पतंजलि गुरुकुलम् शिलान्यास समारोह में माननीय रक्षा मंत्री जी का उद्बोधन

पतंजलि गुरुकुलम् शिलान्यास समारोह में माननीय रक्षा मंत्री जी का उद्बोधन

    पतंजलि योगपीठ भारतीय ऋषि-महर्षियों के प्राच्य ज्ञान योग, आयुर्वेद, भारतीय संस्कृति, सनातन परंपराओं मूल्यों तथा गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति को विस्तार और गौरव प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध है। पतंजलि योगपीठ ने अपनी सेवाओं के तीन दशक पूर्ण होने पर तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती की 200वीं जयंती एवं गुरुकुल ज्वालापुर के संस्थापक पूज्य स्वामी दर्शनानंद जी की जयंती के अवसर पर स्वामी दर्शनानंद गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर के रूप में विश्व के श्रेष्ठतम गुरुकुल तथा प्राच्य आधुनिक विद्या के संगम आचार्यकुलम् के निर्माण की आधारशिला रखी, जिसका शिलान्यास देश के माननीय रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह मध्य प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री श्री मोहन यादव के साथ देश के जननायकों, पूज्य संतगणों तथा आर्य समाज के वरिष्ठजनों द्वारा किया गया।
इस अवसर पर माननीय रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने ओजपूर्ण उद्बोधन दिया। उन्होंने कहा कि सचमुच आज इस भव्य कार्यक्रम में उपस्थित होकर मैं अपने आप को गौरवान्वित कृतार्थ महसूस कर रहा हूँ।
स्वामी दर्शनानंद गुरुकुल महाविद्यालय की इस पुण्य भूमि पर आज सभी आचार्यों, गुरुओं उनके शिष्यों और आप सभी बहनों-भाईयों के बीच उपस्थित होकर मुझे बेहद प्रसन्नता हो रही है। सर्वप्रथम मैं इस ऐतिहासिक गुरुकुल से जुड़े सभी व्यक्तियों को गुरुकुल के गौरवशाली ११८ वर्ष का इतिहास पूरा करने पर मैं तहे-दिल से हार्दिक बधाई देता हूँ। स्वामी दर्शनानंद जी के विचारो और उनके आदर्शों पर स्थापित किया महाविद्यालय जिस प्रकार शिक्षा के तीर्थ के रूप में काम कर रहा है, वह अपने-आप में प्रशंसनीय है। मैं इस गुरुकुल के संस्थापक स्वामी दर्शनानंद जी को उनकी जयंती के पावन अवसर पर नमन करता हूँ। उनकी जयंती के शुभ अवसर पर पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट ने इस नवीन गुरुकुल निर्माण की आधारशिला रखने का जो संकल्प लिया है उस संकल्प की पूर्ति के लिए भी मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएं देता हूँ।
जब भी गुरुकुल परम्परा का जिक्र आता है तो हमारे जहन में इतिहास के झरोखे स्वाभाविक रूप से खुल जाते हैं कि कैसे एक समय भारत में गुरु-शिष्य की परम्परा थी जहाँ शिष्य एक निश्चित आयु तक गुरु के आश्रम में जाकर उनकी सेवा करते हुए शिक्षा ग्रहण करता था। यह गुरुकुल की परम्परा शिक्षार्थी को शिक्षा तो प्रदान करती थी, लेकिन साथ ही साथ समाज में शुचिता और नैतिकता का समावेश भी करती थी। और मैं समझता हूँ कि यह गुरुकुल भी उसी लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में प्रयत्नशील है और उसमें उसे कामयाबी हासिल होगी।
भारत में सनातन धर्म के संस्कारों में गौत्र की व्यवस्था बहुत ही महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस देश में सप्त ऋषियों के नाम के आधार पर गौत्र का प्रचलन प्रारंभ हुआ। उदाहरण के लिए यदि कोई अब व्यक्ति कहे कि हमारा गौत्र भारद्वाज है तो इसका अभिप्राय यह है कि उसकी पहचान ऋषि भारद्वाज से जुड़ी है।
हम सब किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के दौरान या महत्वपूर्ण धार्मिक कार्यों के दौरान भी गौत्र को वरीयता देते हैं। शादी-विवाह में भी गौत्र की पहचान की जाती है और जब हम किसी गौत्र व्यवस्था की जड़ तक जाते हैं तो हमें पता चलता है कि इस देश के ऋषियों, मुनियों और गुरुओं की ही देन है। सनातन धर्मावलंबियों की पहचान ही गुरुओं के नाम पर आधारित है।

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गुरु की प्रशंसा आपको भारत के हर शास्त्र में मिल जायेगी। इस देश में ईश्वर तक के अस्तित्व पर वाद-विवाद हो सकता है लेकिन शास्त्र में आपको गुरु के अस्तित्व पर कोई मतभेद कभी भी देखने को मिला होगा और मैं आश्स्वत हूँ कि ना भविष्य में देखने को मिलेगा। भारत में हर शास्त्र, हर धर्म, वो हर पंथ गुरु के महत्व को स्वीकार करता है, गुरु के महत्व को सबने माना है। गुरु-शिष्य की बहुत ही हमारे यहाँ विशिष्ठ परम्परा रही है और हमारे देश में तो आज भी कायम है। यह देश है जहाँ गुरुवाणी और गुरु ग्रंथ को भी ईश्वर का दर्जा दिया जाता है, तो शिष्य के नाम पर ही पूरा पंथ प्रारम्भ हो जाता है। आप लोग जानते है कि हमारे देश में जो सिक्ख धर्म है, वह शिष्य शब्द से निर्मित है। भारत में कई सारे ऐसे धर्म और संम्प्रदाय है जो गुरुवाणी के आधार पर ही कायम हैं इसलिए मेरा यह मानना है कि यदि भारतीय संस्कृति जीवित है तथा सनातन बनी हुई है तो इसे जीवंतता को बनाये रखने में इस देश के गुरुओं का एक बहुत बड़ा योगदान है। हमारी संस्कृति ईश्वर की महत्ता से भी ज्यादा गुरुओं की महत्ता को स्वीकार करती है, ऐसा है हमारा यह भारत देश। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक लिखा है कि गुरु बिन भव निधि तरइ कोई। जौ बिरंचि संकर सम होई अर्थात् भले ही कोई ब्रह्म और शंकर के समान ही क्यों हो लेकिन गुरु के बिना यह भवसागर किसी भी सूरत में पार नहीं कर सकता।
इस संस्कृत की अवधारणा तो यह है कि संसार में मनुष्य को जन्म भले ही माता-पिता देते हैं लेकिन मनुष्य जीवन का सही अर्थ गुरु कृपा से ही प्राप्त होता है। भारत में इसी गुरुकुल परम्परा ने भारत को शिक्षा केन्द्र के रूप में सारे विश्व में स्थापित किया।
आज से लगभग १५०० वर्ष पहले तक इस देश में कितने बड़े-बड़े विश्वविद्यालय थे, जहाँ गुरुकुल परम्परा प्रचलित थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय से लेकर विक्रम शिला विश्वविद्यालय होते हुए नालंदा विश्वविद्यालय तक इस देश में अनेक ऐसे शैक्षणिक संस्थान थे, जिन्होंने शिक्षा की ऐसे अलख जगाई थी जिससे समूचा विश्व ही दीप्तमान हो उठा था। जहाँ दर्शन, गणित, विज्ञान, चिकित्सा, कला आदि विद्याओं का ज्ञान भी दिया जाता था।
इसके बाद की स्थिति आप सभी जानते हैं कि किस प्रकार से देश में शैक्षणिक गुलामी की एक लम्बी शृंखला प्रारम्भ हुई। आपने मैकाले के बारे में सुना होगा। मैकाले एक ब्रिटिश अधिकारी था, जिसे ब्रिटेन से भारत इसलिए भेजा गया ताकि वह भारतीयों को मानसिक रूप से गुलाम बना सके। आप कल्पना करके देखिए जिस भारत ने दुनियां को वेद जैसे उत्कृष्ट साहित्य दिये, मानव जीवन के गहन दर्शन पर आधारित श्रीमद्भगवत गीता और उपनिषद् दिये, जिस भारतीय संस्कृति दुनियां को चिकित्सा विज्ञान से संबंधित चरण संहिता सुश्रुत संहिता दिये और जिस संस्कृति ने दुनियां को भास्कराचार्य और आर्यभट्ट जैसे संगीतज्ञ/गणितज्ञ दिये, उस संस्कृति साहित्य के बारे में मैकाले ने एक बार टिप्पणी की थी कि यूरोप की लाईब्रेरी की एक अलमारी भारत के पूरे साहित्य संग्रह से भी श्रेष्ठ है, यह बात मैकाले ने कही। उसके बाद एक रणनीति के तहत मैकाले ने पूरी शिक्षा व्यवस्था का गला घोंटकर एक ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित की जिससे उसने हमारी पूरी गुरुकुल व्यवस्था को लगभग समाप्ति के कगार पर पहुँचा दिया।
इस दौर में ऐसी शैक्षणिक प्रणाली विकसित हुई। हमारे युवाओं को ऐसी शिक्षा प्रदान की गई जो इस देश की सांस्कृतिक भावना के अनुकूल नहीं थी। जाने हमारी कितनी पीढिय़ों ने भारतीय संस्कृति को इनफिरियर मानते हुए शिक्षा ग्रहण की। इस इनफिरियरटी का कुछ ऐसा कॉम्पलेक्स था, एक ऐसा भाव भा कि हम सिर्फ राजनैतिक रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी गुलामी का शिकार होते गए। विदेशी आक्रमणकारियों ने जिस शिक्षा व्यवस्था को लागू कराया, इसमें भारत को हिकारत भरी नजरों से देखा गया।
उस समय देश में ऐसा माहौल तैयार किया गया जो दासता का प्रतीक था। तब अंधकार के खिलाफ ज्योति जगाते हुए स्वामी दर्शनानंद जी ने इस गुरुकुल की स्थापना करके जो प्रकाश फैलाया उससे आज तक हमारी युवा पीढ़ी लगातार प्रकाशित हो रही है। और वर्तमान में भी यह जो समय चल रहा है तथा विदेशी संस्कृति के अन्धानुकरण से समाज में जिस प्रकार के नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है इसे देखते हुए आवश्यक है कि यह सारे गुरुकुल आगे आयें और समाज में नैतिक मूल्यों का वह समावेश करें हमें आधुनिक शिक्षा की जरुरत है। देश में जो व्यवस्था चल रही है वह मॉर्डन एजूकेशन (आधुनिक शिक्षा) प्रदान भी कर रही है पर मॉर्डन नॉलेज के साथ-साथ हमारी नैतिक विरासत भी सुरक्षित रहे इसलिए नये भारत में नये गुरुकुलों का होना भी बहुत आवश्यक है।
प्रधानमंत्री मोदी जी के नेतृत्व में हमारी भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोने का कार्य किया और उस समय भारत के शिक्षा मंत्री हमारे रमेश पोखरियालनिशंकजी थे। प्राथमिक शिक्षा से विद्यार्थियों के मन में नैतिक मूल्यों का समावेश करने के लिए कार्य प्रारंभ किया गया और हमारी उसके प्रति प्रतिबद्धता आज भी बनी हुई है, और आगे भी बनी रहेगी।
देशभर के अनेक शैक्षणिक संस्थानों में नई शिक्षा नीति को लागू किया जा रहा है हालांकि ये प्रक्रिया कोई छोटी प्रक्रिया नहीं है। बल्कि लंबी प्रक्रिया है क्योंकि शैक्षणिक व्यवस्था में कोई भी परिवर्तन अचानक से नहीं किया जा सकता। इसलिए इस लंबी प्रक्रिया में गुरुकुल अपनी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और इस भूमिका का निर्वहन करते हुए जिस प्रकार से पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट एक विशाल एवं श्रेष्ठ गुरुकुल की स्थापना करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, वह हमारी भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए एक बहुत ही शुभ संकेत है।
आमतौर पर गुरुकुलों का जिक्र आते ही हमारा ध्यान शिक्षा की प्राचीन पद्धतियों पर चला जाता है जिसमें कुछ लोग आज भी किसी नदी किनारे, किसी कुटी में गुरु और शिष्यों की सभा को ही गुरुकुल समझ लेते हैं। गुरुकुलों को विशुद्ध रूप से यज्ञ और तप आदि से जोडक़र देखते हैं। आज भी मैं मानता हूँ यह सब बातें सही हैं पर यह गुरुकुल इनसे अब बहुत आगे बढ़ चुके हैं। गुरुकुल की मॉर्डन और स्टेट ऑफ आर्ट भी हो रहे हैं और जिस प्रकार की सोच मैं बाबा रामदेव की देखता हूँ यह गुरुकुल मॉर्डन भी होगा और स्टेट ऑफ आर्ट भी होगा। ऐसा मेरा पक्का विश्वास है। यह गुरुकुल स्वयं इस बात का एक बहुत बड़ा उदाहरण है इसलिए अब बदलते भारत और साथ ही बदलते समय की यह मांग है कि गुरुकुल पारंपरिक शिक्षा के साथ-साथ स्वयं को emerging और cutting as technology जैसे artificial intelligence, quantum technology जैसे क्षेत्रों में भी आगे बढ़ायें। मैं बाबा रामदेव जी से मंच पर बैठे artificial intellegance और साथ ही साथ quantum technology के बारे में बात कर रहा था। उन्होंने कहा कि इसकी भी शिक्षा हमारे यहाँ दी जा रही है, यह जानकारी प्राप्त करके मुझे बेहद खुशी हुई है। ना सिर्फ इस क्षेत्र में स्वयं को  आगे बढ़ायें बल्कि मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि गुरुकुल आने वाले artificial intellegance आदि technology से भी आगे की वह सोचें। केवल artifical intellegance तक अपने को सीमित ना रखें बल्कि वह आगे की भी सोचें और ऐसी तकनीक विकसित करें जो राष्ट्र को इस सेक्टर में बाकी देशों से आगे के जाने का कार्य करें। मेरी यही शुभेच्छा है कि यह गुरुकुल भारत के अन्य शैक्षणिक संस्थानों के लिए मार्गदर्शक की भूमिका अदा करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। आने वाले समय में गुरुकुल एक बार फिर से भारत और भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करें और भारत की नई पहचान बनें, यह हमारी इच्छा है।
वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब देंखे तो सांस्कृतिक विकास में गुरुकुल की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। जब हम काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बना रहे हैं, जब हम उज्जैन के महाकालेश्वर धाम में इंफ्रास्टे्रक्चर डेवलपमेंट पर काम कर रहे हैं और वहाँ पर भव्य मंदिर बना रहे हैं, महाकालेश्वर का। जब हम इस देश के सारे तीर्थ स्थलों को जोडऩे का प्रयास कर रहे हैं, जब हम इस देश में भव्य राम मंदिर का निर्माण कर रहे हैं, तो इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि हमारा ध्यान सिर्फ सांस्कृतिक स्थलों के इंफ्राट्रक्चर डेपलपमेंट पर ही है। ये सब चीजें तो महत्वपूर्ण हैं ही, लेकिन हम इससे भी कहीं आगे की सोच रखते हैं। हम सांस्कृतिक संरक्षण यानि कल्चर डेवलपमेंट की दिशा में भी कार्य कर रहे हैं ताकि हमारी आने वाली पीढिय़ां इस देश की संस्कृति पर गर्व कर सकें और इस दिशा में इस देश के गुरुकुल अपनी बहुत ही बड़ी भूमिका निभाने वाले हैं। आज इस स्थान पर आकर मेरा विश्वास और अधिक पक्का हो गया है।
मैं बाबा रामदेव जी और आचार्य बालकृष्ण जी का आभार व्यक्त करता हूँ और जब आप दोनों को देखता हूँ मुझे एक बात याद आती है कुछ समय पहले मैंने सोशल मीडिया में एक तस्वीर देखी थी जिसमें आप दोनों के बारे में बताया गया था कि जब आप दोनों के पास संसाधन नहीं थे तो आप खुद से जड़ी-बूटियां तैयार करके, कूट-कूटकर जड़ी-बुटियां तैयार करते थे। साईकिल से उसका वितरण करते थे और वहाँ से आप लोगों का जो सफर शुरु हुआ वो इतनी बड़ी मंजिल तक पहुँचा है। यह अपने-आप में एक प्रेरणा का स्रोत है। यह कोई छोटी बात नहीं है और बाबा रामदेव जी ने जिस प्रकार से योग को जन-सुलभ बनाया है तथा इसका प्रसार किया है, वह सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी मानवता की सेवा करने जैसा काम है जो बाबा रामदेव ने किया है। मैं दूसरे देशों में भी जाता हूँ तो वहाँ पर भी बहुत सारे योग करने वाले लोग बाबा रामदेव से अच्छी तरह परिचित हैं। इस देश में अनेक लोगों ने कई छोटे-बड़े रोगों के उपचार में बाबा रामदेव द्वारा सिखाये गये योग का सहारा भी लिया है, विदेश में भी ले रहे हैं। ज्ञान का उद्गम एक जगह हो रहा है, लेकिन इसका प्रसार कई जगह पर हमें दिख रहा है। पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट भले ही उत्तराखण्ड की पहाडिय़ों में स्थित है लेकिन इसके द्वारा किये जा रहे कार्यों के लाभार्थी हमें भारत के सुदूर इलाकों में भी देखने को मिलते हैं। भारत सहित पूरे विश्व के कई घरों में सुबह-सुबह टीवी पर बाबा रामदेव के द्वारा सिखाये गये योग के कार्यक्रमों को आप देखते ही होंगे।
जहाँ तक योग का प्रश्न है, वैसे तो यह बहुत गूढ़ विद्या है, बड़ी कठिन चीज है, लेकिन इसको जिस सरलता से जनमानस तक बाबा रामदेव पहुँचा रहे हैं वह प्रंशसनीय है। इस कार्य हेतु मैं बाबा रामदेव को साधुवाद देता हूँ। बाबा रामदेव ने सैकड़ों वर्ष पुरानी इस योग परम्परा को व्यवहारिक रूप में जिस तरीके से जनमानस के सामने रखा है, वह कोई छोटा कार्य नहीं है। हालांकि योग विद्या हमारे हाथों में सदियों पुरानी है लेकिन आक्रांताओं के प्रभाव के कारण एक समय ऐसा भी आया कि इसका ज्ञान लगभग लुप्त प्राय: हो चुका था, पर आज तो बताते हैं कि लोग घर और पार्क में तो योग करते ही हैं, बस, टे्रन, मैट्रो और जहाज में भी बैठे-बैठे ध्यान करते रहते हैं। ऐसे लोगों का हमने देखा है या फिर अपने नाखूनों को आपस में रगडक़र अपने बालों को काला करने की कोशिश भी करते हैं।
जो भी बाबा रामदेव कर रहे हैं, वह अपने में क्रान्ति है। बाबा रामदेव जी के पास विशेष क्षमता है कि इन्होंने इतनी पुरातन व्यवस्था को आधुनिक समाज के हिसाब से द्वशस्रद्बद्घ4 करके, परिवर्तन करके जनता तक पहुँचाया है।
आज योग भारत के घर-घर तक पहुँचा है, इसमें बाबा रामदेव का बहुत बड़ा योगदान है। मैं पुन: उनका अभिनंदन करता हूँ। कई आपने लोगों के मुँह से कहते हुए सुना होगा कि अकेला आदमी परिवर्तन नहीं ला सकता, एक अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। लेकिन बाबा रामदेव इस मुहावरे के विपरीत कार्य करते हुए अकेले योग के क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन ला रहे हैं। हम भारतवासी जिस भी दर्शन या वस्तु का प्रतिपादन या निर्माण करते हैं तो हम सिर्फ अपने लिए नहीं करते बल्कि हम पूरी मानवता के लिए करते हैं। हम पूरा विश्व ही हमारा परिवार है कि अवधारणा पर चलने वाले लोग हैं। हमारे लिए पूरी दुनियां एक परिवार है हम यदि अपने परिवार के कल्याण के लिए किसी दर्शन का प्रतिपादन करते हैं तो इसका पैटेन्ट करवाकर नहीं रखते कि इस दर्शन का प्रतिपादन हमने किया है, इसलिए केवल हमारे लिए है। इसका प्रयोग हमारे लिए होगा, हमारे देश के लिए होगा। हम ऐसा कोई पेटेन्ट कराकर नहीं रखते और ना ही हम योग के लाभार्थियों से कोई modify करते हैं। हमारा जो पूरा विपुल ज्ञान भण्डार है, जो भी हमारा ज्ञान भण्डार है, वह सारा विश्व को समर्पित है। आज हर वर्ष २१ जून को संयुक्त राष्ट्र संघ, पूरी दुनियां में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाता है और आप जानते हैं कि UNO  में हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने जिस प्रकार योग को मान्यता दिलाई है, उसकी जितनी भी सराहना की जाए, वह कम है। जो योग केवल भारत तक ही सीमित समझा जाता था आज इसे पूरी दुनियां स्वीकार कर अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बना रही है।
आप सब जानते हैं कि देव भाषा संस्कृत का हमारे साहित्य में कितना महत्वपूर्ण स्थान है। योग जैसा महत्वपूर्ण दर्शन भी महर्षि पतंजलि ने संस्कृत में ही लिखा था। भारत में जो विशाल गुरु परम्परा रही है, इनका संवर्धन में बहुत बड़ा योगदान रहा है लेकिन साथ-साथ संस्कृत से एक चिंताजनक बात यह भी जुड़ी रहती है कि इसको पढऩे, लिखने बोलने वाले लोग लगातार हमारे देश दुनियां में कम होते जा रहे हैं। देव भाषा की यह स्थिति देखकर कभी-कभी मन बहुत व्यथित होता है। मन को बहुत पीड़ा होती है इसलिए आप सभी आचार्यों गुरुओं के बीच मैं एक सामान्य व्यक्ति के रूप में सुझाव रखना चाहता हूँ कि जिस प्रकार बाबा रामदेव जी योग जैसी कठिन विद्या को भी इतनी सुलभता के साथ जनता को पहुँचा रहे है, उसी प्रकार आप देव भाषा संस्कृत के संबंध में भी कोई प्रयास करें और मुझे पूरा विश्वास है कि यदि आपकी तरफ से प्रयास होगा तो उसमें सफलता निश्चित रूप से मिलेगी। संस्कृत कोई सामान्य भाषा नहीं है, संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा है। दुनियां के कई प्रकांड विद्वान हैं जिन्होंने केवल मनुष्यों को नहीं, देश को नहीं बल्कि पूरी प्रकृति और पूरी सृष्टि को समझने के लिए संस्कृत के ग्रंथों को गहन अध्ययन किया है। मुझे पूरा विश्वास है कि इस देश के गुरुकुल ऐसी भूमिका निभाएंगे कि देश के बाकी शैक्षणिक संस्थानों के लिए वह अनुकरणीय बनेंगे। मैं पुन: स्वामी दर्शनानंद गुरुकुल महाविद्यालय को उसके ११८ वर्ष पूरे होने पर अपनी हार्दिक बधाई देता हूँ और मैं पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट को विशेषकर स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण जी को हार्दिक बधाई देता हूँ। जिस संगठन और जिस कार्य में राम और कृष्ण स्वयं संलग्न हों उस कार्य की सफलता पर भला कोई संदेह कैसे कर सकता है। मैं आपके गुरुकुल के इस पवित्र प्रोजेक्ट के लिए  अपनी ढेर सारी शुभकामनाएं देता हूँ और अंत में यहीं पर अपनी बात को मैं समाप्त करता हूँ और सभी के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ  कि आपने इस महत्वपूर्ण दिन पर इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए मुझे आंमत्रित किया है। आप सबको बहुत-बहुत धन्यवाद।
 

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