प्रजा को संकरता से बचाना राजाओं का सनातन धर्म

प्रजा को संकरता से बचाना राजाओं का सनातन धर्म

प्रो. कुसुमलता केडिया  

राज धर्मानुशासन पर्व के 57वें अध्याय में पितामह भीष्म महाराज युधिष्ठिर को बताते हैं -
चातुर्वर्ण्यस्य धर्माश्च रक्षितव्या महीक्षिता।
धर्मसंकररक्षा राज्ञां धर्म: सनातन:।।15।।
अर्थात चारों वर्णों के धर्म की रक्षा राजा का कर्तव्य है। समाज को धर्मसंकरता से बचाना राजाओं का सनातन धर्म है।
यहाँ स्पष्ट है कि यदि विभिन्न व्यक्ति स्वधर्मपालन छोडक़र परधर्म अपनाने लगेंगे तो वर्णसंकरता होगी। उससे समाज में अव्यवस्था और अराजकता व्यापक होती जाती है। निष्क्रियता तथा अकर्मण्यता बढ़ती है। सहज कर्मप्रवाह और लोकयात्रा बाधित होती है। इसलिये धर्मसंकरता से प्रजा की अर्थात समाज की रक्षा राजाओं का सनातन धर्म है। इसे और भी अधिक स्पष्ट करते हुये पितामह कह चुके हैं-
त्रय्यां संवृतमन्त्रश्च राजा भवितुमर्हति।
वृजिनं नरेन्द्राणां नान्यच्चारक्षणात् परम्।।14।।
अर्थात तीनों वेदों का ज्ञान रखते हुये तथा गोपनीय नीतियों को गुप्त रखते हुये राजा को शासन करना चाहिये। प्रजा का रक्षण राजा का परम धर्म है और प्रजा की रक्षा करने से बड़ा कोई भी पाप नहीं है। यहाँ प्रजारक्षण में प्रमाद ही सबसे बड़ा पाप कहा गया है। रक्षा से अर्थ केवल देह और सम्पत्ति की रक्षा नहीं, अपितु स्वधर्म और परंपराओं की रक्षा भी है। क्योंकि मनुष्य केवल शरीर और वस्तुओं का भोक्ता मात्र नहीं है। वह मन और बुद्धि, ज्ञान और स्मृति, संस्कार और संकल्प तथा परंपरा और धर्म का वाहक, पोषक, पालक और रक्षक भी है। इसलिये प्रजा की रक्षा का अर्थ है सनातन धर्म की रक्षा करना तथा वर्णसंकरता से प्रजा की रक्षा करना।
आगे 16वें श्लोक में पितामह ने कहा है कि राजा को संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय- इन छहों गुणों का बुद्धिमत्ता पूर्वक पालन करना चाहिये। संधि का अर्थ स्पष्ट है। विग्रह का अर्थ है अपना बल तौलकर शत्रु से लड़ाई मोल लेना या जारी रखना। यान का अर्थ है आक्रमण या अभियान। आसन का अर्थ है अवसर के अनुकूल शांत होकर उचित अवसर की प्रतीक्षा करना। द्वैधीभाव का अर्थ है दुविधा उत्पन्न करने वाला व्यवहार करना। शत्रु के शत्रु को आश्रय देना और उसका सहयोग लेना समाश्रय है। इन छहों गुणों का अवलम्बन बुद्धिमत्ता पूर्वक शासक को करना चाहिये।
17वें श्लोक में पितामह ने गुप्तचरी पर बल दिया है। इसके बाद अपने राजकोष की भलीभांति रक्षा और निरंतर वृद्धि के प्रयास पर बल दिया है। यह भी कहा है कि जिनके भरण-पोषण का प्रबंध करना हो उनका पोषण राजा स्वयं करे और सबकी देखभाल रखे-
अभृतानां भवेद् भर्ता भृतानामन्ववेक्षक:
नृपति: सुमुखश्च स्यात् स्मितपूर्वाभिभाषिता।।19।।
इसके आगे राजा को ज्ञान-वृद्धजनों और साधुजनों की संगति करना और उनके व्यवहार को ध्यान से देखकर उससे सीखने कहा गया है। साथ ही, इस बात पर भी पितामह ने बल दिया कि राजा को सदाचारुदर्शनहोना चाहिये। अर्थात उनकी वेशभूषा ऐसी हो और छवि ऐसी हो कि देखते ही सौन्दर्य का और प्रसन्नता का अनुभव हो।
आगे भीष्म पितामह कहते हैं कि प्रजा की सम्पत्ति की रक्षा राजा का धर्म है। सत्पुरुषों के हाथ से धन कभी भी नहीं छीना जाये। अपितु उन्हें राजकोष की ओर से भी धन दिया जाये। जो असाधु पुरुष असदाचरण करें, उन पर अवश्य आर्थिक दंड लगाना चाहिये और दुष्टों पर प्रहार करना चाहिये। निरंतर शुद्ध एवं सदाचारी रहकर राजा को दानशील होना चाहिये।
जो भगवद्भक्त हैं, शूरवीर हैं, कुलीन हैं, स्वस्थ हैं और शिष्ट हैं तथा जिस प्रकार स्वयं के प्रति आत्मसम्मान का भाव रखते हैं, वैसा ही दूसरों का भी सम्मान करें और कभी भी सज्जनों का अपमान करें- राजा सदा ऐसे लोगों को अपना सहायक बनाए। लोकव्यवहार के ज्ञाता, विद्वान, साधु, अडिग निष्ठा वाले तथा शत्रुओं की गतिविधियों पर दृष्टि रखने वाले लोगों को ही राजा अपना सहायक बनाये और उनको राजोचित सत्कार दे। ऐसे साधु लोगों के साथ प्रत्यक्ष में और परोक्ष में एक सा ही बर्ताव करना चाहिये। अपने विश्वस्त और लोकमान्य लोगों पर कभी संदेह नहीं करे। क्योंकि सब पर संदेह करने वाला लोभी राजा एक दिन स्वयं अपने ही लोगों के हाथों मारा जाता है। राजा को सदा बाहर और भीतर से शुद्ध रहकर प्रजा का मन जीतना चाहिये। ऐसा राजा यदि कभी शत्रु से पराजित भी हो जाता है, तो श्रेष्ठ सहायकों के साथ शीघ्र पुन: उठ खड़ा होता है।
राजा सदा दुव्र्यसनों से दूर रहे और अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे। सभी वर्णों के साथ न्याय करे और आश्रितों पर कृपा करे। प्रजा को अपनी संतान की तरह पालने वाला राजा ही श्रेष्ठ होता है। राज्य में न्याय और दंडव्यवस्था ऐसी हो कि चोरों और अपराधियों को उससे सदा भय रहे और सज्जन लोग निर्भय रहें। क्योंकि ऐसा ही राजा श्रेष्ठ होता है जिसके राज्य में सनातन धर्म का पालन होता है। जो ज्ञान का और ज्ञानियों का सत्कार करता है, ज्ञातव्य विषय को समझने में संलग्न रहता है और सत्पुरुषों के मार्ग पर चलता है।
आगे भीष्म कहते हैं कि जिसके गुप्तचर ऐसे हों कि शत्रु के द्वारा कभी पहचाने जा सकें, वह राजा सफ़ल होता है। ऐसे राजा की ही कामना प्रजा सर्वोपरि और सर्वप्रथम करती है। क्योंकि राजा द्वारा की गई रक्षा ही जगत को धारण करने वाली है और उससे भिन्न कोई सनातन धर्म नहीं है-
तद्राज्ये राज्यकामानां नान्यो धर्म: सनातन:
ऋते रक्षां तु विस्पष्टां रक्षा लोकस्य धारिणी।।42।।
फिऱ पितामह कहते हैं कि प्राचेतस मनु ने राजधर्म के विषय में जो दो श्लोक कहे हैं उन्हें तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो -
षडेतान् पुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्।।44।।
अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं गोपालं वनकामं नापितम्।।45।।
अर्थात रक्षा करने वाले राजा, सम्यक उपदेश करने वाले आचार्य, वैदिक मंत्रों का सम्यक उच्चारण करने वाले ऋत्विज, कटुवादिनी भार्या, गाँव के भीतर रहने में ही मन लगाने वाले ग्वाला (अर्थात गायों को चराने से जी चुराने वाला) और बार-बार निर्जन एकांत को पसंद करने वाले नाई - इन छह: प्रकार के लोगों को उसी भांति त्याग देना चाहिये, जैसे छेद के कारण पानी भर रही नौका को लोग समुद्र में तत्काल त्याग देते हैं।
इसके आगे भीष्म पितामह भारत के इन महान राजनीतिशास्त्र विशारदों के नामों का उल्लेख करते हैं - भगवान बृहस्पति, भगवान विशालाक्ष, महातपस्वी शुक्राचार्य, सहस्र नेत्रों वाले इन्द्र, प्राचेतस मनु, भगवान भरद्वाज और मुनिवर गौरशिरा। वे कहते हैं कि ये सभी ब्राह्मणभक्त और ब्रह्मवादी लोग हैं तथा राजशास्त्र के प्रणेता हैं। इन धर्मात्माओं ने राजा का सर्वोपरि धर्म प्रजापालन ही बताया है और प्रजा की रक्षा के लिये धर्म के इन साधनों का उल्लेख किया है- श्रेष्ठ गुप्तचरों और राजदूतों की नियुक्ति, सेवकों को समय पर वेतन और भत्ता देना, करग्रहण युक्तिपूर्वक करना, प्रजा का धन कभी भी नहीं हड़पना, कार्यदक्षता, सत्यभाषण, शौर्य, सत्पुरुषों का संग्रह, प्रजा का निरंतर हितचिंतन, शत्रुपक्ष में फ़ूट डालने के उपाय अपनाना, भवनों और मंदिरों का समय पर जीर्णोद्धार, दीन-दुखियों की देखभाल, अपराधों का उचित दंड, सज्जनों का संरक्षण, कुलीनों का संग, संग्रह योग्य वस्तुओं का संग्रह, ज्ञानियों का सेवन, सेना का हर्ष और उत्साह बढ़ाने के लिये पुरस्कार आदि देते रहना, कर्तव्यपालन में कष्ट का अनुभव नहीं करना, कोष की निरंतर वृद्धि, राज्यरक्षा का पूरा प्रबंध, इस विषय में अन्य के भरोसे नहीं रहना, राज्य में अपने विरुद्ध कोई गुटबंदी हो रही हो, तो उसमें फ़ूट डाल देना, शत्रु पर सदा दृष्टि रखना, मित्रों की सदा पहचान रखना, मध्यस्थ लोगों पर भी दृष्टि रखना, सेवकों में गुटबाजी नहीं पनपने देना, नियमित रूप से राजधानी का निरीक्षण, सबको न्याय का आश्वासन, नियति धर्म का अनुसरण, निरंतर उद्योगशील बने रहना, शत्रु की ओर से सावधान रहना, नीचों और दुष्टों का पूर्ण त्याग तथा किसी पर भी पूरा विश्वास नहीं करना - ये सभी राज्य की रक्षा के साधन हैं। ऐसा इन महान राजशास्त्र प्रणेताओं का प्रतिपादन है।
आगे पितामह भीष्म 98वें अध्याय में राजाओं के लिये उत्थान का महत्व प्रतिपादित करते हैं और इस विषय में बृहस्पति को प्रमाण के रूप में उद्धृत करते हैं। वे कहते हैं- ‘उद्योग ही राजधर्म का मूल है।' उद्योग से यहाँ आशय निरंतर सक्रियता और पुरुषार्थ से है। देवराज इन्द्र ने उद्योग से ही अमृत प्राप्त किया और उद्योग से ही देवलोक और इहलोक में श्रेष्ठता प्राप्त की तथा असुरों का संहार किया। जो उद्योग में वीर है, वही वास्तविक वीर है। वाग्वीर विद्वान लोग उद्योगीवीर पुरुषों का मनोरंजन ही किया करते हैं। वे स्वयं कोई बड़ा पुरुषार्थ नहीं कर पाते। उद्योगहीन राजा बुद्धिमान होने पर भी शत्रुओं के द्वारा परास्त हो जाता है। दुर्बल शत्रु की भी कभी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। उसे छोटा समझकर उसकी ओर से लापरवाही नहीं दिखानी चाहिये। क्योंकि अल्प विष भी मार डालता है और अल्पअग्नि भी जला देती है। शत्रु सेना के एक अंग से भी सम्पन्न हो तो वह दुर्ग का आश्रय लेकर समृद्धिशाली राजा को भी संतप्त कर डालता है। अत: राजा को सदा उद्योगवीर रहना चाहिये। गोपनीय बातों को सदा छिपाये रहे जिससे कि लोग भ्रम में रहें। धार्मिक कार्यों के द्वारा अपनी प्रतिष्ठा बढ़ायें और लक्ष्य पर सदा ध्यान रखें। कोमलता और क्रूरता दोनों ही भावों का बुद्धिपूर्ण संतुलन राजा में होना चाहिये। आगे पितामह कहते हैं कि प्रजा की रक्षा करते हुये यदि प्राण भी चले जायें, तो भी राजा के लिये यह महान धर्म है। राज्य सबके उपभोग की वस्तु है। अत: इसकी संभाल आन्तरिक ऋजुता और सरलता से तथा सदा सावधान रहकर करनी चाहिये। यही राजधर्म है।