यूरो अमेरिकी और भारतीय चिकित्सा विज्ञान एवं पद्धतियाँ

यूरो अमेरिकी और भारतीय चिकित्सा विज्ञान एवं पद्धतियाँ

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

त्रेता द्वापर युग में आयुर्वेद के प्रमाण
   भारतीय चिकित्सा विज्ञान एवं पद्धतियाँ अत्यन्त प्राचीन हैं। आयु और जीवन के विषय में विस्तृत विचार करने के कारण उसे आयुर्वेद कहा गया है। परम्परागत दृष्टि से यह सृष्टि के आरंभ से ही है। परंतु आधुनिक यूरो-अमेरिकी बौद्धिक वर्चस्व के युग में ये बात अमान्य की जाती है। तो भी कम से कम 10 हजार वर्षों से आयुर्वेद होने का विस्तार से प्रमाण है। महाभारत में आयुर्वेद चिकित्सा के जितने प्रामाणिक उल्लेख हैं और जैसी सहजता से उनका विवरण दिया है इससे पता चलता है कि आज से 5200 वर्ष पूर्व आयुर्वेद भारतीयों के लिये सर्वविदित विद्या थी। उसके विषय में सभी भारतीयों को यह ज्ञात था कि वह बहुत ऊँची विद्या है। इसी प्रकार वाल्मीकीय रामायण में भी जिस प्रकार चिकित्सा और उपचार का वर्णन है उससे तो यह हजारों वर्ष या लाखों वर्ष पुराना प्रमाणित हो जाता है।
विश्व की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति- आयुर्वेद
यह बात समझ में आती है कि यूरोप के लोगों को भारत की प्राचीन विद्यायें प्राचीन मानने में भारी परेशानी है। तब भी वे लगभग 2000 वर्षों से अधिक प्राचीन तो मानते ही हैं। इससे पता चलता है कि मानव जाति के हजारों वर्षों का अनुभव आयुर्वेद में निहित है। अत: वह विश्व को मानवता की अमूल्य धारोहर है और उसके प्रति गहरा आदरभाव होना मनुष्य होने का अनिवार्य लक्षण है।
यूरो-अमेरिकी चिकित्सा पद्धति कुल 200 वर्ष पुरानी है। 19वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में होम्योपैथ सैम्युएल हैनीमैन ने इसेएलोपैथनाम तिरस्कार और व्यंग्य के साथ दिया था। क्योंकि यह रोग के लक्षणों का निदान करते हुये विकसित नहीं हो रही थी। बल्कि अललटप्पू तथा अटकलबाजी के रूप में सामने रही थी। वस्तुत: यूरो-अमेरिकी सभ्यता 10 हजार वर्षों पूर्व हुये हिमप्रलय के बाद कुछ हजार वर्षों में धीरे-धीरे हिमखंडों के पिघलने और दलदलों के सिकुडऩे के बाद मुश्किल से इधर-उधर बिखरी बसाहटों के रूप में 4000 वर्ष पूर्व आकार लेने लगी और उसकी वास्तविक प्रगति तो केवल 500 वर्ष पुरानी है। उसमें भी आज से 200 वर्ष पूर्व तक यूरोप के सर्वसाधारण को पेटभर भोजन और रहने को छत तथा पहनने को कपड़े पर्याप्त मात्र में उपलब्ध नहीं थे। इसलिये उनका वास्तविक विकास तो अमेरिकी महाद्वीप से लूटे गये धन के आधार पर संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा द्वितीय महायुद्ध के बाद चलाये गये मार्शल प्लान के बाद ही हुआ है। अत: मानवीय ज्ञान के संबंध में यूरो अमेरिकी जानकारी शिशुवत है।
यूरोपीय चिकित्सा पद्धति का विकासक्रम
19वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में यूरोप में चिकित्सा की सर्वज्ञात पद्धति यह थी कि वे बीमार आदमी को मोटी सुई चुभोकर उसकी नसों से खूब बहने देते थे। यह मानते थे कि यह अशुद्ध खून है और इसे बहा देने से व्यक्ति स्वस्थ हो जायेगा। इसी प्रकार मनुष्य या जानवरों के शरीर से पित्तरस निकालकर भी उपचार किया जाता था। वह सब बहुत भयानक और दर्दनाक होता था। भारत के सम्पर्क में आने के बाद पहली बार यूरोपीय लोगों ने चेचक के टीके तथा अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ और शल्य चिकित्सा देखी। तेजी से परिश्रम करके उन्होंने उस दिशा में सराहनीय विकास किया। बाद में जीवाणुओं का अध्ययन मुख्यत: 20वीं शताब्दी ईस्वी में विकसित हुआ। उसने यूरोपीय चिकित्सा पद्धति के विकास में निर्णायक योगदान दिया। इस बीच जीव विज्ञान तथा वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में भी आश्चर्यजनक प्रगति हुई और मानव शरीर की चीरफ़ाड़ भी बड़ी सूक्ष्मता और विस्तार से किये जाने में यूरोपीय चिकित्सकों ने भारी प्रगति की। उनका परिश्रम सब प्रकार से सराहनीय है और मानवता के लिये कल्याणकारी भी हो सकता है।
एलोपैथी शब्द गाली की तरह प्रयुक्त होता था। अत: वर्तमान में उसको साक्ष्य आधारित चिकित्सा कहा जाता है। परंतु समस्या यह है कि ये साक्ष्य वस्तुत: संख्या में अपेक्षाकृत बहुत कम होते हैं। प्रारंभ में गरीब लोगों को पकडक़र उन पर परीक्षण किये गये और उनके आधार पर यह चिकित्सा पद्धति क्रमश: विकसित हुई। कहीं 200 और कहीं 400 या 500 लोगों पर ये परीक्षण किये गये। जबकि बीमारियाँ लाखों लोगों को थीं। पहली बार 19वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में इस चिकित्सा पद्धति की समीक्षा करते हुये एक रिपोर्ट 1835 ईस्वी में छपी। उसके बाद 1967 ईस्वी में एल्वान फ़ेइन्स्टीन नेक्लिनिकल जजमेंटपुस्तक में इस पद्धति की समीक्षा छापी। 1972 में आर्ची कोहरेन ने अपने प्रकाशन के द्वारा इस पद्धति पर अनेक प्रश्न खड़े किये। 1980 ईस्वी में डेविड ऐड्डी ने फिऱ इस पद्धति में पर्याप्त प्रमाणों का अभाव सिद्ध किया। बाद में विशेषकर सैनिकों की चिकित्सा की अनिवार्यता के कारण इस दिशा में बहुत सारा धन लगाकर खोज की जाती रही। उसके साथ ही चिकित्सा शिक्षा को भी बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया गया। परंतु अभी तक साक्ष्य आधारित उपचार और चिकित्सा शिक्षा निर्विवाद नहीं मानी जाती। यद्यपि संयुक्त राज्य अमेरिका और इंग्लैंड सहित अनेक देशों में इसके लिये महंगे राष्ट्रीय संस्थान विकसित किये गये हैं। परंतु जीवाणुओं के अध्ययन का काम बड़े पैमाने पर हो रहा है और उनके आधार पर प्रत्यक्ष उपचार भी देखने में आता है। इसलिये यह चिकित्सा पद्धति लोकप्रिय हो रही है और इसे सरकारों द्वारा बड़े पैमाने पर बल प्रयोग के साथ तथा प्रचार के साथ लोकप्रिय बनाया जाता है।
रोगाणुओं और जीवाणुओं के विषय में अब तक बहुत शोध हुआ है और इन शोध कार्यों में जुटे लोगों की अपनी शोध में अडिग आस्था है। परंतु उससे बाहर बहुत से वैज्ञानिक लगातार यूरोपीय चिकित्सा पद्धति को दोषपूर्ण बताते रहे हैं और अनेक लोगों ने तो उसेकाला जादूतक घोषित कर दिया है।
शल्य चिकित्सा के जनक हैं महर्षि सुश्रुत
महत्वपूर्ण बात यह है कि यूरोपीय चिकित्सा पद्धति में भी जो सर्वाधिक प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय क्षेत्र है वह शल्य चिकित्सा का ही है। जिसके विषय में सम्पूर्ण विश्व में सर्वानुमति है कि इसके मूल प्रवर्तक भारतीय ऋषि सुश्रुत और उनके पूर्ववर्ती ऋषि ही थे। सुश्रुत संहिता में मानव शरीर की जैसी सूक्ष्म जानकारी दी गई है, वह अद्वितीय है और उसी का अनुसरण यूरोपीय शल्य चिकित्सा में किया गया है।
जहाँ तक आयुर्वेद की बात है, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांग संग्रह इसके विश्व प्रसिद्ध मानक ग्रंथ हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि यूरोपीय चिकित्सकों में से कोई भी दार्शनिक नहीं हुआ है। जबकि भारतीय ऋषि चरक, सुश्रुत तथा वाग्भट - तीनों ही उच्च कोटि के दार्शनिक थे और सांख्य दर्शन तथा वैशेषिक दर्शन के विशेषज्ञ थे। मानव शरीर से संबंधित हेतु विज्ञान जितने विस्तार से आयुर्वेद ग्रंथों में दिया हुआ है, वह विश्व में सर्वत्र सराहा जाता है।
चरक संहिता में सर्वप्रथम सामान्य सिद्धान्तों की चर्चा है, जिन्हें सूत्रस्थान कहते हैं उसके बाद निदान स्थान हैं जिसमें पैथालॉजी की मीमांसा है। इसके बाद विमान स्थान में शरीर के विशिष्ट विकारों पर चर्चायें हैं और शारीर स्थान में सम्पूर्ण शरीर की संरचना का सूक्ष्म और विशद वर्णन है तथा इन्द्रिय स्थान में इन्द्रिय संवेदना के केन्द्रों का आश्चर्यजनक प्रामाणिक विवरण है। इसके बाद चिकित्सा, कल्प और विभिन्न उपचारों की सिद्धि इन तीन नामों से अध्याय हैं। इस प्रकार कुल 120 अध्याय हैं। सूत्र स्थान में जो 30 अध्याय हैं, वे समस्त आयुर्वेदीय सिद्धान्तों आधार और सन्दर्भ हैं।
महर्षि चरक द्वारा रचित चरक संहिता अद्भुत ग्रंथ रोगी मानवता को आयुर्वेद का वरदान
वनस्पतियों और अन्य द्रव्यों का जैसा विस्तृत विवरण चरक संहिता एवं अन्य आयुर्वेद ग्रंथों में है वह यूरोप में 19वीं शताब्दी ईस्वी से पहले पूरी तरह अज्ञात था। शरीर की संरचना और उसमें उत्पन्न होने वाले रोगों के कारण अर्थात् शरीर के दोषों और मलों की व्याख्या तथा धातु की विशेषता और व्याख्या के साथ ही पंचकर्म और भैषज्य का विस्तृत विवरण इनमें है।
वात, पित्त और कफ़ के समस्त दोषों और उनके उपचारों का वर्णन आयुर्वेद ग्रंथों में है। श्रेष्ठ जीवनशैली और आहार विहार के श्रेष्ठ नियम आयुर्वेद ग्रंथों की विशेषता है। इसके साथ ही निदान स्थान भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उसमें रोगों के कारणों का और वात, पित्त तथा कफ़ के भेदों का एवं निदान का वर्णन है। इसके साथ ही विमान स्थान के 8 अध्यायों में रसों के गुणधर्म, रसों के प्रभाव तथा विविध द्रव्यों के शरीर पर प्रभाव की मीमांसा है। उदर से संबंधित समस्त विकारों का और उनसे बचने के लिये अपेक्षित आहार विधि का विवरण भी विमान स्थान में है। उसके साथ ही जनपदों में होने वाली महामारियों के लक्षण और उपचार का हजारों वर्ष पूर्व से विवरण और समाधान आयुर्वेद ग्रंथों में है जबकि 18वीं शताब्दी ईस्वी तक यूरोप में महामारियों का कोई भी प्रभावी उपचार उपलब्ध नहीं था और प्राय: राष्ट्रों की एक तिहाई से आधी जनसंख्या प्लेग एवं अन्य महामारियों से नष्ट होती रही है।
सृष्टि में मनुष्य की स्थिति और पंचमहाभूतों से रचित मानव शरीर एवं मन का जैसा सूक्ष्म विवेचन आयुर्वेद में है तथा गर्भ एवं शिशु के विषय में जितने विस्तार से जानकारी है वह तो विश्व में दुर्लभ ही है।
इन्द्रिय स्थान के 12 अध्यायों में वर्ण, स्वर, गंध, रस, स्पर्श, चक्षु, घ्राण, रसना, मन, उदराग्नि आदि का प्रामाणिक और विलक्षण ज्ञान आयुर्वेद ग्रंथों में है। शरीर की आकृति से मनुष्य के स्वभाव और शारीरिक विशेषताओं की पहचान तथा बल की पहचान और बल, बुद्धि एवं स्मरणशक्ति बढ़ाने के उपाय दिये गये हैं। इसके साथ ही सूक्ष्म शक्तियों के भी संकेत वहाँ दिये गये हैं।
चिकित्सा स्थान में तीस अध्याय हैं जिसमें काय चिकित्सा का विस्तृत विवरण है। इसके साथ ही रसायन अध्याय में रसायनों और उनके प्रभावों का बहुत विस्तार से विवेचन है। सभी प्रकार के ज्वरों की चिकित्सा आयुर्वेद में वर्णित है। उपचार की बहुत सारी विधियाँ कल्पस्थान के 12 अध्यायों में वर्णित हैं। वैद्यों के लिये भी आदर्श और श्रेष्ठ आचारसंहिता का महत्व एवं अनिवार्यता प्रतिपादित है।
इस प्रकार मानव जीवन के लिये आयुर्वेद का महत्व सांगोपांग और अतुलनीय है। विश्व में मानव कल्याण एवं मानव स्वास्थ्य का हेतु आयुर्वेद ही हो सकता है। यह बात यूरोपीय चिकित्सक बहुत अच्छी तरह जानते हैं। परंतु यूरोपीय चिकित्सा पद्धति से जुड़ी कंपनियाँ और बहुराष्ट्रीय निगम इस जानकारी से भयभीत रहते हैं और वे आयुर्वेद के दमन के लिये जो संभव है वैसे सभी उपाय अपनाते हैं। अभी तक वे शासन का संरक्षण पाने में इतने सफ़ल रहे हैं कि उनका एकाधिकार ही चिकित्सा के क्षेत्र में व्याप्त है। परंतु अब विश्व का और भारत का भी परिवेश बदल रहा है और भारत शासन आयुर्वेद के प्रति भी न्यायशील रहने का विचार कर रहा है। इसके अनेक लक्षण और संकेत मिलते रहते हैं।

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