हिन्दू नृवंश के विश्वव्यापी विस्तार के संदर्भ में आवश्यक विचार
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प्रो. कुसुमलता केडिया
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के सत्तारूढ़ होने के बाद सम्पूर्ण विश्व में ‘इंडियन डाइएसपॉरा’का महत्व बढ़ा है और उसकी विश्वस्तर पर चर्चा होने लगी है। इसके पहले यहूदी डाइएसपॉरा और यूरोपीय डाइएसपॉरा की ही अधिक चर्चा होती थी। अत: इससे भारतीय मूल के लोगों का आत्मविश्वास और आत्मगौरव बढ़ा है। परन्तु डाइएसपॉरा यानी नृवंश के सन्दर्भ में ‘इंडियन’शब्द सम्यक नहीं है। क्योंकि 15 अगस्त 1947 को या उससे पहले जो लोग भी भारत में रह रहे थे, चाहे वे किसी भी मूल के हों, उन सबकी भारतीय नागरिकता मान्य कर ली गई। जबकि नृवंश या डाइएसपॉरा की कसौटी पर तो यह अनेक नृवंशों की भीड़ ही सिद्ध होगी। अत: ऐसे में हिन्दू नृवंश की बात करना ही सम्यक है।
उल्लेखनीय है कि हिन्दू नृवंश का विश्वव्यापी विस्तार है। अनेक देशों में तो वे उल्लेखनीय संख्या में हैं, जैसे नेपाल, मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, संयुक्त अरब अमीरात आदि में। नेपाल में वहाँ की कुल जनसंख्या का 82 प्रतिशत हिन्दू हैं। भूटान में 25 प्रतिशत लोग हिन्दू हैं। बांग्लादेश में दंगों और मारकाट के बावजूद अभी लगभग डेढ़ करोड़ हिन्दू हैं। यद्यपि पाकिस्तान में जहाँ 1947 की स्थिति के अनुसार अब तक कम से कम 11 करोड़ हिन्दू होने चाहिये थे, केवल 20 लाख ही बचे हैं। मॉरीशस में 51 प्रतिशत, सूरीनाम में 27 प्रतिशत तथा त्रिनिदाद में 18 प्रतिशत हिन्दू हैं। संयुक्त अरब अमीरात में भी 10 प्रतिशत से अधिक हिन्दू हैं। इसी प्रकार पूर्वी अफ्रीका में 7 प्रतिशत हिन्दू रहते हैं और कतर में 15 प्रतिशत। कनाडा में सिखों को मिलाकर 27 प्रतिशत हिन्दू नृवंश है। इसी प्रकार फिज़ी में 28 प्रतिशत हिन्दू हैं। मलेशिया में 7 प्रतिशत तथा ओमान में 5 प्रतिशत हिन्दू हैं। इस तरह हिन्दू नृवंश की संख्या 25 देशों में उल्लेखनीय है। शेष 75 देशों में भी अनेक में अच्छी संख्या में हिन्दू हैं। उदाहरण के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका में 35 लाख और ब्रिटेन में 15 लाख हिन्दू हैं। श्रीलंका में 27 लाख हिन्दू हैं जबकि सऊदी अरब में 4 लाख, स्याम देश (थाईलैण्ड) में ढाई लाख और चम्पा (वियतनाम) में लगभग 1 प्रतिशत हिन्दू हैं। जबकि सिंगापुर में 5 प्रतिशत।
इस तरह विश्व भर में फ़ैले हुये हिन्दू नृवंश का संज्ञान लेते हुये जहाँ भारत शासन का कर्तव्य है कि वह हिन्दू वंश विस्तार को आगे बढ़ाने और सुरक्षित तथा सुसंस्कृत जीवन सुनिश्चित करना अपना दायित्व घोषित करे। इसके साथ ही हिन्दू आचार्यों को भी अपने नृवंश के विश्वव्यापी विस्तार के हित और कल्याण की दृष्टि से शास्त्रों की मूल मान्यताओं का मर्म सुरक्षित रखते हुये देशकाल के अनुरूप आवश्यक नियम तथा मर्यादायें निश्चित करनी होंगी। स्पष्ट है कि जाति तथा वर्ण और आश्रम के शास्त्रीय आग्रह विश्वस्तर पर यथावत नहीं लागू हो सकते और उसमें आवश्यक लचीलापन मान्य करना होगा।
इसी प्रकार आजीविका के परंपरागत रूपों में संलग्न परिवारों की परंपराओं से हट कर परिस्थितियों के अनुरूप दृष्टिकोण में आवश्यक परिमार्जन लाना होगा तथा अभिनव दृष्टिकोण विकसित करना होगा जिससे कि इन देशों में रह रहे हिन्दुओं को हिन्दू गौरव तथा हिन्दू उपलब्धियों का उत्तराधिकारी बनने में किसी भी बाधा का अनुभव नहीं हो और वे गौरवपूर्वक उनसे जुड़े रहकर अपने और हिन्दू समाज के वैभव में वृद्धि करते रह सके।