ज्ञान एवं विज्ञान
On
वंदना बरनवाल
राज्य प्रभारी-महिला पतंजलि योग समिति, उ.प्र.(मध्य)
हम सभी के जीवन को बहुत से कारक प्रभावित करते हैं, हम किस संस्कृति में पले-बढ़े हैं, वह हमारे जीवन को प्रभावित करने वाला बहुत महत्वपूर्ण कारक होता है। प्राय: हम सभ्यता और संस्कृति में भ्रमित होते हैं। संस्कृति एक व्यापक क्षेत्र है और सभ्यता संस्कृति का ही एक अंग है। हमारी भौतिक प्रगति सभ्यता से होती है जबकि मानसिक प्रगति संस्कृति से दिखाई देती है। संस्कृति एक ऐसा व्यापक क्षेत्र है जिसमें हमारा जीवन जीने का तरीका अहम् भूमिका निभाता है। जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो इसमें जो जो तत्व सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक बनकर उभरता है वह है सनातन मूल्य। इस सनातन मूल्य में हमारा पहनावा, खान-पान, भाषा, व्यवहार ही नहीं बल्कि जीवन से लेकर मृत्यु तक हमारी पूरी जीवनशैली शामिल है और इसी में शामिल है योग और आयुर्वेद पर आधारित स्वास्थ्य की अनूठी और अद्भुत भारतीय शैली। भारत की इस संस्कृति पर ना जाने कितनी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं पर जब इसी संस्कृति के विज्ञान सम्मत ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए पतंजलि के किसी विज्ञापन को कानून के चश्मे से देखकर शीर्ष न्यायलय की कोई टिप्पणी आती है और देश का एक खास वर्ग उस टिप्पणी पर तालियाँ पीटने लगता है तो समझ जाइये कि सनातन मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए अभी और प्रयास करना होगा।
ज्ञान के विज्ञान का विज्ञापन
कुछ लिखने की शुरुआत करूँ उससे पहले मैं स्वयं अपना अनुभव साझा कर रही हूँ जो कि ऑन रिकॉर्ड है। बात वर्ष 2003-०4 की है जब रक्त परीक्षण में मेरा Tsh यानि थायरॉइड काफी बढ़ा हुआ आया। लखनऊ के जाने माने और थायरॉइड के इलाज में विशेषज्ञ एलोपैथी चिकित्सक ने इलाज शुरू करने से पहले थायरॉइड नोड्यूल्स की प्रकृति का पता लगाने के लिए कलर डॉप्लर सोनोग्राफी आदि भी करवा लिया। रिपोर्ट आने के पश्चात उन्होंने बहुत ही सामान्य भाव से मुझे बताया कि यह बीमारी ठीक नहीं हो सकती और मुझे जीवन पर्यंत Thyronorm/Altroxine खाना ही पड़ेगा। लगभग एक वर्ष तक मैंने 100द्वद्द की गोली खाई और उसके दुष्प्रभाव को भी झेलती रही। सौभाग्यवश अगले ही वर्ष पूज्य स्वामी जी महाराज का लखनऊ में एक योग शिविर हुआ। इस शिविर में मैंने उनसे सुना कि योग और आयुर्वेद से थायरॉइड की समस्या जड़ से समाप्त हो जाएगी। वो दिन और आज का दिन, यकीन मानिये मैंने थायरॉइड के लिए किसी प्रकार की कोई दवा नहीं खाई और इस लेख को लिखने से पूर्व मैंने फिर से अपना ञ्ज3, ञ्ज4, ञ्जह्यद्ध टेस्ट भी करवाया। मुझे बताते हुए हर्ष हो रहा है कि इस बार भी सभी वैल्यू निर्धारित सीमा में हैं। इसके लिए मैंने कुछ और नहीं किया बल्कि लगातार 20 वर्र्षों से योग एवं आयुर्वेद को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लिया है। इसलिए शीर्ष अदालत से मेरा तो यही अनुरोध है कि पतंजलि के विज्ञापन में स्वास्थ्य के ज्ञान और विज्ञान को ढूंढिए आपको खामियां नहीं अनेकों खूबियाँ मिलेंगी।
स्वास्थ्य का विज्ञान है आयुर्वेद
आयुर्वेद दुनिया की सबसे पुरानी चिकित्सा पद्धति में से एक है जिसका अर्थ ही है ‘जीवन का विज्ञान’और ‘जीवन का ज्ञान’। आयुर्वेदिक चिकित्सा का मुख्य लक्ष्य अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देना और बीमारी को रोकना है, लडऩा नहीं। दूसरे शब्दों हम कह सकते हैं कि यह रोग प्रबंधन नहीं बल्कि स्वास्थ्य प्रबंधन की पद्धति है और शायद इसीलिए इस चिकित्सा पद्धति को व्यापक विस्तार मिलना अब भी शेष है। दूसरी तरफ आयुर्वेद के करीब दो हजार वर्ष बाद प्रचलन में आई एलोपैथी प्रयोग और अनुसंधान के दम पर काफी आगे निकल गयी। हालाँकि विगत वर्षों में पारंपरिक और असरदार चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को आधार और विस्तार देने के लिए पतंजलि योगपीठ ने बड़े पैमाने पर पहल की है जिसके परिणाम स्वरूप आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का प्रसार हर वर्ग में बढऩे लगा है। उस वर्ग में भी जो इसे केवल जड़ी-बूटी भर समझता था। इस बढ़त से नि:संदेह स्वास्थ्य लाभ तो सबका हुआ पर कुछ किसी को व्यावसायिक नुकसान तो किसी को फायदा होगा और शायद यही कारण है कि विरोध और समर्थन इसे दोनों ही मिल रहा है।
खामियां नहीं खूबियाँ गिनें
एक बार श्रेष्ठता को लेकर आम और नीम में बहस छिड़ गयी कि श्रेष्ठ कौन। दोनों ही हार मानने के लिए तैयार नहीं थे। अपनी खूबियाँ और दूसरे की खामियां गिनाते गिनाते पूरा दिन बीत गया। परिणाम नहीं निकलता देख दोनों ने तय किया कि मामले में किसी और की राय ली जाये। सामने से एक खुशहाल व्यक्ति आता दिखा। आम और नीम ने अपनी समस्या बताई और उसकी खुशी का राज पूछा तो उसने इसका बहुत ही छोटा सा जवाब दिया, किसी की खामियां नहीं खूबियाँ गिनो। आम और नीम दोनों को मर्म समझ में आ गया और अब दोनों ही एक दूसरे की उपयोगिता का गुणगान कर रहे थे। आम नीम के हर हिस्से को अचूक औषधि बताने बताने में लग गया और नीम आम को फलों का राजा कहकर सम्मानित कर रहा था। शुभ कार्य में पत्तों के वन्दनवार, हवन में लकड़ी के महात्म्य से लेकर खूबियों का गुणगान होता रहा। दोनों ही खुश थे। इसलिए आयुर्वेद हो या एलोपैथ, दोनों ही चिकित्सा पद्धतियों को इस कहानी से सीख लेनी होगी। उन्हें एक दूसरे को कमतर आंकने और खुद को श्रेष्ठ बताने की होड़ से बाहर आना होगा। चिकित्सा पद्धति कोई भी हो उद्देश्य तो बीमार को स्वस्थ करते हुए स्वस्थ और समृद्ध भारत के निर्माण का ही होना चाहिए।
स्वस्थ भारत से ही होगा समृद्ध भारत
किसी भी देश की तरक्की तभी संभव है जब उसके नागरिक सेहतमंद हों। क्या आप जानते हैं कि भारत में हर साल अपनी बीमारी के कारण करीब 7 करोड़ लोगों को गरीबी से जूझना पड़ता है। लोग स्वस्थ हों, इसके लिए देश में चिकित्सा सुविधाएं दुरुस्त होनी चाहिए। पर क्या भारत जैसे विशाल जनसँख्या वाले देश, जिस पर अपनी 140 करोड़ के आबादी के सेहत का ख्याल रखने की बड़ी जिम्मेदारी है, उसकी चिकित्सा व्यवस्था दुरुस्त है? कोई एक ही प्रकार की पैथी इस पूरी आबादी के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी ले सकती है? और क्या वह पैथी सबके लिए सुलभ भी है? निश्चित रूप से यह संभव नहीं हो सकता। यदि एलोपैथी की बात करें तो आजादी के बाद से इन सात दशकों में इसकी मदद से हमने बहुत से संक्रामक रोगों पर काबू पाया है। आजादी के बाद भारत को कई महामारियों ने भी अपना शिकार बनाया मगर देश ने उनका डटकर सामना किया और जीत भी हासिल की। पर इस जीत में सभी की हिस्सेदारी थी और इसका एक हालिया उदाहरण कोरोना संक्रमण भी है। पर इन्हीं सात दशकों में स्वास्थ्य सेवा का निजीकरण भी होता चला गया। लोग सरकारी स्वास्थ्य देखभाल की तुलना में एक मरीज को मिलने वाली सुविधाएं जैसे बिस्तर, भोजन की गुणवत्ता, उपचार और यहां तक कि डॉक्टर का चयन जैसी बातों को लेकर निजी अस्पतालों को प्राथमिकता देने लगे। आधुनिकता की होड़ में लोगों की जीवन शैली बदलने लगी तो बीमारियाँ भी बढऩे लगीं। बीमारियाँ बढ़ीं तो उसी अनुपात में दवाओं की खपत, फार्मा कम्पनियाँ, अस्पताल और चिकित्सक सब बढ़ गए। परिणामस्वरूप चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में समृद्ध अतीत वाले देश के लिए स्वस्थ भारत समृद्ध भारत एक चुनौती बन गया।
राष्ट्र शक्ति की नींव
संसार के समस्त कार्य हमारे आपके अच्छे स्वास्थ्य पर निर्भर हैं। इसलिए अच्छा स्वास्थ्य और साथ ही अच्छी समझ ये दोनों ही जीवन के दो सर्वोत्तम वरदान हैं। स्वास्थ्य ही धन है, यह पुरानी कहावत मानव की बुद्धिमता को व्यक्त करती है और प्रत्येक राष्ट्र का यह लक्ष्य है कि उसकी आबादी स्वस्थ रहे। कोई भी देश स्वास्थ्य के मुद्दे की अनदेखी नहीं कर सकता, क्योंकि व्यक्ति के स्वास्थ्य का स्तर मानव पूंजी सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। स्वास्थ्य जीवन का सबसे बड़ा वरदान और संसार की किसी भी वस्तु से अधिक मूल्यवान है। बीमार रहने की अपेक्षा स्वस्थ रहने में कम खर्च करना पड़ता है। स्वास्थ्य बनाये रखने का एकमात्र उपाय है, शरीर की समुचित देखभाल। यदि सुन्दर स्वास्थ्य रखने की समुचित शिक्षा दी जाये तो राष्ट्र का स्वास्थ्य अधिक उत्तम रहेगा। इसके लिए आवश्यक है कि हम सभी को शरीर सम्बन्धी मूलभूत तथ्यों की जानकारी अवश्य होनी चाहिए। यदि किसी कारण से आपने स्वास्थ्य खो दिया है तो उसे पुन: प्राप्त करें। यदि आप स्वस्थ हैं तो उसकी रक्षा करें क्योंकि स्वास्थ्य ही जीवन की मूलभूत नींव है और साथ ही यह राष्ट्र की शक्ति की नींव भी है।
एलोपैथी बनाम आयुर्वेद नहीं
ज्ञान के विज्ञान का विज्ञापन एलोपैथी बनाम आयुर्वेद करने या किसी को बरगलाने के लिए नहीं है बल्कि यह तो रोगों के विरुद्ध एक संत के संघर्ष की गाथा है। इस संघर्ष का उद्देश्य ना तो किसी की किसी से तुलना करना है और ना ही श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता की लड़ाई लडऩा है। यह किसी के छोटा होने या किसी को छोटा साबित करने का उद्देश्य लिए हुए भी नहीं है। इसका तो बस एक ही उद्देश्य है, सभी स्वस्थ हों और शरीर से बीमारियाँ जड़ से मिट जाएँ। एलोपैथी को मानने वाले लोग भी यह जानते हैं कि इसमें जो दवाएं दी जाती हैं वो बीमारी के स्रोत को ठीक करने के लिए नहीं बल्कि बीमारी को दूर करने के लिए होती हैं। भले ही इसके लिए शरीर में टेबलेट, कैप्सूल और सुइयों के माध्यम से रासायनिक बमबारी और उथल-पुथल क्यों ना मचानी पड़े। जबकि आयुर्वेद में इलाज के नियम पूरी तरह से अलग हैं। इसमें रोग से लडऩे की बजाए उसके विरुद्ध शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाने का प्रयास ज्यादा होता है। ताकि रोग के कारण से लडऩे की बजाय शरीर को प्राकृतिक रूप से स्वस्थ रखा जा सके। कोशिश यही होती है कि शरीर स्वयं ही अपनी उर्जाओं का प्रयोग कर बीमारी ठीक कर ले। शरीर द्वारा अपनी ही ऊर्जा से स्वस्थ होने की इस तकनीक को आयुर्वेद में ‘स्वभावोपरमवाद’ भी कहा जाता है।
एक मौका हम सभी के लिए
आयुर्वेद ही नहीं बल्कि योग भी ‘स्वभावोपरमवाद’में ही विश्वास करता है और इन दोनों की ही मान्यता है कि प्रकृति ही स्वभाव है विकृति नहीं। अत: मनुष्य स्वभावत: ही विकृति से उबर कर प्रकृति या स्वास्थ्य की ओर अग्रसर होता है। चिकित्सा तो केवल सहायक मात्र है। योग प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा शरीर के सभी अंगों, तंत्रों को अपने तरीकों द्वारा स्वस्थ बना के रखता है। इसीलिए आजकल चिकित्सा के क्षेत्र में यह भी अहम् भूमिका निभा रहा है। यहाँ तक की अब तो एलोपैथी चिकित्सक भी योगाभ्यास करने का परामर्श देते हैं। परम पूज्य गुरुवर ने हम सभी को योग की इस विधा में निपुण बनाकर स्वस्थ भारत के निर्माण के लिए सेवा का एक मौका दिया है, योग सेवा के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा। आइये गुरु द्वारा प्रदत्त स्वास्थ्य के इस ज्ञान, विज्ञान को हम सभी योग शिक्षक, शिक्षिका मिलकर योग और आयुर्वेद के ज्ञान को हर घर-आँगन तक स्वयं लेकर जाएँ। जब लोग स्वस्थ होने लगेंगे तो फिर लोग स्वयं ही योग और आयुर्वेद का विज्ञापन करते नजर आएंगे।
लेखक
Related Posts
Latest News
कुंभ मेला: खगोलशास्त्र, धर्म और सामाजिक एकता का अद्भुत मिश्रण
15 Jan 2025 12:10:16
कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक और आध्यात्मिक आयोजनों में से एक है, इसे दुनिया का सबसे बड़ा