जीवन की उत्पत्ति

जीव में सामाजिक और जाति व्यवस्था भाग-1

जीवन की उत्पत्ति

डॉ. चंद्र बहादुर थापा  वित्त एवं विधि सलाहकार-

भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह

गतांक से क्रमश:
राजा (आधुनिक सन्दर्भ में समाज अथवा राज्य के शीर्ष नेतृत्व) सम्बन्धी विचार
मनु के अनुसार जिस राजा के राज्य में चोर, परस्त्रीगामी, दुष्ट वचन बोलने वाला, साहसिक डाकू और ही राजा की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला है, वह राजा अतीव श्रेष्ठ है मनु ने राजा को अनेक देवताओं के सारभूत अंश से निर्मित बताया है। राजा ईश्वर से उत्पन्न है अत: उसका अपमान अथवा द्वेष करने का अर्थ है कि स्वयं को विनाश की ओर ले जाना। राजा, इन्द्र अथवा विद्युत के समान एश्वर्यकर्ता, पवन के समान सबके प्राणावत, प्रिय तथा हृदय की बात जानने वाला, यम के समान पक्षपात-रहित न्यायधीश, सूर्य के समान न्याय, धर्म तथा विद्या का प्रकाश, अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने वाला, वरूण के समान दुष्टों को अनेक प्रकार से बांधने वाला, चन्द्र के समान श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्द देने वाला तथा कुबेर के समान कोष भरने वाला आदि गुणों से पूर्ण होना चाहिए।
परस्परविरुद्धानां तेषां समुपार्जनम्। कन्यानां सम्प्रदानं कुमाराणां रक्षणम्। अर्थात् राजा को चाहिये कि वह धर्म- अर्थ- काम में कहीं परस्पर विरोध पडऩे पर उसे दूर करें, धर्म अर्थ में अभिवृद्धि करें और कन्याओं एवं कुमारों को गुरुकुलों में भेजकर शिक्षा दिलाना, उनकी सुरक्षा तथा विवाह आदि की नियम व्यवस्था करे
मनु स्मृति में, समाज अथवा राज्य के शीर्ष नेतृत्व अर्थात् राजा के लिये मुख्य निर्देश हैं - (1) वह शस्त्र धन, धान्य, सेना, जल आदि से परिपूर्ण पर्वतीय दुर्ग में हर प्रकार से सुरक्षित निवास करे ताकि वह शत्रुओं से बच सके (2) राजा स्वजातीय और सर्वगुण सम्पन्न स्त्री से विवाह करें (3) राजा समय-समय पर यज्ञ का आयोजन करें और ब्राह्मणों (विद्वानों/विषयों के जानकारों/प्रबुद्ध वर्ग) को दान देवें, (4) प्रजा (जनसाधारण) से कर वसूली ईमानदार एवं योग्य कर्मचारियों के द्वारा किया जाना चाहिए, प्रजा (जनसाधारण) के साथ राजा (नेतृत्व) का संबंध पिता-पुत्र की तरह होना चाहिए (5) राजा (नेतृत्व) को युद्ध के लिये तैयार रहना चाहिए, युद्ध में मृत्यु से उसे स्वर्ग (परमगति) की प्राप्ति होगी (6) विभिन्न राजकीय कार्यों के लिये विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति की जाय (7) राजा को विस्तारवादी नीति को अपनाना चाहिए (8) अपने सैन्य बल एवं बहादुरी का सदैव प्रदर्शन करना चाहिए (9) गोपनीय बातों का गोपनीय बनाकर रखना चाहिए। शत्रुओं की योजनाओं को समझने के लिये मजबूत गुप्तचर व्यवस्था रखनी चाहिए (10) अपने मंत्रियों को सदैव विश्वास में रखना चाहिए (11) राजा सदैव सर्तक रहे। अविश्वसनीय पर बिल्कुल विश्वास करें और विश्वसनीय पर पैनी निगाह रखे (12) राजा को राज्य की रक्षा तथा शत्रु के विनाश के लिये तत्पर रहना चाहिए (13) राजा को अपने कर्मचारियों, अधिकारियों के आचरण की जांच करते रहना चाहिए। गलत पाने पर उनको पदच्युत कर देना चाहिए (14) राजा को मृदुभाषी होना चाहिए।
मनुस्मृति में स्पष्ट किया गया है कि राजा शत्रु का संहार कर मातृभूमि की रक्षा करें। शांति के समय प्रजा के धान्य का छठा-आठवां भाग (12.5% से 16.25%) कर प्राप्त करें परन्तु युद्ध के समय वह चौथा भाग (25%) भी प्राप्त कर सकता है। आपातकाल में राजा द्वारा अतिरिक्त कर लेना कोई पाप नहीं है। राजा को न्यायी, सिद्धान्त प्रिय तथा मातृभूमि से प्रेम करने वाला होना चाहिए। राष्ट्रहित में कठोर भी हो जाना चाहिए।
इस प्रकार हजारों वर्ष पूर्व संहिताबद्ध मनुस्मृति वास्तव में सनातन व्यवस्था की समन्वयता, सदाश्यता और समावेशी समाज स्थापना की उत्कृष्टता का ज्वलंत उदहारण है की आज के अर्ध-ज्ञानी साक्षर परन्तु सत्तालोलुप शीर्ष पदों में आसीन स्वघोषित तथाकथित नेताओं के द्वारा दुष्प्रचारित जाति-व्यवस्था आधारित वर्ग और लिङ्ग के आधार पर समाज का विभेदकारी अथवा बाँटने वाला।
मनुस्मृति के कुछ  विचार (श्लोक)
1)   जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात्, जो जन्म से शूद्र होते हैं, कर्म के आधार पर द्विज कहलाते हैं।
2) धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रह: धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्।। अर्थात्, धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध करना (अक्रोध)
3) नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु। गूहेत्कूर्म इवांगानि रक्षेद्विवरमात्मन:।। वकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत। वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत्।। अर्थात्, कोई शत्रु अपने छिद्र (निर्बलता) को जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे, जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है, वैसे ही शत्रु के प्रवेश-छिद्र को गुप्त रखें। जैसे - बगुला ध्यानमग्न होकर मछली पकडऩे को ताकता है, वैसे अर्थ संग्रह का विचार किया करें, शस्त्र और बल की वृद्धि कर के शत्रु को जीतने के लिए सिंह के समान पराक्रम करें। चीते के समान छिप कर शत्रुओं को पकड़े और समीप से आये बलवान शत्रुओं से शश (खरगोश) के समान दूर भाग जाये और बाद में उनको छल से पकड़े।
4)  नोच्छिष्ठं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याचैव तथान्तरा। चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्ट: क्वचिद् व्रजेत्।। अर्थात्, किसी को अपना जूठा पदार्थ दे और किसी के भोजन के बीच आप खावें, अधिक भोजन करें और भोजन किये पश्चात हाथ-मुंह धोये बिना कहीं इधर-उधर जाये।
5) तैलक्षौमे चिताधूमे मिथुने क्षौरकर्मणि। तावद्भवति चांडाल: यावद् स्नानं समाचरेत्।। अर्थात्तेल-मालिश के उपरान्त, चिता के धूंऐं में रहने के बाद, मिथुन (संभोग) के बाद और केश-मुण्डन के पश्चात - व्यक्ति तब तक चांडाल (अपवित्र) रहता है जब तक स्नान नहीं कर लेता - मतलब इन कामों के बाद नहाना चाहिए।
6) अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्कत्र्ता चोपहत्र्ता खादकश्चेति घातका:।। अर्थात्, अनुमति (= मारने की आज्ञा) देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं।
7)  यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: यत्रैतास्तु पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।। अर्थात्, जहाँ स्त्रियों का आदर किया जाता है, वहाँ देवता रमण करते हैं और जहाँ इनका अनादर होता है, वहाँ सब कार्य निष्फल होते हैं।
8)  प्रजनार्थं महाभागा: पूजार्हा गृहदीप्तय: स्त्रिय: श्रियश्च गेहेषु विशेषोऽस्ति कश्चन।। अर्थात्स्त्रियां सन्तान को उत्पन्न करके वंश को आगे बढ़ाने वाली हैं, स्वयं सौभाग्यशाली हैं और परिवार का भाग्योदय करने वाली हैं, वे पूजा अर्थात् सम्मान की अधिकारिणी हैं, प्रसन्नता और सुख से घर को प्रकाशित या प्रसन्न करने वाली हैं, अर्थात्  घरों में स्त्रियों और लक्ष्मी तथा शोभा में कोई विशेष अन्तर नहीं है अर्थात् स्त्रियां घर की लक्ष्मी और शोभा हैं।
9)  आसमुद्रात्त वै पूर्वादासमुदात्त पश्चिमात। नयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त्त विदुर्बुधा:।। अर्थात्, जिस क्षेत्र के पूर्व और पश्चिम में समुद्र है, जो पर्वतों के मध्य है तथा घिरा हुआ है वह सरस्वती तथा दृषद्वती (ब्रह्मा कि इरावती) नदियों के अंतर में स्थित है। वह देव निर्मित आर्यावर्त देश है।
10) आर्ष धर्मोपदेशं वेदशास्त्र अविरोधिना। यस्तर्केणानुसंधत्ते धर्मं वेद नेतर:।। अर्थात्, जो मनुष्य धर्मशास्त्र का वेदशास्त्र के अनुकूल तर्क के द्वारा अनुसंधान और चिन्तन करता है, वही धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ पाता है, अन्य नहीं।
मानव-समाज व्यवस्था में द्वन्द
जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् भवेत् द्विज: वेद- पाठात् भवेत् विप्र: ब्रह्म जानातीति ब्राह्मण:।। स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद को बताया गया है कि "जन्म से (प्रत्येक) मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज, वेद के पठन-पाठन से विप्र (विद्वान) और जो ब्रह्म को जनता है वो ब्राह्मण कहलाता है। ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां परन्तप। कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:।। भगवद् गीता अध्याय 18 श्लोक 41 में  भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं - हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा (जन्म से नहीं) विभक्त किए गए हैं। श्रीमद् देवी भागवतस्कंद 6, पृष्ठ 414, गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित ग्रंथ मे जनमेजय द्वारा व्यास जी से पुछा गया, 4 युगों मे धर्म की स्थिति से संबंधित प्रश्न उत्तर में कहा गया है कि- राजन! उन प्राचीन युगों में जो राक्षस समझे जाते थे, वे कलि (कलयुग) में ब्राह्मण माने जाते हैं, क्योंकि अब के ब्राह्मण प्राय: पाखंड करने में तत्पर रहते हैं। दूसरों को ठगना, झूठ बोलना और वैदिक धर्म-कर्मों से अलग रहना --- कलियुगी ब्राह्मणों का स्वाभाविक आचरण बन गया है।
सभी चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) अपने चरित्र, नैतिक इरादे, कार्यों, अज्ञानता, शर्तों, और अनुष्ठान व्यवहार के आधार पर शुद्धता या अशुद्धता प्राप्त कर सकते हैं। परंपरागत रूप में जातियाँ स्वायत्त सामाजिक इकाइयाँ हैं जिनके अपने आचार तथा नियम हैं और जो अनिवार्यत: बृहत्तर समाज की आचार संहिता के अधीन नहीं हैं। इस रूप में सब जातियों की नैतिकता और सामाजिक जीवन तो परस्पर एकरस है और पूर्णत: समन्वित। फिर भी भारतीय जातिपरक समाज का समन्वित तथा सुगठित सामुदायिक जीवन है, जिसमें विविधताओं तथा विभिन्नताओं को सामाजिक मान्यता प्राप्त है। क्षत्रिय, ब्राह्मण तथा कुछ वैश्य जातियों को छोडक़र, प्राय: प्रत्येक जाति, अपने  नियम तथा आचारों का उल्लंघन करने पर उन्हें दंडित करती है। क्षत्रिय तथा ब्राह्मण जातियाँ भी जातीय जनमत के दबाव से और यदाकदा जातीय बंधुओं की तदर्थ पंचायत द्वारा उल्लंघनकर्ताओं को अनुशासित और दंडित करती हैं। उच्च जातियों का यह अनुशासन राज्यतंत्र द्वारा भी होता रहा है।
भारत की जाति व्यवस्था, वर्ण (व्यवसाय पर आधारित सैद्धांतिक वर्गीकरण) और जाति (उपमहाद्वीप में प्रचलित हजारों अंतर्विवाही समूहों को संदर्भित करता है) पर आधारित है। भारत में जातियों और उपजातियों की सन 1901 की  जनगणना के अनुसार जो जातिगणना की दृष्टि से अधिक शुद्ध मानी जाती है, 2378 है। प्रत्येक भाषा क्षेत्र में लगभग दो सौ जातियाँ होती हैं, जिन्हें यदि अंतर्विवाही समूहों में विभक्त किया जाए तो यह संख्या लगभग 3,000 हो जाती है।
जाति व्यवस्था का प्रारंभिक रूप और द्वन्द की सुरुवात और वर्तमान स्थिति
भौगोलिक परिस्थितियाँ मानव आवास एवं चहुंमुखी विकास के आयाम निश्चित करते हैं। आदि काल से मानव निवास पहाड़ों और उनके तलहटियों में, नदी के किनारों में और समुद्र के किनारों में होने के प्रमाण मिले हैं।  पहाड़ और पहाड़ के तलहटियाँ जहाँ बरसात के और छोटे नदी नाले के भरोसे कृषि और पशुपालन कर कठिनाइयों में रहने वाले जनसमूह और समतल मैदानी भाग, बड़ी नदियों के किनारे और समुद्रों के किनारे अथवा अधिक बरसात वाले जहाँ सिंचाई और पानी की प्रचुरता के कारण अनुसांगिक सुविधाओं के उपलब्धि, यातायात सुविधा आदि के स्थान में आरामदायी परिवेश (आधुनिक शहरी परिवेश) में रहने वाले जनसमूह के रहन-सहन और जीवन पद्धति में आदि काल से ही भिन्नता रहा है और असुविधा और सुविधा के द्वन्द में जन्म-भूमि, मातृभूमि, राष्ट्र, आदि के अवधारणा जनमानस में अवस्थित होता रहा, जिसको वेदों और सनातन ने प्राकृतिक रूप से और पाश्चात्य अवधारणा विषेशत: ईसाई और इस्लाम अवधारणा ने कृतिम रूप में पुरातन स्वाभाविक गणतंत्र व्यवस्था को राज्यों के रूप में अव्यस्थित करते गए। राज्य व्यवस्था में कृतिमता के उदाहरण हैं ईसाईयों की वैटिकन सिटी राज्य जिसकी जनसंख्या आज बृहस्पति बार दिनांक 30 नवम्बर, 2023 को “Corono meter – Covid Statistics” के अनुसार केवल 799 है। मुस्लिम 57 देशों के शासन तथा ईसाई 126 देशों में बहुसंख्यक तथा 71 देशों में अल्प संख्यक मानते हैं, जबकि सबसे पुरातन सनातन के एक नेपाल हिन्दू राष्ट्र 2008 तक माना जाता था वह भी तथाकथित "सेक्युलर" हो कर ईसाईकरण और इस्लामीकरण के भवँर में झुलस रहा है, भारत का तो क्या कहना यहाँ सनातन नामधारी अच्छे कहलाने के चक्कर में सनातन को ही ज्यादा कोसते हैं और जाति और वर्ण को और वीभत्स रूप में प्रस्तुत करते हैं।
विश्व में ईसाई और ईस्लाम से पूर्व के समूह (जाति)
दस्यु : दस्यु वेदों के इंडो-आर्यों के प्रतिद्वंद्वी थे, जो इंडो यूरोपीय और संभवत: ईरानी थे, जो बिल्कुल अलग धार्मिक विचारों का पालन करते थे और वैदिक आर्यों का हिस्सा होने के बावजूद उनके धर्म का दुरुपयोग करते थे। यद्दपि यह नाम पहले से ही ऋषियों के ऋग्वैदिक भजनों में आलंकारिक उपयोग के लिए प्रयोग किया जाता है, जिससे उनका उपयोग अनावृष्टि के समय पर वर्षा के बादलों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है। संभवत: वे दख्यू (अवेस्तान मेंभूमि), दख्यू भूमि के वेरेज़ाना (वेद में वर्जना) से संबंधित होंगे। वे ईरान और मध्य एशिया में दह्यु नामक जनजाति से भी संबंधित हो सकते हैं। अवेस्तावासियों ने देवों को धोखेबाज और अपने प्रतिद्वंद्वियों उसिग (उशिज का वैदिक वर्ग) और कारापान (वैदिक कार्पन-कृपा) को देवों और उनके हमलावरों का पक्ष लेने वाला मानते थे। पुराने और चालाक डेवास का पक्ष लेते थे। यहांईरानी’‘ईरानका प्रतिनिधित्व नहीं करता है, बल्कि उन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो बाद में ईरानी पठार में बस गए। अवेस्तावासी बड़े पैमाने पर आधुनिक पश्चिमी अफगानिस्तान में थे।
वैदिक आर्य : वैदिक आर्य विश्वास करते थे कि पूर्णत: व्यक्ति को मुख्य रूप से प्राकृतिक सिद्धांतों से सहमत होकर ही सब कुछ करना होता है, जिसका दस्युओं ने पूर्णतया विरोध किया। दस्यु के विचार में, व्यक्ति के विकास मानव-परिभाषित नैतिकता पर निर्भर था। अवेस्तां में आशा का तात्पर्य गतिशील वास्तविकता से नहीं है जैसा कि होना चाहिए, बल्कि इसका तात्पर्य वस्तुनिष्ठ सत्य से है (जो सत्य से मेल खाता है) वे मुख्यत: आर्यों से धार्मिक रूप से असहमत थे। यह सिर्फ असहमति नहीं बल्कि बहुत बड़ा नैतिक टकराव था। उनके द्वारा की गई धार्मिक निंदा और अत्याचारों ने वैदिक आर्यों के लिए अनेक कठिनाइयाँ पैदा करते रहे। दस्युओं के विरोध में ऋषियों ने आर्यों का पक्ष लिया और दस्युओं को त्याग दिया गया। इस प्रकार दस्युओं के पास तो ऋषि-मुनि थे और ही उनके श्लोक थे, ही वे यज्ञ करते थे, ही वे सही तरीके से कार्य करते थे और ही सोचते थे। बदले में दस्युओं ने देवताओं का तिरस्कार किया और देवताओं ने आर्यों को दस्युओं से बचा लिया। समय-समय पर देवता आर्यों के लिए भूमि भी जीत लिया करते थे। 
दास :  दास धार्मिक प्रतिद्वंद्वी नहीं थे। वे मुख्य रूप से संभवत: ईरानी या गैर-ईरानी लेकिन इंडो यूरोपीय एक अन्य जातीय समूह थे अथवा वे पुराने फ़ारसी दाहा (जिसका अर्थ हैआदमी) और शायद डेसीयन से भी संबंधित थे। मध्य एशिया की दाहे जनजाति का उल्लेख ग्रीक खातों में भी मिलता है। वे अक्सर उन्हीं देवताओं और इंद्र से प्रार्थना करते थे, लेकिन ज्यादातर आर्यों के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे जो अमीर बस्तियों में भी रहते थे। हालाँकि कुछ अच्छे दास भी मौजूद हैं जो ऋषियों को संरक्षण देते थे और आर्यों के मित्र थे, जैसे ब्रूबू या बलबुथा तारुक्ष। उनके लिए दानस्तुति ऋग्वेद में मौजूद हैं, इसलिए दास वैदिक युग के कुछ राजाओं के राजनीतिक शत्रुता के अलावा आर्यों के नैसर्गिक रूप सेशत्रुनहीं थे। दस्यु की तरह दास भी वैदिक भजनों में आलंकारिक अभिव्यक्ति करते हैं, क्योंकि वैदिक भजन कभी भी किसी भी समय पूरी तरह से सांसारिक वस्तुओं पर आधारित नहीं होते हैं।
राक्षस : वे ज्यादातर ऋग्वेद में दुर्भावनापूर्ण और घातक ताकतों के पौराणिक प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनके बारे में वैचारिक रूप से प्रशंसा करने लायक कुछ भी नहीं है, क्योंकि वे जंगली थे। वे अग्नि की लपटों, ग्रावण अथवा मन्त्रों की ध्वनि, सोम के प्रवाह से नष्ट हो जाते हैं। बाद के वेदों में उन्हें पिशाचों से भी जोड़ा जा सकता है। जो कच्चा मांस खाते हैं और इस प्रकार वे मानव या पशु-पंक्षी के मांसाहारी होते हैं, परन्तु उनमे रावण और विभीषण जैसे विद्वान और भक्त भी रामायण काल में उल्लिखित हैं।
पणिस :  पणिस पौराणिक जाति हैं जो अंधकार प्रेमी, अहंकार, अभिमान के प्रतिक, गायों को अपहरण कर गुफाओं में छिपाने वाले, गर्वीले इतने की किसी के भी सुनने वाले हैं, जिनके लिए सन्दर्भ आता है कि इंद्र ने उनके दुष्कर्मों के बारे में चेतावनी देने और गायों को मुक्त करने के लिए अपने प्रतिनिधि को उनके पास भेजने की कोशिश भी विफल होने के बाद बृहस्पति (देव गुरु -उच्च छंदों के स्वामी) का रूप धारण किया और अंगिरस के साथ पणिस की गुफाओं को तोड़ दिया। ऋग्वेद में पाणिस पहले से ही हैं, परन्तु वे संभवत: कुछ पुरातन वास्तविक इंडो-यूरोपीय काउ बॉय जनजातियों की ओर इशारा करते हैं अथवा वे पारनी जनजाति से भी संबंधित हो सकते हैं जो दाहे जनजाति से जुड़े हैं।
असुर : असुर आत्मा की शक्तियां (असु) हैं और पहले ऋग्वेद में आध्यात्मिक शक्तियों का उल्लेख किया गया है। महान असुर वे हैं जो मनुष्यों को आध्यात्मिक आधार प्रदान करते हैं, जैसे- वरुण, इंद्र, अग्नि, मित्र आदि। देवताओं के असुरत्व की प्रशंसा करने वाला एक संपूर्ण भजन है। बाद के ऋग्वैदिक काल तक आते-आते देवों का तिरस्कार करने वालों ने अचानक असुरों को प्राणियों की एक अलग श्रेणी के रूप में सम्मानित करना शुरू कर दिया, इस प्रकार असुर शब्द ने एक समकालीन नकारात्मक अर्थ प्राप्त कर लिया और ऋग्वेद के नवीनतम छंदों से, असुर, देवों के विरोध में प्राणियों के एक कथित वर्ग का नाम बन गया है।
वर्ण व्यवस्था की विकृति मूल कारण और वर्तमान जाति-व्यवस्था
चार वर्णों के विभाजन के मूल आधार के गहन अध्ययन से स्पष्ट है कि यह केवल कार्य और दायित्व विभाजन था और प्रत्येक समूह में किसी किसी प्रकार से अन्तर्निहित था, जिसके बिना कोई भी सामाजिक व्यवस्था की परिचालन नहीं हो सकता था। परन्तु संख्या वृद्धि के साथ साथ समूहों के अप्रवास से दूसरे अपने ही अथवा दूसरे समूहों के साथ संघर्ष के कारण लडाई में विजेता समूह ने पराजित समूह के पहले तीन वर्ग, यथा- ब्राह्मण, क्षेत्रीय और वैश्य को अपने समूह में अपने-अपने वर्ग में समाहित करने के कारण चौथे वर्ग शूद्र में समावेश करते हुए, मानव स्वभाववश निकृष्ट भी मानने लगे, जिससे वे वर्ग जो उच्च के होने पर भी अपने से अलग वर्ग जिसको निम्न में समावेश किये जाने और सामान वर्ग में समाहित किये जाने के कारण विजेता के उन वर्गों से द्वेष एवं बदले के भाव रखने लगे। कालांतर में कुछ अन्य वर्ग के आक्रमण में यह विजेता भी हार गये और पराजित के तीनो वर्ग भी पहले के पराजित समावेशी चतुर्थ वर्ग में समाहित हो गए फिर तो उसी चतुर्थ वर्ग में भी चारों वर्गों के विचार के उपवर्ग बनते-बनते विरोधों के पराकाष्ठा, घृणा, द्वेष, झूठे कहानियां गढऩा, नरसंहार करना, अमानवीय यातना और व्यवहार, यहाँ तक की अकल्पनीय तरीके के दंड - जैसे जिन्दा जलाना, जिन्दा क्रूस पर चढ़ाना (जीसस क्राइस्ट), विषपान कराना (ग्यालिलियो), दीवार में जिंदा चिनवाना (गुरु गोविन्द सिंह जी के दोनों बेटे), निकृष्ट कार्य कराना, अपने विरोधियों को बर्बर और नृशंस बताना (सुगौली के संधि के आधार 1872 से 1879 तक के अंग्रेज और नेपाल के लडाई में नेपाली फौज और नेपाली भूभाग के कुमाऊ गढ़वाल की जनता पर अंग्रेजों के अमानुषिक अत्याचार को अंग्रेजी माध्यमों में नेपाली को ही बर्बर और नृशंस लिखकर अपनी नृशंसता को छिपाया गया और गोरखा भर्ती के बहाने नेपाली जनमानस में अंग्रेजों के अत्याचार और बर्बरता के बजाय नेपाली को वीरता से इज्जत दिए जाने के दुष्प्रचार से छिपाया गया), प्रलोभन और सुविधायें देकर जाति विशेष को ही विकास-विमुख कर देना, स्वयं के जाति विरुद्ध कर देना जैसे कार्यों से सामाजिक विद्रोह कराया जाता रहा। प्रत्यक्ष उदहारण 1947 के पश्चात् ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के बाद भी भारत देश की विभिन्न चरणों के आज तक के सुने-अनसुने अध्याय हैं।
सारांश में प्रारम्भ में सुर और असुर दो प्रकृति के मानव (षोडश अध्याय भगवद गीता) और ब्राह्मण, क्षेत्रीय, वैश्य और शूद्र कार्य विभाजन वर्ग (भगवद् गीता और महाभारत सहित वेद शास्त्र) थे और उन से आर्यावर्त में जैन, बुद्ध सनातन में तथा पश्चिम में अन्य दस्यु, दास, अवेस्तावासी, आदि से ईसाई, उसके बाद ईस्लाम समूह बने, परन्तु उनमें भी माने या माने, कार्य विभाजन के चार वर्ग तो सदा रहे ही, केवल भारत में राजनैतिक प्रतिद्वंदिता और विद्वेष के कारण ईस्लाम और उसके बाद ब्रिटिश ईसाई शासन के प्रोत्साहन के कारण जाति व्यवस्था के वीभत्स रूप को निरूपण अपने लेखकों से करवाया गया, यथा रोमिला थापर और इरफान हबीब के भारतीय इतिहास। अस्तु। 

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