गर्भावस्था में उभरने वाले रोगों के लक्षण

गर्भावस्था में उभरने वाले रोगों के लक्षण

डॉ. नागेन्द्रनीरजनिर्देशक चिकित्सा प्रभारी

योग-प्राकृतिक-पंचकर्म चिकित्सा एवं अनुसंधान केन्द्र

योग-ग्राम, पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार

गतांक से क्रमश:

गर्भावस्था में कम खाये किन्तु सहायक खायें
गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य एवं विकास संतुलित हो जाए। गर्भकाल में एक अपने तथा दुसरा गर्भस्थ शिशु के लिए दो आदमियों के बराबर ढूंस-ठूसकर भोजन नहीं करें। क्वीन मेरी यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन की डॉ. शकिला थानग्राटिनम की रिसर्च स्टडीब्रिटिश मेडिकल जर्नलमें प्रकाशित हुई है। इसके अनुसार गर्भावस्था के दौरान संतुलित तथा सीमित कैलोरी वाले आहार में साबुत अंकुरित मल्टीग्रेन, दूध, फल, सब्जिया तथा दलहन से बने खाद्य व्यंजन देने से बच्चों का विकास अच्छी तरह होता है। जो माताएं ज्यादा कैलोरी वाला आहार खायी उनका वजन बढ़ गया, वजन बढऩे से दबाव के कारण गर्भस्थ शिशु को प्लासेन्टल पोषण अच्छी तरह नहीं होता है जिससे अन्य उपद्रव होने का खतरा होता है। कम किन्तु संतुलित आहार से बिना दबाव के गर्भस्थ शिशु को भरपुर पोषण एवं ऊर्जा मिलती है। फलत: बच्चे का विकास वजन सही होता है, गर्भावस्था के दौरान जिन महिलाओं ने सिर्फ व्यायाम पर ध्यान दिया उनका वजन केवल 0-7 किलोग्राम, जिन्होंने आहार तथा व्यायाम पर ध्यान रखा वे एक किलोग्राम तथा कम कैलोरी किन्तु संतुलित आहार पर रही, वे 4 किलोग्राम वजन कम करते हुए भी बिना किसी उपद्रव के स्वस्थ शिशु की माँ बनी। यह प्रयोग 7,000 विभिन्न ग्रुप के गर्भवती महिलाओं पर किया गया है। 
फिशर्स
कब्ज लगातार खड़े रहने तथा गर्भ का दबाव गुदाद्वार पर बढ़ जाने से होता है। परिणाम स्वरूप मल द्वार की त्वचा पर दरारे पड़ जाती है, चीर हो जाती है। कभी-कभी इसमें दर्द एवं ब्लीडिंग भी होती है परन्तु यह पाइल्स नहीं होता है। इसे फिशर्स कहते हैं। प्रसवोपरान्त एवं गर्भावस्था में भी हो सकता है। मल त्याग के समय फिशर्स के कारण काफी जलन दर्द तथा रक्तस्त्राव हो सकता है। इससे मुक्ति के लिए गुदा द्वार का गरम ठण्डा स्नान, सौम्य कटि स्नान, मलाई नारियल का तेल आदि लगाने से प्राय: ठीक हो जाता है। ठीक नहीं होने पर अपने चिकित्सक से परामर्श लें।
पाइल्स
गर्भावस्था के अंतिम दिनों मे गर्भ के दबाव के कारण, ज्यादा देर तक खड़े रहने, चलने से गुदा द्वार के नाजुक-शिराओं में सूजन हो जाती है। कभी-कभी ये शिराएँ फट जाती है। जिससे ब्लिडिंग होने लगती है। कब्ज से पाइल्स तथा पाइल्स होने से कब्ज बढ़ जाती है इनसे मुक्त होने के लिए रेशे वाले फल एवं सब्जियों वाले भोजन लें। चोकरदार मोटे आटे की रोटी, सलाद, फलों में अनार, अंगूर, अमरूद, आँवला, नाशपाती आदि कब्ज-नाशक फल खायें। गर्भावस्था में पपीता नहीं लें। यह गर्भाशय पर संकोचक प्रभाव डालता है। कब्ज से दूर रहने के लिए आँवले या त्रिफला का पाऊडर अमलतास का गुदा या इसबगोल की भूसी गरम पानी या दूध के साथ लें। सब्जियों में पालक, बथुआ, गाजर, लाल टमाटर, गोभी, मेथी आदि हरी सब्जियों का प्रयोग खूब करें। छिलके वाली दाल तथा अंकुरित मूँग, मोठ, मसूर, चना, गेहूँ आदि अंकुरित खायें। इनमें पर्याप्त मात्रा में शरीर को फाइबर मिलता है। जिससे कब्ज एवं पाइल्स होने की समस्या खत्म हो जाती है।
टार्च इन्फेकशन
प्रत्येक माँ की इच्छा होती है कि वह स्वस्थ बच्चे को जन्म दे, परन्तु गर्भावस्था के समय होने वाले कुछ संक्रमण के कारण दिल की यह तमन्ना दफन हो जाती है। गर्भावस्था के प्रारम्भिक तीन माह में टॉर्च इन्फेकशन के कारण जन्म लेने वाले शिशुओ में अनेक प्रकार की विकृतियाँ परिलक्षित होती है। समय रहते जाँच एवं उपचार होने पर बचा जा सकता है। इन संक्रमणों में टार्च नामक संक्रमणों का समूह प्रमुख है जो जच्चा एवं गर्भस्थ बच्चा के लिए खतरनाक सिद्ध होता है। इस संक्रमण से गर्भपात एवं संतान हीनता भी पैदा हो जाती है।
टार्च (TORCH) संक्रमण समूह का पूरा नाम टाक्सोप्लास्मा रूबेला साइटोमेगालो तथा हर्पिस सिम्पलेक्स होता है। टॉक्सोप्लास्मा का संक्रमण प्राय: पालतू जानवरों (कुत्ते, बिल्ली आदि) के बाल उनके मल तथा अधिक मांसाहार के प्रदुषण से फैलता है। लिम्फग्लैण्ड में सूजन, मिचली, बुखार, न्युमोनिया या दिल के रोग आदि लक्षण दिखते है संक्रमित कुछ लोगों में इन लक्षणों का अभाव होता है। गर्भवस्था में संक्रमण से गर्भपात, समय से पूर्व प्रसव, विकलांग शिशु या मरा हुआ शिशु आदि लक्षण दिखते हैं संक्रमित माताओं के शिशुओं में बड़ा-छोटा होना, दिमाग में कैल्सियम कम होना। आँखों का कमजोर आदि लक्ष्ण दिखते हैं। रूबेला संक्रमण को जर्मन मिजल भी कहते हैं। इसमे गले में गांठ, ज्वर तथा शरीर पर लाल दाने दिखते हैं। गर्भवती के संक्रमण होने या टॉक्सिक प्रभाव से नवजात शिशुओं को दिल, दिमाग, आँख, कान तथा हड्डियों में विकृति पायी जाती है। विकलांग बच्चे जन्म लेते हैं। बहरापन तथा दिल के रोग के लक्षण सर्वाधिक दिखते हैं। इस संक्रमण से बच्चों के प्लीहा एवं लीवर बढ़ जाता है। मोतियाबिन्द तथा मानसिक विकलांगता दिखती है। इसके चलते एक साल के अन्दर शिशुओं की मौत हो जाती है।
साइटोमिगेलो इन्फेक्शन का वायरस प्राय: असुरक्षित यौन सम्बधों से फैलता है। गर्भवती महिला यदि इस वायरस के चपेट में है तो गर्भस्थ एवं नवजात शिशुओं में साइटोमेगेलिक इंक्लूशन डिजीज (CID) हो जाता है जिसमे चलते शिशुओं मे न्यूमोनिया, पीलिया तथा दिमाग की अनेक विकृतिया दिखती है। जन्म के पश्चात ही शिशुओं में ये लक्षण पहचाने जा सकते हैं। इस वायरस से संक्रमित गर्भवती महिलाओं में कोई लक्षण तो नहीं दिखता है किन्तु बच्चे अवश्य लक्षणों से ग्रस्त होते हैं। हरपीस सिम्पलेम्स का वायरस भी असुरक्षित यौन सम्बन्धों से फैलता है। प्रसवोपरान्त इसका इंफेक्शन नवजात शिशुओं में चला जाता है। शिशु के मुँह, दिमाग, आँख तथा त्वचा संक्रमण से ग्रस्त हो जाते हैं। दिमाग में संक्रमण फैलने से बच्चों का सिर काफी बड़ा या छोटा हो जाता है। बड़े सिर वाले बच्चों के दिमाग में पानी भर जाता है। जिसे हाइड्रोसिफेलस कहते हैं तथा जिनका सिर छोटा होता है उसे माइक्रोसिफेलस कहते हैं। संक्रमित माँ से नवजात शिशुओं को एच.आई.वी. हिपैटाइटिस-बी, सी, डी, जी तथा सिफलिस के संक्रमण से मुक्ति के लिए आवश्यक है कि गर्भधारण के पूर्व या प्रथम माह में ही विशेषज्ञ चिकित्सक से मिलकर निवारण करना आवश्यक है। प्रथम तीन माह तक बराबर चेकअप कराते रहना चाहिए। बार-बार गर्भपात होने पर टॉर्च टेस्ट करवाना चाहिए ताकि टॉर्च इन्फेकशन पर टार्च (प्रकाश) डाला जा सके। टॉर्च इन्फेक्शन से बचने के लिए जहाँ तक हो सके असुरक्षित यौन सम्बन्धों से बचें। खान-पान में साफ-सफाई एवं सावधानी बरतें। 9-12 माह की उम्र में बच्चियों को रूबेला एम.एम.आर. का टीका लगावें। इसका प्रभाव 15 वर्ष से ज्यादा दिन तक रहता है। गर्भधारण के समय टार्च इन्फेक्शन से बचाव होता है। टॉर्च इन्फेक्शन का निदान होने पर गर्भधारण के प्रथम दो माह के अन्दर डॉक्टर गर्भपात की सलाह देते हैं। गर्भपात की दवाइयाँ खाने से भी अनेक प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न होती है। अत: दवा सेवन से भी बचें। इन्टेसटाइनल प्रसवोपरान्त माइक्रोविल्लस इन्कलूसन रोग (एम.वी.आई.डी.) एक दिन से एक माह के नवजात शिशु में संक्रमण के कारण जल जैसा दस्त (Water Diarrhea) होता है। 
योनि स्राव
सामान्य अवस्था में गर्भवती महिलाओं में योनि में नम बनाये रखने के लिए किंचित म्यूक्स का स्त्राव होना स्वाभाविक है। कन्डिडा एल्बिकन्स फंगस इन्फेकशन कैन्डिडायसिस, वैक्ट्रियल वेजीनोसिस प्रोटोजोअल ट्राइकोमोनियासिस, एच.आई.वी., एच.पी.वी. (Human Papilloma Virus), पी.आई.डी.टी.बी., वी.डी.एस.टी.डी. क्लामाइडिया गोनोरिया, सिफलिस आदि संक्रमण से योनि का स्राव काफी बढ़ सकता है। खुजली की शिकायत तथा कमर दर्द हो सकता है। वैसे कैन्डिडा एल्बिकन्स बैक्टीरिया हर पुरुष एवं महिला में होता है, किन्तु गर्भवती महिलाओं के शरीर में गर्मी के बढ़ जाने से इन बैक्टीरियाओं की ओवरग्रोथ तेजी से होती है और इन्फेकशन पैदा होता है। गर्भावस्था के दौरान ज्यादा समागम से भी इन्फेकशन की तीव्रता बढ़ती है। इस इन्फेकशन में सफेद, पीला गाढ़ा योनि स्त्राव होता है।
प्रोटीजोअल ट्राइकोमाँनस इन्फेकशन प्राय: पति के संसर्ग से होता है। पति के संसर्ग से होने वाला गोनेरिया रोग में ज्यादा मात्रा में पीला स्त्राव होता है। इसमें दुष्प्रभाव से नवजात शिशु की आँखें क्षतिग्रस्त हो सकती है। इस रोग में योनि के आस-पास फफोले एवं घाव हो जाते हैं। डॉक्टर से त्वरित सम्पर्क कर उपचार हेतु शीघ्र कारवाई चाहिए।
खूनी योनि स्राव
गर्भावस्था के प्रथम दो-तीन माह में खूनी स्त्राव गर्भपात की सूचना देता है। सातवें माह से खूनी स्राव समय पूर्व प्रसव एवं अंतिम समय में स्त्राव शीघ्र प्रसव होने की सूचना देता है। अधिक मात्रा में रक्तस्राव समय पूर्व प्रसव के बाद बच्चो में लीवर या अन्य रोग होने का संकेत है। अत: सचेत रहना चाहिए। प्रसवोपरान्त कुछ सप्ताह के बाद गर्भाशय सिकुडऩे से हल्का रक्त स्राव, थकान एवं दर्द हो सकता है।
एक रिसर्च के अनुसार गर्भकाल पूर्व एवं दौरान सूर्य स्नान रोज लेने से पालक, टमाटर, गाजर, चुकन्दर, लौकी, खीरा, ककड़ी, आँवला, नीबू मिलाकर ताजा रस सुबह-शाम पीने, अंकुरित मूँग, मँूगफली, मटर, मसूर, मोठ, मेथी तथा नारियल, अलसी का पाउडर, संतरा, मौसम्मी, चकोतरा, केला, तर्बूजा, खर्बूजा, खजूर, किशमिश, नाशपाती, आलूबुखारा, आडू, आलूचा, स्ट्राबेरी, शहतूत काला एवं हरा अंगूर, पालक, मूली, शलगम, चौलाई, बथुआ का साग आदि खाने से बच्चों की नेचुरल इम्यूनाइजेशन होता है। वे रोगों से बचे रहते हैं। भविष्य में उन्हे हड्डी सम्बन्धित, आँख संबंधित, हृदय सम्बन्धित मांसपेशियों से सम्बन्धित, फेफड़े सम्बन्धित रोगों से बचे रहते हैं। मानसिक रोग डिप्रेशन, एन्जाइटी, .सी.डी. न्यूरोस्थेनिया, नर्वस ब्रेकडाऊन आदि मन: स्नायविक रोग नहीं होता है।
संतानोत्पति के लिए सूर्य स्नान दिव्य एवं अमृत-तुल्य वरदान
कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार गर्भाधान के तीन माह पूर्व एवं बाद में शक्ति सामर्थ्य के अनुसार संतान होने तक सूर्य स्नान लेने से माता का अंडाणु ओवम को उर्वरक करने वाली रासायनिक प्रक्रिया फिमेलगमेट वूसाइट (Oocyte) तथा सेल्स की परिपक्वता तथा समायोजन समावेशी क्षमता पिता का शुक्राणु अत्यन्त शक्तिशाली होते है। शुक्राणुओं की संख्या जोश, तेज, ओज, गुणवत्ता, गतिशीलता, जीवटता सक्रियता तथा तैरने की क्षमता बढ़ जाती है। ऐसे सशक्त अण्डाणु ओवम तथा शुक्राणु के मिलने से होने वाला संतान सूर्य पुत्र कर्ण की तरह वीर, प्रतापी, प्रखर, उदार सेवाभावी एवं चरित्रवान होता है। आस्ट्रिया की यूनिवर्सिटी ऑफ ग्रेज के वैज्ञानिकों ने खोज की है। सूर्य स्नान से तथा गर्मियों में सूर्य की रोशनी प्रर्याप्त होने से सेक्स हार्मोन टेस्टोस्टरॉन का निर्माण भी तेज होता है, जो नपुंसकता को दूर कर संतान प्राप्ति में सहायता करता है। इतना ही नहीं कोलम्बिया तथा कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने खोज किया है। अप्रैल से जुलाई के मध्य जब सूर्य प्रकाश प्रचण्ड होता है, उनमें जन्में बच्चे प्रखर बुद्धि के होते हैं। उनमें विश्लेषणात्मक, संश्लेषणात्मक, कल्पना शक्ति, तार्किक कुशलता तथा वैचारिक स्पष्टता बेजोड़ होती है, जो माताएँ गर्भावस्थ के पूर्व एवं पश्चात् धूप-स्नान लेती है। उनकी होने वाली संतान को भविष्य में शिजोफे्रनिया, डिप्रेशन, सीखने-समझने की परेशानी, तनाव, दृष्टि दोष, मधुमेह आदि रोग होने का खतरा कम हो जाता है। सन-साइन विटामिन-डी शरीर के 200 से अधिक ऐसे जीनों का प्रभावित करके दमा, मधुमेह, एम.एस., कैंसर, ऑटोइम्यून डिजीज से रक्षा करता है। सन-साइन की कमी से विभिन्न मानसिक रोग यहाँ तक कि पागलपन होने का खतरा बढ़ जाता है। सूर्य स्नान से अस्थि कोशिकाएं (Osteoblast) ओस्टियोकैलसाइन हार्मोन का रिसाव बढ़ा देती है। इस हार्मोन को बोन गामा कार्बोक्सीग्लुटेमिक एसिड कॉनटेनिंग प्रोटीन (BGLACP) कहते हैं। ऑस्टियोकैलसाइन के सिनेरजिस्टिक प्रभाव से रक्त-शर्करा, मोटापा, हड्डी संबंधित रोग, तनाव (डिप्रेशन), मानसिक रोग, दूर होते हैं। याद्दाश्त, प्रेरणा, प्रेम, करूणा, सकरात्मक सोच, वैचारिक स्पष्टता, बुद्धिमता एवं निर्णय की क्षमता एवं एकाग्रता के भाव का सम्वर्धन होता है।
सन-साइन को वैज्ञानिकों ने क्रिटिकल एवं डिवाइन नेचर्स एण्टीबायोटिक, मूडरेग्युलेटिंग, एण्टीकैंसरस न्यूट्रिएन्ट के पद से विभूषित किया है। सन-स्क्रीन से शरीर की प्राकृतिक सुरक्षा-कवच मेलानिन उत्पादक मेलोनोसाइटस तथा विटामिन-डी की निर्माण प्रक्रिया बाधित होती है। सन-साइन का लाभ नही मिलता है। नैसर्गिक रूप से त्वचा के चारों तरफ मेलानिन तथा रोडेप्सिन क्रोमोप्रोटीन होते हैं। यह विटामिन- के रंग-कण आप्सिन तथा 11-CIS-Retinaldenyde से बनते हैं। इस प्रकार मेलानोप्सिन तथा रोडोप्सिन मिलकर प्राकृतिक सेन्सर का कार्य करते हैं, जो प्रकाश को सोखने, हानिकारक अल्ट्रावॉयलेट को ब्लीच यानि प्रभावहीन करने तथा विटामिन-डी के उत्पादन को सुनिश्चित करने का काम करते हैं। 
गर्भकाल, प्रसव एवं प्रसवोपरान्त होने वाले तकलीफों एवं रोग संलक्षणो से मुक्ति के लिए गर्भवती महिलाओं को अपने आहार, जीवनशैली एवं विचार में परिवर्तन कर तथा योगासन, प्राणायाम, ध्यान करते हुए स्वस्थ सशक्त एवं चरित्रवान नागरिक के सृजन में सहभागी होकर शक्तिशाली राष्ट्र का नव-निर्माण करें।

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