हम सभी अपना-अपना विकास/उत्कर्ष चाहते हैं पर प्राय: यह देखा जाता है कि यह विकास एकांगी स्वरूप का होता है। अपने व्यक्तित्व का हर आयाम में विकास ही कहलाता है - समग्र विकास (Holistic Development of Personality) लेकिन हममें से सीमित संख्या में ही लोग अपने व्यक्तित्व के समग्र विकास की दिशा में बढ़ पाते हैं। व्यक्तित्व के समग्र विकास का दर्शन हमें महापुरुषों, तपस्वियों, योगियों के जीवन में मिलता है। इनका व्यक्तित्व एक दिशा में नहीं वरन् सभी सम्भावित दिशाओं में विकसित होता है, बहुआयामी होता है। व्यक्तित्व विकास के लिए हम इन महापुरुषों, शहीदों, संत-सुधारकों के जीवन की तरफ नहीं देखते हैं, उनकी जीवनी, उनके विराट व्यक्तित्व एवं कृतित्व को नहीं समझते हैं। इसकी जगह हम व्यक्तित्व निर्माण कार्यशाला (Personality Development Workshop) में प्रवेश लेकर कुछ समय में ही अपने व्यक्तित्व के समग्र विकास का इरादा पाले बैठते हैं। यह भी एक हद तक तो ठीक है पर सच यह है कि विकास हमेशा ‘स्व’से ही प्रारम्भ होता है। दूसरे तो हमें दिशा बता सकते हैं, पर अभ्यास तो स्वयं को ही करना पड़ता है।
आपने सुना होगा - ‘इस्पात बनने के लिए लोहे को सर्वोच्च ताप से होकर गुजरना पड़ता है’
(The Steel has to pass through the hottest fire) । साधारण लोहा तपता है, पिटता है और फिर मजबूत इस्पात बन जाता है जिससे बनी पटरी पर हजारों-लाखों क्विन्टल वजनदार मालगाड़ी/रेलगाड़ी भी गुजर जाती है। गुरुकुल में तपकर एवं श्रेष्ठ गुरुओं के मार्गदर्शन में ही राम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ और कृष्ण ‘योगेश्वर’बने। भारतीय मनीषी विद्या-केन्द्रों ‘गुरुकुल’में; नालन्दा, विक्रशिला, तक्षशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों को मानव उत्कर्ष के उद्देश्य से निम्न सूत्रों का दीर्घकालिक प्रशिक्षण दिया करते थे, जिनका संक्षिप्त वर्णन अग्रांकित है-
1. योगमय जीवन-शैली तथा आध्यात्मिक दृष्टि
(Yogic life-style and spiritual insight):
इसका आशय जीवन का ठीक-ठीक एवं संपूर्ण समझ से है। इसका अर्थ स्वयं की विशेषताओं को अनुभव करना तथा स्वयं की अन्त:शक्तियों के सही नियोजन के तौर-तरीकों को जानना भी है। इसके अतिरिक्त अपनी अंतश्चेतना का सतत परिशोधन कर नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मक दृष्टि बनाए रखना है ताकि विभिन्न तरह की मनोग्रंथियाँ एवं कुण्ठाएँ हमें अपने कुचक्र में न उलझा सकें।
इसके लिए भी निरन्तर आत्म-निरीक्षण (Self introspection) आवश्यक है। नियमित आत्म-निरीक्षण से ही एक व्यक्ति अपनी क्षमताओं को, सकारात्मक शीलगुणों को पहचान सकता है। इसके साथ ही वह अपने व्यक्तित्व के दोषों व सीमाओं को भी जान सकता है और क्रमश: विभिन्न अभ्यास से इसे कम कर अपनी क्षमताओं को और विकसित कर सकता है। निरन्तर आत्म-निरीक्षण व स्वाध्याय से विवेक (Right understanding) का भी जागरण/विकास होता है। विवेक अर्थात् सही समझ का विकसित होना-क्या सही है और क्या गलत है, का ठीक-ठीक समझ होना। सही-गलत में भेद करने के बाद सही का चुनाव करना विवेक जागरण का ही प्रतिफल है।
भावना जब उत्कृष्ट होती है तो यह भक्ति बन जाती है। श्रद्धा, प्रेम, उदारता, प्रफुल्लता, साहस, उत्साह, आशा आदि के रूप में यह उत्कृष्ट भावना ही दिखाई देती है। जब यह गिरती है तो फिर वासना बन जाती है। निम्न स्तरीय भावनाएँ ही दु:ख, तनाव, उद्वेग, घृणा, संदेह आदि को जन्म देती हैं और आस-पास के वातावरण को भी नर्क-सा बनाती है। महान दार्शनिक अरस्तू ने भी स्वीकारा था कि भावनाओं का शरीर पर उसी प्रकार अधिपत्य रहता है, जिस तरह स्वामी का अपने सेवक पर। इससे स्पष्ट है कि जिस प्रकार अस्थिर एवं कमजोर स्वामी अपने सेवक को आदेश नहीं दे सकता, उसी प्रकार भावनात्मक रूप से अपरिपक्व व्यक्ति भीतर से कमजोर होकर खुद पर ही नियंत्रण करने में समर्थ नहीं रहता। आध्यात्मिक दृष्टि का तात्पर्य समग्र दृष्टि (Inclusive vision) से भी है। हमारी दृष्टि दूरदर्शी हो, एकांगी न हो, हमारा दृष्टिकोण विशाल तथा विकसित हो।
2. विकल्प रहित संकल्प
(Ultimate determination) से मनोन्नयन
किसी भी कार्य में सफलता के लिए संकल्पित होना जरूरी है। संकल्प हमेशा सोच-समझकर व गहन चिंतन के बाद लिया गया हो ताकि विकल्प का कोई स्थान न बचे। हम अपने कार्य को प्रारम्भ तो करते हैं पर इससे मिलने वाले लाभ-हानि में उलझकर उसे या तो मध्य में छोड़ देते हैं या अंजाम तक पहुँचने के पूर्व ही। हमें सोचना चाहिए कि हमारे संकल्प का स्तर, इसकी तीव्रता कितनी है कि आखिर हम सफलता से पूर्व ही, सिद्धि से पूर्व ही अनेक विकल्पों के विषय में सोचने लगते हैं? विद्या-केन्द्रों में कक्षा प्रारम्भ होने के पूर्व दीक्षारम्भ के समय ही गुरु अपने विद्यार्थियों को विकल्प रहित संकल्प की विषद् व्याख्या के साथ ही मानव उत्कर्ष में इसकी भूमिका पर प्रकाश डालते थे। ‘विकल्प रहित संकल्प’ही ‘शुभ संकल्प’या ‘शिव संकल्प’है तथा यह मन के उन्नयन हेतु आवश्यक अभ्यास है।
3. अखण्ड-प्रचण्ड पुरुषार्थ (Spontaneous effort)
से शत-प्रतिशत सफलता:
अपने लक्ष्य को पाने, संकल्प की पूर्ति करने के लिए हमें जागरूकता के साथ सही दिशा में पूरी ऊर्जा लगाकर पुरूषार्थ करने की आवश्यकता होती है। यह भी सफलता व मानवीय उत्कर्ष का महत्वपूर्ण साधन है तभी तो योगऋषि स्वामी जी व श्रद्धेय आचार्यश्री अपने विद्यार्थियों, आचार्यों एवं कर्मयोगियों को समय-समय पर यह संकल्प कराते रहते हैं।
पुरुषार्थ का सम्बन्ध अभ्यास से है। वांछित सफलता के लिए निरन्तर अभ्यास (Continuous practice) आवश्यक है। गीता में ‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते (6/35)’ तथा पातंजल योगदर्शन में ‘अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध: (1/12)’ के माध्यम से अभ्यास की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
4. आत्म-अनुषासन एवं तपस्वी जीवन
(Self-discipline and ascetic life):
अनुशासन शब्द का अर्थ ‘व्यवस्थित’होने से भी है। वर्तमान (अर्वाचीन) अनुसंधान तो ज्यादातर मानव-निर्मित प्रयोगशाला की नियंत्रित परिस्थितियों में ही संचालित होते हैं पर ऋषि-मुनियों-योगियों-तपस्वियों का अनुसंधान तो स्वयं के जीवन की प्रयोगशाला में संपन्न हुआ करता था। उनके स्वयं का शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, आत्मा आदि प्रयोगशाला व अनुसंधान के उपकरण हुआ करते थे। वास्तव में रिसर्च (ऋषि-अर्चन) का वह स्वरूप काफी अनूठा रहा होगा।
योग मार्ग के पथिक को सर्वप्रथम अनुशासन सीखना ही चाहिए। गुरू/शिक्षक भी कक्षा में छात्र को विविध प्रयोगों के माध्यम से अनुशासित ही तो बनाता है ताकि वह भी पुष्पित-पल्लवित-विकसित हो सके, सुपात्र बन सके। योग साधक के लिए पात्रता उसी प्रकार आवश्यक है जैसे बीज डालने के लिए बंजर नहीं, उर्वर भूमि की जरूरत होती है। भारतीय मनीषी हमेशा पात्रता विकास की बात करते हैं, हमेशा मनोभूमि को उर्वर बनाने व इसे बढ़ाने के संन्दर्भ में मार्गदर्शन देते हैं।
क्रमबद्ध होना, लयबद्ध होना, सुव्यवस्थित होना, सिस्टेमेटिक होना, सचेत रहना, संतुलित रहना, संकल्पित होना - यही तो अनुशासन है। अनुशासन से परिपक्वता आती है। जिसके जीवन में, व्यक्तित्व के हर आयाम (भाव-विचार-व्यवहार) में संतुलन है, आत्म नियंत्रण है, वही योगी, उपयोगी व सहयोगी हो सकता है, योग के परम लक्ष्य ‘समाधि’ को प्राप्त कर सकता है।
मानव उत्कर्ष में तप की भी प्रबल भूमिका है। इन्द्रियों को अपने वश में रखना ही तप कहलाता है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ, जय-पराजय सभी परिस्थितियों में समान रहना तप है। जिन कार्यों से आध्यात्मिकता में वृद्धि हो, उसे तप कहते हैं। इसलिये ऐन्द्रिक सुखों से मुक्त जीवन, नियमित व्रत, मंत्र/नाम जप, कीर्तन, प्राणिमात्र की सेवा करना तप के अंग हैं। इससे मानवीय गुणों में वृद्धि होती है। तप के द्वारा शारीरिक तथा मानसिक कष्टों को झेलने की शक्ति का विकास होता है। इससे मन तथा शरीर के विकार का नाश होता है।
महर्षि पतंजलि ने ‘कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस:’ (2/43, योग दर्शन) के माध्यम से इसकी चर्चा की है। तप (स्वधर्म-पालन हेतु व्रत आदि करना या अन्य सभी प्रकार के कष्ट सहन करना) के प्रभाव से अशुद्धि का नाश होता है और शरीर- इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है। प्राचीन गुरुकुल के विद्यार्थियों में आत्म-अनुशासन व तपस्वी जैसा जीवन जीने की ललक होती थी।
5. नियमित प्राणायाम, जप व ध्यान से मन: प्रतिरोधक क्षमता (Psycho-immunity) का अभिवर्धन:
गुरुकुलीय परम्परा में विद्यार्थी व आचार्य मनो-शारीरिक स्वास्थ्य के लिए नियमित प्राणायाम, जप, ध्यान आदि का अभ्यास किया करते थे।
क) प्राणायाम (Breath regulation): प्राणशक्ति को आकर्षित-आमंत्रित करना ही प्राणायाम है जिसमें क्रमश: पूरक, अंत: कुम्भक, रेचक व बाह्य कुम्भक की प्रक्रिया करते हैं। इस प्रक्रिया के साथ यह भावना करते हैं कि हमारा शरीर प्राणवान हो रहा है तथा मन तेजस्वी हो रहा है। प्राणायाम के अभ्यास का न्यूरोट्रांसमीटर पर विधेयात्मक प्रभाव पड़ता है।
प्राणायाम की प्रक्रिया हाइपोथैलेमस को सक्रिय कर देती है। प्राणायाम के अभ्यास के दौरान नॉरएपिनेफ्रीन की मात्रा घट जाती है तथा रक्त में डोपामाइन की मात्रा बढ़ जाती है। डोपामाइन मस्तिष्क से स्रावित होने वाला न्यूरोट्रांसमीटर है जो प्रसन्नता के लिए उत्तरदायी है। मन पर नियंत्रण करने का कार्य प्राणायाम द्वारा ही सम्भव है। प्राणायाम के अभ्यास से प्रकाश (ज्ञान) का आवरण क्षीण हो जाता है (2/52, योग दर्शन) तथा मन में धारणा की योग्यता भी आती है (2/53, योग दर्शन )।
ख) जप (Mantra recitation): जप एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। जिस प्रकार खेत की बार-बार जुताई करने से खेत की उर्वराशक्ति बढ़ती है, उसी प्रकार मन को उर्वर बनाने के लिए, मनोभूमि में श्रेष्ठ संस्कार स्थापित करने के लिए जप की प्रक्रिया आवश्यक है। जप का मूल प्रयोजन है- श्रेष्ठता को बार-बार याद कर उन्हें अभ्यास का अंग बनाना। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- ‘यज्ञानांजपऽयज्ञोऽस्मि’अर्थात यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूँ। गुरुकुल में आज भी उपनयन संस्कार तथा प्रतिदिन गायत्री जप का विधान है। इससे अन्त:करण में सतोगुण एवं आत्मबल की वृद्धि होती है। आधुनिक विज्ञान ने भी यह सिद्ध किया है कि शब्दों और विचारों का अस्तित्व कभी नष्ट नहीं होता।
जप के समय व्यक्ति श्रेष्ठ विचारों का चिंतन करता है। सकारात्मक विचार हमारे मस्तिष्क (एमिगडाला) को प्रभावित करते हैं, जिसे भाव-संवेदनाओं का केन्द्र कहा जाता है, इससे हमारे अंदर संकल्प शक्ति व स्मृति शक्ति का विकास होता है। गायत्री जप से मानसिक क्षेत्र में सद्गुणों की वृद्धि होने लगती है तथा दोष-दुर्गुण कम होने लगते हैं अर्थात् व्यक्ति का मानसिक कायाकल्प हो जाता है जिससे व्यक्ति की मन: प्रतिरोधक क्षमता उच्च स्तर की होती है और व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य भी अच्छा होता है।
ग) ध्यान (Meditation): अपने चिन्तन प्रवाह को अवांछित दिशा से हटाकर सुनियोजित कर देना ही ध्यान है। अनुसंधानकत्र्ता, मूद्र्धन्य वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि ध्यान-साधना के अंतर्गत अनायास ही शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता में आमूलचूल वृद्धि होती है। ध्यान से समस्त मानसिक शक्तियाँ अभीष्ट दिशा में क्रियाशील हो जाती हैं जिससे साधक (अभ्यासी) के गुण, कर्म, स्वभाव, विचार आदि में तीव्र गति से परिवर्तन दिखाई देते हैं।
ध्यान के प्रयोग से हमारे विचार व भावनाएँ रूपान्तरित होती हैं। ध्यान आज के युग की सर्वाधिक प्रभावशाली आध्यात्मिक मनश्चिकित्सा है। ध्यान के अभ्यास से परानुकंपी सक्रियता बढ़ जाती है जो शरीर व मन को विश्रान्ति की अवस्था में ले जाता है तथा मानसिक संतुलन को बनाए रखता है। ध्यान से मन एकाग्र व शांत होता है तथा शांत व एकाग्र मन के द्वारा ही विभिन्न समस्याओं का हल संभव हो पाता है।
6. व्यक्तित्व विकास हेतु कर्मयोग
(Karmyoga for personality development):
प्रत्येक प्राणी अपने जीवन में निरंतर कर्म करता रहता है किन्तु कर्मयोग से तात्पर्य वैसे कार्यों से है जिन्हें व्यक्ति अपनी पूरी सजगता तथा विवेक (सही समझ के साथ) से करता है। कर्मयोग व्यक्ति को नि:स्वार्थ कर्म करने की प्रेरणा देता है। जब व्यक्ति अनासक्त होकर नि:स्वार्थ भाव से कर्म करता है तब उसके व्यक्तित्व में कई सद्गुण विकसित होते हैं- अहंकार या कर्तापन का परित्याग, समभाव, दक्षता, अपेक्षा का अभाव, त्याग, कर्मफल का ईश्वर को अर्पण व रूपान्तरण आदि।
कर्मयोग हमें सिखाता है कि (i) हम अपनी पूरी क्षमता से, पूर्ण मनोयोग से, उत्कृष्टतापूर्वक कार्य कैसे करें? तथा (ii) फल की चिंता से रहित होकर किस प्रकार कार्य करें? कर्म करना भी आवश्यक है और उसका कुछ-न-कुछ फल मिलना भी तय है। चाहे वह फल (परिणाम) हमारे लिए अच्छा हो या बुरा हो, मनोनुकूल हो या प्रतिकूल हो, सहायक या असहायक हो, शुभ हो या अशुभ हो। कर्म बीज के अनुरूप फल होगा ही। एक बात और है कि प्रत्येक कर्म के पीछे उसका कारण भी होता है तथा उसका फल (परिणाम) तो होता ही है। यानि प्रत्येक कर्म के पीछे कुछ-न-कुछ उद्देश्य होते हैं, चाहे वह विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ही क्यों न हो? सोद्देश्य व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक टॉलमैन के अनुसार, प्राणी कोई भी व्यवहार यूँ ही नहीं, बल्कि किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही करते हैं।
गीता में कर्मयोग (2/47) की अति सुंदर व्याख्या की गयी है -
अधिकार तुझे है करने का,
केवल निष्काम कर्म नरवर।
दे फलासक्ति को त्याग,
यही जीवन का सच्चा मर्म सुघढ़।।
जब हमारा कर्म कुशलतापूर्वक (Efficient functioning) तथा फल की चिन्ता से रहित होता है तो वही कर्मयोग बन जाता है। विद्यार्थी ज्ञानार्जन में, शिक्षक मार्गदर्शन व अध्यापन में, व्यवसायी अपने व्यवसाय में अनवरत कुशलतापूर्वक कार्य करते रहें तो सफलता तय माननी चाहिए।
7. आत्म-स्पर्धा (Competition with self):
हम हमेशा अस्त-व्यस्त बने रहते हैं तथा अति महत्वाकांक्षी होने की वजह से स्पर्धा औरों से करते हैं। इस स्थिति में हम आत्म-मूल्याकंन नहीं कर पाते; अपनी क्षमताओं तथा सीमाओं/कमियों को नहीं पहचान पाते अत: हमें अपनी क्षमताओं से, अपने आपसे स्पर्धा करनी चाहिए। यही आदर्श व स्वस्थ स्पर्धा है जिसके विषय में ऋषि अपने शिष्यों को गुरुकुल में सतत् जागरूक किया करते थे।
8. ‘आत्मबोध’एवं ‘तत्वबोध’साधना से आत्म-विश्लेषण (Self-analysis)
इस साधना का वर्णन जगद्गुरु शंकराचार्य जी एवं वरिष्ठ अध्यात्म वैज्ञानिक पं. श्रीराम शर्मा आचार्यश्री के पावन साहित्यों में मिलता है। अपने विचारों का, व्यवहार एवं कार्यों का निरन्तर विश्लेषण व्यक्तित्व परिष्कार हेतु आवश्यक है। नियमित आत्म-निरीक्षण कर उसका विश्लेषण करने से अपने ‘स्व’से क्रमश: परिचय बढ़ता है और व्यक्ति का मन शिव (शुभ/कल्याणकारी) संकल्पों से युक्त होता चला जाता है।
आत्मबोध साधना में चिंतन तथा तत्वबोध साधना में मनन किया जाता है। चिन्तन का अर्थ है- अपने लक्ष्य तथा कर्त्तव्य का स्पष्ट चित्र मनोभूमि में प्रखर करना तथा मनन का अर्थ है- जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए अभीष्ट आदर्शों का अपने जीवन (गुण-कर्म-स्वभाव) में कितना समन्वय हो सका, इसका विश्लेषण और जो न हो सका, उसकी पूर्ति के लिए योजना तैयार करना।
आत्मबोध साधना ‘हर दिन-नया जन्म’की भावना पर आधारित है। यह प्रात: जागरण के समय की जाती है तथा वर्तमान दिन को एक सम्पूर्ण जीवन मानकर उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की दिनचर्या बनाकर उसे निभाने की सुव्यवस्थित योजना बनायी जाती है। साथ-ही, इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम एवं विचार संयम की भी योजना तैयार की जाती है। यह विदित है कि बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता। अत: हमें समय का ऐसा प्रबंधन करना चाहिए कि हमें समय बर्बाद होने का पश्चाताप न करना पड़े। हमें भूतकाल की यादों में न उलझकर वर्तमान पर हमेशा ध्यान देना चाहिए और ऐसा करने में अगर हम सफल होते हैं तो हमारा भविष्य स्वर्णिम होगा, इसकी शत-प्रतिशत गारन्टी माननी चाहिए। गुरु स्वयं अपने आचरण से समय का प्रबंधन (Time management) कर समय संयम का लाभ बताया करते थे।
तत्वबोध साधना ‘हर रात-नई मौत’की भावना पर आधारित है। यह साधना रात्रि शयन के पूर्व की जाती है, रात्रि को शयन से पूर्व दिनभर की समीक्षा के साथ दोष-दुर्गुणों का प्रायश्चित करते हैं और कल के लिए ऐसा विचार करते हैं कि इसे आज की अपेक्षा और अधिक श्रेष्ठ एवं समुन्नत बनाना है।
9. निरन्तर स्वाध्याय से ज्ञानकोष अभिवर्धन
(Enhancement of knowledge bank):
स्वाध्याय का अर्थ है- ‘स्व का अध्ययन’। स्वाध्याय एक ऐसी चिकित्सा है जिससे पहले हमारा मन फिर जीवन स्वस्थ होता है। स्वाध्याय स्वयं को जानने की कला है। स्वाध्याय के दो अर्थ हैं- (क) पवित्र धार्मिक ग्रन्थों को पढऩा एवं (ख) स्वयं (शरीर और मन के आचरण) का अध्ययन (परीक्षण तथा विश्लेषण) करना।
स्वाध्याय मानसिक संरचना के पुनर्निर्माण (Cognitive restructuring) के लिए किया जाने वाला एक समर्थ प्रयास है। स्वाध्याय चिकित्सा विचारों की, विचारों से काट की धारणा पर आधारित है। इस महत्वपूर्ण सूत्र द्वारा कोई भी अपने नकारात्मक विचारों की प्रबल नेटवर्किंग को सकारात्मक विचारों द्वारा काटकर अपना व्यक्तित्व निर्माण कर सकता है।
संसार में जितने भी महापुरुष, वैज्ञानिक, सन्त, ऋषि आदि हुए, वे सभी स्वाध्यायशील थे, जिस वजह से वे कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य और प्रसन्नता का जीवन जी सकने में समर्थ होते थे। स्वाध्याय स्वविकास का एक बहुत अच्छा साधन है। प्राचीनकाल में ऋषि अपने शिष्यों को ‘स्वाध्यायात् मा प्रमद:’ का सूत्र अवश्य सिखाया करते थे जिसका अर्थ है- स्वाध्याय द्वारा योग्यता बढ़ाने में कभी प्रमाद मत करना।
हमारे मस्तिष्क पर हर क्षण सैकड़ों-हजारों विचारों की बम वर्षा होती रहती है। हमारा मस्तिष्क एक सुपर कम्प्यूटर की तरह है जिस पर नकारात्मक विचार रूपी वायरस हमेशा आक्रमण करते रहते हैं, इन वायरस से बचने के लिए स्वाध्याय बहुत जरूरी है। स्वाध्याय एक शक्तिशाली स्कैनर की तरह नकारात्मक विचारों को स्कैन कर, सकारात्मक विचारों के माध्यम से हमें मानसिक रूप से मजबूत बना सकता है। आज विचार प्रबंधन (विचार संयम) की बहुत आवश्यकता है जो स्वाध्याय से ही संभव है क्योंकि स्वाध्याय से हमारी बिखरी मानसिक ऊर्जा केन्द्रीभूत होने लगती है, व्यक्ति उर्जावान महसूस करता है।
10. मौन से ऊर्जा संरक्षण
(Energy conservation through silence):
‘मौन’मन की आदर्श अवस्था है। मौन से हमारी वाणी के साथ विद्युतशक्ति, प्राणशक्ति एवं जीवनीशक्ति की बचत होती है, मन शांत, सहज व उर्वर होता है तथा तंत्रिका-तंत्र भी सबल बनता है। महर्षि रमण, भगवान बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस, चंपक लाल (श्री अरविन्द के शिष्य) सबने मौन को जिया है एवं इसकी सार्थकता सिद्ध की है। मौन से मानसिक उर्जा का क्षरण रूकता है और मन उध्र्वमुखी बनता है।
11. ब्रह्मचर्य से उच्चतम चेतना का विकास
(Development of higher consciousness through brahmcharya):
ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्मभाव (उच्च स्तरीय चेतना) में रहना। यह स्थिति उसी अवस्था में सम्भव है जब व्यक्ति सभी वासनाओं या ऐन्द्रिक इच्छाओं से मुक्त हो गया हो। सामान्यत: ब्रह्मचर्य का अर्थ कामवृत्ति पर नियंत्रण करना होता है। काम क्रिया की अधिकता से मनुष्य के अंदर निहित शक्तिशाली ऊर्जा नष्ट हो जाती है जिससे मन अशान्त रहता है। जो व्यक्ति काम क्रिया पर नियंत्रण रखता है वह सामाजिक तथा नैतिक शक्तियों से ओत-प्रोत रहता है तथा उसका आचरण सर्वप्रिय होता है। वह सभी में ब्रह्म का भाव देखता है।
योग दर्शन में महर्षि पतंजलि लिखते हैं- ‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ:’ (2/38)। ब्रह्मचर्य की पूर्णतया दृढ़ स्थिति हो जाने पर साधक के मन, बुद्धि, इन्द्रिय एवं शरीर में अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है यानि साधक को सामर्थ्य का लाभ प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य का पालन व्यक्ति में उच्चतम चेतना के विकास का मार्ग प्रशस्त करना है।
12. सत्य आचरण (Conduct with truth):
व्यावहारिक जीवन में सत्य का अर्थ है प्रामाणिकता। जो कुछ कहा और किया जाये, उसमें छल-कपट न हो। विचारों, वाणी तथा कार्य में सत्यता सत्य के मुख्य अंग हैं। बेइमानी, झूठ या किसी को धोखा देने की प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग कर देना ही सत्य है। योगदर्शन में सत्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है- ‘सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्’(2/36)। सत्य पर दृढ़ हो जाने से वांछित फल प्राप्त होता है। अपनी प्रशंसा तथा दूसरों की निंदा करने से बचना भी सत्य का व्यावहारिक पक्ष है, इससे व्यक्ति में सद्गुणों (Positive traits) का विकास होता है जिससे व्यक्ति निर्भय होता है।
उपरोक्त सूत्र को भली-भाँति समझना आवश्यक है। इसे ठीक-ठीक समझ लिया जाये तो दैनिक जीवन की कई समस्याएँ, कई प्रकार के तनाव/दबाव से हमें छुटकारा मिलना तय है। उपरोक्त वर्णित साधन/सूत्र मानव उत्कर्ष के महत्वपूर्ण समीकरण (Equation) हैं जिसके नियमित अभ्यास व पालन से निश्चित रूप से आने वाला कल बेहतर होगा। इन स्वर्णिम सूत्रों को अपने दैनिक जीवन में अपनाकर आज भी कोई अपने व्यक्तित्व को पुष्पित, पल्लवित एवं पूर्ण विकसित कर सकता है। गुरुकुल जीवन, गुरुकुल के आदर्शों का प्राणपण से अपने जीवन में धारण करना आज की आवश्यकता है।