आयुर्विज्ञान के प्राचीनतम ग्रंथ चरक संहिता, सुश्रुत, अष्टांग हृदय व संग्रह, वेद तथा गीता में आहर के सम्बन्ध में अनेक सूत्र आये हैं। इनमें से कुछ सूत्र आधुनिक आयुर्विज्ञान के शोधों की कसौटी पर भी खरे हैं तो कुछ सूत्रों की अभी तक वैज्ञानिक व्याख्या नहीं की जा सकी है। ऐसा लगता कि वे अवैज्ञानिक मान्यताओं एवं भ्रांतियों को प्रतिपादित करते हैं। यहाँ आयुर्वेद की दृष्टि से आहार पर चर्चा की जा रही है।
पंच महाभूतों पर आधारित हमारा आहार
हमारे शरीर की तरह हमारा आहार भी पंच-तत्त्वों से बना है। इन तत्त्वों के आधार पर आहार पार्थिव, जलीय, तेजस्, वायवीय तथा आकाशीय गुणयुक्त होता है। इन्हीं गुणों के कारण कोई भी आहार ठण्डा, जल्द पचने वाला, देर से पचने वाला होता है। कोई मल द्वार से बाहर निकलता है, तो कोई मुँह से बाहर निकलता है। जल तत्त्व की प्रकृति (स्वभाव) है ठण्डी, भारी तथा नीचे की ओर बहने वाली। इसके विपरीत तेज या अग्नि का गुण हल्का तथा ऊपर की ओर जाने वाला है। वायु का गुण सम तथा उदासीन है। यह जिसके साथ मिलता है, उसी के गुण में वृद्धि करता है। यह अग्नि को बुझाता है, तो दूसरी तरफ अग्नि को प्रचण्ड भी करता है। आकाश तत्त्व हल्कापन व खालीपन तथा पृथ्वी तत्त्व भारीपन पैदा करता है।
अग्नि तत्त्व आँख, जल तत्त्व रसना या जिह्वा, पृथ्वी तत्त्व नासिका, आकाश तत्त्व कान तथा वायु तत्त्व त्वचा का प्रतिनिधित्व करता है और इन्हीं तत्त्वों को ग्रहण भी करता है। इनमें जिह्वा, आँख एवं नाक ज्ञानेन्द्रियाँ ही आहार से उद्दीप्त होती हैं। जिह्वा प्रधान ज्ञानेन्द्रिय है जिसका आहार से सीधा सम्बन्ध है। आहार के षट्-रसों का निर्णय जिह्वा का ही काम है इसलिए इसे रसना भी कहा गया है।
पंच महाभूतों से मिश्रित विभिन्न प्रकार के पाचक रस
खाद्य पदार्थों की दृष्टि से छह रस होते हैं- मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु और कषाय। पृथ्वी तथा जल तत्त्व की अधिकता से मधुर, पृथ्वी तथा अग्नि गुण की प्रबलता से अम्ल, वायु और अग्नि गुण की प्रबलता से अम्ल, जल और अग्नि गुण से लवण, वायु और अग्नि गुण की प्रचुरता से कटु, आकाश और वायु गुण के संयोग से तिक्त तथा वायु और पृथ्वी तत्त्वों की अधिकता से कषाय निर्मित होता है। ये छह रस पृथक-पृथक खाद्य पदार्थों में अलग-अलग मात्रा में होते हैं। इन रसों पर ही पाचक रसों का स्राव निर्भर करता है। सुश्रुत संहिता में एक सूत्र है जिसके अनुसार भोजन का प्रारम्भ मधुर रस से करें। इससे मुँह का एन्जाइम सलाइवा एमाइलेस पिट्यालिन एन्जाइम काफी मात्रा में निकलकर भोजन को पचाने में सहयोगी बनेगा। भोजन की समाप्ति कषाय रस से करें। यही कारण था कि लोग भोजन के बाद पान खाते थे। अम्ल तथा लवण रस (अचार इत्यादि) का उपयोग मध्य में करने हेतु बताया है।
बल, पुष्टि, आह्लाद देने वाला तथा होठ चिपकाने वाला रस मधुर होता है। भूख की वृद्धि, मन में उल्लास, जिह्वा में उत्तेजना तथा भोजन में रुचि पैदा करने वाला रस अम्ल होता है। लार ग्रंथि की सक्रियता बढ़ाने वाला, कफ विच्छेदक, भोजन में स्वाद व रूचि पैदा करने वाला रस लवण होता है। मुखशोधक, आँसू उत्तेजक, नासिका से पानी लाने वाला रस कटु (मिर्च) होता है। ज्वरघ्न, दूसरे रसों को उपयोगी बनाने में सहायक तथा रक्त शोधक रस तिक्त होता है जैसे- नीम व करेला। विभिन्न पाचक रसों के स्राव को कम करने वाला, रसों को अपने कार्य-सम्पादन के लिए प्रेरक तथा सभी रसों का समन्वयक कषाय रस (जैसे- आम की गुठली, आँवला इत्यादि) कहलाता है। इन छह रसों से युक्त आहार के सम्यक प्रयोग से हम स्वस्थ रहते हैं। अपने आहार में इन रसों की कमी या प्रचुरता होने अर्थात् असम्यकत्व असंतुलन की स्थिति से हम बीमार होते हैं।
पंच भूतात्मक आहार के गुण धर्म
ऐसे खाद्य पदार्थ जिन्हें कम मात्रा में भी खाने पर पेट भारी तथा शरीर आलसी हो जाता है, उसमें पृथ्वी तत्त्व है जैसे गेहूँ, बाजरा, मक्का आदि की रोटी, जिन्हें खाने से पेट में गड़गड़ाहट तथा पाखाने में गरज के साथ छीटे पड़ें, उनमें वायु तत्त्व है जैसे मटर, पपीता, अमरूद, कद्दू, चना, खेसारी, अरहर इत्यादि। अधिक पेशाब लाने वाले आहार तत्त्वों में जल है जैसे सभी प्रकार के फल एवं हरी सब्जियाँ तथा उनके रस, सिंघाड़ा इत्यादि पानी के फल। शरीर में जलन तथा प्रदाह उत्पन्न करने वाले आहारों में अग्नि तत्त्व है जैसे मिर्च, मसाले, नमक इत्यादि। जिन खाद्य-पदार्थों के खाने से पेट तो भर जाये, लेकिन उससे कोई सत्त्व न मिले, ऐसे आहारों में आकाश तत्त्व की प्रचुरता होती है, जैसे सिंघाड़ा का आटा इत्यादि।
सुसंस्कारित आहार के गुणधर्म बदल जाते हैं
आयुर्वेद में आहारों को सुसंस्कारित करने की बात आई है। सुसंस्कारित करने से आहारों के गुण-धर्म अर्थात् प्रकृति ही बदल जाती है। जैसे चावल पुराना होने पर सुपाच्य, पथ्य एवं श्रेष्ठ हो जाता है। जल को ताम्र पात्र में 24 घंटे रखकर पीने से अमृत-तुल्य हो जाता है, जबकि रखा खाद्य पदार्थ विषाक्त हो जाता है। उसी प्रकार दही शोथ पैदा करता है, लेकिन उसी की बनी हुई छाछ सूजन को कम करती है। दाल की प्रकृति वायुकारक एवं भारी है लेकिन तेल मिलाकर बनाने तथा छौंक लगाने से यह हल्की हो जाती है। आम का रस भी भारी माना जाता है, लेकिन उसमें घी, सोंठ, जीरा इत्यादि मिलाकर खाने से हल्का हो जाता है। देश, वायुमण्डल तथा भूमि का प्रभाव भी आहार पर होता है। जैसे देहरादून का बासमती चावल, पंजाब का देशी गेहूँ, गुजरात की ज्वार उत्तम किस्म के माने जाते हैं, जबकि उसी किस्म के अनाज बीजों को दूसरी जगह उगाने के बावजूद भी वे निम्न कोटि के होते हैं।
आहार की शक्ति वीर्य
आहारों के कार्य करने की शक्ति या प्रभावी क्षमता वीर्य है। वीर्य दो प्रकार के होते हैं- शीतल तथा उष्ण। मधुर रस का वीर्य शीतल तथा अन्य रसों का गरम होता है। अम्ल रसों का बाह्य प्रभाव ठण्डा तथा आन्तरिक प्रभाव गरम होता है। भोजन पचने की अन्तिम परिणति विपाक कहलाती है। जैसे किसी खाद्य-पदार्थ से पेट भारी हो गया या गैस पैदा हो गई अथवा अन्य लक्षण परिलक्षित हुआ। खाद्य-पदार्थो की विभिन्न किस्मों अथवा एक ही खाद्य पदार्थ की विविध किस्मों- जैसे चावल, गेहूँ अथवा अन्य अनाजों की सैकड़ों प्रजातियाँ होती है। पृथक-पृथक प्रजातियों का रस, वीर्य, विपाक तथा प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है। शुष्क भूमि जिसमें आग्नेय तत्त्व की प्रधानता होती है, इनमें उत्पन्न अनाज रुक्ष, शीघ्र पाच्य तथा कफहर होता है। पानी वाली भूमि में उत्पन्न आहार बलकारक, पित्तशामक तथा कफकारक होता है। दिन भर घूमने वाले पशुओं का रात्रि का दूध पचने में हल्का होता है, जबकि रात भर बँधी रहने के कारण प्रात:काल का दूध भारी होता है। भैंस का दूध गाय के दूध से ठण्डा होता है, क्योंकि वह पानी में बैठी रहती है और उसे ज्यादा पसन्द करती है।
चरक-वाग्भट सूत्र 'हित भुक्, मित भुक्, ऋत भुक्'
एक दिलचस्प घटना के अनुसार एक बार चरक ने कबूतर का भेष धारण कर अपने शिष्य वैद्यों की परीक्षा लेने के लिए अलग-अलग आश्रमों में 'कोऽरूक कोऽरूक' की आवाज लगाई। उनका कोई भी शिष्य इस परीक्षा में सफल नहीं हुआ, इसका जबाव सिर्फ वाग्भट्ट ने दिया- हित भुक्, मित भुक्, ऋत भुक्। यानि स्वास्थ्य के लिए जो लोग हितकारी परीमित मात्रा में तथा अपनी प्रकृति एवं मौसम और वातावरण के अनुसार भोजन करते हैं। ऐसा करने से कोई भी रोगी नहीं होता है, सभी निरोगी रहते हैं।
हमारा भोजन ऋतु के अनुसार हितकारी, परिमित तथा समय पर होना चाहिए। भोजन करने की तुलना यज्ञ से की गई है। जिस प्रकार यज्ञ में हवन सामग्री, समिधा आदि की शुद्धता पर ध्यान दिया जाता है, उसी प्रकार शरीर रूपी यज्ञवेदी की अन्तराग्नि (जठराग्नि) में पवित्र खाद्य पदार्थों का ही हवन करना चाहिए। जिस प्रकार बाह्य अग्नि घी एवं हवन सामग्री अधिक डालने से बुझ जाती है तथा थोड़ा-थोड़ा डालने से प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार जठराग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए श्रेष्ठ आहार घी, दूध का थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बराबर सेवन करें। दोनों प्रकार के यज्ञ में मात्रा तथा काल का ध्यान रखना चाहिए। शरीर, मन एवं आत्मा को पवित्र रखकर अन्तराग्नि जठराग्नि होम को प्रज्वलित करने के अनुष्ठान के लिए बैठें। अत्यधिक गर्म तथा अत्यधिक शीतल भोजन करना स्वास्थ्य-विरोधी हैं। भूख होने पर ही भोजन करें और परस्पर गुणधर्म विरोधी आहार नहीं लें।
विरोधी आहार: विभिन्न रोगों का प्रहार एवं संचार
आयुर्वेद में निम्न 20 प्रकार के विरोधी आहार बताए गये हैं- नमीयुक्त जैसे समुद्र किनारे रहने वालों को दही की छाछ में मीठा डालना तथा रुक्ष प्रान्त में तीक्ष्ण आहार या औषध लेना देश विरोधी भोजन है। शीत या शिशिर काल में ठण्डा तथा रूखा आहार खाना तथा ग्रीष्म काल में गर्म खाद्य लेना काल विरोधी है। मंदाग्नि की स्थिति में घृत, शर्करा व प्रोटीन बहुल तथा देर से पचने वाला भारी आहार खाना अग्नि विरोधी है। मधु तथा घृत को बराबर मात्रा में लेना मात्रा विरोधी है। शाकाहारी को बलपूर्वक मांस खिलाना सात्म्य विरोधी है। मन अनुकूल भोजन का नहीं होना मन का विरोधी है। बिना रस तथा आनन्द के भोजन करना संपद्विरोधी है। गरम चाय, कॉफी के बाद कोल्डड्रिंक या आइसक्रीम आदि आहार लेना पाक विरोधी है। भूख न लगने पर भी खाना या पाखाना, पेशाब से मुक्त हुए बिना खाना क्रम विरोधी है। सुअर या गाय का माँस अर्थात् लोकनिन्दित आहारों को खाना परिहार विरोधी है। भोजन के वैज्ञानिक नियमों के विरोध अर्थात् एकान्त में शान्त होकर नहीं खाना अथवा बिना चबाये ही भोजन करना विधि विरोधी है। खट्टी वस्तुओं के साथ दूध अथवा दूध के साथ नमक इत्यादि खाना संयोग विरोधी है। व्यायाम अथवा टहलने से थकान की स्थिति में तुरन्त एक साथ अधिक जल पीना अवस्था विरोधी है। नरम नाजुक पेट वालों को गरम तीक्ष्य भोजन करना कोष्ठ विरोधी है। गर्म वीर्य वाले आहार (माँस, मछली आदि) के साथ शीत वीर्य वाले (दूध इत्यादि) खाना वीर्य विरोधी है। ताम्र या पीतल के पात्र में रखे खट्टे खाद्य पदार्थ, दही, छाछ, टमाटर, नीबू वाले आहार खाना संस्कार विरोधी है। वात प्रकृति वाले के लिए वायु पैदा करने वाले आहार उड़द, चना आदि दालें खाना वात विरोधी है। अम्ल-पित्त वाले को अम्ल-पित्तोत्तेजक आहार खट्टी, बासी वस्तुएँ खाना पित्त विरोधी है। कफ प्रकृति वाले रोगी को कफ कारक परिशोधित आहार कफ विरोधी है तथा विभिन्न रोगों में रोग विशेष पैदा करने वाले आहार जैसे मधुमेही रोगी को चीनी तथा चीनी की बनी वस्तुएँ गठिया वाले रोगी को मांस व दाल खाना उपचार विरोधी आहार कहलाते हैं।
आयुर्वेद में मुख्यत: आहार को दो भागों में बाँटा गया है- (1) दूध, पानी, रस तथा सूप इत्यादि द्रव आहार। (2) चावल, गेहूँ, दाल, फल इत्यादि ठोस आहार, फिर इन सभी को बारह भागों में विभाजित किया गया है- (1) शुक धान्य वर्ग। शुक कीड़े की संरचना वाले आहार गेहूँ, चना, चावल, बाजरा, मक्का इत्यादि। (2) शमी वर्ग में सभी प्रकार के द्विदल अनाज। (3) माँस वर्ग। (4) शाक वर्ग। (5) फल वर्ग। (6) हरित वर्ग में कच्चा आहार। (7) सभी प्रकार के शराब मध्य वर्ग में। (8) जल वर्ग में जल से प्राप्त आहार। (9) गाय के दूध से बने आहार गोरस वर्ग में। (10) इक्षु वर्ग में गन्ना, शहद आदि शर्करा वाले आहार। (11) कृताप वर्ग में मडुवा, साँवा या श्यामा चावल टगुनी इत्यादि हीन अनाज (12) उपयोगी।
कुछ आयुर्वेद विद्वानों ने खाने के तरीकों के आधार पर भी आहार को चार भागों में वर्गीकृत किया है। रोटी, फल आदि चबाकर खाये जाने वाले आहार। चटनी, शहद आदि चाटकर खाये जाने वाले आहार को। लेह्य, दूध, रस आदि पीकर खाये जाने वाले आहार पेय। नन्हे शिशु द्वारा माँ का दूध चूस कर पीना तथा गन्ना चूसना चोष्य आहार कहलाते हैं। इस प्रकार से हम देखते हैं कि आयुर्वेद में आहार के सम्बन्ध में विस्तृत चिन्तन किया गया है।
आहार संबंधी अवैज्ञानिक भ्रांतियाँ
(1) आमतौर पर एक भ्रांति अपक्व आहार के सम्बन्ध में है कि अपक्व कच्चा जैव आहार में अनेक प्रकार के पाचक रस एवं एन्जाइम होने से वे शीघ्र पच जाते हैं इसलिए गैस पैदा करने का सवाल ही नहीं उठता है। प्रारम्भ में ऐसा महसूस अवश्य होता है क्योंकि बिना अच्छी तरह चबाये खाने से तथा हमारे पेट की प्रयोगशाला को कच्चे आहार को पचाने लिए दूसरे प्रकार की व्यवस्था करनी पड़ती है। 2-3 दिन प्रयोगशाला को व्यवस्थित करने में लग जाता है, इसलिए प्रारम्भ में दस्त, दर्द तथा गैस की शिकायत हो जाती है। (2) कुछ लोग समझते हैं कि प्रात: काल खाली पेट पानी नहीं पीना चाहिए, किन्तु सच यह है कि पानी पीने का श्रेष्ठ समय प्रात:काल ही है। धीरे-धीरे बैठकर पानी पीएँ। (3) यह भी एक भ्रान्ति है कि जाड़े की ऋतु में अमरूद खाँसी-जुकाम पैदा करता है। (4) शाम से या रात्रि को फल, खीरा, ककड़ी इत्यादि कच्ची सब्जियाँ खाने से खाँसी होती है। (5) खरबूज-तरबूज के साथ शक्कर खानी चाहिए। (6) दूध के साथ शक्कर मिलाकर पीना चाहिए, नहीं तो कीड़े होते हैं। (7) तरबूज, केला, आलू, काशीफल बादी करता है। (8) नीबू तथा शहद खून को जलाता है, वजन कम करता है। (9) दूध में गुड़ डालने से शराब बन जाती है। (10) सब्जियाँ निकृष्टतम आहार हैं तथा पेट के लिए हानिकारक हैं। (11) लाल मिर्ची नहीं खाने से चीनी रोग (मधुमेह) होता है। (12) खाली पेट फल नहीं खाना चाहिए। (13) बेर खाने से खाँसी होती है। (14) नीबू तथा संतरा खाने से जुकाम तथा खाँसी होती है, किन्तु प्राकृतिक आहार के विशेषज्ञों ने प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि उपरोक्त बातें व तथ्य भ्रान्तियाँ हैं और हमें समाज में फैली इन भ्रान्तियों का निराकरण करने का प्रयत्न करना चाहिए।
क्रमश: