स्वयं ज्ञान सम्पन्न रहकर ज्ञानियों का ही संग करना आवश्यक

स्वयं ज्ञान सम्पन्न रहकर ज्ञानियों का ही संग करना आवश्यक

प्रो. कुसुमलता केडिया

      ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, वेदों और उपनिषदों के ज्ञाता, इतिहास और पुराण के मर्मज्ञ, धर्मतत्व के अद्वितीय ज्ञाता, पंडितों में शिरोमणि, प्रगल्भ वक्ता, न्यायवेत्ता, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- चारों पुरूषार्र्थों के संबंध में यथार्थ निश्चय रखने वाले महाबुद्धिमान नारद ने महाराज युधिष्ठिर से राजधर्म का उपदेश देने के क्रम में कहा - ‘हे महाराज, आपके लेखक और गणक प्रतिदिन पूर्वाह्न में ही नित्य आय और व्यय का पूरा हिसाब देते हैं ना? अपने विश्वस्त और कल्याण में सदा निरत कर्मचारियों को तुम किसी अभियोग को सुनते ही अलग तो नहीं कर देते हो? उनके कथित अपराध की जांच पूरी करने के बाद ही निर्णय लेते हो ना? तुम उत्तम, मध्यम और अधम इन तीनों प्रकार के मनुष्यों की पहचान कर उन्हें उनके अनुरूप कार्यों में लगाते हो ना? राजकार्य में ऐसे लोगों को तो नहीं लगा रखा है जो सदा धन के प्रति लुब्ध रहते हों अथवा चोर हों या तुम्हारे प्रति और राज्य के प्रति बैरभाव रखते हों अथवा व्यवहार ज्ञान से शून्य हों। कहीं ऐसे लोगों से तुम्हारे राज्य को पीड़ा तो नहीं पहुँच रही है अथवा स्वयं तुमसे या राजकुमारों से या राजकुल की स्त्रियों से प्रजाजन को पीड़ा तो नहीं पहुँच रही है और तुम्हारे राज्य के कृषक तुमसे संतुष्ट तो हैं?’
सामान्यत: आध्यात्मिक विभूतियों के विषय में यूरोपीय ईसाइयों के प्रभाव में आकर यह धारणा बन गई है कि वे केवल भगवद् भजन करते दिखेंगे और कुछ धार्मिक कथायें और सदाचार संबंधी विधान के उपदेश देते दिखेंगे तथा सांसारिक व्यवस्थाओं और सामाजिक व्यवहार में उन्हें कोई भी रति नहीं होती। वस्तुत: रति तो नहीं होती परन्तु ज्ञान पूरा होता है और इसलिये दृष्टि अधिक शांत और निर्मल रहती है तथा लोकयात्रा किस प्रकार भलीभांति सम्पन्न होती रहे, यह देखना ज्ञानियों और आध्यात्मिक विभूतियों का सर्वोपरि कार्य भारत में मान्य रहा है। इन सब परंपराओं से अनजान बहुत से मीडियाकर्मी और नये लोग किसी पुरूषार्थी और ज्ञानी संत के द्वारा लोकजीवन में प्रभावी भूमिका निभाई जाते देखकर कुछ इस तरह की टिप्पणी करते रहते हैं मानों कि वे फ़ालतू के सांसारिक कामों में उलझ गये हैं। ऐसी टिप्पणी करने वाले वस्तुत: निपट अज्ञान में जीते हैं और उन्हें भारतीय दर्शन का तथा अध्यात्म परंपरा का कोई ज्ञान नहीं होता। सांसारिक कार्यों में किसी प्रकार की ऐन्द्रिक रति नहीं होने पर सृष्टि चक्र एक भागवत व्यापार दिखता है और लोकयात्रा को सम्पन्न करने में अपना योगदान कर्तव्य दिखता है। यही कारण है कि देवर्षि नारद महाराज युधिष्ठिर को राजनैतिक प्रबंध और राज्य संचालन, कर ग्रहण और सुव्यवस्था, शत्रुनाश और युद्ध संचालन, लोगों के कल्याण के लिये आवश्यक सभी प्रबंध करने और उसमें संभावित सभी बाधाओं के प्रति सजग रहने की बात इतने विस्तार से बताते हैं।
आगे वे प्रश्न करते हैं कि महाराज आपके राज्य के सभी भागों में सदा जल से पूर्ण रहने वाले सरोवरों और तलाबों की व्यवस्था तो है ना? केवल वर्षा के जल पर ही तो किसान निर्भर रहने को विवश नहीं हैं? इसी प्रकार किसानों के बीज नष्ट नहीं हों और अन्न सुरक्षित खेत से घर तक पहुँचने की सारी व्यवस्था रहे, इसके लिये सभी आवश्यक प्रबंध करने का उपदेश नारद जी महाराज युधिष्ठिर को देते हैं। वे बल देकर कहते हैं कि खेती, गौवंश पालन और गौरक्षा तथा सभी प्रकार के व्यापार ये तीनों मिलकर वार्ता कहलाते हैं और यह वार्ता सज्जनों के द्वारा ही भलीभांति सम्पन्न होती है। अत: सज्जन लोग इन वृत्तियों में लगे रहें, यह देखना राजा का कार्य है। इसके लिये वे पंचायत व्यवस्था की अनिवार्यता और महत्ता भी बताते हैं। वे प्रश्न करते हैं कि महाराज क्या आपके राज्य के प्रत्येक गाँव में शूरवीर, बुद्धिमान और कार्यकुशल पाँच-पाँच पंच मिलकर जनहित के कार्य करते हुये सबका कल्याण करते रहते हैं? क्या गाँव को भी नगर के ही समान अनेक शूरवीरों के द्वारा सुरक्षित कर दिया गया है? क्योंकि ऐसा करना नगर की सुरक्षा के लिये भी आवश्यक है। वे इस बात पर बल देते हैं कि सीमावर्ती गाँवों में भी सभी प्रकार की सुविधायें दी गई हैं, यह सुनिश्चित करना राजा का काम है। इसके साथ ही सभी गाँवों से और नगरों से निर्धारित कर अवश्य मिलता रहे यह सुनिश्चित करना भी राजा का कार्य है।
आगे समस्त शास्त्रों के निपुण विद्वान और युद्ध संगीत दोनों की कलाओं में कुशल देवर्षि नारद महाराज युधिष्ठिर से पूछते हैं कि क्या तुम्हारे राज्य में रक्षकों के समूह सैन्य बल साथ लेकर चोर डाकुओं का दमन करते हुये सुगम एवं दुर्गम मार्गों तथा नगरों में विचरण करते रहते हैं? स्त्रियाँ पूर्ण रूप से सुरक्षित तो हैं?
फिऱ वे सम्राट से प्रश्न करते हैं कि कोई अमंगलसूचक समाचार सुनकर और उस विषय में विचार करने के उपरांत भी कहीं तुम अन्त:पुर के भोग विलास में तो नहीं रमे रहते? हे प्रजानाथ, तुम रात्रि के अंतिम प्रहर में स्वयं उठकर धर्म और अर्थ का चिंतन तो करते हो ना? प्रतिदिन समय पर स्नान आदि करके देश काल के ज्ञाता मंत्रियों के साथ बैठकर प्रार्थी और दर्शनार्थी प्रजाजनों की इच्छा तो पूरी करते हो ना? जब तुम सभा में बैठते हो तो सशक्त रक्षक योद्धा रक्षा के लिये तुम्हारे आसपास सन्नद्ध रहते हैं ना? सज्जनों के प्रति साक्षात धर्मराज और दुष्टों अपराधियों के प्रति साक्षात यमराज तुम दिखते हो ना? इसके साथ ही अपने शरीर को स्वस्थ और पुष्ट रखने के लिये आहार-विहार की नियमितता के साथ ही आवश्यक औषधियों का सेवन मानसिक स्वास्थ्य के लिये ज्ञानीजनों का सत्संग आवश्यक है, यह देवर्षि बताते हैं। फिऱ वे प्रश्न करते हैं कि तुम्हारे वैद्य अष्टांग चिकित्सा में कुशल हैं ना? (नाड़ीज्ञान, मलमूत्र परीक्षण, जीभ का परीक्षण, आँखों और श्रवण शक्ति का परीक्षण तथा रूप और शब्द एवं स्पर्श संबंधी सामर्थ्य का परीक्षण करके चिकित्सा करना अष्टांग चिकित्सा कहलाता है।
आगे देवर्षि प्रश्न करते हैं कि राज्य पर आश्रितजनों की जीविका वृत्ति को लोभ या मोह या आसक्ति के कारण आप बंद तो नहीं कर देते? याचकों और प्रत्यर्थीजनों के अनुरोध पर सम्यक विचार करते हैं ना? इससे आगे वे पुन: प्रश्न करते हैं कि तुम्हारे राष्ट्र के राष्ट्रवासी लोग कहीं तुम्हारे विरूद्ध संगठित होकर कोई विरोध तो नहीं बढ़ाते और उन्हें कहीं शत्रुओं ने खरीद तो नहीं लिया है? स्पष्ट है कि इस विषय में सावधान रहना भी राजा का आवश्यक कर्तव्य है। साथ ही यह भी देखना आवश्यक है कि किसी समय बलपूर्वक पीडि़त किया गया कोई शत्रु समय पाकर बलसंग्रह करके बदला लेने का प्रयास तो नहीं कर रहा है? आश्रित राजागण प्रेम करते हैं ना? और क्या तुम उन्हें इतना स्नेह देते हो कि वे सदा तुम्हारे लिये कोई त्याग करने को तैयार रहें?
ब्राह्मणों और साधु संतों का भलीभांति सम्मान करना और सभी विद्याओं के यथायोग्य बढऩे का प्रबंध करना तथा यज्ञ, उत्सव आदि में विहित दक्षिणा देना राज्य में भली-भांति होता है या नहीं? तीनों वेदों द्वारा प्रतिपादित धर्म का अनुष्ठान तुम्हारे राज्य में सभी लोग करते हैं ना? सभी का धर्माचरण में ही ध्यान रहता है ना? अपने गुरूजनों, स्वजनों तथा पूज्य देवताओं और तपस्वियों एवं कल्याणकारी ब्राह्मणों का अभिवादन तुम नित्य करते हो ना? अपने आचरण से तुम किसी के चित्त में शोक या क्रोध तो नहीं उत्पन्न करते? धर्मानुकूल बुद्धि और वृत्ति से ही शासन करते हो ना? कहीं तुमने किसी शास्त्रज्ञान से रहित मूर्ख को तो अपना मंत्री नहीं बनाया है जो ईष्र्या द्वेषवश सज्जनों और श्रेष्ठ विद्वानों पर मिथ्याभियोग लगाता हो? इन सब बातों पर सजगता राजा का कर्तव्य है।
देवर्षि नारद यह भी प्रश्न करते हैं कि हे महाराज आप नित्य प्रात: उठकर स्नान तो करते हैं ना? और साथ ही उसके उपरांत वस्त्रभूषणों से अलंकृत होकर देश काल के ज्ञाता मंत्रियों के साथ बैठकर आने वाले दर्शनार्थियों अथवा प्रार्थियों के मनोरथ पर ध्यान देकर उनसे उचित व्यवहार करते हो ना? तुम्हारी बुद्धि धर्मानुकूल है ना? तुम्हारा विचार और आचार आयु और यश को क्षय करने वाला तो नहीं है? तुम्हारी बुद्धि धर्म, अर्थ एवं काम पुरूषार्थों के सही स्वरूप को तुम्हें सदा दिखाने में समर्थ रहती है ना? तुम ऐसी ही बुद्धि के अनुसार जीवन जीते हो ना? क्योंकि ऐसा राजा ही समस्त पृथ्वी को जीतने में समर्थ होता है और अत्यंत सुख प्राप्त करता है।
धर्म के महान ज्ञाता और शास्त्रों के पंडित देवर्षि नारद महाराज युधिष्ठिर से यह भी पूछते हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम्हारे राज्य में कोई चोर रक्षकों द्वारा पकड़े जाने के बाद धन के लोभ से छोड़ दिया गया हो? क्योंकि इससे तो राज्य में चोरी और अनीति बढ़ेगी। साथ ही वे यह भी प्रश्न करते हैं कि अगर आपके राज्य में कोई व्यक्ति अपने पुरूषार्थ से या किसी समर्थ के अनुग्रह से धन सम्पन्न हो जाता है तो तुम्हारे राज्य के अधिकारी उनके इस बढ़े हुये धन को मिथ्यादृष्टि से तो नहीं देखते और उसे चोरी से लाया हुआ मानकर अनुचित बर्ताव तो नहीं करते?
अगला प्रश्न और भी अधिक महत्वपूर्ण है। देवर्षि पूछतें हैं कि हे महाराज युधिष्ठिर, तुम्हारे राज्य में नास्तिकता, असत्य, क्रोध, प्रमाद, कार्य करने में अत्यधिक विलंब करने की प्रवृत्ति और इंद्रियों के विषयों में आसक्ति जैसे दोष तो नहीं बढ़ रहे हैं? ये दोष राज्य में नहीं बढ़ें, यह देखना शासक का कर्तव्य है। इसी प्रकार अर्थशास्त्र को जानने वाले व्यक्तियों के साथ तुम कभी अर्थशास्त्र संबंधी विचार तो नहीं करते? गुप्त मंत्रणा को सुरक्षित रखने के लिये सदा सजग तो रहते हो ना? आवश्यक मांगलिक उत्सव सदा सम्पन्न करते हो ना? और अनेक शत्रुओं पर या सभी शत्रुओं पर एकसाथ आक्रमण तो नहीं करते हो ना? क्योंकि ये ऐसे दोष हैं जिनसे राज्य और राजा दोनों नष्ट हो जाते हैं।
जब देवर्षि नारद महाराज युधिष्ठिर से यह पूछते हैं कि क्या तुम्हारे वेद सफ़ल हैं? तुम्हारी स्त्री सफ़ल है? तुम्हारा धन सफ़ल है? और तुम्हारा शास्त्रज्ञान सफ़ल है? तब युधिष्ठिर देवर्षि से पूछते हैं कि इन विषयों में सफ़लता किसे कहते हैं? इस पर देवर्षि बताते हैं कि वेदों की सफ़लता अग्निहोत्र से है। धन की सफ़लता भोग और दान से है। स्त्री की सफ़लता रति और संतति की प्राप्ति में है तथा शास्त्रज्ञान की सफ़लता शील और सदाचार में है।
इसके बाद परम वीतराग, परमज्ञानी और निरंतर परमेश्वर के चिंतन और भजन में रत रहने वाले देवर्षि महाराज युधिष्ठिर से पूछते हैं कि तुम धर्म और अर्थ के ज्ञाता तथा राजनीतिशास्त्र के विद्वान सयाने लोगों की धर्म एवं राजनीतिशास्त्र विषयक बातें ध्यान से सदा सुनते हो? क्या तुम्हारे राज्य में धर्म कार्य के लिये अन्न, फ़ल-फ़ूल, दूध, घी आदि दान में ब्राह्मणों को दिये जाते? क्या तुम सदा नियम से राज्य के सभी प्रकार की शिल्पविद्याओं में पारंगत शिल्पियों को सुव्यवस्था से आवश्यक शिल्प सामग्री तथा वस्तु निर्माण की सामग्री सुलभ रहे, इसकी चिंता करते हो? तुम्हारे राज्य में व्यापारियों के साथ अनुचित व्यवहार तो नहीं किया जाता? राज्य कर्मचारी व्यापारियों के साथ छल और वंचना का व्यवहार तो नहीं करते?
फिऱ देवर्षि पूछते हैं कि अपने ऊपर किये हुये उपकार का तुम सदा स्मरण रखते हो ना और भरी सभा में उपकारी की प्रशंसा करते हो ना? साथ ही हस्तिपालन, अश्वपालन एवं रथ शास्त्रों का पठन एवं अभ्यास नियमित करते रहते हो ना? तुम्हारे घर पर धनुर्वेद, यंत्रविद्या और नागरिकों की सुव्यवस्था से संबंधित शास्त्रों का नियमित अभ्यास किया जाता है ना? साथ ही धर्मयुक्त दंडविधान का पालन और शत्रुओं का नाश करने के लिये आवश्यक विविध प्रकार के विषों का प्रयोग तुम्हें ज्ञात है ना? यहाँ स्पष्ट है कि जिन्हें नितांत सांसारिक कर्म मानकर साधु संतों से उन विषयों में सर्वथा अलिप्तता की अपेक्षा रखने का वातावरण रच दिया गया है, ऐसी सभी कर्म धर्मपूर्वक हों, इसकी चिंता करना साधु-संतों का महत्वपूर्ण कार्य रहा है और स्वयं देवर्षि यह चिंता कर रहे हैं।
अंत में देवर्षि महाराज युधिष्ठिर को उपदेश देते हैं कि दुष्टों और राक्षसों (आतंकवादियों) से राज्य की रक्षा करना और आगजनी, सर्प आदि विषैले जीवों का फ़ैलाव और रोगों से राज्य की रक्षा करना शासक का कर्तव्य है। इसी प्रकार अनाथों और असहायों तथा संन्यासियों का पिता की भांति पालन करना शासक का कर्तव्य है। ये सभी कर्तव्य कर्म निद्रा, आलस्य, भय, क्रोध, कठोरता और दीर्घसूत्रता त्याग कर नियमित किये जाने चाहिये।
महाराज युधिष्ठिर देवर्षि नारद का उपदेश पूरा होने पर उनके दोनों चरणों में प्रणाम कर तथा अभिवादन कर प्रसन्न मन से देवर्षि से कहते हैं कि हे प्रभु, मैं उसी प्रकार शासन करूँगा जैसा आपने कहा है। आपके इस उपदेश और निर्देश से मेरी प्रज्ञा की वृद्धि हुई है। महर्षि वेदव्यास यह प्रसंग बताकर अपनी ओर से कहते हैं कि महाराज युधिष्ठिर ने ऐसा ही आचरण किया और इसी से समुद्र पर्यंत पृथ्वी का राज्य पा लिया।

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