जीवन की उत्पत्ति जीव में जीवन और श्रेष्ठता के संघर्ष
On
डॉ. चंद्र बहादुर थापा
वित्त एवं विधि सलाहकार- भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं
विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह
पृथ्वी की उत्पत्ति और इसमें जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई, यह एक वैज्ञानिक समस्या है जिसके लिए अभी तक सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं मिले हैं। वैसे तो इसके बारे में बहुत से सिद्धान्त दिए गए हैं, किन्तु स्पष्ट तथ्यों के सिद्धान्त बहुत कम हैं। अधिकांश विशेषज्ञ सहमत हैं कि वर्तमान पृथ्वी की उम्र लगभग 4.6 अरब वर्ष है तथा वर्तमान में धरती पर जितना भी जीवन है, वह सब किसी एक आदि जीव से उत्पन्न हुआ है, और लगभग 390 करोड़ वर्ष पहले घटित किसी प्राकृतिक प्रक्रिया के द्वारा हुआ ।
क्रम-विकास
क्रम-विकास किसी जैविक आबादी के आनुवंशिक लक्षणों के पीढिय़ों के साथ परिवर्तन को कहते हैं। जैविक आबादियों में जैनेटिक परिवर्तन के कारण अवलोकन योग्य लक्षणों में परिवर्तन होता है। जैसे-जैसे जैनेटिक विविधता पीढिय़ों के साथ बदलती है, प्राकृतिक वरण से वो लक्षण ज्यादा सामान्य हो जाते हैं जो भावी जीवन और प्रजनन में ज्यादा सफलता प्रदान करते हैं। जीवन के सबसे पुराने निर्विवादित प्रमाण वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया में 3.5 अरब वर्ष पुराने बलुआ पत्थर में मिले माइक्रोबियल चटाई के जीवाश्म हैं। जीवन के इस से पुराने, पर विवादित प्रमाण- (1) ग्रीनलैंड में मिला 3.7 अरब वर्ष पुराना ग्रेफाइट, जो की एक बायोजेनिक पदार्थ है और (2) 2015 में पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में 4.1 अरब वर्ष पुराने पत्थरों में मिले ‘बायोटिक जीवन के अवशेष’हैं । आज के सभी जातियाँ क्रम-विकास की प्रक्रिया के द्वारा अपने माता-पिता से जीन्स के रूप में आनुवांशिक पदार्थ ग्रहण कर अपनी संतान को देते-देते उत्परिवर्तन (यादृच्छिक परिवर्तनों के माध्यम से नए जीन्स का प्रतिस्थापन) और लैंगिक जनन के दौरान मौजूदा जीन्स में फेरबदल से उत्पन्न हुई जीन्स में माता-पिता और एक दूसरे से थोड़ी भिन्नता के कारण, जीवित रहने और प्रजनन करने की संभावना को परिस्थितियों के अनुकूल बनाते हुए जीवन संघर्ष करते रहते हैं और अगली पीढिय़ों में भिन्नताएँ धीरे-धीरे बढ़ती रहती हैं। आज देखी जाने वाली जीव विविधता के लिए यही प्रक्रिया जिम्मेदार है।
अधिकांश जैनेटिक उत्परिवर्तन (Mutation) जैव समूह को न कोई सहायता प्रदान करते हैं, न उनकी दिखावट को बदलते हैं और न ही उन्हें कोई हानि पहुँचाते हैं। जैनेटिक ड्रिफ्ट के माध्यम से ये निष्पक्ष जैनेटिक उत्परिवर्तन केवल संयोग से जैव समूह आबादियों में स्थापित हो जाते हैं और बहुत पीढिय़ों तक जीवित रहते हैं। इसके विपरीत, प्राकृतिक वरण एक यादृच्छिक (Random) प्रक्रिया नहीं है क्योंकि यह उन लक्षणों को बचाती है जो जीवित रहने और प्रजनन करने के लिए जरुरी हैं। प्राकृतिक वरण और जैनेटिक ड्रिफ्ट जीवन के नित्य और गतिशील अंग हैं। अरबों वर्र्षों में इन प्रक्रियाओं ने जीवन के वंश वृक्ष की शाखाओं की रचना की है।जीन डीएनए से बनते हैं। डीएनए एक लंबा अणु है जो न्युक्लियोटाइड (Nucleotide) कहलाए जाने वाले छोटे अणुओं से बनता है। आनुवांशिक जानकारी डीएनए में न्युक्लियोटाइडों की शृंखला के रूप में संग्रहित होती है। डीएनए की तुलना एक लेख से की जा सकती है जिसमें न्युक्लियोटाइड वर्णों (Letters) का काम करते हैं। जिस प्रकार वर्णों की शृंखला से एक बना लेख जानकारी को संग्रहित करता है, उसी प्रकार न्युक्लियोटाइडों की शृंखला से बना डीएनए आनुवांशिक जानकारी को संग्रहित करता है। जीन डीएनए की वर्णमाला के वर्णों (न्युक्लियोटाइड) से बने निर्देश होते हैं। सभी जीन मिलकर एक ‘निर्देश पुस्तिका’के जैसे होते हैं जिसमें एक जीव को बनाने और काम कराने की सारी जानकारी होती है। डीएनए में लिखे गए इन निर्देशों का उत्परिवर्तन के कारण बदलना आबादी की जैनेटिक भिन्नता को बढ़ता है। डीएनए (जीन) केशिकाओं के अन्दर क्रोमोज़ोमों (Chromosomes) में होता है। निषेचन के समय माता-पिता से मिले क्रोमोजोमों के यादृच्छिक मिश्रण से संतान को जीनों का अद्वितीय संयोजन मिलता है। लैंगिक जनन के दौरान जीनों का यह यादृच्छिक मिश्रण भी आबादी की जैनेटिक भिन्नता को बढ़ता है। आबादी की जैनेटिक भिन्नता किसी दूसरी आबादी के साथ प्रजनन करने से भी बढ़ती है। इस कारण आबादी में वो जीन आ सकते हैं जो उसमें पहले से मौजूद नहीं थे।
क्रम-विकास के मुख्य आधार हैं- (1) जीव प्रजनन करते हैं इसलिए उनकी बहुसंख्यक हो जाने की प्रवृत्ति होती है, (2) शिकारी और प्रतिस्पर्धा उनके भावी जीवन और वंशवर्धन में बाधा डालते हैं, (3) हर संतान अपने अपने माता-पिता से छोटे, यादृच्छिक रूप में भिन्न होती है, (4) अगर ये भिन्नताएँ अनुकूल होती हैं तो संतान के जीवित रहने और प्रजनन करने की संभावना ज्यादा होगी, (5) इस से यह संभावना बढ़ती है कि अनुकूल भिन्नताएँ अगली पीढ़ी के ज्यादा जैव समूह में होंगी और प्रतिकूल भिन्नताएँ कम जैव समूह में, (6) ये भिन्नताएँ पीढ़ी दर पीढ़ी जमा होती रहती हैं जिसके कारण आबादी में परिवर्तन हो जाता है, (7) समय के साथ आबादियाँ विभिन्न जातियों में विभाजित हो सकती हैं।
जैव समूह संयोजन-विघटन : मातृ-पितृ, परिवार, समाज और राज्य
वर्तमान युग के वैज्ञानिक अनुसन्धान और तथ्यों से साबित हुआ है की प्रत्येक जीव में जीने की जिजीविषा, जीने के लिए भोजन की आवश्यकता, वंश बृद्धि के लिए संतानोत्पत्ति की चाह एवं पालन-पोषण के लिए मातृ-पितृ भावना, स्वयं के समूह की बृद्धि एवं शत्रु अथवा विरोधी अथवा शिकारी से बचाव के लिए सामूहिक झुण्ड निर्माण जो कालांतर में समाज ग्राम अथवा मोहल्ला के रूप लिए, स्वयं और झुण्ड समाज के स्थायित्व के लिए निश्चित क्षेत्र निर्णय से कालांतर में राज्य, राज्य के विस्तार अथवा संरक्षण के लिए लड़ाइयां और संघर्ष, वर्तमान परिस्थिति के परिमार्जन के लिए निरंतर अनुशंधान, शोध, प्रयोग, इत्यादि मूलभूत गुण प्रत्येक अकोशीय, कोशीय, सकोशिय, बहुकोशीय, अमेरूदंडीय, मेरुदण्डीय, प्राणी, वनस्पति, सजीव यहाँ तक की जिनको हम निर्जीव मानते हैं, वह भी अपने जन्म (प्रकटीकरण) से नियत उम्र की समाप्ति (मृत्यु) तक जीने के लिए संघर्ष करता रहता है, अमर बनने की कोशिश करता है, मरना नहीं चाहता और सबसे उत्कृष्ट बनना चाहता है चाहे सभी का प्यारा बनके अथवा सभी को मारकर!
ब्रह्माण्ड के एक सूक्ष्म विन्दु पृथ्वी मानव-कर्मस्थल है और मानव ने अपने पूर्वजों की थाती को न केवल बचाने अपितु संशोधन, शोधन, संवर्धन से परिवर्तन और अदृश्य परमात्मा से मिलन के युगों से अनवरत प्रयोग और प्रयास किया है, जिसमे वह जब अपने सफलता के चरम में पहुँचने की कोशिश में उल्टा प्रतिफल पाकर अपने प्रारंभिक स्तर के तरफ भी जा सकता है। यह सिद्ध हो चुका है कि भूमण्डल में जितने भी पदार्थ, जैव और मानव दृष्ट-अदृष्ट अवयव हैं, सभी एक दुसरे के या पालक-पोषक या भक्षक या निरपेक्ष हैं। ये तीन मूलभूत गुण-धर्म से ही सृष्टि के जीवन संघर्ष अनादिकाल से चलता आ रहा है और चलता रहेगा। मानव ही परिकल्पना से सृष्टि के सृजक के विभिन्न प्रतीक को स्थूल रूप में अथवा मानसिक रूप में पूजन करता है, जिसको इस लेख वर्ष 2023 पूर्व तक विश्वभर के मानव-बस्तियों ने अपने अपने तरीके से परंपरागत पद्धति को अपनाते रहे और समय के अनुसार विकास-विनाश के परिवर्तनों को संततियों को हस्तांतरण करते रहे, जिसे आधुनिक शब्दों में सनातन कहा जा सकता है और अधिकांश सनातन को हिन्दू शब्द से सम्बोधन करते हैं। 2023 वर्ष पूर्व प्रचलित पूजन पद्धति के अनुपालकों के नकारात्मक व्यवहार के प्रतिरोध में वर्तमान इस्राइल के जेरूसेलम (Jerusalem) के पास के बेतहेलम (Bethlehem) ग्राम में जन्मे यीशुख्रीस्त (Jesus Christ) के मत के अनुयायियों ने ईसाई मत प्रतिपादन कर परंपरागत पूजन पद्धति की अवधारणा को विश्वभर से समाप्त करने की परिकल्पना किया और आज विश्व के सर्वाधिक देशों में ईसाई शासन चलता है। सनातन और ईसाई के भी विरोध में 1445 वर्ष पूर्व मक्का में जन्मे मोहम्मद कुरैशी जिसको पैगम्बर मोहम्मद सम्बोधित किया जाता है ने -अपना अलग मत इस्लाम प्रतिपादित किया जिसके अनुयायी विश्व के 213 राज्य अथवा प्रशासनिक क्षेत्रों में से 53 राज्यों में शासन करते हैं, जबकि सनातन पृथिवी भर के मानव-बस्तियों के परम्पराओं के समुच्चय परिपाटी, अब हिंदुस्थान कहे जाने वाले भारतवर्ष का वर्तमान भारत देश में भी सेक्युलर अर्थात पंथनिरपेक्षता के नाम पर सनातन कहने पर सांप्रदायिक कहा जाता है, और देशविहीन है। यह है जाति के विभत्सतम रूप।
मानव विज्ञान (Anthropology)
आधुनिक समय में मानव विविधता और मानव उद्विकास के जैविक/शारीरिक विकासक्रम के अध्ययन को सुविधा एवं कार्य-आवश्यकता अनुरूप विभिन्न शीर्षकों में मानव विज्ञान (Anthropology) नाम दिया गया है।
1. प्राइमेटोलॉजी
मानव प्राणी जगत के ऑर्डर प्राइमेट के अंतर्गत आता है, और प्राइमेटोलॉजी में प्राइमेट, माइक्रोसिब्स जैसे सबसे छोटे चूहे के आकार वाले वानर से शुरू होकर सबसे बड़े विशाल शरीर वाले गोरिल्ला तक, विकास के अपने विभिन्न चरणों में विभिन्न जीवन स्वरूप दिखाते हैं। प्राइमेट का एकीकृत अध्ययन, शारीरिक मानवविज्ञान की पृष्ठभूमि में मनुष्य की स्थिति को समझने के लिए एक आंतरिक दृष्टिकोण देता है।
2. इथनोलोजी
मानव विविधता का अध्ययन है। दुनिया में सभी जीवित मानवों को अलग-अलग समूहों में वर्गीकृत नस्ल के रूप में जाना जाता है। इन्हें अब मेंडेलियन पॉपुलेशन के रूप में समझा जाता है, जो एक सामान्य जीन पूल साझा करने वाले मानवों का एक इनब्रीडिंग समूह है। यह नस्लीय समूहों की प्रकृति, गठन और भेदभाव की व्याख्या करने का भी प्रयास करता है।
3. मानव जीव विज्ञान
मनुष्य के आधारभूत जैविक सिद्धांतों और अवधारणाओं से संबंधित है। संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण मानव जीवविज्ञान अन्य जानवरों के जीव विज्ञान से भिन्न है। शारीरिक मानवविज्ञानी मनुष्य के इस जैविक विशेषता, उनके क्रमिक विकास और समय के साथ संरचना में परिवर्तन को समझने का प्रयास करता है।
4. पुरामानव विज्ञान
मानव जाति के जैविक इतिहास के प्रलेखन से संबंधित शारीरिक मानवविज्ञान शाखा है। पृथ्वी की विभिन्न स्थलों से प्राप्त जीवाश्म अवशेषों का मूल्यांकन कर, अपनी स्थिति और उद्विकासवादी महत्व को स्थापित करते हुए, विभिन्न परतों से एकत्रित जीवाश्म साक्ष्य के आधार पर मानव और गैर-मानवीय लक्षणों के बीच, लंबे समय से खोए हुए कड़ी को फिर से जोडऩे का प्रयास करता है।
5. मानव आनुवंशिकी
मानव आनुवंशिकी मानवों में माता-पिता और उनकी संतानों के बीच विरासत में मिले लक्षणों की आनुवंशिकता के तंत्र को प्रकट करती है। वह विरासत की प्रवृत्ति जिसमे माता-पिता के लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं उसे आनुवंशिकता कहते हैं। मनुष्य की उत्पत्ति और विकास को जानने के लिए आनुवंशिकता और उसके तंत्र को अच्छी तरह की से समझ होना आवश्यक है।
6. पोषण संबंधी नृविज्ञान
मानव के पोषण संबंधी दृष्टिकोण और विकास से संबंधित अध्ययन किया जाता है। किसी भी देश की जनसंख्या को उचित विकास और वृद्धि, आनुवंशिकता और पर्यावरण पर निर्भर है। शारीरिक मानवविज्ञान की यह शाखा मानवों के साथ-साथ इन दोनों कारकों के प्रभाव से भी संबंधित है।
7. चिकित्सा नृविज्ञान
रोग के स्वरूप और मानव समाजों पर उनके प्रभाव का अध्ययन करता है। चिकित्सा मानवविज्ञानी लोगों के करीबी अध्ययन और उनके जीवन के तरीके के माध्यम से सामाजिक-सांस्कृतिक के साथ-साथ एक आबादी के भीतर रोग के आनुवांशिक या पर्यावरणीय निर्धारकों को प्रकाश में लाते हुए मानव समाजों में विभिन्न रोगों का मुकाबला करने और के तरीकों को स्थापित करने के लिए कारगर उपायों की निरंतर शोध-अनुसन्धान करते रहते हैं।
8. शरिरिक्रिया नृविज्ञान
यह शाखा मानव शरीर के आंतरिक अंगों के साथ उनके जैव-रासायनिक गठन को समझने का कार्य करती है। यह इस बात से भी संबंधित है कि मनुष्य की शरिरिक्रिया बाहरी कारकों जैसे कि जलवायु, भोजन की आदत आदि के साथ कैसे अनुकूलन करती है; इसके अलावा, यह मनुष्य और अन्य प्राइमेट्स में जैव-रासायनिक विविधताओं का अध्ययन करता है।
9. न्यायालयिक नृविज्ञान
यह शरीर के अंगों की समानता और अंतर को समझने के लिए होमिनिड्स और गैर-होमिनिड्स की कंकाल संरचना से संबंधित है। ज्ञान की यह शाखा अपराधियों का पता लगाने के साथ-साथ उनके जैविक अवशेषों के माध्यम से व्यक्तियों की प्रकृति और स्थिति की पहचान में बहुत प्रभावी है।
10. दन्त मानवविज्ञान (डेंटल एंथ्रोपोलॉजी)
ज्ञान की यह शाखा दांत और उसके पैटर्न से संबंधित है। दांत शरीर के आकार के साथ-साथ भोजन की आदत, और संबंधित व्यवहार स्वरूप ज्ञात करने में मदद प्रदान करते हैं। दंत आकारिकी हमें मानव उद्विकास, विकास, शरीर आकृति विज्ञान, आनुवांशिक विशेषताओं को समझने में मदद करती है।
11. मानव वृद्धि और विकास
यह शारीरिक मानवविज्ञान के लिए रूचि का एक और क्षेत्र है जिसमें विकास के जैविक तंत्र के साथ-साथ विकास प्रक्रिया पर पर्यावरण के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है। शारीरिक मानवविज्ञानी बीमारी, प्रदूषण और विकास पर गरीबी के प्रभावों का अध्ययन करते हैं और जीवित मनुष्यों में स्वस्थ विकास के हार्मोनल, आनुवांशिक और शारीरिक आधार के विस्तृत अध्ययन कर हमारे पूर्वजों के विकास स्वरूप की समझ और आज के बच्चों के स्वास्थ्य की समझ में योगदान करते हैं।
12. मानवमिति (एंथ्रोपोमेट्री)
यह मापन का मानवविज्ञान है। यह अध्ययन न केवल उद्विकास के माध्यम से क्रमिक मानव विकास के अध्ययन में और नस्लीय भेदभाव स्वरूप को समझने में उपयोगी है, बल्कि जीवन के दिन-प्रतिदिन के तरीके में भी सहायक है जो विशेष रूप से मानव शारीरिक रूपों से संबंधित है।
13. मानव यांत्रिकी (Egonomy)
मानव शरीर की गतिविधियों में यांत्रिकी के सिद्धांतों को लागू करने से संबंधित है। मस्कुलोस्केलेटल चोटों की रोकथाम और उपचार और पुनर्वास के लिए सहायता के डिजाइन के लिए मानव बायोमैकेनिक्स स्थैतिक शरीर के आयामों और मनुष्य द्वारा संचालित होने वाली मशीन के डिजाइन से संबंधित है। ज्ञान की यह शाखा इस तथ्य से बहुत महत्वपूर्ण है कि लोगों के कई समूह शरीर के आकार में विभिन्न जैविक और पर्यावरणीय कारण भिन्न होते हैं।
14. जनसांख्यिकी
यह जनसंख्या का विज्ञान है। यह प्रजनन और मृत्यु दर से संबंधित है। ये दो कारकों आनुवांशिकता और पर्यावरण से प्रभावित हैं। जैसा कि यह विकास, उम्र, लिंग संरचना, स्थानिक वितरण, जनसंख्या की उर्वरता और मृत्यु दर के अलावा प्रवास जैसे लक्षणों से संबंधित है, यह स्वाभाविक रूप से शारीरिक मानवविज्ञान की एक विशेष शाखा बन जाता है।
15. इथोलोजी
यह पशु व्यवहार का विज्ञान है। अन्य पशुओं के व्यवहारों के अध्ययन से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग मानव व्यवहारों की मूल पृष्ठभूमि को समझाने और यह बताने के लिए किया जा रहा है कि विभिन्न युगों में मानव पूर्वजों ने कैसे कार्य किया होगा।
घटनाक्रमों के रिकार्ड - इतिहास
पृथ्वी के जीवों और मानव के जीवन संघर्ष से लेकर सृष्टि स्थिति प्रलय के घटना क्रम को भविष्य के पीढ़ी के लिए सहेज कर रखने विधा को इतिहास कहा जाता है। सबसे प्राचीन इतिहास सहेजन श्रुति-स्मृति के रूप में रहे और लेखन के विभिन्न विधाओं से बढ़ते-बढ़ते आज 2023 में डिजिटल इंस्क्रिप्टिव रूप में पहुँच गए हैं
प्रागैतिहासिक काल
अतीत के उस भाग को, जब मानव का अस्तित्व तो था परन्तु लेखन कला का आविष्कार नहीं हुआ था, प्रागैतिहासिक काल कहते हैं। विश्व इतिहास में लेखन कला का आरंभ सबसे पहले मेसोपोटामिया सभ्यता में लगभग 3200 ई.पू. से माना जाता है। अत: प्रागैतिहासिक काल लगभग 33 लाख साल पहले होमिनिन मानव द्वारा पत्थर के उपकरणों के प्रथम उपयोग और 3200 ई.पू. में लेखन प्रणालियों के आविष्कार के बीच की अवधि है। इस काल में मानव-इतिहास की कई महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई जिनमें हिमयुग, मानवों का अफ्रीका से निकलकर अन्य स्थानों में विस्तार, आग पर स्वामित्व पाना, कृषि का आविष्कार, कुत्तों व अन्य जानवरों का पालतू बनना इत्यादि शामिल हैं। ऐसी चीज़ों के केवल चिह्न ही मिलते हैं, जैसे कि पत्थरों के प्राचीन औज़ार, पुराने मानव पड़ावों के अवशेष और गुफाओं की चित्रकारी इत्यादि। पहिये का आविष्कार भी इस काल में हो चुका था जो प्रथम वैज्ञानिक आविष्कार था। प्रागैतिहासिक काल में मानवों का वातावरण बहुत भिन्न था। अक्सर मानव छोटे क़बीलों में रहते थे और उन्हें जंगली जानवरों से जूझते हुए शिकारी- संग्राहक का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। विश्व की अधिकतर जगहें अपनी प्राकृतिक स्थिति में थीं। ऐसे कई जानवर थे जो आधुनिक दुनिया में नहीं मिलते, जैसे कि मैमथ और बालदार गैंडा। विश्व के कुछ हिस्सों में आधुनिक मानवों से अलग भी कुछ मानव जातियाँ थीं जो अब विलुप्त हो चुकी हैं, जैसे कि यूरोप और मध्य एशिया में रहने वाले निअंडरथल मानव।
प्रागैतिहासिक काल को पाषाण काल भी कहा जाता है क्योंकि इस काल में पाषाण उपकरणों की प्रधानता थी। विद्वानों ने प्रागैतिहासिक काल को पाषाण उपकरणों की उपस्थिति के आधार पर तीन खंडों- पुरापाषाण काल, मध्य पाषाण काल और नवपाषाण काल- में विभक्त किया है।
1. पुरापाषाण काल
(25 लाख ईसा पूर्व से 10,000 ईसा पूर्व)
शोधों के आधार पर माना गया है की इतिहास के इस कालखंड में मानव एक शिकारी व खाद्य संग्राहक के रूप में अपना जीवन व्यतीत करता था। मानव को पशुपालन व कृषि का ज्ञान नहीं था, आग से परिचित तो था, लेकिन वह उसका समुचित उपयोग करना नहीं जानता था। अपनी गतिविधियों के संचालन के लिए मानव अनेक प्रकार के पाषाण उपकरणों का प्रयोग करता था। इन्हीं पाषाण उपकरणों के आधार पर इतिहासकारों ने पुरापाषाण काल को पुन: - निम्न पुरापाषाण काल, मध्य पुरापाषाण काल और उच्च पुरापाषाण काल - तीन काल खंडों में विभाजित किया है।
1.1 निम्न पुरापाषाण काल
(25 लाख ईसा पूर्व से 1 लाख ईसा पूर्व)
इस कालखंड में मानव पाषाण उपकरणों का निर्माण करने के लिए क्वार्टजाइट पत्थर का उपयोग करता था। ‘बटिकाश्म’(Pebble) -पत्थर के ऐसे टुकड़े जो पानी के बहाव से रगड़ खाकर गोल मटोल व सपाट हो जाते थे- का उपयोग भी किया जाता था। प्रमुख पाषाण उपकरणों के नाम हस्त कुठार, विदारणी, खंडक और गंडासा थे। बटिकाश्म गंडासा के एक तरफ धार लगाई जाती थी और खंडक के दोनों तरफ धार लगाई जाती थी। वर्तमान पाकिस्तान में स्थित सोहन नदी घाटी, कश्मीर, राजस्थान का थार रेगिस्तान, मध्य प्रदेश की नर्मदा नदी घाटी में स्थित भीमबेटका, हथनौरा, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर स्थित बेलन घाटी, तमिलनाडु में पल्लवरम, अतिरपक्कम, आंध्र प्रदेश में कुरनूल, नागार्जुन कोंडा, कर्नाटक में इसामपुर आदि निम्न पुरापाषाण काल के प्रमुख स्थलों में शामिल थे।
1.2 मध्य पुरापाषाण काल
(1 लाख ईसा पूर्व से 40,000 ईसा पूर्व)
इस कालखंड में मानव पाषाण उपकरणों का निर्माण करने के लिए क्वार्टजाइट पत्थर के स्थान पर जैस्पर और चर्ट नामक पत्थरों का उपयोग करता था, उपकरणों का आकार निम्न पुरापाषाण काल की अपेक्षा छोटा हो गया था, मुख्य रूप से वेधनी, फलक वेधक, खुरचनी आदि पाषाण उपकरणों का उपयोग करता था। ये उपकरण प्रमुख रूप से फलक पर आधारित होते थे। महाराष्ट्र स्थित नेवासा, उत्तर प्रदेश स्थित चकिया व सिंगरौली, झारखंड स्थित सिंहभूम व पलामू, गुजरात स्थित सौराष्ट्र क्षेत्र, मध्य प्रदेश स्थित भीमबेटका की गुफाएं, राजस्थान स्थित बेड़च, कादमली, पुष्कर क्षेत्र, थार का रेगिस्तान इत्यादि मध्य पुरापाषाण काल से संबंधित प्रमुख स्थल है।
1.3 उच्च पुरापाषाण काल
(40,000 ईसा पूर्व से 10,000 ईसा पूर्व)
उच्च पुरापाषाण कालखंड में उपकरणों के निर्माण के लिए मानव द्वारा जैस्पर, चर्ट, फ्लिंट आदि पत्थरों का उपयोग किया जाता था, उपकरणों का आकार और अधिक छोटा हो गया। फलक एवं तक्षणी (tool used for engraving in metal or wood) पर आधारित पाषाण उपकरणों का आकार में छोटे होने के कारण इन के उपयोग से मानव की दक्षता व गतिशीलता में वृद्धि हो गई थी। महाराष्ट्र स्थित इनामगांव व पटणे, आंध्र प्रदेश स्थित कुरनूल, नागार्जुनकोंडा व रेनिगुंटा, मध्य प्रदेश स्थित भीमबेटका, कर्नाटक स्थित शोरापुर दोआब, राजस्थान स्थित बूढ़ा पुष्कर, उत्तर प्रदेश स्थित लोहंदानाला, बेलन घाटी इत्यादि उच्च पुरापाषाण काल से संबंधित प्रमुख स्थल हैं।
2. मध्य पाषाण काल
(10,000 ईसा पूर्व से 4,000 ईसा पूर्व)
मध्य पाषाण काल में मनुष्य द्वारा पशुपालन की शुरुआत कर दी गई थी। इस समय तक मनुष्य द्वारा उपयोग किए जाने वाले पाषाण उपकरणों का आकार और अधिक छोटा हो गया था। गुजरात स्थित लांघनाज व रतनपुर, कर्नाटक स्थित संगणकल्लू, आंध्र प्रदेश स्थित नागार्जुनकोंडा, पश्चिम बंगाल स्थित बीरभानपुर, मध्य प्रदेश स्थित भीमबेटका एवं आदमगढ़, तमिलनाडु स्थित टेरी समूह, उत्तर प्रदेश स्थित मोरहाना पहाड़, लेखहिया, चौपानीमांडो इत्यादि मध्य पाषाण काल से संबंधित प्रमुख स्थल है।
3. नवपाषाण काल
(4,000 ईसा पूर्व से 1,000 ईसा पूर्व)
यह परिवर्तन का काल था, मानव ने सबसे पहले कृषि की विधिवत तरीके से शुरुआत की थी। मनुष्य ने मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए चाक का आविष्कार कर लिया था। मनुष्य इस समय घुमक्कड़ जीवन त्याग कर स्थाई जीवन जीने लगा था। इस दौरान मानव चावल, गेहूं, कपास, रागी, कुलथी, जौ इत्यादि विभिन्न फसलें उगाने लगा था, मुख्यत: छेनी, कुल्हाड़ी, बसूले इत्यादि विभिन्न पाषाण उपकरणों का इस्तेमाल करता था। मनुष्य का जीवन अपेक्षाकृत काफी आसान हो गया था। इस दौर तक मनुष्य ने आग का उपयोग करना भी सीख लिया था।
इतिहास का वर्गीकरण
वर्तमान में उपलब्ध इतिहास विगत लगभग 6000 ईस्वी पूर्व से अभी तक के घटना क्रमों की कुछ तीन-चार सौ वर्षों में जन्में और मृत्यु को प्राप्त हुए लेखकों, वैज्ञानिकों, राजे-महाराजे के विदूषकों, मानव रहन-सहन और रीती-थिति को प्रभाव डालने वाले महापुरुषों के अनुयायियों, यात्रियों, विजेताओं, विजितों, आदि और उनके सन्ततियों ने, अथवा विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के विभिन्न विषयों के शोधकर्ताओं के द्वारा अपने अपने उद्देश्य और अपने वरिष्ठ के इच्छा अनुरूप लिखकर समसामयिक घटना क्रम के साथ अपने आकाओं चाहे वे राजा-महाराजा-सम्राट-चक्रवर्ती सम्राट हों, नेता हों, धर्म-पंथ के प्रवर्तक हों, यहाँ तक की हो सकता है लेखक के आदर्श व्यक्ति समाज के अराजकतत्व के संरक्षक भी हो सकता है, समाज में छोड़ जाते हैं जो आगामी पीढिय़ाँ पढक़र कमोवेश अनुकरण करेंगे, जानेंगे, और उसी को सच मानेंगे क्योंकि वास्तविक सचाई जानने वाले तो मर चुके हैं, और जिसने लिखा है उसने तो उनके बुराई या खामियाँ या उनके समाज विरोधी व्यवहार तो न तो लिखेगा, लिखेगा तो उसके स्वार्थ विरुद्ध होने के कारण नुकसान होने के संभावना से डरकर महिमा-मंडन की चाशनी में भिगोकर लिखेगा, जैसे हिन्दू और सनातन का विनाशक औरंगजेब के सम्बन्ध में मुग़ल काल के लेखकों का तो क्या कहना, 1960-70 के दशकों के स्कूल पाठ्य पुस्तकों में लिखा गया था और पढ़ा गया की ‘औरंगजेब अपने भोजन के लिए टोपी सिलकर कमाई करता था’यह नहीं लिखा गया की ‘प्रतिदिन सवा मन जनेऊ जलाता था’, किसका डर था या क्यों नहीं लिखा गया एक यक्ष प्रश्न है, परन्तु उत्पीडक़ के करतूतों को इतिहास के पन्ने में मुश्किल से ही रहने दिया जाता है और यदि किसी तरह रखने की कोशिश की जाती है तो अतिशयोक्ति कहकर उसके प्रमाण मांगा जाता है। उसके वर्ग अपने कपो-कथन, सुने-सुनाये बातों को भी इतिहास कहकर संजोते हैं और अन्य के आज के तथ्यों के कसौटी में सत्य होने पर भी पुराण कहकर इतिहास नहीं मानते, जैसे ईसाई के बाइबिल और इस्लाम के कुरान इतिहास से भी बढक़र सत्य बताते हैं और हिन्दू के रामायण, महाभारत, इत्यादि, को पुराण कहकर नाना तरीके के भद्दे से भद्दे टिप्पणियाँ करने से भी नहीं चूकते, खुद कबीले और पुरातन समाज के वंशधर होते हुए भी अभी तक केवल 2023 वर्ष के ईसाई और 1445 वर्ष के इस्लाम, अपने पूर्वजों को ही नकार कर, उनके अपने अपने हठवादी तर्कों के अनुरूप न होने पर ‘सर तन से जुदा’जैसे नारों और धमकियों तथा, भारत में तो अधिकांशत: वास्तव में हत्या तक कर देते हैं, उनको न मानने वालों को काफिर कहकर उन के हत्या को सही मानने की जिद करते हैं और देश के वोटों के और कालेधन के लोभी तथा कथित हिन्दू नामधारी नेता और उनके पार्टी हिन्दू और सनातन को ही दोषी सिद्ध करने के लिए कुतर्कों के फेहरिस्त बनाते रहते हैं, यहां तक की स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात् लम्बे समय तक सत्तासीन कांग्रेस तथा उससे फुटकर बनी पार्टियाँ, परिवारवादी पार्टियां तथा वामपंथी पार्टियां 1972 में कांग्रेस द्वारा संविधान में षड्यंत्रपूर्वक घुसाए हुए ‘सेक्युलर’की आड़ में सनातन को ही मिटाने की बात करते हैं।
अत: किसी भी देश के नागरिक ने केवल पुस्तक में लिखा विषेशत: इतिहास अथवा तथाकथित धार्मिक पुस्तक पढक़र उसी को अकाट्य सत्य नहीं मानना चाहिए, अपितु उसके आधार, लिखने समय के स्थान, काल, परिस्थिति और शासन व्यवस्था, प्रचलन, इत्यादि के भी तथ्यों के कसौटी पर सत्यता की जाँच कर ही निष्कर्ष निकालना चाहिए। 2023 में कोई लेख लिखने वाला व्यक्ति 100 वर्ष का भी होगा तो 1923 में जन्मा होगा और अत्यंत स्मृति वाले भी 1930 के बाद के ही उसके साथ घटित घटनाक्रम को कुछ-कुछ उस घटना के उसके जीवन अथवा उसके देश के महत्व के सापेक्ष ही स्मरण करेगा अन्यथा प्रकृति के नियमानुसार विस्मृत हो जायेगा। इस प्रकार केवल अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को पीडक़ लेख लिखकर अथवा भ्रामक तथ्यों की असत्यताओं को सत्य इतिहास अथवा ईश्वर के कथन कहकर भ्रम फैलाना परम पाप किसी को भी नहीं करना चाहिए अन्यथा देर सवेर उनको परमात्मा के अकाट्य नियम अनुसार नरक तुल्य दैहिक, आदिभौतिक, आध्यात्मिक, मानसिक, इत्यादि कष्टों से सामना करना ही पड़ेगा, न केवल स्वयं परन्तु अपने संतति को भी प्रभाव से नहीं बचा सकेगा। इसीलिए प्रत्येक आत्मा अर्थात मानव को सदा सत्य, दया, धर्म, परोपकार, पराशक्ति परमात्मा प्रति समर्पण के भाव, तथा लोक कल्याण के कार्य करते रहना चाहिए। जीवन के संघर्ष सभी के सुन्दर भविष्य के लिए होना चाहिए न के अपने स्वार्थपूर्ति अथवा पेट पालन के लिए। अस्तु।।
लेखक
Related Posts
Latest News
परम पूज्य योग-ऋषि श्रद्धेय स्वामी जी महाराज की शाश्वत प्रज्ञा से नि:सृत शाश्वत सत्य........
01 Mar 2024 15:59:45
निर्भ्रान्त जीवन का मार्ग 1. वैयक्ति, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक व वैश्विक सन्दर्भों में हमारी बहुत प्रकार की भ्रान्तियां, संशय, उलझन,...