शाश्वत प्रज्ञा

परम पूज्य योग-ऋषि श्रद्धेय स्वामी जी महाराज की शाश्वत प्रज्ञा से नि:सृत शाश्वत सत्य ...

शाश्वत प्रज्ञा

-स्वामी रामदेव

रामराज्य की प्रतिष्ठा हेतु पंच क्रांतियों का शंखनाद
आजादी के अमृत महोत्सव में हमें पूर्ण स्वतंत्रता की साधना करनी चाहिये। यही हम सबका कर्तव्य है। राजनैतिक स्वाधीनता तो 77 वर्ष पहले मिल गई थी। किंतु अभी भी हम शिक्षा, चिकित्सा, आर्थिक, वैचारिक सांस्कृतिक रूप से परतंत्र हैं। शायद पूरी दुनिया में 1% लोग ऐसे होंगे जो शिक्षित होंगे, 1% लोगों को चिकित्सा मिलती होगी, 1% लोगों को समृद्धि मिलती होगी, 1% लोग ही वैचारिक सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र होंगे और 1% लोग पूर्णत: रोग, नशा, अश्लीलता व्यभिचार से मुक्त होंगे। अभी भी 5 प्रकार की गुलामियों से मुक्ति बाकी है। ये हैं-
  • शिक्षा क्षेत्र में गुलामी से मुक्ति।
  • चिकित्सा क्षेत्र में गुलामी से मुक्ति।
  • आर्थिक क्षेत्र में गुलामी से मुक्ति।
  • वैचारिक सांस्कृतिक गुलामी से मुक्ति।
  • रोग, नशा, अश्लीलता से मुक्ति।
इन पाँचों पर सूत्र रूप में प्रकाश डालते हैं-
1-  शिक्षा क्षेत्र में गुलामी से मुक्ति
ब्रिटिश एजुकेशन सिस्टम के नाम पर, मैकाले एजुकेशन सिस्टम के नाम पर पूरी दुनिया को बौद्धिक रूप से, वैचारिक रूप से गुलाम बनाने के लिए एक पूरा षड्यंत्र रचा जा रहा है। भारत में तो इंडियन एजुकेशन एक्ट आदि जितने भी एक्ट बने हुए हैं इनके पीछे का फैक्ट क्या है? यह देखने की आवश्यकता है। एक-एक एक्ट के पीछे का फैक्ट चेक करेंगे तो आपको पता चलेगा कि इनका क्या मतलब है? यह शिक्षा की गुलामी क्या है?
जो भी शिक्षा के क्षेत्र में, चिकित्सा के क्षेत्र में अपने बच्चों को आप 25 साल तक पढ़ाते हो, कभी सोचते हो इसका परिणाम क्या होगा। 90-99% पढ़े लिखे बेरोजगार बच्चे तैयार हो रहे हैं, पढ़े-लिखे बेरोजगार बच्चे और बहुत से तो दुराचारी, व्याभिचारी, एक तरह से भिखारी, दरिद्र बच्चे तैयार हो रहे हैं। सब तरह से लुट-पिट गए, हम अपने बच्चों का 25 वर्ष तक गोल्डन पीरियड ऐसे स्कूलों में हम बर्बाद कर रहे हैं जिसका कोई परिणाम नहीं है और जो परिणाम थोड़ा बहुत अच्छा भी रहा है तो वो उन स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी की वजह से नहीं आपके बच्चों के अप्रतिम पुरुषार्थ की वजह से रहा है।
यद्यपि 77 वर्षों से देश पर हम भारतीय लोग ही अपना शासन कर रहे हैं और भारतीय ही शिक्षा मंत्री या मानव संसाधन विकास मंत्री होते रहे हैं, तथापि 1835 ईस्वी में अपनी कुख्यात टिप्पणी में मैकाले ने जो शिक्षा नीति निर्धारित की थी, उसी नीति पर हमारी शिक्षा व्यवस्था विशेषकर सभी मानविकी अनुशासनों में चल रही है। यद्यपि सभी जनप्रतिनिधि मैकाले की उस नीति की आलोचना करते रहते हैं परंतु शिक्षा चल उसी ढर्रे पर रही है। दर्शन में योगशास्त्र, सांख्यशास्त्र, वेदांतशास्त्र, मीमांसा, न्याय और वैशेषिक जैसे महान दर्शनशास्त्रों और अनुशासनों की पढ़ाई केन्द्रीय विषय नहीं है। दर्शन का केन्द्रीय विषय विश्वविद्यालयों में यूरोपीय फिलॉसफी ही है। इसी प्रकार योग जैसे अद्वितीय मनोविज्ञान को अधिकृत मनोविज्ञान की पढ़ाई में केन्द्रीय स्थान प्राप्त नहीं है। पाणिनीय व्याकरण जैसे विश्व में सर्वमान्य व्याकरण को व्याकरण के विद्यार्थियों को भारत में पढ़ाया नहीं जाता, केवल संस्कृत के विद्यार्थियों को ही उसकी शिक्षा दी जाती है। वाल्मीकि, व्यास, नारद, बृहस्पति, शुक्र, चाणक्य आदि के अद्वितीय राजनीतिशास्त्र विश्वविद्यालयों में राजनीतिविज्ञान की पढ़ाई का सामान्य अंग नहीं है। उनके स्थान पर विगत 200 वर्षों में यूरोप में उभरे राजनीतिशास्त्रियों को ही मुख्य पाठ्यक्रम में केन्द्रीय स्थान प्राप्त है। इसी प्रकार विश्व की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था हजारों वर्षों तक बने रहने वाले वित्तीय अनुशासन और वित्तीय चिंतन को अर्थशास्त्र की पढ़ाई में मुख्य स्थान नहीं प्राप्त है। उसके स्थान पर एडम स्मिथ माल्थस, कींस आदि उन यूरोपीय इकॉनामिस्ट को ही मुख्यत: पढ़ाया जाता है जो विगत 200 वर्षों में ही उभरे हैं। इसी तरह विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा व्यवस्था को भी चिकित्सा की शिक्षा में केन्द्रीय स्थान प्राप्त नहीं है। समाज व्यवहार, दंडनीति, विधि, न्याय और सामाजिक संस्थाओं पर सर्वाधिक प्राचीन चिंतन विपुल रूप में अनेक धर्मशास्त्रों के रूप में भारत में विद्यमान है और 19वीं शताब्दी ईस्वी तक भारत का हिंदू समाज उनसे ही निर्देशित होता था और सभी हिन्दू राजा उनको ही व्यवहार का आधार मानते थे। परंतु अब वे शिक्षा से बहिष्कृत हैं और व्यवहार में भी तिरस्कृत हैं।
यह स्थिति शिक्षा के क्षेत्र में गुलामी की स्थिति है। इस गुलामी से मुक्ति आवश्यक है। यह सर्वविदित है कि हमने इस दिशा में निर्णायक कदम आगे बढ़ाये हैं। भारतीय शिक्षा बोर्ड और पतंजलि गुरूकुलम से लेकर पतंजलि विश्वविद्यालय तक प्रारंभिक शिक्षा से उच्चतम शिक्षा तक शैक्षणिक स्वतंत्रता की पहल की गई है। जिससे भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा पुन: नई पीढ़ी में ज्ञान का आधार बने और पूर्वजों के गौरव तथा ज्ञान को वृहद संवाद के रूप में पुन: प्रतिष्ठा मिले तथा नई पीढ़ी में भी ज्ञान की वही दीप्ति और आचरण का वही तेज प्रकट हो।
अब समय गया है 1835 में मैकाले द्वारा बनाए गए इण्डियन एजूकेशन एक्ट को ध्वस्त करने का। यह कार्य पतंजलि से सम्बद्ध सभी शिक्षण संस्थानों, यथा- भारतीय शिक्षा बोर्ड, पतंजलि विश्वविद्यालय, पतंजलि आयुर्वेद महाविद्यालय, पतंजलि गुरुकुलम्, आचार्यकुलम् के माध्यम से किया जाएगा।
2-  चिकित्सा क्षेत्र में गुलामी से मुक्ति
विश्व का प्राचीनतम स्वास्थ्य चिंतन एवं चिकित्सा प्रणाली भारत का आयुर्वेद है। 15 अगस्त 1947 तक देश में जगह-जगह आयुर्वेद व्यवहार में था और यूरोपीय एलोपैथी उतनी लोकप्रिय नहीं हुई थी। परंतु 77 वर्षों में भारतीय शासन ने व्यवस्थित रूप से योजनापूर्वक केवल एलोपैथी को केन्द्रीय महत्व दिया और आयुर्वेद तथा अन्य पद्धतियों को हाशिये पर डाल दिया। एलोपैथी का सम्पूर्ण इतिहास केवल 200 वर्ष पुराना है। उसके पहले यूरोप में भी जड़ी-बूटियों आदि के ही प्रयोग से चिकित्सा होती थी परंतु चर्च ने उस सब विद्या को अंधविश्वास बताकर नष्ट कर दिया और तरह-तरह के विचित्र प्रयोग शुरू किये। भारत तथा अन्य देशों से घनिष्ठ सम्पर्क के बाद जर्मनी, इंग्लैंड तथा अन्य यूरोपीय देशों में चरक संहिता और सुश्रुत संहिता का आधार लेकर चिकित्सा के क्षेत्र में अपने ढंग से कार्य हुआ और फिर जीवाणुओं तथा रोगाणुओं की खोज में उन्होंने विशेष परिश्रम किया जिससे एलोपैथी का विकास हुआ है। सभी जानते हैं कि यूरोप में शरीर के स्नायुओं, नस-नाडिय़ों आदि का ज्ञान 200 वर्ष पूर्व लुप्त ही था। मुख्यत: भारत के आयुर्वेद शास्त्रों के आधार पर मौलिकता का दावा करते हुये वहाँ अलग-अलग डॉक्टर वैज्ञानिकों के सहयोग से विकसित हुये और एलोपैथी का अभूतपूर्व विस्तार हुआ, परंतु आज भी शल्य चिकित्सा के अतिरिक्त एलोपैथ चिकित्सा की अन्य विधियाँ साइड इफेक्ट के कारण भय का स्रोत बनी हुई हैं।
आयुर्वेद जैसे अत्यंत विकसित विज्ञान को अभी तक अपेक्षित स्थान और महत्व नहीं दिया गया था। मोदी सरकार ने अब इस असंतुलन को संतुलित करने का प्रयास किया है। हमने पतंजलि चिकित्सालय और दिव्य फार्मेसी आदि के द्वारा आयुर्वेद चिकित्सा का अभूतपूर्व विस्तार किया है और वैज्ञानिक विधियों से जड़ी-बूटियों के गुण और विशेषताओं के परीक्षण की भी उच्चकोटि की व्यवस्था की है। जिससे शासन की आयुर्वेद नीति की पूरकता सामने आई है। एलोपैथी के एकाधिकार ने बच्चों से बूढ़ों तक सभी में अंतहीन व्याधियों और निर्बलताओं का विस्तार किया है, जिसके परिणामों पर विश्व में विचार निरंतर चल रहे हैं। पतंजलि ने आयुर्वेद के वैभव की पुन:प्रतिष्ठा के लिये जो कार्य किये हैं, वे आज विश्व में प्रशंसा पा रहे हैं। आयुर्वेद के ज्ञान तथा आयुर्वेदिक दवाओं तथा चिकित्सा पद्धति के राष्ट्रव्यापी विस्तार ने करोड़ों लोगों को स्वस्थ, निरोग और पुष्ट जीवन जीने की दिशा दिखाई है तथा चिकित्सा के क्षेत्र में गुलामी से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
रोगी जो स्टेरोइड्स, एंटीबॉयोटिक्स, बायोलॉजिकल्स आदि लेते हैं, इसके एक तरह के बेनिफिट तो मिलते हैं लेकिन नुकसान 100 तरह के होते हैं। जो एंटीबायोटिक्स, पेन किलर, स्टेरोइड्स, बायोलॉजिकल्स और बीपी, शुगर के लिए जो अलग-अलग ब्रांडेड दवाएं लेते हैं, उनके साइड इफेक्ट्स तो हैं ही, साथ ही उनमें लूट-खसोट भी मची हुई है। मूल दवा की कीमत होती है 2 रुपए और प्रोसेसिंग, सेल्स, मार्केटिंग और रिसर्च के नाम पर वो 2 रुपए का साल्ट रोगी को 100 रुपए का दिया जाता है। सामान्य तौर पर 5-10 गुणा ज्यादा मूल्य पर ब्रांडेड दवाइयां मिलती हैं और जो जेनरिक दवाइयाँ आपको मिलती हैं वो भी सब 99% तो सिंथेटिक ही हैं। 5-10 गुणा या 100 गुणा कीमत चुकाकर दवा बाजार में मिल रही है। रोगी पेन को तो कंट्रोल करने के लिए पेन किलर, स्टेरोइड्स, बायोलॉजिकल्स ले रहे हैं। बी.पी., शुगर की दवा के साइड इफेक्ट से आखें जा सकती हैं, किडनी फेल हो सकती है और यहाँ तक की पूरा नर्वस सिस्टम तबाह हो जाता है।
अब चिकित्सा की आजादी के आंदोलन की बारी है। पतंजलि वैलनेस, योगग्राम, निरामयम् और पतंजलि योगपीठ की आयुर्वेद की विश्वव्यापी प्रतिष्ठा के साथ महर्षि चरक, महर्षि सुश्रुत की प्रतिष्ठा देश ही नहीं पूरे विश्व में होगी। अब कोई पैथी नहीं, सभी पैथियाँ आयुर्वेद की अनुचर होंगी, सबसे ऊपर आयुर्वेद होगा। दासत्व तो सौभाग्य से मिलता है, हमको परमात्मा का, गुरुजनों का दासत्व मिला यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है। विश्वगुरु तो भारत ही है, अन्य सभी देश भारत का अनुसरण करें।
आर्थिक क्षेत्र में गुलामी से मुक्ति
आर्थिक गुलामी क्या है? व्यापार के नाम पर पूरी दुनिया में कारोबार और आर्थिक समृद्धि का एक पूरा सैलाब, एक आंधी, एक तूफान, एक तबाही जैसी चीजें चल रही हैं। स्वाधीनता के बाद सोवियत संघ की नकल में समाजवादी ढांचे का जो फैलाव हुआ, उसके दुष्परिणाम सोवियत संघ की ही तरह भारत में भी सामने आये हैं। यद्यपि यहाँ उतनी नृशंसता और बर्बरता नहीं की गई। परंतु प्रशासनतंत्र ने भारत के आर्थिक जीवन को पूरी तरह जकड़ कर रखा और कोटा-परमिट-लाइसेंस राज ने साधारण उपभोग की वस्तुओं को भी दुर्लभ बना दिया और सामान्य जीवन जीना ही बहुत बड़ा पुरूषार्थ हो गया। उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम से समाजवादी जकडऩ में ढील तो मिली परंतु स्वदेशी आर्थिक व्यवस्था का विस्तार नहीं हुआ। मोदी जी ने अब आत्मनिर्भर भारत की दिशा में निर्णायक कदम उठाये हैं। पतंजलि योगपीठ ने भी देश भर में अनेक खाद्य एवं उपभोग वस्तुओं को स्वदेशी ढंग से विकसित कर देश भर में उनका फैलाव किया है जो आर्थिक क्षेत्र में गुलामी से मुक्ति की दिशा में बड़ी पहल है। अन्यथा टूथपेस्ट, आईड्राप, सौन्दर्य प्रसाधन तथा आहार-विहार के सभी क्षेत्रों में विदेशी वस्तुओं की भरमार भारत के बाजारों में हो गई थी और दैनिक जीवन की उपभोग वस्तुओं के लिये भी भारतीय धन विदेश जा रहा था। हमने आर्थिक क्षेत्र की गुलामी से मुक्ति की दिशा में प्रभावशाली कदम उठायें और सौभाग्यवश वर्तमान शासन की नीति भी उसी दिशा में है।
व्यापार के नाम पर एक हजार लाख करोड़ से अधिक रुपया मात्र ब्रिटिशर्स लूटकर ले गए। इसके अतिरिक्त जो यवनों, पुर्तगालियों, फ्रांसिसियों, शक हुणों ने लूटा वह अलग है। राजनैतिक आजादी के बाद भी यह आर्थिक लूट जारी है। हमें 100 प्रतिशत स्वदेशी का प्रयोग करके आर्थिक लूट से भी देश को मुक्ति दिलानी होगी।
वैचारिक सांस्कृतिक गुलामी से मुक्ति
सबसे बड़ी आजादी वैचारिक सांस्कृतिक आजादी है। कोई भी राष्ट्र बिना स्वाभिमान के आगे बढ़ ही नहीं सकता। सनातन हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा या इसमें कोई दुराग्रह करे तो रामराज्य की प्रतिष्ठा से तो अब हमें कोई रोक ही नहीं सकता। राम हमारा चरित्र, स्वाभिमान, भगवान, पूर्वज सब कुछ हैं। हम राम के हैं, राम हमारे हैं। एक तरफ हमारे देश का संविधान और दूसरी तरफ हमारा सनातन संविधान, वेद का विधान। यही है सांस्कृतिक आजादी।
स्वतंत्रता के बाद स्वाभाविक रूप से भारतीय पदावली, भारतीय प्रज्ञा तथा भारतीय व्यवहार की पुन: प्रतिष्ठा भारत में होनी थी। परंतु नेहरू जी की पहल से बिल्कुल विपरीत दिशा में देश को आगे बढ़ाया गया। अधिनायकवाद, पूंजीवाद, वर्गघृणा, वर्गविद्वेष, वर्गयुद्ध, जातियुद्ध, साम्प्रदायिक उन्माद आदि को बढ़ाने वाले मुहावरे और धारणायें फैशन बना दिये गये। प्रत्येक भारतीय संस्था और प्रथा के विरूद्ध विषवमन किया जाने लगा। भारतीय ज्ञान केन्द्रों के प्रति तिरस्कार की भावना फैलाई गई और भारतीय ज्ञान परंपरा के बड़े-बड़े आचार्यों और विद्वानों को किसी बीते समय के अजनबी संग्रहालयों की तरह प्रस्तुत किया जाने लगा। जबकि भारत के स्वाधीनता संग्राम में भारत के साधु-संन्यासियों और आचार्यों तथा मठों और मंदिरों की केन्द्रीय भूमिका रही थी। विश्वविद्यालयों और ज्ञान केन्द्रों में केवल विदेशी विचार और विदेशी पदावली तथा विदेशी मुहावरे ही फैशन बना दिये गये और भारत की नई पीढ़ी को सोवियत या यूरोपीय और अमेरिकी विद्वानों, कवियों, लेखकों एवं विचारकों से ही परिचित कराने की व्यवस्था रची गई। इस प्रकार वैचारिक गुलामी व्यापक होती गई। हमने वैचारिक क्षेत्र में गुलामी से मुक्ति की दिशा में प्रभावशाली कदम उठाये हैं फलस्वरूप देश में तेजस्वी विद्वान युवक-युवतियों की बहुत बड़ी संख्या सामने आई है जो आधुनिक यूरो-अमेरिकी ज्ञान की भी जानकार है और भारतीय शास्त्रों की भी। इससे वैचारिक क्षेत्र में फैली गुलामी से मुक्ति की दिशा में वातावरण बना।
रोग, नशा, अश्लीलता की गुलामी से मुक्ति
रोग, भोग नशे की गुलामी क्या है? विगत कुछ दशकों में देश में पाश्चात्य संस्कृति का प्रचलन बढ़ा है जिससे भारत, भारतीयता भारतीय संस्कृति की हानि हुई है। कितने ऐसे समूह हैं जो रोग, नशा, वासना, भोग, विलासिता नग्नता आदि में नष्ट हो गए। ब्रिटिशर्स भी नशा विलासिता में खत्म हुए। मुगलों ने पूरे देश में तबाही मचाई, वो भी विलासिता में खत्म हुए। हरम में पांच-पांच हजार देश की माँ, बहन, बेटियों को रखते थे, खुद खत्म हो गए विलासिता नशे में। अफीम खाकर के भोग, विलास में पड़े रहते थे।
आहार-विहार की तथा जीवनशैली की यूरोपीय अमेरिकी रीतियों, मान्यताओं और प्रथाओं को विगत 77 वर्षों में इतनी तेजी से फैलाया गया और साहित्य, नाटक तथा फिल्मों आदि के द्वारा एवं दूरसंचार माध्यमों के द्वारा मांसाहार, शराबखोरी, व्याभिचार, लंपटता, नशाखोरी, बहुगामिता, निष्ठाशून्यता, परिवार से विद्रोह, बड़ों और सज्जनों के प्रति अनादर, शिष्ट व्यवहार का उपहास आदि आश्चर्यजनक रूप में बढ़ाया गया। देर रात तक शराब आदि पीते हुये जगना और सूर्योदय के बहुत देर बाद उठना तथा उठ कर बिस्तर पर चाय पीना, अशौच और मलिनता फैशन का अंग हो गये। पवित्रता के अभाव को विदेशी सुगंधित द्रव्यों आदि से ढँकना व्यापक हो गया।
दुर्भाग्य तो यह है जो व्यक्ति एक बार नशा, भोग-विलास में फँस जाता है, उसको ऐसा लगता है वह बड़ा सुखी है। सुख भोग रहा है, आनंद कर रहा है। बाद में एहसास होता है, अरे! यह तो बड़ी भूल हो गयी।
हमने भारत स्वाभिमान तथा पतंजलि योगपीठ के द्वारा करोड़ों युवक-युवतियों को ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौच आदि नियमों का पालन करते हुये योगासन, प्राणायाम तथा यज्ञ करके अपना दिन आरंभ करने की प्रेरणा दी है और स्वस्थ शरीर, शांत, प्रसन्न एवं सजग मन का महत्व सबके ध्यान में आया है। नशे से जर्जर शरीर को फैशन की चीज मानने की जगह स्वस्थ, सबल, सजग और तेजस्वी व्यक्तित्व नई पीढ़ी का आदर्श बन रहा है। यह सांस्कृतिक क्षेत्र की गुलामी से मुक्ति की दिशा में हमारा योगदान है। इससे देश के सांस्कृतिक परिवेश में नया उत्साह और नई ऊर्जा व्यक्त हुई है तथा धर्म और अध्यात्म एवं संस्कार और संस्कृति नई पीढ़ी के जीवन में केन्द्रीय स्थान प्राप्त कर रहे हैं। यह संतोष और प्रसन्नता का विषय है।
 

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