शालाक्य तंत्र अष्टांग आयुर्वेद का अभिन्न अंग है, इसके अन्तर्गत ऊर्ध्वजत्रुगत विकार अर्थात् अक्षि, कर्ण, नासा, कण्ठ एवं मुख में होने वाले विकारों के लक्षण एवं चिकित्सा का वर्णन किया गया है। जिस मनुष्य के दोष, धातु, अग्नि समावस्था में हो, इन्द्रियाँ प्रसन्न हो उसे आयुर्वेदानुसार स्वस्थ कहा गया हैं। दोष, धातु, मलों को प्राकृत अवस्था में रखने हेतु दिनचर्या एवं ऋतुचर्या का आवश्यक रूप से पालन करना चाहिए।
दिनचर्या
1. ब्रह्म मुहूर्त में उठकर मल-मूत्र का त्याग करें।
2. दन्तशोधन एवं जिह्वानिर्लेखन प्रतिदिन प्रात:काल करने से मुख की दुर्गन्धता, मल, कफ का निर्हरण होता है व जिह्वाशोफ एवं जिह्वा की जड़ता का नाश होता हैं।
3. नस्य कर्म के अन्तर्गत द्रव एवं स्नेह औषध को नासा मार्ग में प्रविष्ट किया जाता है। नस्य द्वारा शिर, कण्ठ, नासा आदि से कफ दोष का निर्हरण होता है जिससे ऊर्ध्वजत्रुगत विकार जैसे शिरशूल, अर्दित, हनुग्रह, दन्त, नेत्र रोगों, खानिध्य, पालिता आदि का निवारण होता हैं।
4. गण्डूष- स्नेह एवं द्रव औषध को मुख में पूर्ण रूप से धारण किया जाता है जिससे दन्त दृढ़ होते है, भोजन में रूचि बढती है, कण्ठ व मुख रोगों की शान्ति होती है।
5. मुख एवं नेत्र प्रक्षालन- त्रिफला, लोध्र, पुर्ननवा आदि से साधित जल अथवा शीतल जल से मुख एवं नेत्र प्रक्षालन करना चाहिए, यह रक्त-पित्तजन्य, मुख एवं नेत्र रोगों में लाभदायक है।
6. अंजन- नेत्र, वत्म में कनीनक संधि से अपांग संधि तक औषध के प्रयोग को अंजन कहा जाता है, इससे नेत्र में उत्पन्न दाह, कण्डू, मल एवं पीड़ा का नाश होता है।
7. ताम्बुल सेवन अर्थात् कर्पूर, जातिफल, कंकोल, लवंग, कटुका, चुना, सुपारी से मुख में निर्मलता, सुगन्धता एवं कान्ति आती हैं। हनु, दंत, स्वर, जिह्वा के मल का शोधन होता है।
8. अभ्यंग- नित्य रूप से शिर, शरीर, पाद का अभ्यंग करने से जरा, श्रम, वात, शिरशूल, सालित्य, पालित्य, का नाश होता है, दृष्टि प्रसादन, शरीर पुष्टि एवं आयु वृद्धि होती है।
9. कर्णपूरण - कर्ण में नित्य तेल पूरण करने से हनु, मन्या, शिर एवं कर्ण रोगों की शान्ति होती हैं।
10. मुखालेप- मुख पर लेप लगाने से नेत्र दृढ़, मुख व्यंगरहित कान्तिमान हो जाता है।
ऋतुचर्या
दो-दो मास मिलने से शिशिर, बसंन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद एवं हेमंत ये छ: ऋतुएं होती है। ऊर्ध्वजत्रुगत विकारों से रक्षा व प्राकृतावस्था बनायें रखने हेतु ऋतुचर्या का पालन अनिवार्य है।
प्रत्येक ऋतु के आरम्भ होने पर पूर्व ऋतु में कथित आहार एवं विहार का त्याग करते हुए आने वाली ऋतु के अनुसार आहार-विहार का पालन करना चाहिए। मुख्यत: शरद ऋतु में पित्त प्रकोप के कारण ऊर्ध्वजत्रुगत विकार जैसे शिरो रोग, प्रतिश्याय, कष्ठ रोग, कर्ण शूल, मुख एवं जिह्वागत रोग आदि का अधिक प्रसार होता है।
शरद ऋतु
वर्षा ऋतु में संञ्चित पित्त सहसा सूर्य किरणे पडऩे से पित्त प्रकुपित हो जाता है।
शरद ऋतु में सेवनीय आहार-विहार
मधुर, लघु, शीत, तिक्त, पित्तशामक भोजन का मात्रापूर्वक सेवन करना चाहिए। चावल, गोधूम, जौ, तिक्तघृत एवं जो प्रकुपित पित्त के निहार्णार्थ विरेचन एवं रक्तमोक्षण का प्रयोग हितकर है।
इस आहार-विहार के सेवन से रक्त एवं पित्त जन्य नेत्र, नाशा, शिर आदि रोगों के शान्ति होती हैं।
शरद ऋतु में वर्जिनीय
ओस, क्षार, सौहित्य (पेटभर भोजन करना), दधि, तैल, वसा, आतप, तीक्ष्णमद्य, दिवास्वप्र एवं पूर्व वायु का सेवन निषेध है।
हेमन्त एवं शिशिर ऋतु
हेमन्त एवं शिशिर ऋतु में कफ संचय व प्रकोप के कारण कफजन्य नेत्र विकार, प्रतिश्याय, पीनस, शिर:शुल, कण्ठशोध आदि रोग उत्पन्न होते हैं।
हेमन्त एवं शिशिर ऋतु में सेवनीय आहार-विहार
स्निग्ध, अम्ल, लवण, रसयुक्त भोजन करना चाहिए। सीधु अथवा मधु का पान करें। दुग्ध से बने खाद्य पदार्थ, गन्ने के रस से बने खाद्य पदार्थ (इक्षु विकार), वसा, तैल और नवीन चावल एवं उष्ण जल का पान लाभदायक होता है। वातज ऊर्ध्वजत्रुगत रोगों से पीडि़त व्यक्तियों को यथावल गुरु, स्निग्ध व उष्ण आहार करना चाहिए।
शरीर का अभ्यंग, उबटन का प्रयोग, शिरोभ्यांग, धूप का सेवन, उष्ण गर्भगृह में निवास करना हितकर होता है।
हेमन्त एवं शिशिर ऋतु में वर्जित आहार-विहार
वातवर्धक, लघु आहार, तीव्र वायु, प्रमित भोजन (अल्प भोजन) और जल में घोलकर सत्तू का पान, दिवास्वप्र वर्जित होता है।