प्राचीन भारतीय सभ्यताओं में वैदिक सभ्यता को सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है। इस सभ्यता के निर्माता आर्य थे। आर्यों के द्वारा जिस शिक्षा प्रणाली का विकास किया गया उसके सम्बंध में वेदों से पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। प्राचीन भारतीय शिक्षा आध्यात्मिक तत्वों पर आधारित है। वैदिक युग से ही भारत में शिक्षा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। देश में गुरुकुलम् (आश्रम) व्यवस्था सबसे पुरानी परंपरा है। गुरुकुल या गुरुकुलम् शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, गुरु का अर्थ है शिक्षक और कुल का अर्थ है घर या परिवार। इस प्रकार, गुरुकुल शब्द का अनुवाद ‘शिक्षक का घर’होता है। यह वही गुरुकुल है जो विद्यार्थियों या शिष्यों के लिए सीखने और ज्ञान प्राप्त करने का घर था।
गुरु-शिष्य सम्बंध
गुरु के सानिध्य में रहने वाले विद्यार्थी गुरु के पारिवारिक कुल के सदस्य के समान हो जाते थे। गुरु का व्यवहार शिष्य के प्रति पुत्रवत् होता था। गुरु बिना किसी लोभ व लालच के अपने जीवन के अनुभव और ज्ञान का निचोड़ अपने छात्रों पर न्यौछावर करता था। अभिभावक भी गुरु पर पूर्ण विश्वास कर के गुरु के अध्यापन कार्य में दखल नहीं देते थे। गुरु को कभी नहीं लगता था कि वे किसी प्रकार के दबाव में हैं। किसी की निगरानी में वे शिक्षण नहीं करते थे बल्कि स्वछंद रहकर पूर्ण शिक्षा प्रदान करते थे।
कौशल विकसित करना गुरुकुल की परंपरा
छात्रों को औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ मानसिक, आध्यात्मिक, शारीरिक और व्यावहरिक रूप से भी सक्षम बनाया जाता था। युद्ध कला, घुड़-सवारी, निशानेबाजी, तीरंदाजी आदि के साथ संस्कारों की स्थापना परम आवश्यक थी। गुरु को यह अधिकार रहता था कि कौन-सी पद्धति से किस छात्र को विकसित करना है उसको कब प्रोत्साहित करना या कब दंड देना है अथवा कब अकस्मात् परीक्षा लेकर सुनिश्चित हो जाना है कि वह उचित शिक्षा प्राप्त कर भी रहा है। सर्वांगीण रूप से शिक्षित-विकसित होकर विद्यार्थी जब अपने घर लौटता था तो एक सुयोग्य नागरिक साबित होता था।
गुरु दक्षिणा की अवधारणा गुरु के प्रति कृतज्ञता व सम्मान का प्रतीक
वैदिक शिक्षा प्राप्त करते समय विद्यार्थियों को अनेक नियमों का पालन करना पड़ता था, विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करते थे। गुरु की सेवा करना उनका परम कर्त्तव्य होता था। गुरु पूर्ण रूप से तत्पर रहकर अपने विद्यार्थियों को विविध विद्याओं और कलाओं में पारंगत करते थे। गुरुकुल प्रणाली वैदिक युग की एकमात्र शिक्षा प्रणाली थी, जिसमें गुरुकुल बालक अपने घर से दूर गुरु के समीप गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करता था। गुरुकुल में उसकी दिनचर्या पवित्र एवं कठोर होती थी, विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्यार्जन करता था। गुरु से पहले उठना, उसके शयन के पश्चात शयन करना पड़ता था। गुरु की सेवा करना विद्यार्थी का पुनीत कर्त्तव्य था। प्रात: व सायंकाल में संध्या करना, दिवस प्रहर में दो बार भोजन ग्रहण करना होता था। प्राचीन भारतीय व्यवस्थाकारों ने गुरु के साथ विद्यार्थी के सानिध्य और उसके महत्त्व को समझा, इसीलिए गुरुकुल पद्धति पर बल दिया। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की मुख्य विशेषताओं में से एक गुरुदक्षिणा की अवधारणा या गुरु के प्रति सम्मान का प्रतीक है। यह गुरु के प्रति कृतज्ञता और सम्मान की स्वीकृति के रूप में कार्य करता है। शिक्षा की इस प्रणाली का एक अनूठा तत्व यह भी था कि आश्रम में अपने वर्षों के दौरान स्वयं को बनाए रखने के लिए विद्यार्थियों को स्थानीय गाँव के घरों से भिक्षा माँगनी पड़ती थी।
गुरुकुलीय परंपरा विश्वविख्यात, भारत विश्वगुरु
प्राचीनकाल में च्यवन, विश्वामित्र, वाल्मीकि, द्रोणाचार्य, वशिष्ठ, गौतम, सांदीपनि, भारद्वाज आदि ऋषियों के आश्रम प्रसिद्ध रहे हैं। बौद्धकाल में बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य की परंपरा से जुड़े गुरुकुल जगत प्रसिद्ध थे जहाँ विश्वभर से मुमुक्षु ज्ञान प्राप्त करने आते थे। वहाँ गणित और गणित के मूल सिद्धांत, विज्ञान, खगोल, प्रारंभिक चिकित्सा, ज्योतिष, भौतिक, सामाजिक सभी तरह की शिक्षा प्रदान की जाती थी। जीवन उपयोगी विषय ‘विद्या’ एवं जीविका उपयोगी विषयों को ‘कला’ कहा जाता है। जीवन उपयोगी विद्या के चौदह और जीविका उपयोगी कला के चौसठ प्रकार हैं जीवन उपयोगी ‘विद्या’ के 14 प्रकार हैं:-1) ऋग्वेद, 2) यजुर्वेद, 3) सामवेद, 4) अथर्ववेद (ये चार वेद हैं), 5) छंद, 6) कल्प, 7) निरुक्ति, 8) ज्योतिष, 9 ) शिक्षा, 10) व्याकरण (ये छह वेदांग हैं), 11) न्यायशास्त्र, 12) मीमांसाशास्त्र, 13) धर्मशास्त्र, 14) इतिहास पुराण।
जीविका उपयोगी विषयों के चौसठ कलाओं के कुछ नाम उपलब्ध हैं। उसमें से कुछ कलाएँ लुप्त हों गईं और कुछ विलुप्ति की कगार पर हैं। परंतु कुछ कलाएँ आज के परिप्रेक्ष्य में भी देखी जा सकती हैं जिनमें नृत्य, गायन, वाद्य यंत्र बजाना, चावल और पुष्पों से इष्ट सामग्री बनाना, पुष्पों की क्यारियाँ बनाना, नाट्य कला, चित्रकारी, बेल-बूँटे, वस्त्र और आँगन सजाना, रत्न कला, पुष्पों से आभूषणों बनाना, जल बाँधना, वस्त्र और आभूषण बनाना, शैय्या बनाना, सुगंध, इत्र आदि बनाना शामिल हैं। उन्हें व्यावहारिक कौशल प्रदान करने के उद्देश्य से दैनिक कार्यों को स्वयं करना भी अनिवार्य था। ये सभी कौशल व्यक्तित्व के विकास में सहायक सिद्ध होते थे।
पराविद्या यौगिक साधना और अपरा विद्या अध्यात्मिक ज्ञान
भारतीय चिंतन चार पुरुषार्थों यथा- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पर ही आश्रित दृष्टिगोचर होता है। यह आध्यात्मिकता, चार पुरुषार्थों और उसमें भी चरम पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष को ही पाने के लिए उद्धत दिखाई देती हैं। भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में ‘परा’और ‘अपरा’विद्या का महत्त्व रहा है। परा से तात्पर्य आत्मज्ञान या परम सत्य को जानने से है, उपनिषदों में इसे उच्चतर स्थान दिया गया है। दूसरी विद्या, अपरा है जो आत्म ज्ञान या परम सत्य को प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें कैवल्य की प्राप्ति होती है। वे मुक्त होकर ब्रह्म पद को प्राप्त करते हैं। ‘मुंडकोपनिषद के अनुसार, परा यौगिक साधना और अपरा अध्यात्मिक ज्ञान है। परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और परिवर्तनशील है तथा अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड़ और परिवर्तनशील है।
शिक्षा, वेद, व्याकरण, नक्षत्र, ज्योतिष, वास्तु, आयुर्वेद, कर्मकांड, सामुद्रिक शास्त्र, निरुक्त, छंद, कल्प, हस्तरेखा, धनुर्विद्या आदि यह सभी परा विद्याएँ हैं परंतु प्राणविद्या, संजीवनी विद्या, त्राटक, सम्मोहन, तंत्र, मंत्र, यंत्र, जादू, टोना, अंतध्र्यान होना, स्तंभन, इंद्रजाल, चौकी बांधना, गार गिराना, सूक्ष्म शरीर से बाहर निकलना, पूर्वजन्म का ज्ञान होना, त्रिकालदर्शी बनना, पानी बताना, अष्ट सिद्धियाँ, नव विधियाँ, अपरा विद्याएँ हैं परंतु मुख्यत: चौदह विद्याएँ ही प्रमुख हैं। प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव भिन्न-भिन्न होता है। उसके अनुसार ही विशेष गुण अथवा रुचि और प्रतिभा के अनुरूप ही शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होती थी।
प्रत्येक गुरुकुल अपनी उत्कृष्ट विशेषताओं के लिए जाने जाते थे जिनमें विद्यार्थियों को धर्म, दर्शन, शास्त्र, योग, व्यायाम, शारीरिक श्रम, खेल, निशाना साधना और विभिन्न कलाओं में प्रशिक्षित किया जाता था। शिक्षा का स्वरूप मौखिक होता था, विद्यार्थी गुरु के आश्रम में रहकर सभी प्रकार के कार्य करते थे जिससे आत्म-निर्भरता की भावना विकसित होती थी। तपोस्थली में सभा, सम्मेलन एवं प्रवचन होते थे जबकि परिषद में विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा देने की व्यवस्था की जाती थी। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य चरित्र का निर्माण, धार्मिकता तथा आध्यात्मिकता आदि पर आधारित भावनाओं को उन्नत करना था।
विद्या सभी बंधनों से मुक्त का साधन
गुरु विद्यार्थियों में ‘ईश्वर की भक्ति, धार्मिकता की भावना, व्यक्तित्व का विकास, नागरिकता तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता में वृद्धि, राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण, स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति, आत्मानुशासन तथा प्रचार की दिशा में प्रेरित करते थे। ‘भारतीय संस्कृति में कहा गया है- सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो हमें सब बंधनों से मुक्त कर करती है। गुरूकुल का उद्देश्य बालक का शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक व आत्मिक सर्वागीण विकास करना है। स्वामी दयानंद के अनुसार- ‘शिक्षा वह है जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता व धर्म की प्रवृत्ति, जितेंद्रियतादि की वृद्धि हो और अविद्यादि दोष छूट जाएँ।’
मुख्यत: गुरु ही विद्यार्थियों के आदर्श रूप होते थे जिनसे प्रेरित विद्यार्थियों में संयम, गंभीरता तथा अनुशासित जीवन का निर्माण संभव था। इन कारणों से तत्कालीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली अत्यंत प्रशंसनीय और आदर से परिपूर्ण थी। गुरुकुलों के ही विकसित रूप यथा; नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला और वल्लभी के सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय थे। तक्षशिला के प्रसिद्ध विद्यार्थियों में से एक विश्वविख्यात वैयाकरण पाणिनि थे। वह भाषा और व्याकरण के विशेषज्ञ बन गए और उन्होंने प्रसिद्ध पुस्तक ‘अष्टाध्यायी’लिखी। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का सर्वप्रथम उल्लेख वेदों और उपनिषदों में था। शिक्षा की प्रणाली प्राचीनकाल से ही अस्तित्व में थी। इतिहास में गुप्तकाल भारत का ‘स्वर्णिम’काल माना गया है क्योंकि खगोल विज्ञान की सबसे अधिक जानकारी इसी काल में हुई थी। इस काल में मुद्रा का विकास हुआ, राजतंत्र को उत्तरदाई बनाने के लिए संहिताओं का विकास हुआ, गायन व वाद्य यंत्र और विधाएँ साकार हुई, वास्तुशास्त्र और कला विकसित हुईं। सर्वथा, समाजिक सरोकारों के बदलने से शिक्षा के मापदंड भी बदलते रहते हैं।
पतंजलि के शिक्षण संस्थानों में आधुनिकता के साथ प्राचीन गुरुकुलीय व्यवस्था का समावेश
आज भी भारत में ऐसे गुरुकुल व्यवस्थित हैं जो आधुनिक शिक्षा पद्धति को अपनाते हुए गुरुकुल की प्राचीन परंपराओं को बनाए हुए हैं। प्राचीन गुरुकुलों की संकल्पना से पूरित पतंजलि के शिक्षण संस्थान हैं जहाँ गुरुकुल पद्धति के आधार पर आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ वेदों, शास्त्रों, ध्यान, योग और अन्य मानकों के साथ कई प्रकार की प्राचीन विधाएँ सिखाई जाती हैं। हरिद्वार के आवासीय शैक्षणिक संस्थान आचार्यकुलम् में गुरुकुल पद्धति पर आधारित वैदिक शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा और भारतीय संस्कृति से उन्मुख ऐसी पीढ़ी का चहुँमुखी विकास किया जा रहा है जो विकसित भारत को नवीन दिशा देने को उद्धृत है।
सार रूप में, कहा जा सकता है कि आज के परिवेश में खोते जा रहे मानवीय मूल्यों के संदर्भ में गुरुकुलम् व्यवस्था की प्रासंगिकता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि यह जीवन के सभी पड़ावों का बोध कराती है, विद्यार्थी को संयमित करते हुए जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। भारतीय सनातन संस्कृति एक संतुलित शिक्षा के महत्त्व पर बल देती है जो योग, दर्शन, अध्यात्म, कला, शास्त्रों, शारीरिक प्रशिक्षण और नैतिक आचरण के अध्ययन को एकीकृत करती है। गुरु-शिष्य को कुलवाहक मानकर शिक्षा के क्षेत्र में जिन शैक्षिक उद्देश्यों और आदर्शों को निर्धारित किया गया, वह हजारों वर्षों के उपरांत भी आज के युग में किसी न किसी रूप में स्वीकार्य हैं।
अत: ‘हमारी शिक्षा का आधार भारतीय अथवा राष्ट्रीय होना चाहिए।’