त्रिदोष संतुलन हेतु आहार ही उपचार है

त्रिदोष संतुलन हेतु आहार ही उपचार है

डॉ. पूर्वा सोनी

मुख्य चिकित्सा अधिकारी पतंजलि वैलनेस,

 फेज-2, हरिद्वार

     भारतवर्ष में आचार्यों एवं ऋषियों द्वारा आयुर्वेद में वर्णित आहार चिकित्सा के गूढ़ रहस्यमयी विज्ञान को हजारों रोगियों पर प्रयोग कर अप्रतिम स्वास्थ्य लाभ देखने के पश्चात् परम पूज्य गुरुदेव के आशीर्वाद से मुझे यह अनुभव हुआ कि यह आहार चिकित्सा का रहस्य लोक कल्याण हेतु जन-जन से साझा करना चाहिए। पतंजलि वैलनेस फेज-2, पतंजलि निरामयम्, पतंजलि वेदालाइफ तथा पतंजलि योगग्राम में अनेक वर्षों से इस आहार चिकित्सा द्वारा कई असाध्य व्याधियों का भी सुखपूर्वक निवारण होते हुए मैंने देखा है। आहार में बहुत सूक्ष्म परिवर्तन करने पर किस प्रकार पूरी चिकित्सा का प्रभाव परिवर्तित हो जाता है इसके अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। मेरे स्वयं के एक अनुभव को साझा करने में मुझे अति उत्साह महसूस हो रहा है कि एक वात व्याधि (Ankylosing Spondylitis) के रोगी (उम्र 30-32 वर्ष) कुछ वर्ष पूर्व समन्वित चिकित्सा हेतु पतंजलि में मेरे पास आये थे एवं सभी प्रकार से चिकित्सा का प्रयोजन करने के बाद भी रोगी की अवस्था दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी, दर्द में कोई आराम नहीं हो पा रहा था। आशीर्वाद सत्र के दौरान पूज्य गुरुदेव ने अनायास ही आहार सम्बन्ध में प्रश्न किया तो रोगी ने बताया की वह हफ्ते में कम से कम दो बार खट्टी कढ़ी का सेवन कर रहा था। बस फिर क्या था, यह सुनते ही पूज्य गुरुदेव ने तत्काल आहार चिकित्सा में परिवर्तन करवाया एवं हमने रोगी को तब द्राक्ष एवं खजूर कल्प करवाया। 20 दिन के खजूर कल्प के बाद वह रोगी इस अवस्था में था की वह Wheel Chair से खड़े हो कर चलने लगा एवं उसे अब दर्द में भी 90% राहत हो गई थी। यह हम सभी के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। उसके पश्चात् उस रोगी ने काफी समय पतंजलि में रूककर समन्वित उपचार, आहार चिकित्सा आदि से आरोग्य को प्राप्त किया। अध्यात्म एवं आयुर्वेद परंपरा में आहार का अति सूक्ष्म विवेचन करते हुए आचार्यों ने भी आहार को मोक्ष तक का साधन कहा है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी यह तथ्य और स्पष्ट किया गया है
आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि:, सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:, स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:।।  (छांदग्योपनिषद 7.26.2)
युक्ताहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु।
युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 6.17)
आहार से मन की शुद्धि होती है, मन से स्मृति की दृढ़ता होती है। स्मृति की दृढ़ता होने पर अज्ञान, विषयासक्ति, रोग, द्वेष एवं अहंकार के बंधन छूट जाते हैं एवं साधक आनंदयुक्त हो जाता है। स्मृति की दृढ़ता होने पर साधक उच्च चेतना में प्रतिक्षण जागरूक रहकर जीता है एवं परम कल्याण को प्राप्त करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी युक्ति पूर्वक किया गया आहार विहार समूल दुखों का नाश करने वाला कहा गया है। इस आहार चिकित्सा को अपनाने से आप भी अपने त्रिदोषों- वात, पित्त, कफ में संतुलन बनाकर आरोग्य एवं मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।
 क्या हमें उपवास करना चाहिए ?
उपवास चिकित्सा का एक उदहारण तो मैंने आप सभी को लेख के प्रारम्भ में ही प्रस्तुत किया था। उपवास की महिमा अप्रतिम है। त्रिदोष संतुलन में उपवास चिकित्सा या लंघन चिकित्सा का सर्वाधिक महत्त्व है। उपवास द्वारा व्यक्ति निरोगी काया एवं सत्व को प्राप्त कर सकता है। उपवास चिकित्सा जीवों का सर्वोत्तम व्रत है क्यूंकि उपवास ही सभी धर्मों का आधार है एवं निरोगी होना जीव का परम भाग्य है और स्वास्थ्य से ही सभी कार्यों की सिद्धि होती है।
अरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थ साधनम्।
उपवासो निदानं प्राणिनां परमं व्रतम्॥
उपवासेन तु यस्यान्नमुत्सृज्य सर्वदा।
याति परमं स्थानं यस्मिन्नेव सदा स्थित:
व्रतानि सर्वधर्माणां प्रतिष्ठाया संशय:
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन व्रतं सम्यग्विधानत:
   उपवास के समय शरीर की जीवनी शक्ति रोग कारक तत्वों को शरीर से बाहर कर देती है जिसके फलस्वरूप हमारे स्वास्थ्य तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि होती है। प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि जब कभी कोई महामारी फैलती है तो गरीब और भूखे रहने वाले बहुसंख्यक व्यक्ति बच जाते हैं और खूब खाते-पीते लोग ही उसका शिकार होते हैं। जो व्यक्ति हमेशा उपवास के माध्यम से भोजन छोड़ देता है, वह परम अवस्था को प्राप्त होता है, जिसमें वह सदा के लिए स्थित रहता है। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार उपवास चिकित्सा के समय Autophagy की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। इस प्रक्रिया के द्वारा शरीर स्वयं ही रोग कारक विषैले तत्वों का पाचन कर के नष्ट कर देता है। ऑटोफैगी आपके शरीर की सेलुलर रीसाइक्लिंग प्रणाली है। रोगावस्था मेंविषाक्त तत्वोंको खत्म करने और सेल व्यवहार्यता को बढ़ावा देने में ऑटोफैगी को अधिक व्यापक रूप से फायदेमंद माना जाता है।
चिकित्सा का क्या महत्व है?
   प्राय: देखने में आता है कि असंतुलित आहार विहार के परिणामस्वरूप अनेको व्याधियां हो रही हैं। इसमें मुख्यत: Lifestyle Disorders की एक लम्बी सूची है। वर्तमान जीवनशैली में आधुनिकरण के अंधेपन में लोग जीवन की वास्तविक ऊर्जा एवं जीवन जीने की कला को खोते जा रहे Sedantary Lifestyle से मनुष्य आलसी एवं अवसादी बन गया है, इसके चलते मनुष्य में सत्व, बल एवं ओज का ह्रास हो रहा है।  ऐसे में समाज के एक बुद्धिजीवी वर्ग का पुन: अपनी चिकित्सा पद्धतियों की ओर रुझान बढ़ रहा है। लोगो में अब यह समझ विकसित हो रही है कि हमारा आहार ही  हमारी औषधि है एवं समय-समय पर ली गई शोधन चिकित्सा शरीर को स्वस्थ, दीर्घायु एवं बलवान बनाये रखती है।
याभि: क्रियाभि: जायन्ते शरीरे धातव: समा:
सा चिकित्सा विकरणाम कर्मतदभीषजाम स्मृतम।।
    जिन क्रियाओं की सहायता से शरीरस्थदोष-धातुएं सम होती हैं वह रोगों की चिकित्सा है और दोष-धातुओं को सम करना ही वैद्यों का परम कर्तव्य माना जाता है।
दोषा: कदाचित कुप्यन्ति जिता लंघन पाचने।
जिता संशोधनै: ये तु तेषां पुनरुद्भव:।। (.सू. 16/20)
   लंघन, पाचन (उपवास चिकित्सा) द्वारा नष्ट किये गए दोष कभी थोड़े हेतुओं (व्याधिकारक कारण) को प्राप्त कर पुन: कुपित हो जाते हैं।  परन्तु संशोधन द्वारा दोष पुन: उत्पन्न नहीं होते हैं| इसलिए जितना संभव हो सके हमें यह प्रयास करना चाहिए की दोष एवं अपनी प्रकृति अनुसार आहार ले कर हम अपना स्वास्थ्य बनाये रखे और फिर भी जब आवश्यकता रहे तो समयानुसार शोधन चिकित्सा ले कर व्याधि का समूल नाश करे। 
त्रिदोष क्या हैं?
'दूषणाद्दोषा:’ अर्थात् जो शरीर को दूषित करे वह दोष कहलाता है। वात पित्त कफ यह तीनों शरीर को दूषित करते हैं एवं संख्या में तीन होने की वजह से त्रिदोष कहलाये हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इनकी साम्यावस्था ही स्वस्थता का प्रतीक है और इसमें परिवर्तन होना विकार का कारण-‘रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यरोगताम्
वात दोष के गुण: तत्र रुक्ष लघु: खरशीत: सूक्ष्मश्चचलो अनिल: ।। (.हृ.1/10)
रुक्षता (Dryness), शीतता (Cold), सूक्ष्म (Tiny or Micro in Shape Size), लघुता (Light Weight), चलता (Activity, Movement), खरता (Roughness) यह वात के लक्षण होते हैं।
पित्त दोष के गुण : पित्तम् सस्नेहं तीक्ष्णं उष्णं लघु विस्त्रं सरं कटु।।  (.हृ. 1/11)
स्निग्धता (Moist), तीक्ष्णता (Sharpness), उष्णता (Warm/Hot), विस्त्र (Coarse), सरता (Viscous), कटुता (Astringent) यह पित्त के लक्षण होते हैं।
कफ दोष के गुण : स्निग्ध: शीतो गुरुर्मन्द: श्लक्ष्णो मृत्स्न: स्थिर: कफ:।। (.हृ. 1/12)
स्निग्धता (Moist)शीतता (Cold), गुरुता (Heaviness), मन्दता (Dullness), श्लक्ष्णता (sluggishness), मृत्स्नता (Stillness), स्थिरता (Stability) यह कफ के लक्षण होते हैं।
समन्वित चिकित्सा करते समय दोषों के इन्ही गुणों के विपरीत गुणों वाली चिकित्सा की जाती है। प्राय: यह पाया जाता है की व्याधि द्वंदज अथवा त्रिदोष से उत्पन्न होती है।  सर्वप्रथम प्रधान रूप से प्रकुपित दोष की चिकित्सा की जाती है साथ ही अप्रधान किन्तु प्रकुपित दोष की भी चिकित्सा युक्ति पूर्वक की जाती है। यही वैद्य की कुशलता होती है कि एक व्याधि की चिकित्सा करते वक्त कोई अन्य व्याधि उत्पन्न हो ऐसा प्रयोजन रोगी के हित में करे।
दोष अनुसार आहार एवं  समन्वित चिकित्सा उपचार
वातशामक आहार चिकित्सा : वात रोगों में वात के विपरीत गुण वाली चिकित्सा की जाती है। पतंजलि की समन्वित चिकित्सा पद्धति में वात रोगियों को निम्नोक्त आहार देकर उपचार किया जाता है।
लहसुन कल्प का अप्रतिम लाभ हमने प्राय: वात रोगियों में देखा है। लहसुन को हल्का घी में भून ले एवं खाली पेट सुबह-शाम अथवा दिन में 3 बार 5-5 लहसुन की कली का सेवन करें। शुरुआत में 2 कली भी ले सकते हैं एवं क्रमश: उसकी मात्रा धीरे-धीरे सात्म्य होने पर बढ़ाते जायें।
वात रोगी को हम प्राय: द्राक्ष कल्प भी देते हैं। द्राक्षा: फलोत्तमा:’ अर्थात् सभी फलों में उत्तम द्राक्ष कहा गया है। यह संतर्पण करने वाला होता है जिस कारण वात रोगी में इसकी कल्प चिकित्सा  की जाती है।
ATM सब्जी (ऐलोवेरा 100 ग्राम, कच्ची हल्दी 50 ग्रामअंकुरित मेथी 50 ग्राम), उबली हुई लौकी, लौकी का सूप, मूंग दाल सूप  यह सब्जी प्राय: वात रोग को कम करने वाली होती हैं।
वात रोगियों को अल्पाहार ही करना चाहिए क्योंकि वात रोगी में स्वाभाव से अग्नि मंद अथवा विषम प्रकृति की होती है। ऐसे में जब रोटी खाने का मन करे, तो रागी, बाजरा की ही रोटी खाएं।  बाजरा ग्लूटेन मुक्त होता है एवं इसका ग्लिसेमिक इंडेक्स भी काफी कम (लगभग 50 से 60) होता है। बाजरा में कैल्शियम के साथ भरपूर मात्रा में फास्फोरस पाया जाता है। ये खनिज हड्डियों को मजबूत रखने में मदद करते हैं। 100 ग्राम बाजरा में 42 मिलीग्राम कैल्शियम और 296 ग्राम फास्फोरस पाया जाता है। इसका नियमित सेवन करने से हड्डियां मजबूत रहती हैं। स्वाभाव से बाजरा उष्ण गुण वाला होता है एवं वात का शमन करता है।  रागी कैल्शियम का भंडार है। यह कैल्शियम का सबसे अच्छा नॉन-डेयरी स्रोत है। 100 ग्राम रागी में 244 मिलीग्राम कैल्शियम पाया जाता है। रात्रि में भोजन करें तो बेहतर, फिर भी कुछ खाने का मन  करे तो रागी बाजरा का दलिया ले सकते हैं। वात रोगी को कच्चा आहार नहीं लेना चाहिए।
पीड़ानिल जूस (एलोवेरा, गिलोय, सहजन, निर्गुन्डी, पारिजात के पत्तों का रस) की सभी औषधियां वातशामक होने से वात रोगों में लाभ करती हैं, विशेषकर दर्द की अवस्था में पीड़ानिल जूस पर उपवास चिकित्सा से दर्द में पूर्णतया लाभ होता है।
मेथी का पानी, पंचामृत पेय (सौंफ, मेथी , जीरा, अजवायन, धनिया), पीड़ानिल पेय (निर्गुण्डी 3 ग्राम, पारिजात 3 ग्राम, मेथीदाना 3 ग्राम, कालीमिर्च 3, अदरक 1 ग्राम) की सभी सामग्री को लेकर 1 लीटर पानी में रातभर भिगो कर रखें एवं सुबह छानकर घूँट-घूँट कर दिनभर में सेवन करें। Orthogrit, Peedanil Gold, Immunogrit, Spirulina Natural आदि दवाइयों का सेवन वात रोगियों को पीड़ानिल पेय से ही करना चाहिए।
पीड़ान्तक क्वाथ, निर्गुण्डी क्वाथ, दशमूल क्वाथ का सेवन अवस्थानुसार रोगियों को सुबह शाम खाली पेट करना चाहिए।  इनके सेवन से दर्द , सूजन, जकड़ाहट आदि में लाभ होता है।  फलों में सेब, नाशपाती, अनार, पपीता आदि का सेवन करें। खट्टे फलो का सेवन नहीं करना चाहिए।
वातशामक उपचार : पतंजलि की समन्वित चिकित्सा पद्धति में वात रोगियों को मुख्यत: स्नेहन चिकित्सा जैसे अभ्यंग, स्नेहधारा, पत्र पिंड स्वेदन, फुल बॉडी मसाज, बाह्य बस्ती जैसे कटी बस्ती, ग्रीवा बस्ती, जानू बस्ती, अक्षितर्पण घृत या स्नेह से, नस्यम चिकित्सा, तेल से शिरोधारा, पीड़ानिल लेप (काली मिट्टी, गूगल, पीड़ानिल तेल), उपनाह स्वेदन, Kneepack, स्वेदन चिकित्सा जैसे सर्वांग वाष्प स्वेदन, नाड़ी स्वेदन, IRR की सिकाई, बालुका स्वेदन, सैंड बाथ, Gastro-Hepatic Pack, सूर्य स्नान आदि दी जाती है।
पित्तशामक आहार चिकित्सा : पित्त रोगों में पित्त के गुणों के विपरीत गुण वाली चिकित्सा की जाती है। पतंजलि की समन्वित चिकित्सा पद्धति में पित्त  रोगियों को निम्नोक्त आहार देकर उपचार किया जाता है
यज्ञ भस्म का पानी स्वभाव से क्षारीय होता है, इस वजह से पित्तज विकारों में यह सबसे अप्रतिम होता है। एक गिलास पानी में एक चुटकी यज्ञ भस्म रात भर भिगो दें एवं सुबह छानकर खाली पेट पीएँ। अम्लपित्त, दाह, अतिरक्स्राव जैसी समस्याओं में यह लाभ करता है।
नाशपाती का रस, नीम स्वरस, एलोवेरा व्हीट ग्रास का रस, बेल का रस, पेठे का रस, लौकी का रस, गाजर का रस, पित्तहर जूस (एलोवेरा, लौकी, पीपल, बेल, शीशम के पत्तों का रस प्रत्येक 10-15 मिली. लें), लिवोग्रिट जूस (भूमिआमला 10 मिली., पुनर्नवा 10 मिली., मकोय 10 मिली., एलोवेरा 50 मिली., वीटग्रास 10 मिली., श्योनाक की छाल 10 मिली.), संजीवनी - दूधी का रस, पित्तज रोगियों में अवस्थानुसार देने पर लाभ होता है। दूर्वा स्वरस, संजीवनी दूधी रस, शीशम-बेल-पीपल का रस रक्तस्त्राव, ग्रहणी विकार एवं अति स्वेदन प्रवृति में विशेष लाभ करता है। उपरोक्त सभी द्रव्य पित्त की शांति करते हैं एवं इनकी नियमित सेवन से पित्तज विकार ठीक होते हैं। 
पित्तहर पेय (सौंफ, धनिया, जीरा, मुलेठी और देसी गुलाब के पत्ते प्रत्येक 5 ग्राम), सौंफ धनिया पेय, एंटीगैस्ट्रिक पेय (सौंफ, जीरा, धनिया, मीठा सोडा, हींग, मेथीदाना, अजवायन) अवस्थानुसार दिन भर में घूँट-घूँट कर के पीएं। पित्त रोगियों को सभी औषध जैसे Livogrit Tab, Acidogrit Tab, Lauki Ghana Vati पित्तहर पेय से लेना चाहिए।
सर्वकल्प क्वाथ, मुलेठी क्वाथ , एंटीगैस्ट्रिक  क्वाथ का सेवन अवस्थानुसार रोगियों को सुबह शाम खाली पेट करना चाहिए
अनाज में केवल जौ का ही सेवन करें जैसे जौ की रोटी, जौ का दलिया। जौ रुक्ष, शीत, मधुर एवं कफ पित्त का नाश करने वाला  होता है। इसलिए पित्तज विकारों में जौ का सेवन लाभ करता है। सब्जियों में उबली सब्जियाँ एवं Boiled Carrot-Beetroot लेवें। अत्यधिक दाह या अम्लपित्त में सुबह खाली पेट अनार के दाने चूसकर लेने से तत्काल लाभ होता है।
पित्तशामक उपचार : पतंजलि की समन्वित चिकित्सा पद्धति में पित्त रोगियों को कुंजल, मिट्टी चिकित्सा (Mud Therapy), परिषेक, जल चिकित्सा (Hydro-Therapy) जैसे जकूज़ी, इमर्शन बाथ, आर्म एंड फुट बाथ, गर्म ठंडा सेक, कोल्ड कंप्रेस, Gastro-Hepatic Pack, कटी स्नान, पेट की लपेट, तक्र अथवा क्वाथ से शिरोधारा आदि-आदि दी जाती है।
कफशामक आहार चिकित्सा : कफ रोगों में कफ के गुणों के विपरीत गुण वाली चिकित्सा की जाती है। पतंजलि की समन्वित चिकित्सा पद्धति में कफ रोगियों को निम्नोक्त आहार देकर उपचार कियाजाता है
खजूरकल्प चिकित्सा द्वारा कफ रोगों का शमन होता है। खजूर दमा थकन कफ को हरने वाला होता है। शारीरिक कमजोरी हो या शरीर में खून की कमी हो। बेहोशी, जलन, बुखार हो या अत्यधिक प्यास लगने की समस्या। इन सभी रोगों में खजूर के सेवन से लाभ मिलता है। 
श्वासारि पेय, दिव्य पेय Ginger Turmeric Honey Tulsi पेय, मुलेठी पेय, शहद मेथी का पेय अवस्थानुसार घूँट-घूँट कर दिनभर में सेवन करें। कफ रोगियों को सभी औषध जैसे- Swasari Gold, Swasari Vati, Bronchom, Laxmivials Ras आदि श्वासारि पेय अथवा मुलेठी पेय अवस्थानुसार लेना चाहिए। 
एंटी कोल्ड क्वाथ (अदरक 5 ग्राम, दालचीनी 5 ग्राम, मुलेठी 5 ग्राम, लौंग 5 ग्राम, काली मिर्च 4 नग, छोटी इलाइची 2 नग, बड़ी इलाइची 2 नग, तुलसी के पत्ते 5 नग, तेजपत्ता 1 नग को 500 मिली. पानी में 250 मिली. रहने तक उबालें और फिर छानकर गुनगुना पीएँ) एवं श्वासारि क्वाथ का सेवन अवस्थानुसार रोगियों को सुबह शाम खाली पेट करना चाहिए
अनाज में काले चने की रोटी एवं उबली सब्जियां, मूंग दाल सूप का सेवन करें। अधिक भूख लगने पर क्रशड्डह्यह्लद्गस्र चने का सेवन भी कर सकते हैं। चना  रुक्ष, वात पित्त को बढऩे वाला एवं कफ को नियंत्रित करे वाला होता है। चना भुनने पर अत्यंत रुक्ष हो जाता है जबकि पानी में उबला हुआ चना पित्त कफ को नष्ट करता है।
कफशामक उपचार : पतंजलि की समन्वित चिकित्सा पद्धति में कफ रोगियों को कुंजल, जल नेति, सूत्र नेति, Eye Wash, उद्वर्तन, लंग बस्ती, Vibro Massage, Anti-Cold Therapy, नस्यम, Facial Steam, Asthma Bath, Arm and Foot Bath, सर्वांग वाष्प स्वेदन, नाड़ी स्वेदन, Hot Compress, Onion Ginger Garlic Turmeric (OGGT) Lepa, Chest Pack आदि दी जाती है| 
इस प्रकार हमने देखा की आहार ही प्राणियों के प्राण हैं। अन्नम वै प्राणिनां प्राणा:’
स्वस्थ जीवन जीने में आहार की अतिशय भूमिका है। हम कब खा रहे हैं? क्या खा रहे हैं? एवं कितना खा रहे हैं? इससे यह पता चलता है कि हम कितनी आयु तक स्वस्थ जीयेंगे। प्राकृतिक एवं आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति जीवन जीने की कला का विज्ञान है, इसीलिए इन्हें जीवन शास्त्र कहा जाता है। पतंजलि वैलनेस फेज-2, पतंजलि निरामयम्, पतंजलि वेदालाइफ तथा पतंजलि योगग्राम में प्राकृतिक एवं आयुर्वेद चिकित्सा में पारंगत हमारे वैद्य साधकों को निर्देशित करते हैं कि व्याधि अनुरूप कैसा जीवन जीना चाहिए, कैसा आहार लेना चाहिए, किस प्रकार शरीर का शोधन करना चाहिए। व्यक्ति को हमेशा मिताहारी एवं हिताहारी होना चाहिए तभी वह दीर्घायु एवं आरोग्य को प्राप्त करता है। इस लेख के माध्यम से मैंने आहार चिकित्सा पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। आशा है आप सभी पाठकगण अपने जीवन में आहार एवं दिनचर्या को सुधार कर दीर्घायु बनेगे एवं चिर काल तक आरोग्य को प्राप्त करेंगे।
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:।।
 

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