महाराज उशीनर और महर्षि अष्टावक्र की कथायें

महाराज उशीनर और महर्षि अष्टावक्र की कथायें

प्रो. कुसुमलता केडिया

    महर्षि लोमश ने युधिष्ठिर को वनवास में सरस्वती नदी में स्नान करने का आदेश दिया। उन्होंने बताया कि यह पुण्यसलिला है और इसमें स्नान करने से मनुष्य पूर्णत: निष्पाप हो जाता है। प्राचीन काल में प्रजापति दक्ष ने यज्ञ करते समय यह आशीर्वाद दिया था कि अगर कोई व्यक्ति सरस्वती के तट पर या जल में मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह निश्चित ही स्वर्गलोक जायेगा। आप इस पवित्र नदी में स्नान कीजिये और फिऱ मैं आपको भारतवर्ष के बहुत बड़े-बड़े पुण्यात्माओं और महर्षियों की विश्वविख्यात गाथायें सुनाऊँगा। जिन्हें सुनकर आप स्वयं पवित्र हो जायेंगे और दिव्य लोकों के अधिकारी हो जायेंगे।
महर्षि लोमश की आज्ञा मानकर युधिष्ठिर ने पुण्यसलिला सरस्वती में श्रद्धापूर्वक स्नान किया और फिऱ हाथ जोडक़र महर्षि के सामने खड़े हुये तथा आज्ञा पाकर सामने ही बैठ गये। इस पर महर्षि लोमश ने दो विश्वविख्यात आख्यान युधिष्ठिर को सुनाये - महाराज उशीनर की कथा तथा महर्षि अष्टावक्र की कथा। इन कथाओं का प्रयोजन परम पवित्र, पुण्यात्मा, ज्ञानी और दानी पूर्वजों की गाथा सुनाकर युधिष्ठिर को भारतवर्ष के गौरवशाली इतिहास का ज्ञान देना था।
महर्षि लोमश ने कहा कि हे भारत, इसी पवित्र नदी के तट पर चमसोद्भेदतीर्थ में भगवती लोपामुद्रा ने अपने पति अगस्त मुनि का वरण किया था। यहाँ अनेक तीर्थ हैं। इसी के उत्तर में मानसरोवर है जो भगवान परशुराम के आश्रम से पवित्र है। सरस्वती से कुछ दूर पर पवित्र वितस्ता नदी है और पवित्र यमुना नदी है। यमुना नदी के तट पर सम्राट उशीनर ने अनेक यज्ञ किये थे और उच्च लोकों की प्राप्ति की थी। सम्राट उशीनर के महत्व को समझने के लिये स्वयं इन्द्र और अग्नि उनकी राजसभा में गये। इन्द्र ने बाज पक्षी का स्वरूप धारण कर लिया और अग्नि ने कबूतर का। कबूतर रूपधारी अग्नि महाराज उशीनर की गोद में जा छिपा। तब बाजरूपधारी इन्द्र ने महाराज से कहा कि महाराज यह कबूतर मेरा नियत आहार है। आप यश के लोभ से इसकी रक्षा करें। क्योंकि यह मेरा भोज्य है।
इस पर सम्राट उशीनर ने कहा कि यह कबूतर मुझसे अपनी रक्षा चाहता है। अत: मैं तुम्हें इसे नहीं दे सकता। बहुत सारे तर्क-वितर्क के बाद तथा कबूतर के विकल्प में बहुत ही उच्च स्तरीय प्रस्ताव देने के बाद भी बाज राजी नहीं हुआ। अंत में बाज ने कहा कि यदि आप इसे इतना स्नेह करते हैं तो मैं एक शर्त पर इसे छोड़ सकता हूँ। आप अपना मांस काटकर तराजू में एक ओर रखिये और दूसरी ओर इस कबूतर को रखिये। जब कबूतर के बराबर का भार आपके मांस का हो जायेगा तो मैं वह मांस खाकर तृप्त हो जाऊँगा।
सम्राट उशीनर इसके लिये सहर्ष तैयार हो गये और अपना मांस स्वयं काट-काट कर तराजू के दूसरे पलड़े में रखने लगे, पहले पलड़े में कबूतर को रख दिया। परंतु बार-बार मांस काटकर रखते जाने पर भी पलड़ा कबूतर के बराबर नहीं हुआ। तब महाराज स्वयं तराजू पर बैठ गये और कहा कि मुझे सम्पूर्णत: खा लो। इतना करते ही इन्द्र प्रकट हो गये और उन्होंने कहा कि हम अर्थात् मैं और कबूतर रूपधारी अग्निदेव आपकी परीक्षा लेने के लिये बाज और कबूतर बनकर आये थे। हे राजन आपने जो अपने ही अंगों से मांस काटकर इस प्रकार दीन शरणागत की रक्षा की, उसके कारण आपकी कीर्ति सदा सम्पूर्ण लोकों में व्याप्त रहेगी और लोग युगों तक आपका यश गाकर प्रेरणा प्राप्त करेंगे। इतना आशीर्वाद देकर इन्द्र देवलोक चले गये और अग्निदेव पुन: सूक्ष्म एवं दिव्य रूप में अदृश्य हो गये। लोमश के कहने पर युधिष्ठिर ने राजा लोमश के आश्रम का दर्शन और वंदन किया।
इसके बाद महर्षि लोमश ने महर्षि अष्टावक्र की कथा सुनाई। विप्रवर कहोड़ महर्षि उद्दालक के शिष्य थे और बड़ी श्रद्धा से उनकी सेवा करते थे। उनकी प्रतिभा और विनय से प्रभावित होकर महर्षि उद्दालक ने सम्पूर्ण वेदशास्त्रों का ज्ञान उन्हें कराया और फिऱ अपनी पुत्री सुजाता का विवाह उनसे कर दिया।
कुछ समय बाद सुजाता गर्भवती हुई और उनके गर्भ में एक परम तेजस्वी जीवात्मा पलने लगी। वह जीवात्मा जितनी तेजस्वी थी उतनी ही वाग्बल से सम्पन्न हुई थी। एक दिन जब ऋषि कहोड़ स्वाध्याय में लगे थे तो तेजस्वी गर्भ ने उन्हें टोक दिया - ‘पिताजी, वेदों के उच्चारण में आपसे अशुद्धि हो रही है।शिष्यों के बीच पढ़ा रहे कहोड़ को सहसा क्रोध गया और उन्होंने कहा किअरे, गर्भ में रहकर भी तू इतना टेढ़ा बोल रहा है? जा तू आठों अंगों से टेढ़ा हो जायेगा।
जब जीवात्मा गर्भ में बढ़ रहा था और प्रसवकाल निकट रहा था, तो सुजाता ने कहा कि प्रसवकाल निकट रहा है और हमारे पास बिल्कुल धन नहीं है। अत: आप कुछ कीजिये। इस पर कहोड़ राजा जनक की राजसभा में गये परंतु वहाँ के राजपंडित से शास्त्रार्थ में पराजित हो गये और शर्त के अनुसार पंडित ने उन्हें बंदी बनवाकर जल में डुबा दिया।
कहोड़ के शापवश अष्टावक्र टेढ़े होकर ही पैदा हुये। इसीलिये उनकी प्रसिद्धि अष्टावक्र के नाम से हुई। माँ ने बेटे को पिता के साथ हुई घटना के विषय में नहीं बताया। अष्टावक्र श्वेतकेतु के साथ ही महर्षि उद्दालक की गोद में बैठ जाते थे और उन्हें ही पितातुल्य मानते थे। परंतु एक दिन जब अष्टावक्र उद्दालक की गोद में बैठे थे तो श्वेतकेतु ने हाथ पकड़ कर उन्हें वहाँ से हटा दिया और कहा कियह तुम्हारे पिताजी की गोद नहीं है, यह मेरे पिताजी की गोद है।
इस पर अष्टावक्र अत्यन्त दुखी होकर माँ के पास पहुँचे और आग्रह किया कि मुझे मेरे पिताजी के बारे में बताइये। क्योंकि उद्दालक जी तो मेरे पिता नहीं हैं। तब घबराकर सुजाता ने बताया कि उद्दालक मेरे पिताजी हैं और तेरे नाना हैं और यह श्वेतकेतु तुम्हारा समवयस्क है और मेरा भाई है अत: तुम्हारा मामा है। पुन: अष्टावक्र ने पिताजी के बारे में जानना चाहा। तो सुजाता ने सत्य बता दिया।
अध्येता की आयु का नहीं, अध्ययन के स्तर का महत्त्व है
कुछ समय बाद अष्टावक्र ज्ञान सम्पन्न कर विदेह राज की सभा में पहुँचे। परंतु उन्हें राजद्वार में रोक दिया गया। क्योंकि उसी समय राजा द्वार से प्रवेश करने वाले थे। परंतु राजा ने यह कहकर अष्टावक्र को पहले जाने का निर्देश दिया कि ब्राह्मण भले आयु में छोटे हों परंतु वे राजा से भी बढक़र हैं। अत: उन्हें पहले मार्ग दिया जाना चाहिये।
परंतु द्वारपाल परम राजभक्त था और उसने पुन: तर्क किया कि राजसभा में तो केवल विद्वानों का प्रवेश होता है। दसवर्षीय बालक का प्रवेश नहीं हो सकता। इस पर अष्टावक्र ने कहा कि अध्येता की आयु नहीं, अध्ययन का स्तर देखा जाता है।
तर्क के बाद द्वारपाल ने अष्टावक्र को राजसभा में जाने की अनुमति दे दी। परंतु पीछे ही बैठने को कहा। अष्टावक्र उतनी दूरी पर जाकर खड़े हुये जहाँ से राजा जनक को उनकी वाणी सुनाई पड़े। उन्होंने महाराज की प्रशंसा की और फिऱ कहा कि हमने सुना है कि आपके यहाँ कोई प्रसिद्ध पंडित हैं, मैं उनसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ।
महाराज जनक ने कहा - ‘ब्राह्मणकुमार, अपने प्रतिपक्षी की शक्ति जाने बिना इस तरह शास्त्रार्थ की चुनौती नहीं देनी चाहिये। क्योंकि पूर्व में बहुत से ब्राह्मण इनसे पराजित हो चुके हैं।परंतु ब्राह्मण कुमार अष्टावक्र ने आग्रह जारी रखा। इस पर परीक्षा लेने के लिये महाराज जनक ने कहा कि कृपया बतायें कि 30 अवयव, 12 अंश, 24 पर्व और 360 अरों वाला पदार्थ क्या है?
अष्टावक्र ने कहा - ‘12 अमावस्यायें और 12 पूर्णिमा, इन्हें मिलाकर 24 पर्व होते हैं। संवत्सर में 12 मास होते हैं जो उसके 12 अंश हैं। 6 ऋतुयें उसकी नाभि हैं और 360 दिन ही उसके 360 अरें हैं। यह निरन्तर गतिशील संवत्सर चक्र ही वह पदार्थ है।
संतुष्ट राजा ने अगला प्रश्न किया - ‘सोते समय कौन नेत्र नहीं मूंदता? जन्म लेने के बाद किसमें गति नहीं होती? किसके हृदय नहीं होता? और कौन वेग से बढ़ता है?’
अष्टावक्र ने उत्तर दिया - ‘मछली सोते समय भी आँख नहीं मूंदती। अंडा उत्पन्न होता है परंतु उसमें गति नहीं होती। पाषाण में भी जीवन है परंतु उसके हृदय नहीं होता और नदी वेग से बढ़ती है।
इससे प्रसन्न होकर महाराज जनक ने अष्टावक्र को राजसभा में शास्त्रार्थ की अनुमति दे दी। राजपंडित और अष्टावक्र का बहुत लंबा शास्त्रार्थ चला जो स्वयं में ज्ञान का कोष ही है। जिसका वर्णन अगले लेख में किया जायेगा।
अंत में अष्टावक्र की विजय हुई और पराजित राजपंडित को जल में डुबो देने का निर्णय हुआ। तब राजपंडित ने बताया कि मैं स्वयं वरूण का पुत्र हूँ और इसलिये मैं जल में नहीं डूबूंगा। परंतु मुझे अपनी पराजय सहर्ष स्वीकार है और मैं पिताजी से अनुरोध करके अष्टावक्र के पूज्य पिता कहोड़ सहित अब तक डुबाये गये समस्त ब्राह्मणों को जीवित प्रकट कराता हूँ। उसकी प्रार्थना पर वरूण ने सबको प्रस्तुत कर दिया।
पिता कहोड़ ने पुत्र अष्टावक्र को बहुत आशीर्वाद दिया। अष्टावक्र और राजपंडित में हुई महत्वपूर्ण ज्ञानचर्चा पर प्रकाश अगले अंक में।
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