आधुनिक युग की शुरुवात द्वापर युग के समापन काल में महायोगी जगद्गुरु भगवान कृष्ण के महाप्रयाण के बाद महाराज परीक्षित द्वारा कलि को अभय दान देने के समय से माना जाता है। अद्यतन के शोध कार्यों और शास्त्रों के कल्प और युग के समय-गणना और लय-प्रलय के घटनाक्रम के तारतम्य, इत्यादि से यह सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक 100 वर्ष में कुछ न कुछ भौगोलिक, सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक, मानव-संघर्ष जन्य घटनाएं सहित महामारी, प्राकृतिक आपदाएं, इत्यादि घटनाक्रम से मानव के सामाजिक व्यवस्था और जीवनचर्या में अनेकों अकल्पनीय परिवर्तन होते रहते हैं, जिनमे वर्ण व्यवस्था के व्यतिक्रम में व्यवस्था में उलट-पलट एवं अराजकता रूपी भीड़तंत्र भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। जैव क्रम के चौरासी लाख योनियों के सर्वोच्च सोपानों में श्रेष्ठता के प्रतिरूप मानव की अपने ही विचित्रताएं हैं जो समय-समय पर प्रकटीकरण होता रहता है और श्रेष्ठता के विकास-क्रम में सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियों के पराकाष्ठा तक पहुँचने की निरंतर संघर्ष चलता रहता है। स्वभावत: सकारात्मकता के सहनशीलता के गुणों पर नकारात्मकता की आक्रामक एवं दमनकारी कार्यों के प्रतिफल में वर्ण व्यवस्था से चालित आचार-व्यवहार शनै: शनै: समाज में आसुरी सम्पदा में परिवर्तित होता जाता है और अंत में परम सत्ता को सुधार के लिए आना पड़ता है, यथा-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4, श्लोक 7 और 8)
अर्थात, जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं प्रकट होता हूँ, मैं आता हूँ। जब-जब अधर्म बढ़ता है, तब-तब मैं आता हूँ। सज्जन लोगों की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए, धर्म की स्थापना के लिए मैं आता हूँ और युग-युग में जन्म लेता हूँ। वर्तमान भारत में चल रहे वर्ष 2023 में कलियुग की 5,125वाँ वर्ष चल रहा है, और 4,26,875 वर्ष बाकी हैं। अत: यह उथल-पथल जो अभी तक दिखाई दे रही है, ये तो शुरुवाती है, आगे के घटनाक्रम तो सोच से परे है कि क्या-क्या परिवर्तन और सकारात्मकता तथा नकारात्मकता के क्या-क्या पराकाष्ठा के परिदृश्य होंगे, क्या-क्या देखना पड़ेगा, सुनना पड़ेगा, भोगना पड़ेगा। कितने महावीर, कितने बुद्ध, कितने जीसस, कितने पैगम्बर, कितने नानक, इत्यादि-इत्यादि आएंगे, समयानुकूल परिस्थितियों के सुधार के लिए, यथा आज से 70/75 वर्ष पहले इंटरनेट/क्लाउड कंप्यूटिंग/डिजिटल पेमेंट्स इत्यादि अकल्पनीय थे और आज की दैनिक आवश्यकता हो गए हैं। आगे न जाने क्या-क्या आविष्कार होंगे? कैसी जीवनचर्या होगी? वह भी कल्पना से परे है। तो हम कैसे मानें कि आज के वोट के लालची नेताओं के पिछलग्गू तथाकथित विद्वान समाज सुधारक के जाति सम्बन्धी व्याख्या यथावत रहेंगे। हाँ, यह अकाट्य है कि इस वर्ण व्यवस्था के चार वर्ण तो सदा रहेंगे, क्योंकि यह ही शाश्वत सत्य वर्गीकरण है जो प्रशासन से लेकर व्यवस्थापन, संगठन, विधायी एवं न्यायिक व्यवस्था में भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में प्रयोग होता आ रहा है, और होता रहेगा।
लय-प्रलय और मन्वन्तरें-मानव विकास वर्ण-व्यवस्था से परमतत्व की ओर
प्रकृति के अनुकूलन से जैव-विकास के क्रम में गुणों की उत्तरोत्तर निक्रिष्टता से उत्कृष्टता परमात्मा तत्व की ओर ईश्वरत्व के लिए गणना में, वैदिक वाङ्मय के आधार पर सृष्टि की आयु गणना मनुस्मृति के श्लोकों को काम में लिया है-
अत्वार्याहु: सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।
तस्य यावच्छतो सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथा विध:।। -मनु. 1.69
अर्थात्, उन दैवीयुग में (जिनमें दिन-रात का वर्णन है) चार हजार दिव्य वर्ष का एक सतयुग कहा है। इस सतयुग की जितने दिव्य वर्ष की अर्थात् 400 वर्ष की संध्या होती है और उतने ही वर्षों की अर्थात् 400 वर्षों का सन्ध्यांश का समय होता है।
इतंरेषु ससन्ध्येषु ससध्यांशेषु च त्रिषु।
एकापायेन वत्र्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च।। -मनु. 1.70
अर्थात, और अन्य तीन-त्रेता, द्वापर और कलियुग में सन्ध्या नामक कालों में तथा सन्ध्यांश नामक कालों में क्रमश: एक-एक हजार और एक-एक सौ कम कर ले तो उनका अपना-अपना काल परिणाम आ जाता है।
इस गणना के आधार पर सतयुग 4800 देव वर्ष, त्रेतायुग 3600 देव वर्ष, द्वापर 2400 वर्ष तथा कलियुग 1200 देव वर्ष के होते हैं। इस चारों का योग अर्थात् एक चतुर्युगी 12000 देव वर्ष का होता है।
दैविकानाम युगानां तु सहस्त्रं परि संखयया।
ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च।। -मनु. 1.72
अर्थात, देव युगों को 1000 से गुण करने पर जो काल परिणाम निकलता है, वह ब्रह्म का एक दिन और उतने ही वर्षों की एक रात समझना चाहिए। यह ध्यान रहे कि एक देव वर्ष 360 मानव वर्षों के बराबर होता है।
तद्वै युग सहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदु:।
रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदोजना:।। -मनु. 1.73
अर्थात, जो लोग उस एक हजार दिव्य युगों के परमात्मा के पवित्र दिन को और उतने की युगों की परमात्मा की रात्रि समझते हैं, वे ही वास्तव में दिन-रात = सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय काल के विज्ञान के वेत्ता लोग हैं।
इस आधार की सृष्टि की आयु = 12,000X1000 देव वर्ष = 1,20,00,000 देव वर्ष, 1,20,00,000X360 = 432,00,00,000 देव वर्ष, अर्थात, 1,20,00,000 देव वर्ष = 432,00,00,000 मानव वर्ष।
यत् प्राग्द्वादशसाहस्त्रमुदितं दैविक युगम्।
तदेक सप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते।। -मनु. 1.79
अर्थात्, पहले श्लोकों में जो बारह हजार दिव्य वर्षों का एक दैव युग कहा है, इससे 71 (इकहत्तर) गुना समय अर्थात् 12000X71 = 852000 दिव्य वर्षों का अथवा 852000X360= 30,67,20,000 वर्षों का एक मन्वन्तर का काल परिणाम गिना गया है। कुल आयु 432,00,00,000 वर्ष कुल 14 मन्वन्तरों मे बाँटा गया है, इसके उपरांत सृष्टिकर्ता ब्रह्मा फिऱ से सृष्टिरचना आरम्भ करते हैं, जिसके बाद फिऱ संहारकर्ता भगवान शिव इसका संहार करते हैं; और यह सब एक अंतहीन प्रक्रिया या चक्र में होता रहता है। फिर अगले श्लोक में कहा गया है कि वह महान् परमात्मा असंख्य मन्वन्तरों को, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय को बार-बार करता रहता है, अर्थात् सृष्टी प्रवाह से अनादि है।
संकल्प मन्त्र के आधार पर वेद का उत्पत्ति काल-
ॐ तत्सत् श्री ब्रह्मण: द्वितीये प्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वते मन्वन्तरेऽअष्टाविंशतितमे कलियुगे कलियुग प्रथम चरणेऽमुकसंवत्सरायमनर्तु मास पक्ष दिन नक्षत्र लग्न मुहूर्तेऽवेदं कृतं क्रियते च।
अर्थात्, वर्तमान मन्वन्तर सातवें मनु वैवस्वत का है। इससे पूर्व छ: मन्वन्तर हो चुके हैं और सात मन्वन्तर आगे होवेंगे। ये सब मिलकर चौदह मन्वन्तर होते हैं। इस आधार पर वेदोत्पत्ति की काल गणना इस प्रकार होगी- छ: मन्वन्तरों का समय = 43,20,000X71X6= 1,84,03,20,000 वर्ष, वर्तमान मन्वन्तर की 27 चतुर्युगी का काल = 43,20,000X27= 11,66,40,000 वर्ष, अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के गत तीन युगों का काल= 38,88,000 वर्ष, कलियुग के आरम्भ से विक्रम सं. 2080 तक का काल= 3043 + 2080 वर्ष = 5,123 वर्ष, कुल योग = 1,84,03,20,000 +116640000 + 3888000+5123 वर्ष = 1,96,08,53,123 वर्ष। चूंकि विक्रम संवत् के प्रारम्भ तक कलियुग के 3043 वर्ष व्यतीत हो चुके थे और 3044वाँ वर्ष चल रहा था, इसलिए वर्तमान में 1,96,08,53,124वाँ वर्ष चल रहा है। सृष्टि की आयु के 1000 चतुर्युगी में 14 मन्वन्तर अर्थात् 994 चतुर्युगी, मानव भोग काल है और 6 चतुर्युगों का 2,59,20,000 वर्ष समय, सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भ से लेकर मानव अथवा वेदों की उत्पत्ति तक का है, अत: वह सृष्टि की आयु में, तथा भोगकाल 994 चतुर्युगों के अन्त में प्रलय काल आरम्भ होने के कारण, प्रलय की आयु में जोड़ा जायेगा। पुरी पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य श्री निश्चलानन्द सरस्वती द्वारा लिंग और स्कंध इत्यादि पुराणों के आधार पर उत्तरोत्तरित गणना के अनुसार वर्तमान पृथ्वी में मानव शासन की 197,29,49,124वीं वर्ष चल रहा है, और और बचे हुए 234,70,50,877 वर्ष भोगने हैं।
ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि -
त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्संपृञ्चान: सदने गोभिरद्भि।
कविबुध्नं परि मर्मृज्यते धी: सा देवताता समिति र्बभूव:।। -ऋ .1.95.8
अर्थात्, मनुष्यों को जानना चाहिये कि काल के बिना कार्य स्वरूप उत्पन्न होकर और नष्ट हो जाये, ऐसा होता ही नहीं है और न ब्रह्मचर्य आदि उत्तम समय के सेवन के बिना शास्त्र बोध कराने वाली बुद्धि होती है। अत: काल के परम सूक्ष्म स्वरूप को जानकर थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ न खोवें, किन्तु आलस्य छोडक़र समय के अनुसार व्यवहार और परमार्थ के कामों का सदा अनुष्ठान करें।
उपरोक्त गणना से पाश्चात्य विद्वानों और सनातन पश्चात् में पंथ-प्रवर्तक ईसाई जीसस क्राइस्ट और ईस्लाम पैगम्बर मोहम्मद के क्रमश: 2023 वीं और 1445वीं बर्ष से चला आ रहा ईश्वर पुत्र मसीहा के द्वारा पापियों के उद्धार हेतु संसार के दबे कुचले जातिविहीन समाज और खुदा के पैगम्बर के द्वारा खुदा के आदेश अनुसार तलवार के बल से काफिरों के विनाश कर जाती-वर्ग विहीन संसार बनाने की अथवा कार्ल-माक्र्स फ्रेडरिक एंजेल्स द्वारा 21 फऱवरी 1848 को लंदन से प्रकाशित कम्युनिस्ट घोषणापत्र (मैनीफेस्टो ऑफ द कम्युनिस्ट पार्टी) के बाद से ‘एक कम्युनिस्ट क्रांति सत्तारूढ़ वर्गों की बुनियाद को हिलाकर रख देगी। सर्वहारा वर्ग के पास जंजीरों को खोने के अलावा कुछ भी नहीं है। उनके सामने जीतने के लिये पूरी दुनिया पड़ी है। दुनियाभर के मेहनकतकशों एक हों।’जैसे सनातन व्यवस्था विरोधी दर्शन के आड़ में 197,29,49,124 बर्ष से मानव विकास क्रम से 453 चतुर्युगी और 7वें मन्वन्तर के 28वें चतुर्युगी के तीन युग और चतुर्थ युग के आरंभ के 5124वें वर्ष के विकास और सामाजिक व्यवस्था को, अपने लगभग 2000/1400 वर्ष के ईसाई/मुस्लिम अथवा 200 वर्ष के कम्युनिस्टों जो सदा से सनातन और पुरातन विरोधी और सामूहिक हत्या और दमन के पोषकों, विद्रोह और एकल-बाद के नवीन अवतार माओवादियों के, अखंड भारतवर्ष के भौगोलिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक तथ्यों से पूर्णत: अपरिचित और घोर विरोधी साक्षर डिग्री धारी परन्तु ज्ञान-शून्य स्वार्थीतत्व के नेतृत्व वाले, तथाकथित सामाजिक सामंजस्य के ध्वजवाहक पाखंडियों के स्व-पंथ व स्व-विचार प्रसार के, दुष्प्रचार के आधार पर अथवा दुष्प्रचार के लिए प्रकाशित लेख और साहित्य अथवा उनके समाज विभाजक हथकंडों के आधार पर, हम भारतीय अपने ही पूर्वजों की थाती को भूलकर वाकई कलियुग के शास्त्रों द्वारा परिलक्षित संकेतों की ही पुष्टिकरण कर रहे हैं।
क्रमश: