भारतीय राष्ट्र जीवन में सम्पूर्ण ज्ञात इतिहास में हिन्दू स्त्रियों की भूमिका पुरूषों के समकक्ष ही रही है। स्वयं वेदों में स्त्रियों के अनेक पक्षों और रूपों की चर्चा है। वैदिककालीन स्त्रियाँ जहाँ शास्त्रों और आध्यात्मिक ज्ञान तथा तपस्या और सिद्धि में पुरूषों के समान ही रही हैं, वहीं विविध शिल्पकर्मों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मीमांसा-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, वेदान्त आदि के अध्ययन में सम्पूर्ण जीवन लगाने वाली विदुषी स्त्रियों का उल्लेख वेदों में है। काशकत्स्नी एक श्रेष्ठ मीमांसक थी- गार्गी नैयायिक एवं आत्रेयी वेदान्त-विशारद। विश्ववारा, घोषा, अपाला, लोपामुद्रा, रोमशा, सिकता, निवावरी आदि वैदिक ऋषिकाएँ प्रसिद्ध हैं। जैन साहित्य में धर्म-दर्शन की आजीवन अध्येता जयंती नामक विदुषी का उल्लेख है।
वैदिककालीन स्त्रियाँ विविध शिल्पों में प्रशिक्षित तथा शिल्प-कर्म द्वारा धनोपार्जन कर रही भी वर्णित हैं। वस्त्र-बुनाई का कार्य अति उन्नत था तथा उसकी विविध शाखाओं में दक्ष स्त्रियाँ थीं। सूची कर्म (सिलाई) करने वाली, पेशस्कारी (कसीदाकारी करने वाली), रजयित्रि (रंगाई करने वाली) आदि स्त्रियों का वर्णन मिलता है। बुनकरी के भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए अलग-अलग वैदिक संज्ञाएँ थीं, जैसे-धोती बुनना (वासो-वाय), ताना बिनना (तंतु वाय), बाना बिनना (ओतु वाय)। सूती धोती को वासस्, रेशमी वस्त्रों को तात्पर्य और क्षोम तथा ऊनी वस्त्रों को ऊर्ण-वास्स कहते थे। इन सभी की दक्ष बुनाई करने वाली स्त्रियों का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार बाँस का काम करने वाली (विदलकारी), तलवार की म्यान और पिटारी या सन्दूक बनाने वाली (कोशकारी), आँखों का अंजन बनाने वाली (आंजनीकारी), नृत्य एवं वादन करने वाली, कितव-क्रीड़ागृह (जुआघर) चलाने वाली आदि स्त्रियों का वर्णन वैदिक साहित्य में मिलता है।
यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि इनका अलग से साहित्य में उल्लेख है। जो यह बताता है कि इनकी स्वतंत्र एवं सम्मानपूर्ण स्थिति थी। क्योंकि पति के काम में घर में हाथ बंटाना तो मुस्लिम और ईसाई स्त्रियों का भी कार्य था। परंतु उसका 19वीं शताब्दी ईस्वी से पहले अलग से कोई उल्लेख यूरोप अथवा अरब देशों के इतिहास में नहीं मिलता।
भारत में स्त्रियों की स्वतंत्र एवं सम्मानपूर्ण स्थिति का एक बहुत बड़ा प्रमाण यह भी है कि जहाँ अरब तथा अन्य मुस्लिम देशों में (हिन्दू राष्ट्र के भीतर 1947 ईस्वी में बनाये गये मुस्लिम राष्ट्र राज्य पाकिस्तान और बांग्लादेश के सिवाय) किसी स्त्री शासक का कोई उल्लेख नहीं मिलता, वहीं स्वयं 18वीं एवं 19वीं शताब्दी ईस्वी में हिन्दू रानियों और साम्राज्ञियों की तो विशद परंपरा मिलती ही है, मुस्लिम बेगमें भी शासन कर रही दिखती हैं। अवध राज्य की बेगम हजरत महल और भोपाल की शासक बेगमें इसका दृष्टान्त हैं। स्पष्ट रूप से यह हिन्दू प्रभाव है। हिन्दू कुलों से मुसलमान बने राजघरानों में ही यह परंपरा है। शताब्दियों पहले से मुसलमान बन चुके राजपरिवारों में ऐसी कोई परंपरा नहीं है।
वेदों में इन्द्राणी को अपराजिता सेनानी कहा है। वीर सेनापति रानियों की परंपरा 20वीं शताब्दी ईस्वी तक भारत में निरंतर रही है। महारानी कैकयी का युद्धकौशल तो प्रसिद्ध ही है। परंतु स्वयं 19वीं और 20वीं शताब्दी ईस्वी में कर्नाटक के कित्तूर की महारानी चेनम्मा, झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई जैसी सेनापति वीरांगनायें उस परंपरा का स्मरण कराती हैं। इसी प्रकार रानी रासमणि, रानी भवानी, रानी आनंदसुन्दरी गुप्ता, महारानी अहिल्याबाई आदि भी उसी गौरवशाली परंपरा में हैं।
कन्या-शिक्षा की विशद परंपरा
पाँचवीं शती ईस्वी पूर्व (पाणिनि-काल) में स्त्रियों की शिक्षा के विशद उल्लेख मिलते हैं।
विद्वानों के अनुसार ऐसा लगता है कि मध्ययुग में स्त्रियों की शिक्षा पर कुछ रोक लगी। तथ्यों से तो यही प्रमाणित होता है कि इस्लामी साम्राज्यवादी आक्रमण तथा विद्या केन्द्रों के विनाश का पूरे समाज पर असर हुआ, केवल स्त्री-शिक्षा या स्त्रियों की दशा पर नहीं। जहाँ मुस्लिम-प्रभाव व्यापक रहा, वहाँ भारत में भी कई हिस्सों में कुछेक वर्गों में पर्दाप्रथा, बालविवाह आदि प्रचलित हो गया। शेष भारत में ऐसी कोई कुप्रथा नहीं है।
18वीं शती ईस्वी में कन्या-शिक्षा
तब भी, अठारहवीं शती ईस्वी में भी अंग्रेज अफ़सरों द्वारा एकत्र आँकड़ों के अनुसार, भारत में कन्या-शिक्षा पर्याप्त रूप में थी यद्यपि यह मुख्यत: घरों में ही दी जा रही थी। (मुस्लिम-आतंक के समय यह स्थिति लगातार बनी रही थी।) घरों के बाहर स्कूल में लड़कियों को दी जा रही शिक्षा के 1825 ईस्वी के ब्रिटिश आँकड़ों के अनुसार दो जिलों के विशद आँकड़े तत्कालीन कलेक्टर ने दिए हैं, जो धर्मपाल की पुस्तक ‘द ब्यूटिफ़ुल ट्री’में दिए गए हैं।
ब्रिटिश प्रभाव को भारत में फ़ैलाने के लिये ईसाई मिशनरियों और ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों ने अपने हिन्दू कर्मचारियों के द्वारा हिन्दू स्त्रियों की स्थिति के बारे में बहुत से झूठ फ़ैलाने शुरू किये हैं। कंपनी के एक कर्मचारी राममोहन राय ने इस विषय में कई लेख लिखे और एक अभियान ही छेड़ दिया। जिसके कारण कंपनी ने प्रसन्न होकर अपने इस क्लर्क को राजा की उपाधि दे दी और उन्हें भारतीय राजा के रूप में लंदन भेजकर उनसे भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा के विषय में ब्रिटिश शासन को आवेदन दिलाया।
महत्व की बात यह है कि यह सब मिथ्या प्रचार भारत के विषय में उस समय किया जा रहा था, जिस समय यूरोप में यह माना जाता था कि स्त्रियों के आत्मा नहीं होती और वह केवल पुरूष के भोग और मनोरंजन के लिये है तथा उन्हें सम्पत्ति की स्वामिनी होने अथवा अलग व्यक्तित्व रखने और वोट देने का कोई भी अधिकार नहीं है। क्योंकि यूरोप में स्त्रियों को वोट देने का अधिकार राममोहन राय द्वारा भारत की स्त्रियों के विषय में किये गये इस झूठे प्रचार के लगभग 100 वर्ष बाद ही मिला।
सर्वविदित है कि यूनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन) में स्त्रियों को मताधिकार 1928 ईस्वी में मिला। संयुक्त राज्य अमेरिका में 1965 ईस्वी में, फ्रांस में 1941 ईस्वी में, जर्मनी में 1918 ईस्वी में, इटली में 1945 ईस्वी में, चीन में 1949 ईस्वी में, कनाडा में 1960 ईस्वी में, स्पेन में 1977 ईस्वी में, ईरान में 1969 ईस्वी में और संयुक्त अरब अमीरात में स्त्रियों को मताधिकार 2006 ईस्वी में मिला है।
उसके पहले ईसाई यूरोप के अनेक देशों में और संयुक्त राज्य अमेरिका में 20वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ तक स्त्रियों की भयंकर दुर्दशा थी और उन्हें हजारों की संख्या में इक_े जिंदा जला दिया जाता था। मटिल्डा जोसलिन गेज नामक प्रसिद्ध अमेरिकी लेखिका एवं स्त्री स्वतंत्रता के लिये लडऩे वाली विदुषी ने बताया है कि अमेरिका में बहुत बड़े-बड़े इलाके स्त्रियों को जिंदा जलाने के लिये सुरक्षित थे। जिनके बगल से होकर कार से गुजरने पर भी जीवित जलाई जा रही स्त्रियों के शरीर की गंध कई मील तक लगातार आती रहती थी।
मटिल्डा जोसलिन गेज की पुस्तक ‘वूमैन, चर्च एण्ड स्टेट’के ये अंश देखें, जो पृष्ठ 247 से 271 तक (नई दिल्ली से व्हाइस ऑफ़ इंडिया द्वारा प्रकाशित 1997 ईस्वी के संस्करण में) दिये गये हैं -
'पानी में जिंदा उबालना यंत्रणा का एक प्रकार था जो सामान्यत: स्त्रियों को दिया जाता था। पेरिस के आफि़शियल रिकार्ड बताते हैं कि फ्रांस में इंग्लैण्ड की तुलना में यंत्रणा देने के लिए ज्यादा फ़ीस लगती थी। तेल में उबालने के लिये यहाँ 48 फ्रैंक लगते थे जबकि इंग्लैंण्ड में 1 शिलिंग में काम चल जाता था। चक्के पर तोडऩे के लिए 10 फ्रैंक, घोड़े द्वारा शरीर को चार टुकड़े में फाडऩे के लिए 30 फ्रैंक, जिन्दा गाडऩे के लिए 2 फ्रैंक, चुड़ैल करार दी गयी स्त्री को जिन्दा जलाने के लिए 28 फ्रैंक, शिशु को बोरे में भरकर डुबोने के लिए 24 फ्रैंक, जीभ, कान, नाक काटने के लिए 10 फ्रैंक, तपती लाल सलाख दागने के लिए 10 फ्रैंक, ‘थम्ब स्क्रू’लगाने के लिए 2 फ्रैंक, जिन्दा चमड़ी उतारने के लिए 28 फ्रैंक, इन दण्डों को देने वालों को मिलते थे। यह सूची काफ़ी लम्बी है।’’
'बर्बर नृशंस यंत्रणा के बाद जब ये कथित ‘चुड़ैलें’शैतान से अपने नाजायज सम्बन्ध ‘कुबूल’लेती थीं, तब न्यायाधीश इन्हें मृत्युदंड देते थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार 1484 से लेकर अगले तीन सौ साल 1784 तक की अवधि में 90 लाख स्त्रियों को चुड़ैलगिरी के अपराध में मारा गया (मटिल्डा की उक्त पुस्तक का पृष्ठ 247)। पहले की शताब्दियों में मारे गये लोगों की संख्या तो ज्ञात ही नहीं है। ‘विच क्राफ्ट’से सम्बन्धित मुकदमों में चर्च का खजाना भरता गया क्योंकि जिस परिवार में एक भी चुड़ैल पायी गयी उसकी सारी सम्पत्ति चर्च की हो जाती थी।’
मृत्युदंड देने की विधि भी भयंकर बर्बर थी। मटिल्डा ने पृष्ठ 246-247 में उसका भी वर्णन किया है- अपराधिनी को जेल के एक गहरे अंधेरे तलघर में निर्वसन रखा जाता था। हाथ-पैर कसकर बांधकर उन्हें उस तलघर के चारों कोनो से लटका दिया जाता था। फिऱ उसके ऊपर भारी वजन रखा जाता जो रोज बढ़ाया जाता। पहले दिन जौ की एक रोटी के तीन कौर खाने को दिये जाते। अगले दिन केवल पानी दिया जाता और फिऱ उसके अगले दिन वह भी रोक दिया जाता। ऊपर से वजन लगातार बढ़ाया जाता और अपराधिनी के मरने तक यह काम किया जाता था। एक अन्य लेखिका केरेन आर्मस्ट्रांग ने ईसाई स्त्रियों के ऐसे ही उत्पीडऩों पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं और उनका प्रामाणिक विवरण दिया है।
इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशों की स्त्रियों की इस दुर्दशा को छिपाने के लिये ही बंगाल में विधवा स्त्री को सम्पत्ति मिलने के कारण कतिपय परिवारों में लोभवश उक्त विधवा को सती होने के लिये उकसाने की बात का ऐसा अतिरंजित प्रचार किया गया कि मानो घर-घर में हर विधवा स्त्री इसी प्रकार जला दी जाती है। कंपनी के हिन्दू कर्मचारियों को यह झूठ फ़ैलाने के लिये कहा गया, जो उन्होंने किया। यूरोप में स्त्रियाँ उस समय तक न्यूनतम सम्पत्ति की भी स्वामिनी नहीं थीं और घर तथा ससुराल की किसी भी वस्तु पर उनका मान्य नहीं था, इस तथ्य को छिपाने के लिये बंगाल की कतिपय सम्पत्तिशाली विधवाओं के साथ उनके किन्हीं कुटुम्बियों द्वारा किये जाने वाले छलपूर्ण उकसावे को इतना अतिरंजित रूप से प्रचारित किया गया ताकि बंगाल में स्त्रियों को सम्पत्ति का स्वामित्व होने की बात छिप जाये। इसी प्रकार बंगाल में उस समय अनेक रानियां थीं, जिन्हें कंपनी के लोगों ने जमींदार और व्यापारी स्त्रियाँ कहकह प्रचारित किया ताकि उनके महारानी होने का सत्य छिप जाये। ये कर्मचारी पहले तो उन्हीं रानियों की शरण में जाकर उनसे व्यापार संबंधी कुछ सुविधायें देने की विनती करते थे और फिऱ जब वे उदारता पूर्वक ऐसी सुविधा दे देती थीं तो ये कृतघ्न नरपशु उनके विरूद्ध ही षड्यंत्र रचने लगते थे क्योंकि स्त्रियों के विरूद्ध षड्यंत्र का उन्हें अपने-अपने देश में अभ्यास था।
यूरोप में शताब्दियों तक स्त्रियों के भीषण उत्पीडऩ और बर्बर यन्त्रणाओं तथा भयंकर प्रतिबन्धों के विरोध में चले स्त्री आंदोलन में स्त्री की स्वतंत्रता की मांग स्वाभाविक ही है। जबकि उसकी नकल में भारत में उन्हीं बातों को ज्यों की त्यों दुहराने वाली स्त्रियाँ स्वयं को स्त्री स्वतंत्रता की पक्षधर बताती हैं। स्पष्ट है कि इसका भारतीय देश और काल तथा इतिहास और सत्य से कोई संबंध नहीं है।
वस्तुत: हिन्दू स्त्री पर इस विश्व इतिहास के संदर्भ में बहुत बड़े दायित्व हैं। सर्वप्रथम तो भारतीय स्त्री को अपनी अस्मिता की पहचान अपने वास्तविक इतिहास के संदर्भ में स्वयं ही करनी होगी। विश्व भर की स्त्रियों के नेतृत्व का यूरोपीय स्त्रियों का दावा इतिहास के तथ्य को अनदेखा करता है। निश्चय ही अपनी यन्त्रणा और दुख से यूरोप की स्त्रियाँ बड़े धीरज और संघर्ष के द्वारा ही मुक्त हो सकी हैं। परंतु इस पुरूषार्थ के कारण वे विश्व भर की सदा से सम्मानित रही स्त्रियों को भी अपने ही जैसी अपमानित, तिरस्कृत और उत्पीडि़त बताने का झूठ रचें, यह उचित नहीं है।
सत्य यह है कि भारतीय स्त्री अपनी प्रज्ञा एवं शील के प्रकाश से यूरोपीय स्त्री का मार्ग-दर्शन कर सकती है, उसे आवश्यक परमार्श दे सकती है। उसे बौद्धिक प्रकाश का आध्यात्मिक सहयोग दे सकती है। सम्यक् व्यवहार का अनुकरणीय दृष्टान्त उसके समक्ष रख सकती है। यूरोख्रीस्त ‘मैन’ को आसुरी दर्प से मुक्त कर सचमुच मानवीय बनाने के कठिन कार्य में उसकी आध्यात्मिक सहायता कर सकती है। उसे भावना का सम्बल दे सकती है। तेज का सहारा दे सकती है। अंतस् के रस का धर्म समझाकर उसे शक्तिशाली बनने की राह सुझा सकती है। इसी प्रकार की सहायता हिन्दू स्त्री, इस्लाम में दीक्षित स्त्रियों की भी कर सकती है।
सत्य ही हिन्दू स्त्री की सबसे बड़ी शक्ति है। ऐतिहासिक यथार्थ ही उसके आत्मगौरव का प्रमुख आधार है। शील और गुणों का उत्कर्ष ही उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। उसे भ्रान्त धारणाओं से स्वयं तो मुक्त रहना ही है, औरों को भी मुक्त होने में सहायता देनी है। स्त्री-प्रश्न पर हिन्दू दृष्टि से सभ्यतामूलक विमर्श करना उसका धर्म है, कर्तव्य है और इसकी सहज सामथ्र्य भी है उसमें। केवल यूरोख्रीस्त समाज को विश्व-समाज मानना बन्द हो। मुस्लिम-काल में आए प्रभावों में ही आत्मगौरव की अनुभूमि बंद हो। दैन्य एवं ग्लानि की कोई आवश्यकता ही नहीं। इतने विराट काल-प्रवाह में कुछ वर्ष जब पूरे भारतीय समाज में ग्लानि आई तो भारतीय स्त्री में भी आनी ही थी। स्वाधीन भारतीय स्त्री धर्म की इस ग्लानि को दूर करने में समर्थ है।
यह स्वाभाविक ही है कि स्वाधीन भारत में राष्ट्र जीवन के हर क्षेत्र में भारतीय स्त्रियाँ आगे आयें और वे अपने आत्मगौरव के साथ प्रतिष्ठित हों। सेना, व्यापार, उद्योग, चिकित्सा, सेवा, शिक्षा सहित संस्कृति और जीवन के सभी क्षेत्रों में भारतीय स्त्रियाँ अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। मध्यकालीन विकृतियों का प्रभाव कुछ पुरूषों में भी विकृति के रूप में आया है। उसका सामना भी भारतीय स्त्रियों को करना पड़ता है। वीरता और विवेक के साथ वे इन कठिनाइयों का सहज ही सामना कर सकती हैं और कर रही हैं। भारतीय स्त्री राष्ट्र जीवन के हर क्षेत्र में आज सक्रिय है जो उसकी ऐतिहासिक निरंतरता में ही है।