जीवन की उत्पत्ति आनुवांशिकता और लिंग भेद

जीवन की उत्पत्ति आनुवांशिकता और लिंग भेद

   आनुवांशिकी के अन्तर्गत आनुवांशिकता के कारण जीवों तथा उनके पूर्वजों या संततियों में समानता तथा विभेदों, उनकी उत्पत्ति के कारणों और विकसित होने की संभावनाओं का अध्ययन किया जाता है। प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। इन कोशिकाओं में कुछ गुणसूत्र (chromosome) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (Species) में निश्चित होती है। इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति कुछ डी.एन.. (DNA) की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। ये जीन, गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। समस्त जीव, चाहे वे जन्तु हों या वनस्पति, अपने पूर्वजों के यथार्थ प्रतिरूप होते हैं। वैज्ञानिक भाषा में इसे 'समान से समान की उत्पति' (Like begets like) का सिद्धान्त कहते हैं। आनुवंशिकी के अन्तर्गत कतिपय कारकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता है:-
प्रथम कारक आनुवंशिकता है। किसी जीव की आनुवंशिकता उसके पूर्वजों या माता पिता की जननकोशिकाओं द्वारा प्राप्त रासायनिक सूचनाएँ होती हैं। जैसे कोई प्राणी किस प्रकार परिवर्धित होगा, इसका निर्धारण उसकी आनुवंशिकता ही करेगी।
दूसरा कारक विभेद है जिसे हम किसी प्राणी तथा उसकी सन्तान में पाते या पा सकते हैं। प्राय: सभी जीव अपने माता-पिता या कभी कभी दादा-दादी या उनसे पूर्व की पीढ़ी के लक्षण प्रदर्शित करते हैं। ऐसा भी सम्भव है कि उसके कुछ लक्षण सर्वथा नवीन हों। इस प्रकार के परिवर्तनों या विभेदों के अनेक कारण होते हैं।
जीवों का परिवर्धन परिस्थिति तथा उनके  वातावरण (Environment) पर भी निर्भर करता है। प्राणियों के वातावरण अत्यन्त जटिल होते हैं; इसके अंतर्गत जीव के वे समस्त पदार्थ (Substance), बल (Force) तथा अन्य सजीव प्राणी (Organizm) समाहित हैं, जो उनके जीवन को प्रभावित करते रहते हैं।
आधुनिक सन्दर्भ में जोहानसेन (Wilhelm Johannsen) ने सन् 1911 में जीवों के बाह्य लक्षणों (Phenotype) तथा पितृगत लक्षणों (Genotype) में भेद स्थापित किया। जीवों के बाह्य लक्षण उनके परिवर्धन के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं, जैसे जीवों की भ्रूणावस्था, शैशव, यौवन तथा वृद्धावस्था में पर्याप्त शारीरिक विभेद दृष्टिगोचर होता है। इसके विपरीत उनके पितृगत लक्षण या विशेषताएँ स्थिर तथा अपरिवर्तनशील होती हैं। किसी भी जीव के पितृगत लक्षण और वातावरण की अंतक्रियाओं के फलस्वरूप उसकी वृद्धि और परिवर्धन होता है। अत: पितृगत लक्षण जीवों के 'प्रतिक्रया के मानदंड' (Norms and reactions) अर्थात् परिवेश के प्रति उनकी प्रतिक्रिया (response) के ढंग का निधार्रण करते हैं। इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं से जीवों के बाह्य लक्षण (Phenotype) का निर्माण होता है।   
आनुवंशिक तत्व का कृषि विज्ञान में फसलों के आकार, उत्पादन, रोगरोधन तथा पालतू पशुओं आदि के नस्ल सुधार आदि में उपयोग किया जाता है। आनुवंशिक तत्वों की सहायता से उद्विकास (Evolution), भ्रौणिकी (Embroyology) तथा अन्य संबद्ध विज्ञानों के अध्ययन में सुविधा होती हैं। पितृगत लक्षणों तथा रोगों संबंधी अनेक भ्रमों का इस विज्ञान ने निराकरण किया है। जुड़वाँ संतानों की उत्पत्ति और सुसंततिशास्त्र (eugenics) की अनेक समस्याओं पर इस विज्ञान ने प्रकाश डाला है। इसी प्रकार जनसंख्या-आनुवंशिक-तत्व (Population genetics) की अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियों से मानव समाज लाभान्वित हुआ है।
टी.एच. मार्गन (1886-1945) तथा उनके सहयोगियों ने यह दर्शाया कि कतिपय जीन, जिनका वंशानुक्रम (Inheritence) विनिमय (Crossing over) प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ, अणुवीक्षणयंत्रों (microscopes) द्वारा ही दृष्ट कतिपय गुणसूत्रों (Chromosomes) में उपस्थित रहते हैं। साथ ही उन्होंने यह भी बतलाया कि गुणसूत्रों के भीतर ये जीन एक निर्धारित अनुक्रम में व्यवस्थित रहते हैं जिसके कारण इनका आनुवंशिकीय मानचित्र (genetic map) बनाना संभव होता है। इन लोगों ने कदली मक्खी, ड्रोसोफिला, के जीन के अनेक मानचित्र बनाए। प्रोफेसर मुलर ने उत्परिवर्तन (Mutation) के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रयोगों द्वारा नए नए वैज्ञानिक अनुसंधानों का मार्गदर्शन किया। कृत्रिम उत्परिवर्तनों (Artificial or induced mutation) की अनेक विधियों द्वारा पालतू पशुओं तथा कृषि की नस्लों में अद्भुत सुधार कार्य किए गए, यह सब मानव कल्याण के लिए परम हितकारी सिद्ध हुई हैं।

गुणसूत्र (Chromosome)

गुणसूत्र की संरचना में दो पदार्थ विशेषत: संमिलित रहते हैं- (1) डिआक्सीरिबोन्यूक्लीइक अम्ल (Deoxyribonucleic acid) या डी.एन. (D.N.A.), तथा (2) हिस्टोन (Histone) नामक एक प्रकार का प्रोटीन। डी.एन.. ही आनुवंशिक (hereditary) पदार्थ है। डी.एन.. (D.N.A.) अणु की संरचना में चार कार्बनिक समाक्षार सम्मिलित होते हैं- दो प्यूरिन (purines), दो पिरिमिडीन्स (pyrimidines), एक शर्करा-डिआक्सीरिबोज (Deoxyribose) और फासफ़ोरिक अम्ल (Phosphoric acid) प्यूरिन में ऐडिनिन (Adenine) और ग्वानिन (Guanine) होते हैं और पिरिमिडीन में थाइमीन (Thymine) और साइटोसिन (Cytosine) डी.एन.. (D.N.A.)  के एक अणु में दो सूत्र होते हैं, जो एक दूसरे के चारों और सर्पिल रूप में वलयित (spirally coiled) होते हैं। प्रत्येक डी.एन.. (D.N.A.)  सूत्र में एक के पीछे एक चारों कार्बनिक समाक्षार-थाइमीन, साइटोसिन, ऐडिनीन और ग्वानिन के क्रम से होते हैं, एवं वे परस्पर एक विशेष ढंग से जुड़े होते हैं। इन चार समाक्षारों और उनसे संबंधित शर्करा और फास्फोरिक अम्ल अणु का एक एकक टेट्रान्यूक्लीओटिड (Tetranucleotide) होता है और कई सहस्त्र टेट्रान्यूक्लीओटिडों का एक डी.एन.. (D.N.A.)  अणु बनता है।
विभिन्न प्राणियों के डी.एन.. की विभिन्नता का कारण है - समाक्षारों के अनुक्रम में अंतर होना। डी.एन.. और ऐसा ही एक दूसरा न्यूक्लिक अम्ल आर.एन.. (R.N.A.) कार्बनिक समाक्षार की उपस्थिति के कारण पराबैंगनी (ultraviolet) को अधिकांश 2,600 एंगस्ट्रॉम (angstrom) or 0.0002 mm के क्षेत्र में अंतर्लीन (absorb) करते हैं। इसी आधार पर डी एन.. का एक कोशिका संबंधी मात्रात्मक आगमन किया जाता है। प्राणियों में दो विशेष प्रकार के केंद्रसूत्र पाए जाते हैं। एक तो कुछ डिप्टरा इंसेक्टा (Diptera, Insecta) में डिंभीय लारग्रंथि (larval salivary gland) के केंद्रकों में पाया जाता है। ये गुणसूत्र उसी जाति के साधारण गुणसूत्रों की अपेक्षा कई सौ गुने लंबे और चौड़े होते हैं। इस कारण इन्हें महागुणसूत्र (Giant chromosomes) कहते हैं। इनकी संरचना साधारण समसूत्रण और अर्धसूत्रण केंद्रसूत्रों से कुछ भिन्न दिखाई पड़ती है। यहाँ एक गुणसूत्र के स्थान पर एक अनुप्रस्थ पंक्ति ऐसी कणिकाओं की होती है जिनमें अभिरंजित होने की योग्यता अधिक होती हैं। गुणसूत्र के एक छोर से दूसरे छोर तक बहुत सी ऐसी अनुप्रस्थ पंक्तियों की सभी कणिकाएँ एक समान होती हैं और अन्य पंक्तियों की कणिकाओं में विशेषताएँ और विभिन्नताएँ होती हैं।
इन गुणसूत्रों के अधिक लंबे होने के कारण यह समझा जाता है कि इनका पूर्ण रूप से विसर्पिलीकरण (despiralisation) होता है और कदाचित् प्रोटीन का कुछ बढ़ाव भी होता है। अधिक चौड़े होने के कारण एक गुणसूत्र अपने समान एक दूसरे केंद्रक- गुणसूत्र का संश्लेषण करता है। साधारण अवस्था में समसूत्रण के समय ये दोनों सूत्र एक दूसरे से पृथक् हो जाते हैं, परंतु महागुणसूत्र में यह नहीं होता। दोनों सूत्र एक दूसरे से जुड़े ही रह जाते हैं। महागुणसूत्र की संख्या साधारण गुणसूत्र की संख्या की आधी होती है, क्योंकि प्रत्येक सूत्र अपने समान दूसरे सूत्र से युग्मित हो जाता है। इस घटना को दैहिक युग्मन (Somatic pairing) कहते हैं।
जंतुओं में विचित्र प्रकार का एक और भी गुणसूत्र पाया जाता है। इसको लैंपब्रश गुणसूत्र (Lampbrush chromosome) कहते हैं। ये गुणसूत्र ऐसे जंतुओं के अंडों के केंद्रकों में पाए जाते हैं जिनमें अंडपीत की मात्रा अधिक होती है, जैसे मछली, उभयचर, सरीसृप, पक्षीगण इत्यादि। गुणसूत्र साधारण डिप्लोटीन-डायाकिनीसिस (Diplotene-diakinesis) गुणसूत्रों के समान दो दो युग्मित सूत्रों के बने होते हैं। दोनों युग्मित सूत्र कुछ स्थानों पर एक दूसरे से जुड़े होते हैं और शेष स्थानों पर एक दूसरे से दूर-दूर रहते हैं। इन जोड़ों को किएज्मा समझा जाता है। प्रत्येक सूत्र पर, जिसको क्रोमोनिमा (Chromonema) कहते हैं, स्थान स्थान पर विभिन्न परिमाण की कणिकाएँ होती हैं जिनको क्रोमोमियर्स (Chromomeres) कहते हैं। प्रत्येक क्रोमोमियर से एक जोड़ी या अधिक पार्श्वपाश (lateral  loops) जुड़े हुए होते है। पार्श्वपाश भी क्रोमोनिमा के सदृश सूत्र का बना होता है, परंतु इसके चारों ओर रिबोन्यूक्लिओ-प्रोटीन कणिकाएँ एकत्रित हो जाती हैं जिससे ये सूत्र मोटे दिखाई देते हैं। क्रोमोमियर भी क्रोमोनिमा से संतत होते हैं। केंद्रिकाएँ विशेष गुणसूत्र पर उत्पन्न होती हैं।
अधिकांश जंतुओं की प्रत्येक कोशिका में गुणसूत्रों के दो एकात्म कुलक (integral set) होते हैं। परिपक्व लिंग कोशिकाओं (mature sex-cells) में एक कुलक रह जाता है। ऐसे प्राणी और कोशिकाएँ द्विगणित (diploid) कही जाती हैं, परंतु कुछ प्राणियों, विशेषत: पौधों, में दो से अधिक कुलक गुणसूत्रों के होते हैं यह बहुगुणित (polyploid)) कहे जाते हैं। यदि किसी द्विगुणित प्राणी के केंद्रक सूत्र दुगुने हो जाएँ, जिससे उसकी कोशिकाएँ में प्रत्येक सूत्र चार चार हों जैसे, (1 1 1 1; 1 1 1 1, 1 1 1 1 इत्यादि) तो ऐसे प्राणी का आटोपॉलिप्लॉइड ((autopolyploid) or (autotetraploid) कहते हैं। यदि किसी द्विगुणित संकर (deploid hybrid) के गुणसूत्र दुगुने हो जाए तो ऐसे प्राणी को ऐलोपॉलिप्लॉइड (allopolyploid) कहते हैं। यदि एक द्विगुणित प्राणी का, जिसके केंद्रकसूत्र 1 1 1 1 1 1 इत्यादि हैं, किसी दूसरे प्राणी से, जिसके गुणसूत्र 2 2 2 2 2 2 इत्यादि हैं, संकरण किया जाए तो उसकी संतान के गुणसूत्र 1 2 1 2 1 2 इत्यादि होंगे। 1 2 1 2 इत्यादि एक दूसरे से भिन्न होंगे और इनमें साधारणत: युग्मन नहीं होगा। यदि इस प्राणी के गुणसूत्र दुगुने हो जाए तो उनकी कोशिकाएँ में 1 1 2 2; 1 12 2; 1 1 2 2, इत्यादि गुणसूत्र होंगे। यह ऐलोपॉलिप्लॉइड (ऐलोटेट्राप्लॉइड) कहा जाएगा। पॉलिप्लॉइड में चार से अधिक कुलक भी हो सकते हैं।
यह स्पष्ट है कि ऑटोपॉलिप्लॉइड में ज़ाइगोटीन अवस्था में चतु:संयोजक (quadrivalents) उत्पन्न हो जाएँगे, क्योंकि प्रत्येक प्रकार के चार-चार गुणसूत्र उपस्थित हैं और चार सूत्रों के युग्मन से एक चतु:संयोजक बनता है। कोशिका विभाजन के समय प्रत्येक ध्रुव को बराबर-बराबर संख्या में गुणसूत्र नहीं मिलेंगे। प्राय: ऐसा होता है कि एक चतु:संयोजक के टूटने से किसी ध्रुव पर तीन सूत्र पहुँचे और उसके समुख ध्रुव पर एक ही सूत्र पहुँचे। कोशिका विभाजन के अंत पर बने हुए संतति कोशिकाओं (daughter cells) में गुणसूत्र या तो अधिक संख्या में होंगे या कम होंगे और ऐसे असंतुलन का परिणाम यह होता है कि कोशिका मर जाती है। इसी कारण ऑटोटेट्राप्लॉइड बहुत कम उर्वर होते हैं। ऑटोटेट्राप्लॉइड पौधे साधारण द्विगुणित पौधों से बहुत बड़े होते हैं तथा उनके बीज भी बहुत बड़े होते हैं, जिससे उर्वरता कम होने पर भी ये गृहस्थी के लिये अधिक लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं। ठंडक पहुँचाकर, या कुछ ऐलकेलायडों के प्रभाव से, पौधे आटोपॉलिप्लाइड बनाए जा सकते हैं।
ऐलोटेट्राप्लॉइड में दशा इसके विपरीत होती हैं। यदि दोनों आदिम माता-पिता के सूत्र एक दूसरे से पूर्ण रूप से विभिन्न हों तो ऐलोपॉलिप्लाइड क्रियात्मक रूप से द्विगुणित है और पूर्ण रूप से उर्वर होगा। जैसे, यदि किसी संकर में 1 2, 1 2, 1 2 से सूत्र सर्वथा भिन्न हों तो ऐसा संकर बंध्या होगा, परंतु इसके गुणसूत्रों के दुगुने होने से यह अवस्था बदल जायगी। ऐसी कोशिकाओं में 1 1 2 2, 1 1 2 2, 1 1 2 2 इत्यादि सूत्र होंगे और जिन शाखाओं में ऐसी कोशिकाएँ होंगी उनपर फूल लगेंगे, क्योंकि ऐसी कोशिकाओं में माइओटिक विभाजन सफल होगा, 1 1 से युग्मित होगा, 1 1 से इत्यादि।

विभिन्न वनस्पतियों जन्तुओं में गुणसूत्रों की संख्या

धतूरा स्ट्रामोनिअम (Datura stramonium) में द्विगुणित अवस्था में 12 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं और अर्धसूत्रण के समय द्विसंयोजक बनते हैं। इसके ऑटोपॉलिप्लॉइड में 12 चतुष्क (48) गुणसूत्र होते हैं और अर्धसूत्रण के समय 12 चतु:संयोजक बनते हैं। इसी भाँति प्रिम्यूला साइनेंसिस (Primula sinensis) से द्विगुणित पौधे में 12 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं और ऑटोटेट्राप्लॉइड में 48 सूत्र होते हैं एवं अर्धसूत्रण के समय इसमें 9 से 11 चतु:संयोजक और 2 से 6 तक द्विसंयोजक बनते हैं। सोलेमन लाइकोपरसिकॉन (Solanumlycopersicon) के द्विगुणित में 12 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं और उसके ऑटोटेट्राप्लॉइड में 12 चतुष्क (48) गुणसूत्र। ये सब पौधे हैं।
क्रीपिस रुब्रा (Crepis rubra) और क्रीपिस फ़ोएटिडा (Crepis foctida)  में 5 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। इनके सूत्र एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं होते और इनके संकरण से उत्पन्न संकर में अर्धसूत्रण के समय 5 द्विसंयोजक बनते हैं। इसके ऐलोपॉलिप्लॉइड में 20 केंद्रक सूत्र होते हैं और अर्धसूत्रण में 0 से 5 चतु:संयोजक बनते हैं और 0 से 10 द्विसंयोजक। स्पष्ट है कि ऐलोटेट्राप्लॉइड बहुत उर्वर नहीं होगा। प्रिम्यूला फ्लोरिबंडा (Primula floribunda) और प्रिम्यूला रेस्टिसिलेटा (Primula resticillata) दोनों में ही 9 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं, जो एक दूसरे के प्राय: समान होते हैं। इनके संकरण से जो संकर बनाता है उसे प्रित्यूजा किवेन्सिस कहते हैं। इसमें भी 9 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। अर्धसूत्रण के समय में युग्मन क्रिया सफल होती है और 9 द्विसंयोजक बनते हैं। सूत्रों के द्विगुण होने से जो ऐलोपॉलिप्लाइड बनता है उसमें 9 चतुष्क (36) सूत्र होते हैं और ऐसे पौधे में 12 से 18 तक द्विसंयोजक बनते हैं और 0 से 3 तक चतु:संयोजक। स्पष्ट है कि चतु:संयोजकों की संख्या बहुत कम है और कभी-कभी एक भी चतु:संयोजक नहीं बनता। मूली (Raphanus) और करमकल्ला (Brassica) में से प्रत्येक में 9 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं, जो एक दूसरे से पूर्णत: भिन्न होते हैं। इनके संकरण से उत्पन्न संकर रैफ़ानस ब्रैसिका (Raphanus-Brassica) में भी 9 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं; परंतु अर्धसूत्रण में एक भी द्विसंयोजक नहीं बनता, क्योंकि युग्मन की क्रिया सफल नहीं होती और सभी सूत्र अयुग्मित रह जाते हैं जिससे 12 एक-संयोजक बनते हैं। इसके सूत्र द्विगुण से उत्पन्न ऐलोटेट्राप्लॉइड में 12 जोड़ी सूत्र होते हैं और अर्धसूत्रण में 12 संयोजक बनते हैं, चतु:संयोजक एक भी नहीं। परिणाम यह होता है कि रैफ़ानस-ब्रैसिका-ऐलाटेट्राप्लॉइड बहुत उर्वर होता है, यद्यपि रैफ़ानस-ब्रैसिका-द्विगुणित बंध्या होता है।
जंतुओं में पॉलिप्लॉइडी बहुत कम पाई जाती है पर यह अनिषेकजनित (Parthenogenetic) जंतुओं में बहुधा पाई जाती है। पौधों में बहुत सी नई जातियाँ पॉलिप्लॉइड के कारण उत्पन्न हुई होंगी। इसका प्रमाण इससे मिलता है कि ऐंजियोस्पर्म्स (Angiosperms) की लगभग आधी जातियाँ ऐसी है जिनके परिपक्व युग्मकों (Gametes) के गुणसूत्रों की संख्या किसी संबंधित जाति के युग्मकीय गुणसूत्र की संख्या की गुणित है। गेहूँ की कई जातियाँ हैं। इन जातियों की मूल युग्मकीय केंद्रकसूत्र संख्या 7 है। गुणसूत्रों की संख्या गेहूँ की जातियों में 7 की गुणित 14, 21, 42 तथा 49 तक पाई जाती है। इसी भाँति तंबाकू की भिन्न-भिन्न जातियों में गुणसूत्रों की संख्या 12 अथवा 12 की गुणित 24 होती है। पौधों में प्रयोग द्वारा बहुत से पॉलिप्लॉइड बनाए गए हैं, जिनमें एकात्मक सूत्रों के दो कुलक होते हैं। ये उर्वर होते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि कोशिका द्रव्य, केंद्रक के नियंत्रण में कार्यशील होता है। अनेक प्रकार के कोशिका समूह अन्यान्य कार्र्यों के संचालन में लगे रहते हैं। उदाहरणत: अग्न्याश (Pancreas) की एक्सोक्राइन (Excorine) कोशिकाएँ विशेष पाचक किण्वज उत्पन्न करती हैं। गुदा की नलिका की कोशिकाएँ रुधिर से यूरिया निकाल लेती हैं और यकृत की कोशिकाएँ ग्लूकोस को ग्लाइकोजन में परिणत करके एकमित कर लेती हैं। स्पष्ट है कि किसी भी प्राणी की प्रत्येक कोशिका में उसके सब जीन (Gene) साधारणत: उपस्थित होते हैं। इसलिये भिन्न-भिन्न प्रकार की कोशिकाओं के विविध प्रकार के प्रोटीनों (जिनकी वे बनी है) की उत्पत्ति में कुछ उपयुक्त जीन तो सक्रिय रहे होंगे और शेष सब निष्क्रिय हो गए होंगे ओर उनकी सक्रियता के संबंध में भी यही बात होती होगी।

मनुष्य का आनुवंशिक अध्ययन

अनेक वैज्ञानिकों का मत है कि मनुष्य का आनुवंशिक अध्ययन सरल कार्य नहीं है। इसका कारण यह बतलाया जाता है कि मनुष्य की संतान के जन्म में लगभग 10 मास लग जाते हैं और इसे पूर्ण वयस्क होने में कम से कम 20 वर्ष लगते हैं। अत: एक दो पीढ़ी के ही अध्ययन के लिए 20, 22 वर्षों का समय लगने के कारण मनुष्य का आनुवंशिक अध्ययन जटिल है। इसके साथ ही मनुष्य को एक बार में साधारणतया एक ही बच्चा उत्पन्न होता है, इससे भी अध्ययन में कठिनाई होती है। इन कठिनाइयों के बावजूद मनुष्य के शरीर की बाहरी रचना, रोगों, उनके लक्षणों एवं कारणों आदि का अध्ययन सरल होता है। आधुनिक सन्दर्भ में मनुष्यों की जीव रासायनिक आनुवंशिकी (Biochemical Genetics) का प्रथम अध्ययन लंदन के चिकित्सक आर्चिबाल्ड गैरोड (1857-1936) ने किया था किंतु सन् 1940 के पूर्व इस विषय पर विस्तृत अध्ययन नहीं हुए थे। मनुष्यों में जीन के संबंध में लगभग 60 गुणों (Traits) का पता चला है।
जीव विज्ञान में आनुवांशिकी के अध्ययन का वही महत्व है जो भौतिक विज्ञान में परमाणवीय सिद्धांतों का है। मनुष्य के आनुवांशिक अध्ययनों के आरंभिक रूपों में बह्वांगुलिता (अतिरिक्त अंगुलियों का होना), हीमोफ़ीलिया, तथा वर्णांधता (कलर-ब्लाइंडनेस) मुख्य विषय थे। उदाहरणार्थ सन् 1750 में बर्लिन में मॉपर्टुइस ने मेंडेल के नियमों के आधार पर बह्वांगुलिता का वर्णन किया था। इसी प्रकार ओटो (1803), हे (1813) और बुएल्स (1815) ने न्यू इंग्लैंड के तीन विभिन्न परिवारों में लिंगसहलग्न हीमोफ़ीलिया रोग के आनुवंशिक कारणों पर प्रकाश डाला था। सन् 1876 में स्विट्जरलैंड के चिकित्सक, हार्नर ने वर्णांधता का वर्णन किया। सन् 1958 में जार्ज बीडिल को 'कायकी तथा औषधि' विषयक जैव रासायानिक आनुवंशिकी क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन् 1959 में जिरोम लेजुईन ने मंगोलीय मूढ़ता (मंगोलायड ईडिओसी) का विद्वत्तापूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया। सन् 1956 में जे.एच.जिओ, अल्बर्ट लीवान, चार्ल्स फोर्ड एवं जान हैमर्टन ने मुनष्य के गुणसूत्रों की संख्या 46 बतलाई; इसके पूर्व लोगों का मत था कि यह संख्या 48 होती है।

गर्भ उपनिषद

गर्भ उपनिषद् में कहा गया है कि:-
पञ्चात्मकं पञ्चसु वर्तमानं  षडाश्रयं षड्गुणयोगयुक्तम्। तत्सप्त धातु त्रिमलं द्वियोनि चतुर्विधाहारमयं शरीरं भवति।। पञचात्मकमिति  कस्मात् पृथिव्यास्तेजोवायुराकाशमिति। अस्मिन्पञचात्मके शरीरे का पृथिवी का आप: किं तेज: को वायु: किमाकाशम। तत्र यत्कठिनं  सा पृथ्वी यद्द्र्रवम ता आपो यदुष्णं तत्तेजो यत्सञ्चरति  वायु: यत्सुषिरं  तदाकाशमित्युच्यते।। तत्र पृथ्वी धारणे आप: पिण्डीकरणे तेज: प्रकाशने वायुर्गमने आकाशमवकाशप्रदाने। पृथक् श्रोत्रे शब्दोपलब्धौ त्वक् स्पर्शे चक्षुषी रूपे जिह्वा रसने नासिकाऽऽघ्राणे उपस्थचानन्दनेऽपानमुत्सर्गे बुद्धया बुद्धयति मनसा सङ्कल्पयति वाचा वदति। षडाश्रयमिति कस्मात् मधुराम्ललवणतिक्तकटुकषायरसान्विन्दते। षड्जर्षभगान्धारमध्यमपञ्चमधैवतनिषादाश्चेति। इष्टानिष्टशब्दसंज्ञा: प्रतिविधा: सप्तविधा भवन्ति शुक्लो रक्त: कृष्णो धूम्र: पीत: कपिल: पाण्डुर इति ।।1।। अर्थात्, शरीर पञ्चात्मक, पांचो में वर्त्तमान, : आश्रयों वाला, : गुणों के योग से युक्त, सात धातुओं से निर्मित, तीन मलों से दूषित, दो योनियों से युक्त, तथा चार प्रकार के आहार से पोषित होता है। पञ्चात्मक कैसे है? पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश (इनसे रचा हुआ होने के कारण) शरीर पञ्चात्मक है। इस शरीर में पृथ्वी क्या है? जल क्या है? तेज क्या है? वायु क्या है? और आकाश क्या है? इस शरीर में जो कठिन तत्व है , वह पृथ्वी है। जो द्रव है, वह जल है; जो उष्ण है, वह तेज है; जो सञ्चार करता है, वह वायु है; जो छिद्र है, वह आकाश कहलाता है। इनमे पृथ्वी धारण करती है, जल एकत्रित करता है, तेज प्रकाशित करता है, वायु अवयवों को यथास्थान रखता है, आकाश अवकाश प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त श्रोत शब्द को ग्रहण करने में, त्वचा स्पर्श करने में, नेत्र रूप ग्रहण करने में, जिह्वा रस का आस्वाधन करने में, नासिका सूंघने में, उपस्थ आनंद लेने में तथा पायु मलोत्सर्ग के कार्य में लगा रहता है। जीव बुद्धि द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है, मन के द्वारा संकल्प करता है, वाक-इन्द्रिय से बोलता है। शरीर : आश्रयों वाला कैसे है? इसीलिए की वह मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु और कषायईन : रसों का आस्वादन करता है। षडज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद-ये सप्त स्वर तथा इष्ट, अनिष्ट और प्रणिधानकारक (प्रणवादी) शब्द मिलाकर दस प्रकार के शब्द (स्वर) होते हैं। शुक्ल, रक्त, कृष्ण, धूम्र, पीत, कपिल और पाण्डुर - ये सप्त रूप (रंग) हैं।। 1।।
सप्तधातुमिति कस्मात् यदा देवदत्तस्य द्रव्यादिविषया जायन्ते।। परस्परं सौम्यगुणत्वात् षड्विधो  रसो रसाच्छोणितं शोणितान्मांसं  मांसान्मेदो मेदस: स्नाव्नोऽस्थीन्यन्तस्थभ्यो मज्जा मज्ज्ञ: शुक्रं शुक्रशोनणतसंयोगादावर्तते गर्भो हृदि  व्यवस्थां नयति। हृदयेऽन्तराग्निअग्निस्थाने पित्तं पित्तस्थाने वायुवायुस्थाने हृदयं प्राजापत्यात्क्रमात् ।। 2।। अर्थात्, सात धातुओं से निर्मित कैसे हैं? जब देवदत्तनामक व्यक्ति को द्रव्य आदि भोग्य-विषय जुड़ते हैं, तब उनके परस्पर अनुकूल होने के कारण षट-पदार्थ प्राप्त होते हैं जिनसे रस बनता है। रस से रुधिर, रुधिर से मांस, मांस से मेद, मेद से स्नायु , स्नायु से अस्थि, अस्थि से मज्जा, और मज्जा से शुक्र - ये सात धातुएं उत्पन्न होती हैं। पुरुष के शुक्र और स्त्री के रक्त के संयोग से गर्भ का निर्माण होता हैं। ये सब धातुएं हृदय में रहती हैं, हृदय में अंतराग्नि उत्पन्न होती हैं, अग्नि स्थान में पित्त, पित्त के स्थान में वायु और वायु से हृदय का निर्माण सृजन-क्रम से होता हैं।। 2।।
ऋतुकाले सम्प्रयोगादेकरात्रोषितं   कलिलं  भवति सप्तरात्रोषितं बुद्बुदं भवति  अर्धमासाभ्यन्तरेण पिण्डो भवति  मासाभ्यन्तरेण कठिनो भवति  मासद्वयेन शिर: सम्पद्यते मासत्रयेण पादप्रवेशो भवति। अथ चतुर्थे  मासे जठरकटि प्रदेशो भवति। पञ्च मे मासे पृष्ठवंशो भवति। षष्ठे मासे मुखनासिकाक्षिश्रोत्राणि  भवन्ति। सप्तमे मासे जीवेन संयुक्तो भवति। अष्टमे मासे सर्वसंपूर्णो भवति। पितु रेतोऽतिरिक्तात् पुरुषो भवति। मातु: रेतोऽतिरिक्तात्स्त्रियो भवन्तुर्भयोर्बीजतुल्यतान्नपुंसको  भवति। व्याकुलितमनसोऽन्धा: खञ्जाकुब्जा वामना भवन्ति। अन्योन्यवायुपरिपीडि़त शुक्रद्वैध्याद्द्विधा तनु: स्यात्ततो युग्मा: प्रजायन्ते।। पञ्चात्मक: समर्थ: पञ्चात्मकतेजसेद्धरसश्च सम्यग्ज्ञानात् ध्यानात् अक्षरमोङ्कारं चिन्तयति। तदेतदेकाक्षरं ज्ञात्वाऽष्टौ प्रकृतय: षोडश विकारा: शरीरे तस्यैवे देहिनाम्। अथ मात्राऽशितपीतनाडीसूत्रगतेन प्राण आप्यायते। अथ नवमे मासि सर्वलक्षणसंपूर्णो भवति पूर्वजाती: स्मरत कृतकृतां कर्म विभाति शुभाशुभं कर्म विन्दति ।।3।। अर्थात्, ऋतुकाल में सम्यक् प्रकार से गर्भाधान होने पर एक रात्रि में शुक्र-शोणित के संयोग से कलल बनता हैं। सात रात में बुदबुद बनता हैं। एक पक्ष में उसका पिण्ड (स्थूल आकार) बनता हैं।  वह एक मास में ठोस होता हैं। दो महीनो में वह सिर से युक्त होता हैं, तीन महीनो में पैर बनते हैं, पश्चात चौथे महीने में गुल्फ (पैर की गांठे), पेट तथा कटि-प्रदेश तैयार हो जाते हैं। पांचवें महीने में पीठ की रीढ़ तैयार होती हैं। छठे महीने में मुख, नासिका, नेत्र, और कर्ण बन जाते हैं। सातवें महीने में जीव से युक्त होता हैं। आठवें महीने में सब लक्षणों से पूर्ण हो जाता हैं।  पिता के शुक्र की अधिकता से पुत्र, माता के रुधिर के अधिकता से पुत्री तथा शुक्र और शोणित दोनों के तुल्य होने से नपुंसक सन्तान उत्पन्न होती हैं।  व्याकुल चित्त होकर समागम करने से अंधी, कुबड़ी, खोड़ी तथा बौनी सन्तान उत्पन्न होती हैं। परस्पर वायु के संघर्ष से शुक्र दो भागो में बटकर सूक्ष्म हो जाता हैं, उससे युग्म (जुड़वाँ) सन्तान उत्पन्न होती हैं। पञ्चभूतात्मक शरीर के समर्थ-स्वस्थ होने पर चेतना में पञ्च ज्ञानेंद्रियात्मक बुद्धि होती हैं; उससे गंध, रस आदि के ज्ञान होते हैं। वह अभिनाशी अक्षर कारका चिंतन करता हैं, तब इस एकाक्षर को जानकार उसी चेतन के शरीर में आठ प्रकृतियाँ (प्रकृति, महत-तत्व, अहंकार और पांच तन्मात्राये) तथा सोलह विकार (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच स्थूलभूत तथा मन) होते हैं। पश्चात माता का खाया हुआ अन्न एवं पिया हुआ जल नाडिय़ो के सूत्रों द्वारा पहुंचाया जाकर गर्भस्थ शिशु के प्राणो को तृप्त करता हैं। तदनन्तर नवें महीने में वह ज्ञानेन्द्रियाँ आदि सभी लक्षणों से पूर्ण हो जाता हैं। तब वह पूर्व जन्म का स्मरण करता हैं। उसके शुभ-अशुभ कर्म भी उसके सामने जाते हैं।। 3।। 
नानायोनिसहस्राणि  दृष्ट्वा चैव ततो मया आहारा विविधा भुक्ता: पीताश्च विविधा: स्तना:।। जातस्यैव मृतस्यैव जन्म चैव पुन: पुन: अहो दु:खोदधौ मग्न: पश्यामि  प्रतिक्रियाम्।। यन्मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म शुभाशुभम। एकाकी तेन  दह्यामि  गतास्ते फल भोगिन:।। यदि  योन्यां प्रमुञ्चामि  सांख्यं योगं समाश्रये अशुभ क्षयकर्तारं  फलमुक्ति प्रदायकम्।। यदि योन्यां प्रमुञ्चामि  तं प्रपद्ये महेश्वरम् ।अशुभ क्षयकर्तारं  फलमुक्ति प्रदायकम। यदि  योन्यां प्रमुञ्चामि तं प्रपद्ये भगवन्तं नारायणं देवम्। अशुभ क्षयकर्तारं  फलमुक्ति प्रदायकम। यदि योन्यां प्रमुञ्चामि ध्याये ब्रह्म सनातनम।। अथ जन्तु: स्त्रियोनिशतं योनिद्वारि सम्प्राप्तो यन्त्रेणापीडयमानो महता दु:खेन जातमात्रस्तु वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा स्मरति जन्ममरणं कर्म शुभाशुभम ।। 4 ।। अर्थात्, तब जीव सोचने लगता हैं - मैंने सहस्रों पूर्व जन्मों को देखा, उनमे नाना प्रकार के भोजन किये, नाना प्रकार के-नाना योनियों के स्तनों का पान किया। मैं बारम्बार उत्पन्न हुआ, मृत्यु को प्राप्त हुआ। अपने परिवार वालो के लिये जो मैंने शुभाशुभ कर्म किये, उनको सोचकर मैं आज यहाँ अकेला दग्ध हो रहा हूँ। मैं यहाँ दु: के समुद्र में पड़ा कोई उपाय नहीं देख रहा हूँ। यदि इस योनि से मैं छूट जाऊंगा - इस गर्भ के बाहर निकल गया तो अशुभ कर्मों का नाश करने वाले तथा मुक्ति रूप फल को प्रदान करने वाले महेश्वर के चरणों का आश्रय लूंगा। यदि मैं योनियों से छूट जाऊंगा तो अशुभ कर्मों का नाश करने वाले और मुक्ति रूप फल को प्रदान करने वाले भगवन नारायण की शरण ग्रहण करूँगा। यदि मैं योनियों से छूट जाऊंगा तो अशुभ कर्मों का नाश करने वाले और मुक्ति रूप फल को प्रदान करने वाले सांख्य और योग का अभ्यास करूँगा। यदि मैं इस बार योनि से छूट गया तो मैं ब्रह्म का ध्यान करूँगा, पश्चात् वह योनि द्वार को प्राप्त होकर योनि रूप यन्त्र में दबाया जाकर बड़े कष्ट से जन्म ग्रहण करता है। बाहर निकलते ही वैष्णवी वायु (माया) - के स्पर्श से वह अपने पिछले जन्म और मृत्युओं को भूल जाता है और शुभाशुभ कर्म भी उसके सामने से हट जाते है।। 4।।
शरीरमिति कस्मात साक्षादग्नयो ह्यत्र श्रियन्ते ज्ञानाग्निर्दर्शनाग्नि: कोष्ठाग्निरिति। तत्र कोष्ठाग्निर्नामाशितपीतलेह्यचोष्यं पचतीति। दर्शनाग्नी रूपादीनां दर्शनं करोति। ज्ञानाग्नि: शुभाशुभं कर्म विन्दति। तत्र त्रीणि स्थानानि भवन्ति हृदये दक्षिणाग्निरूदरे गार्हपत्यं मुखमाहवनीयमात्मा यजमानो बुद्धिं पत्नीं निधाय मनो ब्रह्मा लोभादय: पशवो धृतिर्दीक्षा सन्तोषश्च बुद्धीन्द्रियाणी यज्ञपात्राणि कर्मेन्द्रियाणि हविषिं शिर: कपालं केशा दर्भा मुखमन्तर्वेदि: चतुष्कपालं शिर: षोडश पार्श्वदन्तोष्ठपटलानि सप्तोत्तरं मर्मशतं साशीतिकं सन्धिशतं सनवकं स्नायुशतं सप्त शिरासतानि पञ्च मज्जाशतानि अस्थीनि वै त्रीणि शतानि षष्टिश्चार्धचतस्रो रोमाणि कोट्यो हृदयं पलान्यष्टौ  द्वादश पलानि जिह्वा पित्तप्रस्थं कफस्याढ़कं  शुक्लं कुडवं मेद: प्रस्थौ द्वावनियतं  मूत्रपुरीषमाहारपरिमाणात। पैप्पलादं मोक्षशास्त्रं परिसमाप्तं पैप्पलादं मोक्षशास्त्रं परिसमाप्तमिति।।5।। अर्थात्देह-पिण्ड का 'शरीर' नाम कैसे होता है? इसलिए कि ज्ञानाग्नि, दर्शनाग्नि तथा जठराग्नि के रूप में अग्नि इसमें आश्रय लेता है। इनमें जठराग्नि वह है, जो खाये, पिए, चाटे, और चूसे हुए पदार्थों को पचाता है।  दर्शनाग्नि वह है, जो रूपों को दिखलाता है; ज्ञानाग्नि शुभाशुभ कर्मों को सामने खड़ा कर देता है। अग्नि के शरीर में तीन स्थान होते हैं- आहवनीय अग्नि मुख में रहता हैं। गार्हपत्य अग्नि उदर में रहता हैं और दक्षिणाग्नि हृदय में रहता हैं। आत्मा यजमान हैं, मन ब्रह्मा हैं, लोभादि पशु हैं, धैर्य और संतोष दीक्षाएँ हैं, शिर कपाल हैं, केश दर्भ हैं मुख अंतर्वेदिका हैं, शिर चतुष्कपाल हैं, पार्श्विका दंत पंक्तियाँ षोडश कपाल हैं, एक सौ सात मर्म स्थान हैं, एक सौ अस्सी संधिया हैं, एक सौ नौ स्नायु हैं, सात सौ शिराएँ हैं, पांच सौ मज्जायें हैं, तीन सौ साठ अस्थिया हैं, साढ़े चार करोड़ रोम हैं, आठ पल (तोले) हृदय हैं, द्वादस पल (बारह तोला) जिह्वा हैं , प्रस्थमात्र (एक सेर) पित्त, आढकमात्र (ढाई सेर) कफ, कूडवमात्र (पाव भर) शुक्र तथा दो प्रस्थ (दो सेर) मेद हैं; इसके अतिरिक्त शरीर में आहार के परिमाण से मल-मूत्र का परिमाण अनियमित होता हैं।  यह पिप्पलाद ऋषि के द्वारा प्रकटित मोक्षशास्त्र हैं, पैप्पलाद मोक्षशास्त्र है।।5।।

सनातन ज्ञान की पुष्टि

जगजाहिर है की वेद उपनिषद् यूरोपीय आधुनिक विज्ञान के आधार ग्रंथों से हजारों वर्ष पुराने हैं, और ईसाई, मुस्लिम, कम्युनिस्ट पंथी विचारधाराओं सभ्यताओं और मान्यताओं के उपज आधुनिक तथाकथित विद्वान, दार्शनिक, आदि के सोच सनातनी चिन्हों के विनष्टीकरण के बाद भी बचे खुचे सनातनी शास्त्रों के सूत्र शास्वत  सत्य हैं जिसका 'गर्भ उपनिषद्' प्रत्यक्ष उदाहरण है जिसमे केवल क्रोमोसोम्स, डीएनए, आरएनए अपितु कर्मफल भी समाहित करते हुए मोक्ष प्राप्ति के लिए उपदेश देते हैं, अपने सन्तति को मार्गदर्शन करते हैं।
वास्तव में मानव जोवों में सर्वोत्कृष्ठ सृजन है जिसमे  अजीव से सजीव बनते अकोशीय, एक कोशीय, बहुकोशीय जीव के गुणों को मातृ-गर्भ में प्रवेश के समय एक कोशीय बूँद से गर्भ के अंदर मातृशक्ति के पोषण-संरक्षण से अंग-प्रत्यंग और संवेदात्मक सहित परमात्मा प्रेरित अनेकों विशिष्टताओं के समेटते लगभग नौ महीने के मातृ-गर्भ रूपी प्रयोगशाला में पुष्ट होकर कर्म-फल भोगने और नए प्रतिमान स्थापना करने के लिए बाहर निकलता है। यह इतना उत्कृष्ट है की देवताओं को भी परमात्मा से मिलन के लिए मानव योनि में ही आना अनिवार्य है, और कोई उपाय नहीं। अस्तु। 

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