गर्भावस्था में उभरने वाले रोगों के लक्षण
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डॉ. नागेन्द्र 'नीरज' निर्देशक व चिकित्सा प्रभारी
योग-प्राकृतिक-पंचकर्म चिकित्सा एवं अनुसंधान केन्द्र
योग-ग्राम, पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार
महिलाओं के जीवन में गर्भावस्था सर्वोत्तम समय होता है। यह वह समय है जब महिलाए पूर्ण होने के मधुर एहसास से सराबोर रहती है। सर्वशक्तिमान ईश्वर ने स्त्री को ही प्रकृति के श्रेष्ठतम प्राणी मनुष्य को सृजन हेतु चयन किया है। इस दृष्टि से स्त्रियाँ संसार की श्रेष्ठ व सृजनहार एवं महान है। नौ महीने के इस सृजन-समय के उपरान्त महिला मातृत्व सुख एवं पूर्णता को प्राप्त कर लेती है। नौ मास के सृजन काल के दौरान महिलाओं को अत्यन्त सावधानी बरतनी चाहिए। लापरवाही से जच्चा एवं बच्चा दोनों को स्वास्थ्य की भयंकर हानि उठानी पड़ सकती है, अनेक समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इस समय की सजगता जानकारी एवं ज्ञान से गर्भावस्था के दौरान होने वाले रोगों से परित्रण दिला सकता है।
गर्भावस्था के दौरान होने वाले सामान्य संक्रमण भी शिशु के लिए जानलेवा सिद्ध हो सकता है। गर्भावस्था के दौरान शरीर के अंग विन्यास में भी परिवर्तन होता है जिसके चलते अनेक प्रकार की अस्थायी तकलीफें पैदा हो सकती हैं। लापरवाही के कारण ये तकलीफें चिरकालिन स्थायी रूप से महिलाओं को आजीवन रोगी बना सकती हैं। गर्भावस्था के दौरान शारीरिक अंगविन्यास में होने वाले परिवर्तन से उत्पन्न रोग एवं लक्षण-
कमर दर्द :
छठे-सातवें महीने में गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास के कारण पेट का घेरा बढ़ने लगता है। इस स्थिति में कमर दर्द होता है। पेट का आकार बढ़ने से कमर के नीचले हिस्से में स्नायु बधं कशेरूकाओं तथा डिस्क पर दबाव पड़ता है। जिससे कमर एवं पैरों में दर्द हो सकता है। ऐसी अवस्था में विश्राम करने से दर्द सम्बधित अवयवों का दबाव, तनाव एवं खिचांव दूर हो जाता है तथा दर्द में राहत मिल जाती है। दर्द की स्थिति में आगे या पीछे झुकना हानिकारक है। आराम ही सर्वोत्तम उपचार है। ज्यादा दर्द होने पर कमर का गरम ठण्डा सेंक करें। आहार में वायुकारक आहार नहीं दें। हल्का आहार दें। असहनीय दर्द मे डॉक्टर से मिलें। सीधे लेटकर कमर के नीचे रूई वाली तकिया भी कुछ देर रख सकती हैं।
पैरों में ऐठन
मिड प्रेगनेन्सी यानि गर्भावस्था के मध्य काल में अचानक पैरों की पिण्डलियों तथा पगतली की मांसपेशियों में तीव्र वेदना एवं ऐंठन होने लगती है। इसे बांय-टांय कहते हैं। कई प्रकार की अक्रिय-अप्रिय संवेदनाएं धड़कन-फड़कन, जकड़न-अकड़न आदि होती है। ऐसा मांशपेशियों में अचानक जोर पड़ने से इस प्रकार की स्थिति पैदा होती है। सो-कर उठते समय जम्हाइ तथा अंगड़ाइ लेते वक्त अकस्मात पैरों को खींचने-फैलाने हाथ को उठाने आदि के समय बांय-टांय जकड़न, मरोड़ एवं ऐंठन ज्यादा होता है। यह ऐठन अत्यन्त पीड़ादायी एवं यातनादायी होता है। इन परिस्थितियों में सावधान रहें। अवस्था से मुक्ति के लिए पैरों को आराम की स्थिति मे जमीन पर रखकर पैरों में आये गांठ या ठेस लगने वाली जगह को धीरे-धीरे सुखे या गरम पानी में भीगे तौलिए से रगड़ें। इस प्रकार के घर्षण स्नान से शीघ्र लाभ होता है। पैरों के ऐठन से बचने के लिए सुविधानुसार बैठकर या लेटकर हाथ एवं पैरों के अंगुलियों को 10 बार मोडं एवं सीधे करें, दस बार हाथ एवं पैर को आगे-पीछे करे, दस बार बायें-दाये घुमायें तथा दस-दस बार क्लोक वाइज एवं एण्टी क्लॉक वाइज घुमायें। सुविधा अनुसार पैर तथा हाथों की यह व्यायाम बारी-बारी से अलग-अलग करें। गर्भवती महिलाओं को आहार में एक समय संतरा, मौसमी, अंगूर तथा अनार आदि फलों का रस तथा दुसरे समय पर पालक, टमाटर, गाजर, खीरा, ककड़ी आँवला, संतरा, पाइनएप्पल, पपीता, चुकन्दर, शलगम आदि सब्जियों का रस अनिवार्य करें। नाश्ते तथा भोजन में दही, अंकुरित गेहूँ, मूँग, मोठ, मसूर, मटर, मेथी, सोयाबीन, मूँगफली को भीगोकर एवं अंकुरित कर खायें तथा दूध अवश्य दें। इससे कैल्शियम, आयरन, विटामिन-बी कॉम्पलेक्स, विटामिन-सी तथा ई प्रोटीन आदि पोषक तत्त्वों की आपूर्ति होने से शरीर में होने वाले अभाव-जन्य रोगों के लक्षण नहीं दिखते हैं। विटामिन-ई वाले आहार गाजर, अंकुरित गेहूँ, मशरूम, अखरोट, बादाम, मूंगफली, काजू, दूध, दही, ब्रोकली अवश्य दें।
हाथों में सनसनाहट, झुन-झुनी तथा सुन्नापन :
गर्भावस्था के अंतिम दिनों में इस प्रकार के लक्षण बढ़ जाते हैं। हाथों में खून का दौरा प्रर्याप्त मात्रा में नहीं होने से कलाई तथा हाथों के स्थान पर तंत्रिका तंत्र पर दबाव बढ़ जाता है। परिणाम स्वरूप हाथ के अंगूठा, तर्जनी, मध्य आदि अंगूलियों में झुन-झुनी, सनसनाहट तथा सुन्नापन का एहसास होता है। इन अंगों की संवेदन शीलता बढ़ जाती है।
रक्त प्रवाह को नियंत्रित एवं नियमित करने के लिए हाथो की अंगुलियों को मिलाकर दस बार मोड़ें एवं सीधा करें। दस बार अंगुलियों को फैलाकर मोड़ें एंव सीधा करें। दस बार हाथ का अंगूलियों को अन्दर रखकर मूठी बांध कर कलाई से आगे पीछे मोड़ें सीधे रखे, दस बार वायें-दायें मोड़ें। क्लोक एवं एण्टी क्लॉक वाइज गोल-गोल घुमायें। हाथ को सीधा रखते हुए कलाई से दस बार ऊपर-नीचे करें, दस बार गोल-गोल घुमायें। क्लॉक वाइज एवं एण्टी क्लॉक वाइज घुमायें। हाथो को पंख की भाँति फैलाकर उपर्युक्त किया करें। कोहुनी से मोड़ें, अंगुलियों से कन्धे को पकड़ें, दस बार गोल-गोल सीधा एवं उल्टा घुमायें। हाथों को सीधा रखकर सीधा एवं उल्टा गोल-गोल घुमायें। ऐसा करने से हाथों एवं पैर के तरफ रक्त प्रवाह सही एवं संतुलित बना रहता है जिससे गर्भवती महिलाओ में सुबह उठने वाले अप्रिय झुन-झुनी वाली तकलीफ दूर हो जाती है। साथ ही रक्त प्रवाह सही होने से गर्भस्थ शिशु को भी प्रर्याप्त मात्रा में खून, ऑक्सीजन एवं पोषण मिलने से उसका शारीरिक, मानसिक विकास होता है। इन सुक्ष्म आसनों का गहरा एवं स्वास्थ्यप्रद प्रभाव होता है।
वेरीकोज वेन्स
सामान्य महिलाओ के वनिस्पत गर्भवती महिलाओं में वजन (1) दसवें सप्ताह में विकासशील गर्भस्थ शिशु का हाथ एवं पैर के तथा गर्भाशय का दबाव बड़ी शिरा इनफेरियर वेनाका पर होने से पेडू के रक्त वाहिनियों पर अत्यधिक दबाव के कारण रक्तप्रवाह में बदलाव होने सें। (2) रक्त आयतन (Blood Volume) बढ़ जाता है। शिराओं पर दबाव बढ़ जाता है तथा शिराएँ फैल जाती हैं। (3) तथा हार्मोन परिवर्तन होने से हृदय की तरफ वेन्स से रक्त लौटने में अवरोध तथा धीमा होने से पेडू यौनांगों, गुदा-द्वार तथा पैरों की सूक्ष्म शिराए फैलकर सूज जाती है जिसके कारण स्वाभाविक रूप से खून का प्रवाह शिराओं की तरफ अधिक एवं तेज होता है। अधिक रक्त प्रवाह होने से मुख्य रूप से पैरों, यौनांगों, रेक्टम की रक्त शिरायें (वेन्स) फूल जाते है। फूलने वाले वेन्स की संख्या एक दो या अधिक भी हो सकती है। फुली एवं सुजी हुई रक्तशिराओं के कारण पैरों में दर्द व खुजली बनी रहती है। पैरों में नीली-नीली रक्त-शिरायें उभरकर उमड़ आती है। इसमे वेरीकोज वेन्स कहते है। प्राय: यह लक्षण उन महिलाओं मे ज्यादा उग्र होता है जिनकी माँ भी वेरीकोज वेन्स से ग्रस्त रही है। बार-बार गर्भवती होने से भी वेरीकोज वेन्स की शिकायत बढ़ जाती है। सामान्यत: गर्भवती महिलाओं में फुली एवं सूजी हुई नीली नसें प्रसवोपरान्त दो-तीन माह के अन्दर स्वत: सामान्य हो जाती है, परन्तु दर्द एवं अन्य शिकायतें होने पर निम्न उपाय करे। लगातार ज्यादा देर तक न घूमें और टहलते समय कुछ समय के अन्तराल पर बैठकर आराम भी करें। लगतार एक जगह ज्यादा देर तक न खड़े रहें और न बैठें। जब भी बैठें कुर्सी पर पैर रख कर बैठें। खड़े रहे तो चलते रहें। बैठते समय पलथी मारकर नहीं बैठें। पैरों को उठाकर रखें। टाइट स्टॅाक नही पहनें। मैटरनिटी सपोर्ट हॉस पहने जिससे हृदय को रक्त भलि प्रकार लौटे। पेन्टी हॉस ज्यादा कसा हुआ या ढीला नहीं हो। टखने तथा पैरों पर ज्यादा दबाव तथा घुटने पर कम दबाव रहे। सूक्ष्म व्यायाम बराबर करें। बायी तरफ ही सोये ताकि इन्फेरियर वेनाकावा पर कम से कम दबाव हो। इन्फेरियर वेनाकावा दायी तरफ है इसका ध्यान रखें। यदि वेरीकोरा वेन्स कठोर सख्त एवं दर्द महसूस हो या त्वचा पर लालिमा दिखे तो अपने डॉक्टर से परामर्श लें। प्रसव के बाद इन्फेरियर वेनाकावा पर दबाव कम होने से प्राय: वेरीकोस वेन्स सामान्य अवस्था में आ जाती हैं। बैठते एवं लेटते समय पैर के नीचे तकिया रखकर थोड़ा ऊँचा रखे। इससे शिराओं पर रक्त प्रवाह का दबाव नीचे की ओर कम हो जायेगा। दर्द होने पर डॉक्टर के परामर्श के अनुसार सपोर्ट, स्टाकिंग्स पहनें। गर्भावस्था में वजन को नियंत्रित करना अति आवश्यक है अन्यथा अतिरिक्त भार से रक्त वाहिकाओं पर दबाव बढ़ जाने से लक्षण ज्यादा गम्भीर हो जाते है। कसे हुए मोजे नहीं पहने डिलीवरी के तीन-चार माह बाद तक फुली व सुजी रक्त वाहिकायें सामान्य अवस्था मे नहीं आये तो डॉक्टर से अवश्य परामर्श लें। उपर्युक्त सभी स्थितियों में एक ग्लास पानी पीकर सिर पर गीला तौलिया रखकर 45 मिनट धूप स्नान अवश्य लें।
जलन एवं अजीर्ण
गर्भावस्था के समय प्राय: महिलाए गले, सीने एवं पैर में जलन महसूस करती है। जो लोग भोजन को जल्दी-जल्दी तथा ठूस-ठूस कर खाते है। उनमें यह शिकायत ज्यादा पायी जाती है। गरिष्ट तले-भूने आहार तथा ज्यादा मिर्च-मसाले तथा कृत्रिम रसायन वाले आहार, बर्गर, पीजा आदि मैदे के बने फास्ट-फूड, मांस, सिगरेट, तम्बाकू, पान-मसाला आदि लेने वाली महिलाए इन लक्षणों से ज्यादा ग्रस्त होती है। अचानक कमर से झुकना तथा पीठ के बल ज्यादा देर तक लेटे रहने से यह रोग लक्षण उग्र हो जाता है। खाने के बाद सीधे तथा बायी करवट ही लेटें। गर्भावस्था में खान-पान में थोड़ी भी असावधानी तथा ओवर इटिंग अजीर्ण अपचन पैदा करता है। अपचन पैदा करने वाले उपर्युक्त आहार से परहेज करें तथा थोड़ी-थोड़ी मात्रा में, थोड़े-थोड़े अंतराल पर आहार लें। झुकने के समय घुटने पर सहारा लेकर झूकें।
थकान, अनिद्रा तथा बेचैनी
पूरे गर्भकाल में महिलाएँ इस शिकायत की शिकार रहती हैं। इनसे बचने के लिए गर्भवती को ज्यादा से ज्यादा विश्राम करना चाहिए। गर्भावती महिला थकान के बावजूद भी सो नहीं पाती है। एक अज्ञात बेचैनी से ग्रस्त रहती है। इससे बचने के लिए सफल एवं साहसी लोगों की जीवन गाथाएँ एवं प्रेरक धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करें। गरम पानी में पैर 10 मिनट रखने से थकान एवं अनिद्रा दूर होती है। अनिद्रा एवं थकान को दूर रखने के लिए दवाओं का प्रयोग नहीं करें। इससे गर्भस्थ शिशु शिथिल निष्क्रिय एवं अवसाद ग्रस्त हो सकते हैं।
मिचली एवं वमन
महिलाओं के शरीर के लिए गर्भ विजातीय तत्व होते हैं। इसलिए शरीर उसे स्वीकार करने में आना-कानी करता है। प्रतिक्रिया स्वरूप अनेक प्रकार के संलक्षण एक साथ अथवा अलग-अलग परिलक्षित होते है। इन्हीं लक्षणों में मिचली तथा वमन प्रमुख हैं। प्रथम गर्भ के प्रारम्भिक अवस्था में यह लक्षण ज्यादा दिखता है। परन्तु कुछ महिलाओं में पूरे गर्भावस्था के दौरान भी यह लक्षण दिखता है। बार-बार वमन की प्रवृत्ति से गर्भ पर दबाव पड़ता है जिससे गर्भस्थ शिशु के विश्राम एवं विकास में रूकावट होती है। मिचली तथा वमन से बचने के लिए गर्भिणी ज्यादा से ज्यादा आराम करें। आवश्यकता होने पर एक-दो दिन तक संतरा, अनार, सेव आदि फल एवं फलों के रस पर रखें। मिचली होने पर मुँह में अनारदाना, लोंग, सौफ, इलायची आदि रखकर चूसें, लाभ होगा।
विषमयता
इसे टॉक्सिमिया ऑफ प्रेगनेन्सी तथा एक्लेम्पसिया भी कहते हैं। गर्भवती महिलाओं में बहुत ही कम संख्या में मिलने वाला यह खतरनाक लक्षण है। यह बच्चा एवं गर्भस्थ बच्चा दोनों के लिए ही खतरनाक हो सकता है। इसमें सारा शरीर कन्वलसन से ग्रस्त हो जाता है। सारे शरीर में वांय-टांय, ऐंठन, चुभन, जकड़न, मरोड़ तथा सुन्नापन आने लगता है। रक्त-विषाक्तता बढ़ने से रोगी बेहोश हो जाती है। कॉमा में भी चली जाती है। रक्तचाप बढ़ जाता है। पेशाब में प्रोटीन की मात्र बढ़ने लगती है। सारा शरीर सूज जाता है। एक्लेमप्सिया से बचने के लिए गर्भावस्था के दौरान बराबर ब्लडप्रेशर, वजन तथा पेशाब की जाँच करवाते रहना चाहिए। पैरों में सूजन का भी ध्यान रखना चाहिए। एक्लेम्पसिया के कारण एक महिला ने तीन बार मृत बच्चे को जन्म दिया था। वह निराश थी, छठे महीने उसे यह लक्षण दिखता था। बल्डप्रेशर एवं एक्लेम्पिसिया का पारिवारिक इतिहास वालों में ज्यादा दिखता है, सावधान रहें।
चौथी बार प्रेगनेन्ट होने पर हमने छठे महीने अपने पास रख कर रसोपवास एवं फलोपवास तथा अन्य प्राकृतिक उपचार दिया। इससे शरीर विषमुत्तफ़ रही। आज वह तीन स्वस्थ बच्चे की माँ है। इस रोग के लक्षण में विश्राम, आहार, सैर तथा सौम्य निर्सगोपचार चिकित्सक के देख-रेख में होना आवश्यक है।
कब्ज
गर्भावस्था में पाँचवे-छठे महीने से पेट पर दबाव पड़ने से प्राय: महिलायें कब्ज की शिकार हो जाती हैं। इससें मुक्त होने के लिए रात्रि को सोने के समय आँवले का पाऊडर अथवा इसबगोल की भूसी 5 ग्राम गरम पानी या दूध के साथ लें। आवश्यकता होने पर एनिमा दें। गर्भावस्था के दौरान छठे-सातवें महीने तक हिप-बाथ टब में बैठने में सुविधा हो तब तक प्रतिदिन ठण्डा कटि स्नान (कोल्ड हिप-बाथ) लेना चाहिए। इससे अपचन, कब्ज, गैस, एसीडीटी, जलन आदि पेट सम्बन्धी लक्षणों से मुक्ति मिलती है। नेचुरल डेलिवरी होने में सहायता मिलती है।
-क्रमश:
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