में प्राण, बृहस्पति, दत्तात्रेय, अत्रि, च्यवन, वायुप्रोक्त तथा महाव्रत ये सात सप्तर्षि थे। इसी काल में तुषित नाम वाले देवता थे और हविघ्र्न, सुकृति, ज्योति, आप, मूर्ति, प्रतीत, नभस्य, नभ तथा ऊर्ज-ये महात्मा स्वारोचिष मनु के पुत्र बताए गए हैं, जो महान बलवान और पराकर्मी थे।
तृतीय उत्तम या औत्तमी मनु : द्वितिय मन्वन्तर के अंत के प्रलय में विलुप्त बीजों के रूप में प्रकृति के अनुकूलन अनुरूप तृतीय मन्वन्तर में तृतीय उत्तम या औत्तमी मनु हुए- वशिष्ठ के सात पुत्र: कौकुनिधि, कुरुनधि, दलय, सांख, प्रवाहित, मित एवं सम्मित सप्तर्षि थे तथा ऊर्ज, तनूर्ज मधु, माधव, शुचि, शुक्र, सह, नभस्य तथा नभ- ये सभी उत्तम मनु के पराक्रमी पुत्र थे। इस मन्वन्तर में भानु नाम वाले देवता थे।
चतुर्थ तामस मनु :  तृतीय मन्वन्तर के अंत के प्रलय में विलुप्त बीजों के रूप में प्रकृति के अनुकूलन अनुरूप चतुर्थ मन्वन्तर में चतुर्थ तामस मनु हुए - ज्योतिधर्म, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वानक एवं पिवर - ये सात उस काल के सप्तर्षि थे। इस काल में सत्य नाम वाले देवता थे। द्युति, तपस्य, सुतपा, तपोभूत, सनातन, तपोरति, अकल्माष, तन्वी, धन्वी और परंतप- ये दस तामस मनु के पुत्र कहे गए हैं।
पंचम रैवत मनु : चतुर्थ  मन्वन्तर के अंत के प्रलय में विलुप्त बीजों के रूप में प्रकृति के अनुकूलन अनुरूप पंचम मन्वन्तर में पंचम रैवत मनु हुए- हिरण्योर्मा, वेदश्री, ऊद्र्धबाहु, वेदबाहु, सुधामन, पर्जन्य एवं महानुनि सप्तर्षि थे। अभूतरजा और प्रकृति नाम वाले देवता थे। धृतिमान, अव्यय, युक्त, तत्त्वदर्शी, निरुत्सुक, आरण्य, प्रकाश, निर्मोह, सत्यवाक्, और कृती- ये रैवत मनु के पुत्र थे।
छठवें चाक्षुक मनु : पंचम मन्वन्तर के अंत के प्रलय में विलुप्त बीजों के रूप में प्रकृति के अनुकूलन अनुरूप छठवें मन्वन्तर में छठवें चाक्षुक मनु हुए- भृगु, नभ, विवस्वान, सुधामा, विरजा, अतिनामा और सहिष्णु- ये ही सप्तर्षि थे। लेख नाम वाले पांच देवता थे। नाड़्वलेय नाम से प्रसिद्द रुरु आदि चाक्षुष मनु के दस पुत्र बतलाए जाते हैं।
वर्तमान सप्तम वैवस्वत मनु : छठवें मन्वन्तर के अंत के प्रलय में विलुप्त बीजों के रूप मे प्रकृति के अनुकूलन अनुरूप सप्तम मन्वन्तर में वर्तमान सातवें वैवस्वत मनु हुए, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप, गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र तथा जमदग्नि सप्तर्षि हैं, जो सप्तऋषि तारामंडल है। साध्य, रूद्र, विश्वेदेव, वसु, मरुद्गण, आदित्य और अश्वनीकुमार, इस मन्वन्तर के देवता माने गए हैं। वैवस्वत मनु के इक्ष्वाकु आदि दस पुत्र हुए। 
आगे के मन्वन्तरों में प्रत्येक मन्वन्तर के प्रलय पर इन्ही मन्वन्तरों के पदार्थों और बीजों के रूप में प्रकृति के अनुकूलन अनुरूप पृथ्वी में अवस्थित होकर अपने अपने कर्मों के प्रतिफल में पूर्वस्वरूप से विकसित होते-होते और परिस्कृत होकर परमात्मा के और निकट होंगे अथवा दुष्कर्मों से अधोगति के तरफ लुढक़ते-लुढक़ते हो सकता है मिटटी पत्थर से भी परे वायु वह भी कर्मों अनुसार सुगन्धित अथवा दुर्गन्धि, इत्यादि बनते बिगड़ते रहेंगे। तथा अंत में चौदहवें मन्वन्तर के अंत में वर्तमान सृष्टि की समापन होगा, सभी विलुप्त होंगे, आगे के सृस्टि में चौदह मन्वन्तरों के नविन यात्रा के लिए, अथवा परमात्मा से मिलन के लिए।
भूवैज्ञानिक समय-मान
वर्तमान पृथ्वी के भूवैज्ञानिक समय-मान (Geologic Time Scale) कालानुक्रमिक मापन की एक प्रणाली है जो स्तरिकी (stratigraphy) को समय के साथ जोड़ती है ("Age of the Earth".U.S. Geological Survey. 1997) यह एक स्तरिक सारणी (Stratigraphic Table) है। भूवैज्ञानिक, जीवाश्म वैज्ञानिक तथा पृथ्वी का अध्ययन करने वाले अन्य वैज्ञानिक इसका प्रयोग धरती के सम्पूर्ण प्राकृतिक इतिहास में हुई सभी घटनाओं का समय अनुमान करने के लिये करते हैं। जिस प्रकार चट्टानों के अधिक पुराने स्तर नीचे होते हैं तथा नये स्तर उपर होते हैं, उसी प्रकार इस सारणी में पुराने काल और घटनाएँ नीचे हैं जबकि नवीन घटनाएँ उपर (पहले) दी जाती हैं। विकिरणमितीय प्रमाणों (Radiometric Evidence) से पता चलता है पृथ्वी की आयु लगभग 4.5 अरब वर्ष है। सनातन शास्त्रों के अनुसार भी वर्तमान पृथ्वी की कुल आयु 4.32 अरब वर्ष है, अर्थात, हजारों वर्षों से श्रुति-स्मृति से चल रहा सनातन गणना आज से 200 वर्ष अंदर जन्में वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में अंकित गणना पद्धति तथा कथित आधुनिक वैज्ञानिक युग के गणना से कमोवेश मेल खा रहा है, हो सकता है भविष्य में सनातन गणना में ही पहुँच जाएँ।

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सनातन में जाति व्यवस्था केवल विधर्मियों के दुष्प्रचार
वास्तव में जाति-पंथ जो भी आज दिखाई दे रहे हैं और जो दिखाया जा रहा है किसी व्यक्ति या समूह या पंथ या वर्ग विशेष या देश या विचारधारा को विशेष लाभ पहुँचाने के लालच में किया जा रहा द्वन्द है, इसमें अपने हिसाब से भ्रम, विद्वेष, अफवाह, संघर्ष, कुतर्क, अर्धसत्य, इत्यादि अनेकों नकारात्मक प्रचार सनातन के विरुद्ध पेश कर कोशिश करते हैं कि कीचड़ फेंक रहे हैं तो कहीं कहीं तो चिपक जाये और अपने उच्चता साबित करें, जबकि सनातन क्योंकि मूल है, सभी उसी से निसृत होने के कारण माता है, अत: उसके लिए तो कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता भवतिअर्थात, पुत्र का कुपुत्र होना तो संभव है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती।
सनातन से निकले चार्वाक, जैन, बौद्ध, सिख तो सनातन के ही संतान हैं, ईसाई और मुस्लिम भी सनातन से ही निसृत हैं, अत: एक जाति समूह हैं। जैन के मुख्य दो धारा दिगंबर और स्वेताम्बर तथा उनके अनेकों उपधारा, बौद्ध के महायान और हीनयान तथा उनके अनेकों उपधारा, सिख के राधा स्वामी, निरंकारी, नामधारी तथा उनके अनेकों उपधारा, ईसाई के कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट तथा उनके 43,000 से अधिक उपधाराएँ, मुस्लिम के सुन्नी और शिया तथा उनके कुरान में लिखे 72 फिरके के भी 533 से अधिक उपधारा, कम्युनिस्टों के माक्र्स-लेनिन और माओवादी तथा उनके अनेकों उपधारा, वास्तव में क्या जातियां नहीं हैं? सनातन ने तो किसी को आक्रमण नहीं किया इस्लाम और ईसाई तो दूसरों को दिखना नहीं चाहते, काफिर कहते और अपने ही कुनबों को भी सहन नहीं करते, तो सनातन जो किसी को आक्रमण नहीं करता, सभी को अपनाता है, उसके जान, माल और अश्मिता पर किसी ने अतिक्रमण करता है, भाई-चारा के नाम पर सनातनियों को भाई-भाई कहकर चारा बना देता है, और धीरे से बेचारगी पर धकेलता है तो क्या अपने सुरक्षा के लिए आवाज भी नहीं निकाल सकता?
अत: जाति, पंथ, इत्यादि केवल छद्मभेषी विधर्मियों के प्रपंच हैं, सनातन समाज सतर्क रहेगा और सक्षम रहेगा तो चाहे सनातन के अंदर के हों, चाहे ईसाई हों, चाहे मुस्लिम हों, चाहे कम्युनिस्ट हों, कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगे, इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने सनातनियों के लिए आदर्श वाक्य लिखकर गए हैंसमर्थ को दोष गोसाईं सनातनियों को सबसे पहले अपने सहोदर चार्वाक, जैन, बौद्ध, सिख तथा इनके अंतर्गत के सभी को सगोल कर सभी ओर से सबल करना होगा, उसके लिए सभी को केवल शिक्षित अपितु ज्ञानी और निर्भीक  बनना और  बनाना होगा, आर्थिक समृद्धि लानी होगी, जब सनातनियों को समृद्ध और सबल देखेंगे तो विमाता वाले ईसाई और इस्लाम भी शनै: शनै: अपने को सनातन मानने के लिए नहीं हिचकेंगे, और विद्वेष स्वत: कम होता जायेगा।
अस्तु।