संस्कृत विश्व की प्राचीनतम् भाषा है, और वेद विश्व साहित्य की प्राचीनतम रचना। परम पिता परमात्मा ने मानव मात्र के कल्याण के लिए अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा नामक चार ऋषियों के पावन अन्त: करणों में चारों वेद प्रकाशित किये थे ऐसा हमारा विश्वास है। ‘सर्वज्ञानमयोहि स:’, ‘सर्व वेदात् प्रसिध्यति’, ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ आदि आप्त वचनों से यही सिद्ध होता है कि वेद रूपी महासागर में सभी प्रकार के उत्तमोत्तम रत्न विद्यमान हैं। वेद रूपी गंगोत्री से ज्ञान रूपी अमृत जल लेकर सतत प्रवाहमान भारतीय साहित्य रूपी सरिताओं में विविध ज्ञान रूपी सुधा सहोदर जल प्रचुर मात्रा में विद्यमान है, जिसका आचमन कर अनन्त आनन्द प्राप्त किया जा सकता है।
वैदिक वाघौमय एवं लौकिक संस्कृत साहित्य में संसार की समस्त विद्याएं तथा ज्ञान, विज्ञान की अनेकानेक धाराएं प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में प्रतिपादित हैं। ऋषिगण अपनी नीरक्षीर विवेकी विमल प्रज्ञा से संसार के गूढ़तम रहस्यों को हस्तामलकवत् देखने का सामथ्र्य रखते हैं।
भारत के सहस्रों सरस्वती शिशु मन्दिरों में प्रतिदिन उन महान् वैज्ञानिकों का नाम स्मरण किया जाता है जो विज्ञान के क्षेत्र में अद्भुत कार्य कर अमर हो गये-
वैज्ञानिकाश्च कपिल: कणाद: सुश्रुतस्तथा।
चरको भास्कराचार्यो वराहमिहिर: सुधी:।।
नागार्जुनो भरद्वाज आर्यभट्टो वसुर्बुध:।
ध्येयो वेंकटरामश्च विज्ञा रामानुजादय:।।
साहित्य, संगीत, कला और विज्ञान का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जिसमें हमारे प्रात: स्मरणीय ऋषिकल्प साहित्यकारों, संगीतज्ञों, कलाकोविदों एवं वैज्ञानिकों की नेत्र दीपक उपलब्धियाँ न रही हों।
शून्य की देन
शून्य का आविष्कार भारतीयों ने किया। इस शून्य के बिना आज गणित एक पग आगे बढ़ ही नहीं सकता। 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, फिर एक शून्य के लगाने से वह एक दस हो जाता है, दो शून्य लगाने से सौ, फिर एक हजार, पुन दस हजार, बढ़ता ही जाता है। यूरोप में 15-16वीं शताब्दी से पूर्व इस पर कोई कार्य हुआ नहीं था, जबकि हमारे वेदों में ही इस शून्य का उल्लेख है।
गणितज्ञों की इस महान् परम्परा में शंकराचार्य स्वामी श्री कृष्णतीर्थ जी भारती का नाम अत्यन्त आदर पूर्वक लिया जाता है।
जिनकी ‘वैदिक मैथेमैटिक्स’अत्यन्त लोकप्रिय रचना है।
महान् गणितज्ञ आर्य भट्ट ने चौथी शताब्दी में रेडियस, उसका डायमीटर और पाई रेशो का प्रतिपादन किया है। इन्होंने पाई रोशो का मूल्य 3-14159256 कहा है। इतने दशमलव प्वाइन्ट्स तक उन्होंने उत्तर दिया है। ये सब कैसे किया होगा। डायमीटर खींचा होगा और उसको मापा होगा। आज गणित के क्षेत्र में सभी लोग इस रेशो को जानते हैं, किन्तु आर्यभट्ट ने चौथी शताब्दी में यह कैसे निकाला होगा, बहुत आश्चर्य का विषय है।
वेदाङ्ग साहित्य के अन्र्तगत शुल्ब सूत्रों में व्यापक रूप में वर्णित ज्यामिती का विशद ज्ञान हमें विस्मित कर देता है। इस दृष्टि से बोधायन शुल्ब सूत्र अत्यन्त प्रसिद्ध है। जिसको वर्तमान समय में पैथागोरस प्रमेय कहते हैं और जो उसी के नाम से चल रही है, वस्तुत: पैथागोरस से दो सौ वर्ष पूर्व हमारे देश में वहीं प्रमेय बोधायन सूत्र के नाम से प्रख्यात था। समकोणों के दोनों ओर की इन भुजाओं के स्क्वेयर करने पर और उसका जोड़ हाईपॉट न्यूज के स्क्वेयर के बराबर होता है।
यह बोधायन सूत्र में बताया गया है। यज्ञ की वेदियां बनाते समय उनके स्वरूप और आकार भिन्न-भिन्न प्रकार के रखे जाते थे। इन वेदियों के निर्माण में बोधायन सूत्र का व्यापक प्रयोग होता था।
गणित के क्षेत्र में प्राचीन गणितज्ञों ने जो कार्य किया वह आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रहा है।
विश्व के प्रथम शल्य चिकित्सक सुश्रुत
सोलहवीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में हार्वे ने यह खोज की कि रक्त का शरीर में संचरण कैसे होता है, यह कैसे चलता है। भारत में 2500 वर्ष पूर्व ही सुश्रुत चरक ने इन सारी क्रियाओं का विशद् वर्णन कर दिया था। उनकी सुश्रुत संहिता में शल्यक्रिया में प्रयोग किये जाने वाले- चाकू, कैंची, चिमटा आदि उपकरणों का वर्णन प्राप्त होता है। सुश्रुत ने उस काल में ऐसी शल्य-क्रियाएं की थी, जिन्हें पढक़र आश्चर्य होता है। उस समय प्लास्टिक सर्जरी बहुत उन्नत अवस्था में थी। युद्धों में घायल हो जाने वाले सैनिकों पर इसका प्रयोग किया जाता था। जिन सैनिकों के कान, नाक आदि युद्ध में कट जाते थे, प्लास्टिक सर्जरी से उसे ठीक कर लिया जाता था।
चरक संहिता में नाना प्रकार की औषधियों का उल्लेख किया गया है, कहीं सर्पगन्धा, अश्वगन्धा, पुनर्नवा आदि न जाने कैसी अद्भुत औषधियों की जानकारी दी गई है। नींद लाने के लिए सर्पगन्धा का प्रयोग किया जाता था। मन और मस्तिष्क में शान्ति लाने के लिए भी उसको उपयोग में लाया जाता था। आज विदेशों में जो अनेक प्रकार की औषधियों का निर्माण किया जा रहा है, वह भारतीय औषधि विज्ञान के आधार पर ही हो रहा है।
अणु विज्ञान
भारतीय दर्शनों में महर्षि कपिल मुनि ने सांख्य दर्शन में 25 तत्वों का वर्णन कर सृष्टि-उत्पत्ति के अन्र्तगत मानव-सृष्टि का सुन्दर चित्रण किया है तो वैशेषिक के रचयिता महर्षि कणाद ने 600 ई-पू- परमाणुवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए बताया कि परमाणु अविभाज्य तथा दिक् रहित है। पदार्थों के सात विभाजन में वैशेषिक दर्शन में यह स्पष्ट किया गया है कि पदार्थों के विशेष गुण विश्व की वस्तुओं के परिचायक हैं- आज के वैज्ञानिक इस सिद्धान्त को इस प्रकार कहते हैं- Spectrum is the Language of atoms. हम कह सकते हैं कि परमाणुवाद का सिद्धान्त प्राचीन काल के संस्कृतज्ञों की देन है।
इसी तरह पीलुपाक सिद्धान्त भी महर्षि कणाद द्वारा प्रतिपादित है। इसका आधार आधुनिक भौतिकी Kinetic Theory of Gases है। कणाद के समान ही इसमें कहा गया है कि Molecule पहले टूटता है, फिर उसमें ऊष्मा (Heat ) का प्रवेश होता है। तत्पश्चात पूर्ण रूप में आ जाता है। आज के वैज्ञानिक इसमें Thermo-dynamic Theory का प्रयोग बताते हैं।
आज से हजारों वर्ष पूर्व सूर्य-सिद्धान्त नामक ग्रन्थ में गुरुत्वाकर्षण का विशद विवेचन उपलब्ध होता है। जैसे- नोद बिन्दु (Nodepoint) पर बैठे अदृश्य देवता ग्रहों को अदृश्य रश्मि से खींचते हैं-
‘अदृश्यरूपा: कालस्य मूर्तयो भगणाश्रिता:।’भास्कराचार्य ने 1150 ई- में अपने ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि में पृथ्वी पर स्थित वस्तुओं पर गुरुत्वाकर्षण के लागू होने का विवेचन किया है। पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। इस शक्ति से आकाश की ओर फेंका हुआ पदार्थ पृथ्वी पर गिरता हुआ सा प्रतीत होता है। वास्तविकता यह है कि पृथ्वी इसे अपनी ओर खींचती है क्योंकि आकाश सब ओर सम रूप में विद्यमान है। दर्शन के प्रसिद्ध ग्रन्थ तर्कसंग्रह (16वीं शताब्दी) में स्पष्ट रूप से कहा गया है- ‘आद्यपतनाऽसमवायिकारणत्वं गुरुत्वम्। पाश्चात्य जगत में आधुनिक वैज्ञानिक न्यूटन (1652-1727 ई-) ने जिस गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, उसका उल्लेख आकर्षण शक्ति के रूप में सैकड़ों वर्ष पूर्व संस्कृत साहित्य में विद्यमान है।
आचार्य पिघौल (दूसरी शताब्दी ई. पू.) के छन्द: सूत्र में ‘प्रस्तार-पद्धति’का विवेचन है, जिसका प्रयोग कम्प्यूटर सहित अनेक वैज्ञानिक प्रक्रियाओं में होता है। यह आधुनिक गणित का Pascal’s Triangle है। आधुनिक कम्प्यूटर विज्ञान की N.L.P. 'Natural Language Processing' सम्बन्धी अवधारणा मुख्यत: संस्कृत व्याकरण शास्त्र के सिद्धान्तों पर आधारित है।
सृष्टि उत्पत्ति के सम्बन्ध में ऋग्वेद का नासदीय सूक्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सूक्त का प्रथम मन्त्र ही देख लें-
नासदासीत् नो सदासीत् तदानीम्,
नासीद् रजो नो व्योमापरो यत्।
किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्,
अम्भ: किमासीद् गहनम् गभीरम्।। ऋग् 10-129-1
विश्व उत्पन्न होने से पूर्व सत् नहीं था। सत् का अर्थ जो पदार्थ विद्यमान हैं, वे सब। आज का कोई भी पदार्थ उस समय अस्तित्व में नहीं था। असत् अर्थात् जो कभी भी नहीं होता है। आज के सब विद्यमान पदार्थ- आकाश, वायु, जल, सूर्य, पृथ्वी इत्यादि सत् हैं।
प्रथम ‘सत्’शब्द का निर्माण हुआ और उसे ‘अ’यह नकारात्मक उप-पद लगाकर ‘असत्’शब्द निर्मित हुआ। सत् वस्तु की कल्पना किये बिना असत् वस्तु का निर्माण नहीं हो सकता। अश्व सत् है तो उडऩे वाला अश्व असत् है। विश्वोत्पत्ति से पूर्व इस प्रकार की सत् या असत् कोई भी वस्तु अस्तित्व में नहीं थी।
उस समय ‘रज’(लोक) नहीं था। अपना भूलोक सर्वपरिचित है इससे ‘लोक’का अर्थ-स्पष्ट होता है कि जहां केवल लोक यानि सजीव प्राणी रह सकते हैं। सजीव प्राणी विद्यमान रहने के लिए एक पृथ्वी समान ग्रह तथा एक ऊर्जा देने वाला सूर्य आवश्यक है। सूर्य तथा ग्रह को मिलाकर सूर्यमाला बनती है। सूर्य माला के लिए यहां लोक शब्द प्रयुक्तहै। इस प्रकार के लोक या सूर्यमाला विश्वोत्पत्ति के समय नहीं थे। इस चिन्तन को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है।
‘रज’का अर्थ कण भी होता है। विश्व की उत्पत्ति से पूर्व कोई भी कण (Particles) विद्यमान नहीं था, इस वेद विज्ञान को आज का विज्ञान भी मान्यता प्रदान करता है।
विश्वोत्पत्ति के समय आकाश नहीं था, ऐसा ऋषि कहते हैं जबकि आधुनिक विज्ञान ने इस पर अपना कोई विचार व्यक्त नहीं किया है। वे सब आकाश तथा एक मूल वायु का अस्तित्व मानकर आगे विचार करते हैं। इससे यह भी ध्वनित होता है कि आज का विज्ञान, जहां तक नहीं पहुंच सका है, वहां तक हमारे ऋषि-वैज्ञानिक पहुंच चुके थे।
इस प्रकार नासदीय सूक्त की समस्त ऋचाओं पर गम्भीर चिन्तन करने से अनेक रहस्य उद्घाटित हो सकते हैं।
महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में जहाँ विविध विषयों का विवेचन किया है, वहां कतिपय वैज्ञानिक विषयों का भी विवेचन प्रस्तुत किया है। यथा- पृथिव्यादिलोकभ्रमण-विषय, आकर्षणानुकर्षण-विषय:, तारविद्या-विषय:, वैद्यकशास्त्रमूल विषय: आदि।
वेदों में कुत्रचित् विस्तार से तथा क्वचित् संक्षेप में विज्ञान पर प्रकाश डाला गया है। यथा-
सूर्य चन्द्रमा को प्रकाश देता है। सूर्य की सुषुम्ण नामक किरण चन्द्रमा को प्रकाशित करती है। निरूक्तकार यास्क ने भी इस तथ्य को स्पष्ट किया है- सुषुम्ण: सूर्यरश्मिचन्द्रमा गन्धर्व:। (यजु- 18-40)
अथापि अस्यैको रश्मिश्चन्द्रमसं प्रति दीव्यते। (निरूक्त2-6)
सूर्य की ऊर्जा का आधार सोम (Hydrogen, Helium) हाइड्रोजन है। ‘सोमेनादित्या बलिन:’ (अथर्व 14-1-2)
यजुर्वेद में जल के रस का रस सूर्य में बताया गया है। यह हाईड्रोजन के सूक्ष्मतम रूप हिलियम (Helium) की सत्ता सूर्य में बताता है।
यजुर्वेद में इस वैज्ञानिक तथ्य का उल्लेख किया गया है कि पृथ्वी ही अपने कक्ष में नहीं घूमती है, अपितु सूर्य भी अपने कक्ष में चक्कर काटता है। सारा संसार ही घूम रहा है।-
समाववर्ति पृथिवी समुषा: समु सूर्य:। समु विश्वमिदं जगत् (यजु- 20-23)
सूर्य सम्पूर्ण चर और अचर जगत् की आत्मा है। सूर्य ही इस शक्ति का स्रोत है-
‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। (अथर्व- 13-2-35)
जल के विषय में कहा गया है कि इसमें अग्नि (Oxygen) और सोम (Hydrogen) दोनों तत्व मिले हुए हैं।
वनस्पति शास्त्र का एक महत्वपूर्ण सूत्र अथर्ववेद में प्राप्त होता है। जीवन रक्षकतत्व (Chiorophyll) के द्वारा वृक्ष-वनस्पतियों में हरियाली होती है-
अविवैनाम देवता ऋतेनास्ते परीवृता।
तस्या रूपेण मे वृक्षा हरिता हरितस्रज।।(अथर्व- 10-8-31)
महर्षि भारद्वाज के ‘यन्त्रसर्वस्व’ग्रन्थ के ‘वैमानिक प्रकरण’में विमानों के निर्माण एवं उनके विविध यन्त्रों का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में विमान विद्या विषयक अनेक ग्रन्थ विद्यमान थे। बृहद् विमान शास्त्र का निम्नलिखित सन्दर्भ इस विषय का संकेत करता है-
नारायण: शौनकश्च गर्गो वाचस्पतिस्तथा।
चाक्रायणिर्धुण्डिनाथश्चेति शास्त्रकृत: स्वयम्।।
विमान चन्द्रिका व्योमयान तन्त्र स्तथैव च।
यन्त्रकल्पो यान बिन्दु: खेटयान प्रदीपिका।।
व्योमयानार्क प्रकाशश्चेति शास्त्रणि षट् क्रमात्।
नारायणादिमुनिभि: प्रोक्तानि ज्ञानवित्तमै:।।
बृहद विमानशास्त्र 1, 34-36
इनके अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि ये विमान पृथ्वी, जल और अन्तरिक्ष में समान रूप से चल सकते थे और इनके द्वारा देश-देशान्तर, द्वीप-द्वीपान्तर और विभिन्न लोकों की यात्रा की जा सकती थी।
महर्षि भारद्वाज ने यह भी स्वीकार किया है कि उन्हें यह विद्या वेदाध्ययन से प्राप्त हुई थी-
त्रयी हृदय-सन्दोह-साररूपं सुखप्रदम्।
अनायासाद् व्योम यान-स्वरूप-ज्ञान-साधनम्।।
वैमानिक प्रकरणं कथ्यतेऽस्मिन् यथा विधि।।
बृहदविमानशास्त्रम्, मंगलाचरणम्।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में ‘महानउल्ब’ शब्द के द्वारा विशाल ओजोन परत (Ozone Layer) का संकेत किया गया है। गर्भ के ऊपर की झिल्ली या जेर को उल्ब कहते हैं। जैसे यह गर्भस्थ बालक का संरक्षण करती है, उसी प्रकार यह ‘महान् उल्ब’(ओजोन की परत) विश्व की रक्षा करती है। अथर्ववेद में इसका रंग सुनहरा (हिरण रूप) माना गया है। ऋग्वेद में इसी को व्यापक और मोटी परत कहा गया है, इसके द्वारा जलीय वातावरण का नियन्त्रण होता है।
महत् तदुल्बं स्थविरं तदासीद्येनाविष्ठित: प्राविवेशिथाप:। ऋग्वेद- 10.51.1
आपो वत्सं जनयन्तीगर्भमग्रे समेरयन् तस्योत जायमानस्योल्ब आसीद् हिरण्यय:।
अथर्व 4.2.8
आधुनिक विज्ञान के अनुसार यह ओजोन की परत भूतल से 15 से 30 कि.मी. की ऊँचाई पर है। यह सूर्य की अल्ट्रा वायरलेस्ट किरणों को आत्मसात कर लेती है, जोकि वृक्ष-वनस्पतियों के लिए अत्यन्त घातक होती हैं। ओजोन जल और वायु को शुद्ध करता है।
वैदिक एवं लौकिक प्राचीन संस्कृत साहित्य में भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, अभियान्त्रिकी, वास्तु, कृषि, वाणिज्य, राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन, समाजशाास्त्र, शिक्षाशास्त्र आदि का सुन्दर, विशद् विवेचन किया गया है। पर्यावरण के साथ यज्ञ विज्ञान, जल विज्ञान तथा उपवन विज्ञान के सम्बन्ध में किया गया सूक्ष्म चिन्तन हमें विस्मित और आनन्दित कर देता है। पुत्रेष्टि यज्ञ तथा वर्षेष्टि यज्ञ, हमारे प्रात: स्मरणीय प्राचीन आचार्यों की विश्व को अनुपम देन है। ज्ञान, विज्ञान का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें इस देश के ऋषि-मुनियों ने महान योगदान न किया है। समय की पुकार है कि संस्कृत के विद्वान् आधुनिक विज्ञान के प्रामाणिक विद्वानों के साथ मिलकर नव अनुसन्धान के द्वारा सुख, शान्ति और समृद्धि का मार्ग प्रदर्शित करें।