मानसिक स्वास्थ्य आजकल की भौतिक जीवनशैली में एक महत्वपूर्ण विषय है, जिसे अक्सर नजऱअंदाज कर दिया जाता हैँ यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उम्र, लिंग या पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना किसी को भी प्रभावित कर सकते हैं जो हल्के से लेकर गंभीर समस्यायें बन जाती है।
मानसिक अस्वास्थ्य की अवस्था में तनाव, कार्य के प्रति असक्रियता, उत्साह की कमी, नकारात्मक विचारों का चिंतन, व्यसनो या नशीलें पदार्थो का सेवन जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
उपरोक्त संदर्भ में तुलसीदास जी द्वारा रामचरित मानस में काक भूशुण्डी जी द्वारा गरुण के मोह रूपी अस्वस्थ्यता का नाश कथानंज के माध्यम से इस प्रकार से बताया है-मोह रूपी अज्ञानता के वशीभूत हो गरुण जी समाधान हेतू शंकर जी के निर्देश पर काक भूशुण्डी के पास जाकर अपनी समस्या प्रकट करते हुए कहते है-
मानस रोग कहहु समुझाई।
तुम सर्वगय कृपा अधिकाई।।
तात सुनहु अति प्रीति।
में संक्षेप कहहुँ यह नीती।।
रामचरितमानस (उत्तर काण्ड १२० ख-४)
हे सर्वज्ञ मेरे ऊपर कृपा कर मुझे इस मानस रोग का संक्षेप विवरण करें जो लोक में चरितार्थ अज्ञानता के रूप में मुझ में व्याप्त हो बैठा है तब भूशुण्डी जी समाधान रूपी तत्व को इस प्रकार कहते है।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहि बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
राम चरित्र मानस (उत्तरकाण्ड १२० ख-१५)
मोह रूपी अज्ञानता ही सभी रोगों का मूल है जिनके कारण व्यक्ति को ईर्ष्या, हर्ष विषाद, अहंकार, कपट, तृष्णा, अविवेक मत्सर जैसे अनेक लक्षणों द्वारा जाना जा सकता है जिनमें विशेष रूप से काम को वात से, लोभ को कफ से और क्रोध के पित्त से तुलना कर देखा जा सकता है।
कुछ ऐसा ही संदर्भ आयुर्वेद शास्त्र के मनीषियों ने रोगों की उत्पत्ति में प्रज्ञापराध रूपी कारणों का एवं दोषों की साधर्मता का उल्लेख किया है जो इन्ही तथ्यों की व्यापकता का द्योतक है।
काल बुद्धीन्द्रियार्धानां योगो मिथ्या न चाति च।
द्वयाश्रयाणां व्याधीनां त्रिविधो हेतु संग्रह:।।
(च.सू. १/५४)
काल (उचित समय या परिणाम), बुद्धि(प्रज्ञा, उचित, श्रेष्ठ ज्ञान) और इन्द्रियार्थ उनका मिथ्यायोग, अयोग और अतियोग होना ही शरीर या मन में होने वाले सभी रोगों के संक्षेप में तीन कारण हैं, यत्र तत्र संहिताओं में इन मानस विकारों का वर्णन मिलता है जो भौतिक रूप से आज जगत में अवसाद, आत्महत्या, ज्ञान की अल्पज्ञता इत्यादि मानसिक समस्याओं का कारण है।
आगे इन्हीं समस्याओं का समाधान करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते है-
राम कृपाँ नासाहिं सब रोगा।
जो एहि भाँति बने संजोगा।।
सद्गुरु वैद्य बचन बिस्वासा।
संजम यह न विषय के आसा।।
रामचरित मानस (उत्तरकाण्ड १२१ ख-३)
राम जी की कृपा से जब संयोग होता है और सद्गुरु के वचनों पर विश्वास, विषयो में आशक्ति न होना और संयम रखना इनका संयोग होता है तो ये सभी रोगों का नाश होता है। इसी प्रसंग में औषध के साथ दी जाने वाली विधि के तहत अनुपान एवं उसकी व्यापकता इस प्रकार कहते है-
रघुपति भगति सजीवन मूरी।
अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।
राम चरित्र मानस
(उत्तरकाण्ड १२१ ख-४)
श्री रघुनाथ जी भक्ति संजीवनी रूप है जिसको की श्रद्धा रूपी अनुपान के साथ सेवन करना चाहिए जो करोड़ो प्रयत्न करने पर भी नष्ट न होने वाले मानसिक विकारों का नाश कर देती है। इसी दुर्लभ चिकित्सा का परिवर्तित स्वरूप का वर्णन करते हुए सूत्र रूप में तुलसीदास कहते है।
दैहिक देविक भौतिक तापा।
राम राज नहि काहुहि ब्यापा।।
जो राम जी के राज में दैहिक, दैविक एवं भौतिक किसी भी प्रकार के ताप अर्थात रोग का अस्तित्व नहीं रहता है। क्योंकि चिकित्सीय दृष्टिकोण से राम का नाम त्रिदोषहनता का द्योतक है साथ ही राम नाम संजीवनी दैव्यापाश्रय चिकित्सा का अधिकरण क्षेत्र है जो सम्यक् ज्ञान का प्रकाश कर काम रूपी इच्छाओं से उत्पन्न व्याधि का नाश करने वाली है।
इसकी प्रशंसा में तुलसीदास जी तो यहाँ तक कहते है कि-
एहिं कलिकाल न साधन दूजा।
जागे जग्य जप तप व्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि।
संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।
रामचरित मानस
(उत्तरकाण्ड १२९-३)
इस कलयुग में योग, यज्ञ, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस श्रीराम जी का ही स्मरण करना, श्रीराम जी का ही गुणगान करना और उन्हें गुण-समूहों को सुनना यही संसार एवं व्याधि स्वरूप भवसागर से तारने का उपाय है।
गोस्वामी जी ने तो हनुमान चालीसा में राम-नाम की व्यापकता को रसायन रूप में हनुमान जी को कहा है कि-
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा।।
हनुमान चालीसा
अर्थात राम रूपी रसायन जो नित्य सेवन पर जरा, व्याधि रूपी विकारों का नाश करने वाला है तो राम जी की भक्ति और उनका नाम है जो सदैव श्रद्धा पूर्वक राम की भक्ति से ही प्राप्त हो सकता है । अत: भौतिकता की इस दौड़ में काम, क्रोध, लोभ, मोह रूपी विकारों से उत्पन्न मानसिक रोगों का अपूर्णभव राम नाम रूपी संजीवनी के द्वारा ही संभव है इसलिए-
मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी।।
रामचरित मानस (उत्तरकाण्ड ९-१)
इस चौपाई का मूल ग्रहण कर जो मंगल को देने वाले और अमंगल को दूर करने वाले है वो दशरथ नंदन श्रीराम है वो मुझ पर कृपा करें और इस व्याधिस्वरूप अज्ञानता का राम रूपी ज्ञान से नाश कर दें।
इसी अवधारणा के साथ राम का नाम राम से बड़ा है तो उसका सुमिरन कर संजीवनी का लाभ लें और निरोग रहे। क्योंकि प्रज्ञापराध रूपी अज्ञानता का नाश सतसंग नामक आनन्द और कल्याण से ही संभव है जो राम जी की कृपा के बिना सुलभ नहीं है तो अज्ञानता का नाश कर सतसंग राम का करें और अर्थ रूपी कार्यो का सम्पादन कर मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल करें।
।।जय सिया राम। जय-जय राम।।