द्यूत में पराजित होकर अज्ञातवास में भटकते हुए, जल प्राप्ति के लिये सरोवर पर गये हुए, नकुल, सहदेव, अर्जुन और भीम चारों भाई यक्षराज द्वारा बन्दी बना लिये गये, तब धर्मराज युधिष्ठिर उनकी खोज में निकले। सरोवर में तट पर बन्दी बने हुए भाइयों को देखा, और पिपासा शान्त करने के लिए जल की ओर आगे बढ़े, तभी कडक़ती हुई आवाज कानों में पड़ी। पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो, उसके बाद जल ग्रहण करो। यक्षराज ने युधिष्ठिर से अनेक प्रश्न किये सब के अत्यन्त समाधान कारक उत्तर धर्मराज ने दिये। यक्षराज ने प्रसन्न होकर एक वर प्रदान किया। धर्मराज ने उस एक वरदान में अपने सबसे छोटे भाई को बन्धन मुक्त करने की प्रार्थना की।
इसको सुनकर गन्धर्वराज अट्टाहास करते हुए कहते हैं- धर्मराज मैंने तुम्हें बहुत बुद्धिमान समझा था, क्योंकि तुमने मेरे सभी प्रश्नों के सुन्दर उत्तर दिये। अरे! यदि बन्धन मुक्ति मागंनी थी तो गाण्डीवधारी अर्जुन या गदाधारी भीम के जीवन की मांगते। ये इस भयानक वन में अपने धनुष और गदा से तुम्हारी रक्षा करते, किन्तु तुमने इन महावीरों की बन्धन मुक्ति न मांगकर दुर्बल भाई का जीवन मांगा। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने जो कहा था, वह वाक्य विश्व साहित्य में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। उन्होंने कहा था- ‘धर्मो रक्षति रक्षित:’ अर्थात् विशाल अस्त्र, शस्त्र या बड़े-बड़े वीर किसी की रक्षा नहीं करते अपितु रक्षित धर्म ही हमारी रक्षा करता है।
अब प्रश्न उठता है कि यह धर्म है क्या? एक ओर हमारा विशाल भारतीय प्राचीन, अर्वाचीन साहित्य धर्म की चर्चा और महिमा से भरा पड़ा है। दूसरी ओर धर्म के नाम पर संसार में समय-समय पर लाखों, करोड़ों मानवों के रक्त से धरती को लाल कर दिया गया। मानव और मानव के मध्य दीवारें खड़ी कर दी गईं और यह हुआ धर्म के वास्तविक अर्थ और सन्देश को ठीक प्रकार से न जानने के कारण। धर्म मानव के लिए अमृत समान है, वह मानव को वास्तव में मानव बनाता है। वह कभी हिंसा, संकीर्णता, शत्रुता, छल, कपट और प्रवंचना का कुत्सित मार्ग नहीं दिखाता अपितु ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्’का सन्देश देता है।
मानव सृष्टि के इतिहास में विश्व की सर्वप्रथम रचना ऋग्वेद को माना गया है। सृष्टि उत्पत्ति को करोड़ों वर्ष हो चुके ऐसा मनीषियों का कथन है। यज्ञ के प्रारम्भ में उच्चरित किये जाने वाले संकल्प ‘एको वृन्द: षण्णवति कोटि अष्टौ लक्ष... इत्यादि द्वारा सृष्टिका एक अरब, छियानबे करोड़ से भी अधिक पूर्व में उत्पन्न होना सिद्ध होता है। वेद उस काल की अमर कृति है। उस वेद को सबसे बड़ा प्रमाण मानते हुए ऋषि-प्रज्ञा उद्घोषणा करती है- ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ अर्थात् वेद ही समस्त धर्म तत्त्व का मूल है। वेद को श्रुति और श्रुति के अनुसार विविध विषयों का पल्लवन और प्रतिपादन करने वाले साहित्य को स्मृति साहित्य कहा जाता है। महाकवि कालिदास ने अपने अमर महाकाव्य रघुवंश में कहा ‘श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्’। स्मृति ग्रन्थ वेद का ही अनुसरण करते हैं।
प्रात: स्मरणीय ऋषियों की यह स्पष्ट अवधारणा है कि वेद, किसी एक स्थान विशेष या काल विशेष के लिए नहीं है, अपितु सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक हैं। वेद में कहा है- ‘शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्र:’। अर्थात् हे मेरे अमृत पुत्रों सुनों। वैदिक चिन्तनधारा में न कोई अपना है न कोई पराया है, न कोई छोटा है और न कोई बड़ा है। सब प्रभु के अमृत पुत्र हैं। इसीलिये वेद प्रतिपादित धर्म और संस्कृति विश्वधर्म या विश्व संस्कृति है। इसी चिन्तन को मनु ने मानव धर्म कहा है। वे धर्म का लक्षण इस प्रकार बताते हैं-
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।’’
धर्म के इन तत्त्वों में कोई भेदभाव नहीं है। ये सभी के जीवन का उत्कर्ष करने वाले हैं।
1. धृति- धैर्य- यह एक ऐसा गुण है जो भयानक प्रतिकूल परिस्थिति में भी रक्षा करता है। संस्कृत कवियों ने इसकी प्रशंसा करते हुए कहा-
धैर्यं यस्य पिता क्षमा च जननी- कस्माद् भयं योगिन:
विपदि धैर्यम् अथाभ्युदये क्षमा
त्याज्यं न धैर्यं विधुरेऽपि काले...
यह मानव मात्र का श्रेष्ठ गुण है।
2. क्षमा- की महिमा अनेक मनीषियों ने अपनी-अपनी शैली में की है। यह कोई सामान्य गुण नहीं, अपितु मानव का आभूषण है। विष देने वाले को जीवन प्रदान करने का महान् आदर्श ऋषिवर देव दयानन्द ने प्रस्तुत किया था। क्षमाशीलता- शत्रु को भी मित्र बना देती है।
3. दम- अपनी राग, द्वेष आदि की विकृत भावनाओं का दमन करने से सद्भावों का जागरण होता है। विकारों के शमन से जीवन में देवत्व के पुष्प खिल उठते हैं।
4. अस्तेय- मन, वचन, कर्म से किसी अन्यके धन आदि को ग्रहण करने का विचार ही न आये। पतंजलि ने भी अस्तेय को योग मार्ग का श्रेष्ठ गुण माना है।
5. शौचम्- बाह्य आभ्यन्तर पवित्रता मानवमात्र के लिए आवश्यक गुण है। संसार का कौन ऐसा धर्ममार्ग का पथिक होगा, जो इसके महत्त्व को स्वीकार न करता हो।
6. इन्द्रिय निग्रह- विधाता ने हमें 5 ज्ञानेन्द्रियां और 5 कर्मेन्द्रियां प्रदान की है। इन्हीं के द्वारा हमारे समस्त कार्य संपन्न होते हैं। शरीर रूपी रथ पर सवार होकर आत्मारूपी सारथी, मनरूपी लगाम के द्वारा इन्द्रिय रूपी घोड़ो से रथ को चलाता है यदि ये इन्द्रिय रूपी अश्व नियन्त्रण में न हों तो अनर्थ होने की संभावना बनी रहती हैं। श्रीमद्भगवद् गीता में कहा है-
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।। गीता 2/67
मनुस्मृतिकार का कथन है-
इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्।
सन्नियम्य तु तान्येव तत: सिद्धिं नियच्छति।
न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवाभिर्धते।।
इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम्।
तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृते: पात्रदिवोदकम्।।
अर्थात्- जीवात्मा इन्द्रियों के साथ मन लगाने से नि:सन्देह दोषी हो जाता है, और इन इन्द्रियों को वश में करके ही सिद्धि को प्राप्त होता है।
जैसे अग्नि में इन्धन और घी डालने से वह वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही कामनाओं के भोग से काम शान्त नहीं होता अपितु बढ़ता ही जाता है।
यदि मानव की समस्त इन्द्रियों में एक भी इन्द्रिय अपने विषय में आसक्त हो तो उसीसे उसकी बुद्धि नष्ट होने लगती है, जैसे चमड़े के पात्र में छिद्र होने से सारा पानी बहकर नष्ट हो जाता है।
अतएव यज्ञ, सन्ध्या आदि शुभ कर्मों से पहले इन्द्रिय स्पर्श के द्वारा प्रार्थना की जाती है- प्रभो। हमारी समस्त इन्द्रियां शुद्ध, पवित्र हों। हम इनके दास न बनकर स्वामी बनें।
7. धी- अर्थात् सद् बुद्धि। बुद्धि की महिमा सर्वज्ञात है। ‘बुद्धिर्यस्य बलं तस्य’जिसके पास बुद्धि है वही बलवान है। बुद्धिचातुर्य से आचार्य चाणक्य ने महानन्द के साम्राज्य को पराजित कर चन्द्रगुप्त को राजसिंहासन पर बैठाया था। गायत्री महामन्त्र के द्वारा ईश्वर से यही प्रार्थना की जाती है ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’। बुद्धिबल से एक व्यक्ति विश्वबन्द्य बन जाता है और बुद्धि के अभाव में दूसरा व्यक्ति अत्यन्त निम्न कोटि का जीवन जीता है।
8. विद्या- विद्या की महिमा का जितना गुणगान किया जाये कम है ‘विद्ययाऽमृतमश्नुते’ ‘विद्या धनं सर्व धनप्रधानम्’ ‘विद्या ददाति विनयम्’ ‘विद्या विहीन: पशु:’ आदि वचनों से हमारा साहित्य भरा पड़ा है। विद्या मानव का सबसे बड़ा अलंकरण है। विद्या, ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति ही सत्-असत्, नित्य-अनित्य, ग्राह्य-अग्राह्य, करणीय-अकरणीय का अन्तर ठीक से समझ सकता है। विद्वान् व्यक्ति की सर्वत्र पूजा होती है ‘विद्वान् सर्वत्र पूज्यते’।
9. सत्यम्- मानव जीवन में सर्वोत्तम गुण है सत्य। महर्षि पतंजलि ने अहिंसा के पश्चात् सत्य को यमों में दूसरा स्थान दिया है। मर्यादा पुरुषोत्तम् श्रीराम, महाराजा हरिश्चन्द्र आदि महापुरुष सत्य के परिपालन से संसार में अमर हो गये। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने घोषणा की- ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोडऩे में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए’ ऋषिवर ने अपने अमर ग्रन्थ का नाम ‘सत्यार्थ प्रकाश’ रखा। महात्मा गान्धी ने सत्य और सत्याग्रह के बल पर देश की स्वतन्त्रता के लिये अहिंसक युद्ध लड़ा। हम प्रतिदिन प्रात: सायं संध्या, यज्ञानुष्ठान के समय सत्य और यश की प्रार्थना करते हैं।
10. अक्रोध- क्रोध मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। यह जीवन को जलाकर भस्म कर देता है। क्रोध से व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है। क्रोधी व्यक्ति अपनों को भी शत्रु बना लेता है। काम, क्रोध आदि षडरिपु मानव को खोखला कर देते हैं। क्रोध पर विजय पाने वाला सुख, शान्ति, आनन्द और आत्मसन्तोष प्राप्त कर पाता है।
धर्म के इन लक्षणों में किसी जाति, देश, काल या वर्ग विशेष का हित नही अपितु मानव मात्र का कल्याण सन्निहित है। यही धर्म है, यही हमारी विश्ववारा संस्कृति है।
वैशेषिक दर्शनकार महर्षि कणाद ने धर्म की परिभाषा दी है-
‘यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि: स:धर्म:’
जिससे इहलोक और परलोक में पूर्ण सफलता प्राप्त हो, वह धर्म है।
महाभारतकार वेद व्यास ने धर्म का तत्त्व बताया- ‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’अर्थात्- हम अपने साथ औरों से जैसा व्यवहार चाहते हैं, वैसा हि व्यवहार दूसरों के साथ करे यह भी धर्म है।
भारतवर्ष में ऐसे अनेक महापुरुष हुए जो धर्म के मूत्तिमन्त विग्रह कहे जाते हैं। उनका जन्म किस स्थान पर, किस कुल में, कहाँ पर हुआ वे कितने शिक्षित, अशिक्षित धनवान या निर्धन थे यह धार्मिक होने का मापदण्ड नहीं है। सन्त रविदास, महात्मा कबीर, गुरु नानक, महात्मा ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले डॉ. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर आदि ऐसे अनेक महापुरुष भारत में हुए हैं, जिन्हें हम धर्म के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित मानकर उनकी मान वन्दना कर आनन्दित होते हैं। यही सत्य सनातन वैदिक धर्म है जो कहता है-
अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्।।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बम्।।
पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वत:।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।।