संपत्ति विभाजन के शास्त्रीय नियम

संपत्ति विभाजन के शास्त्रीय नियम

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

सनातन धर्म में सम्पत्ति का विभाजन धर्मशास्त्रों के अनुसार इन तेरह प्रकार के पुत्रों में किया जाता है। धर्मशास्त्रों में 12 या 13 प्रकार की संततियों का निरूपण है। जबकि महाभारत में 20 प्रकार की संततियाँ बताई गई हैं। मनु के अनुसार 13 प्रकार की संततियाँ हैं।
1 औरस, 2 पुत्रिकापुत्र, 3 क्षेत्रज, 4 दत्त, 5 कृत्रिम, 6 गूढ़ोत्पन्न, 7 अपविद्ध, 8 कानीन, 9 सहोढ, 10 क्रीत, 11 पौनर्भव, 12 स्वयंदत्त, 13 शौद्र।
इसमें से 13वें प्रकार के पुत्र का उल्लेख गौतम, कौटिल्य, हरीत, याज्ञवल्क्य, नारद, देवल तथा यम ने नहीं किया है। जबकि मनु, बौधायन, वशिष्ठ, शंख, बृहस्पति, स्मृतियों तथा ब्रह्मपुराण और महाभारत में इनका उल्लेख है। विष्णु धर्मसूत्र (15/17) का कहना है कि पुत्र कहीं भी उत्पन्न किया गया हो, वह पुत्र ही कहलायेगा। इस प्रकार कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार का रति संबंध बनाकर यदि पुत्र उत्पन्न करता है तो वह पुत्र ही कहा जायेगा और उसे सम्पत्ति में अधिकार अवश्य मिलेगा। इस तरह किसी भी प्रकार का पुत्र या संतति धर्मशास्त्रों में अवैध नहीं कही गई है। तो विवाह का कोई प्रकार अवैध कहा गया है और ही किसी भी प्रकार की संतान अवैध कही गई है। केवल पवित्रता और परम्परागत मान्यता के आधार पर उनमें तारतम्य स्थापित किया गया है। वैजयन्ती टीका के अनुसार संतान चाहे अपनी पत्नी से उत्पन्न हो या अन्य की ही पत्नी से उत्पन्न हो, वह पिता की सम्पत्ति पर अर्थात् जनक यानी उत्पन्न करने वाले की सम्पत्ति की अधिकारिणी हो जाती है। स्त्री भिन्न वर्ण की हो या भिन्न जाति की हो या अविवाहिता हो, उत्पन्न पुत्र उत्पादक की सम्पत्ति का अधिकारी है। इस संबंध में अनुशासन पर्व का उल्लेख महत्वपूर्ण है। अनुशासन पर्व के 49वे अध्याय में 20 प्रकार के पुत्रों का वर्णन है:-
आत्मा पुत्रश्च विज्ञेयस्तस्यानन्तरजश्च :
निरूक्तजश्च विज्ञेय: सुत: प्रसृतजस्तथा।।3।।
पतितस्य तु भर्याया भत्र्रा सुसमवेतया।
तथा दत्तकृतौ पुत्रावध्यूढश्च तथापर:।।4।।
षडपध्वंसजाश्चापि कानीनापसदास्तथा।
इत्येते वै समाख्यातास्तान् विजानीहि भारत।।5।।
अर्थात् पति के वीर्य से उत्पन्न पुत्र को औरस कहा जाता है, उसे हीअनन्तरजभी कहा जाता है क्योंकि वहां पति-पत्नी के संयोग के बीच में कोई अन्य नहीं है अर्थात् निरन्तरता है। दूसरे प्रकार का पुत्रनिरूक्तजहोता है और तीसराप्रसृतजहोता है। ये क्षेत्रज के ही दो भेद हैं। पतित पुरूष का अपनी भार्या से उत्पन्न पुत्र एक अलग श्रेणी का है और दत्तक पुत्र तथा क्रीत पुत्र अलग। कुमारी अवस्था में ही कन्या के पेट में जाने वाला गर्भ जब विवाह के बाद के उत्पन्न होता है तो उसेअध्यूढकहते हैं। ये सात प्रकार हुये। आठवां पुत्र कानीन होता है तथा : प्रकार केअपसदयाप्रतिलोमपुत्र होते हैं और : प्रकार केअनुलोमयाअपध्वंसजपुत्र होते हैं। इस प्रकार कुल बीस प्रकार के पुत्र या संततियां होती हैं। ये सभी समान रूप से संतति ही कहलाते हैं।
अगले श्लोकों में पितामह भीष्म ने धर्मराज युधिष्ठिर को बताया है कि अनुलोम या अपध्वंसज पुत्र वे हैं जो अनुलोम विवाह से उत्पन्न होते हैं, जैसे - ब्राह्मण पुरूष का क्रमश: क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतति, क्षत्रिय की वैश्य एवं शूद्र से उत्पन्न एवं वैश्य की शूद्रा स्त्री से उत्पन्न संतति। ये : अनुलोम संततियां हैं। इसी प्रकार इनसे विपरीत जो प्रतिलोम संबंध हैं जैसे ब्राह्मणी, क्षत्राणी और वैश्य स्त्री का शूद्र पुरूष से उत्पन्न पुत्र जो क्रमश: चाण्डाल, व्रात्य और वैद्य कहलाते हैं तथा क्षत्रिय का ब्राह्मणी से उत्पन्न पुत्र या संतति सूत कहलाती है और वैश्य पुरूष की ब्राह्मणी एवं क्षत्रिया के गर्भ से उत्पन्न संततियां क्रमश: मागध और वामक कहलाती हैं। इस प्रकार ये : अनुलोम और : प्रतिलोम कुल 12 प्रकार की संतति हुईं और औरस, निरूक्तज, प्रसृतज, दत्तक, क्रीत, अध्यूढ और कानीन इस प्रकार 19 प्रकार की संततियां हुईं तथा पतित पुरूष का अपनी पत्नी से उत्पन्न पुत्र - इसे मिलाकर कुल बीस प्रकार की संततियां हुईं।
सामान्य रूप में मनु ने नवम् अध्याय में बारह प्रकार के पुत्र गिनाये हैं। परन्तु नवम् अध्याय के ही 127वें श्लोक में मनु ने पुत्रहीन पिता द्वारा कन्या को पुत्रिका के रूप में संकल्प पूर्वक घोषित करने की बात कही है। इस प्रकार करने पर वह पुत्रिका पुत्र ही हो जाती है। मनु का कहना है कि दक्ष प्रजापति ने प्राचीनतम काल में वंश की वृद्धि के लिये इसी विधि से पुत्रिका को भी पुत्र घोषित किया था:-
अपुत्रोऽनेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम्।
यदपत्यं भवेदस्यां तन्मम स्यात्स्वधाकरम्।।127।।
अनेन तु विधानेन पुरा चक्रे पुत्रिका।
विवृद्धयर्थं स्ववंशस्य स्वयं दक्ष: प्रजापति:।।128।।
पुत्रान्द्वादश यानाह नृणां स्वायंभुवो मनु:
तेषां षड् बन्धुदायादा: षडदायादबान्धवा:।।158।।
औरस: क्षेत्रजश्चैव दत्त: कृत्रिम एव च।
गूढोत्पन्नोऽपविद्धश्च दायादा बान्धवाश्च षट्।।159।।
कानीनश्च सोहढश्च क्रीत: पौनर्भवस्तथा।
स्वयंदत्तश्च शौद्रश्च षडदायादबान्धवा:।।160।।
अर्थात् मनु ने बारह प्रकार के ही पुत्र बताये हैं। उनमें से प्रथम : प्रकार के पुत्र दायाद अर्थात् पैतृक धन के भागी होते हैं और बाद वाले : केवल दायाद-बान्धव हैं और वे तिलोदक के अधिकारी हैं तथा दायाद में उनका गोत्र बान्धवों जैसा ही अधिकार है। इस प्रकार मनु ने औरस, क्षेत्रज, दत्तक, कृत्रिम, गूढ़ोत्पन्न और अपविद्ध इन : प्रकार के पुत्रों को दायाद कहा है और बाद के : को पिण्डोदक अर्थात् श्राद्ध और तर्पण का अधिकारी तथा गोत्र बान्धवों के समान दायाद पाने वाला कहा है। उन्होंने कानीन, सहोढ़, प्रीत, पौनर्भव, स्वयंदत्त तथा शौद्र यानी शूद्रा से उत्पन्न ब्राह्मण पुत्र को दायाद का समान भागी नहीं माना है, केवल दायाद-बान्धव माना है।
इस विषय में मनु का नवम् अध्याय के 163वें श्लोक में बलपूर्वक कथन है कि केवल औरस पुत्र ही पिता के सम्पूर्ण धन का वास्तविक स्वामी होता है। शेष पुत्रों को केवल भोजन, वस्त्र आदि के लिये आवश्यक सम्पत्ति ही दी जानी चाहिये। परंतु साथ ही 164वें श्लोक में यह भी कहा है कि पैतृक धन में विभाजन करते हुये औरस पुत्र क्षेत्रज पुत्र को पैतृक धन का पांचवा या छठवां भाग दे। शेष दस प्रकार के पुत्र तो गोत्र को मिलने वाले रिक्थ के ही अधिकारी हैं। औरस पुत्र के विषय में मनु का कथन है कि अपने ही सुसंस्कृत क्षेत्र में अपने द्वारा उत्पन्न पुत्र को ही औरस पुत्र कहा जाता है और यह सब प्रकार के पुत्रों में प्रधान है। (टीकाकारों ने संस्कृता भार्या का भाष्य करते हुये उसे स्वजातीय बताया है)
जबकि पुरूष यदि जीवित नहीं रहा हो अथवा भीषण रोगी हो या नपुंसक हो और कुल के आग्रह पर पत्नी नियोग विधि से पुत्र उत्पन्न करे तो उसे क्षेत्रज पुत्र कहा जाता है। क्योंकि स्त्री ही क्षेत्र कही गई है और पुरूष क्षेत्र का स्वामी (क्षेत्रिक) कहा गया है।
एक एवौरस: पुत्र: पित्र्यस्य वसुन: प्रभु:
शेषाणामानृशंस्यार्थं प्रदद्यात्तु प्रजीवनम्।।163।।
षष्ठं तु क्षेत्रजस्यांशं प्रदद्यात्पैतृकाद्धनात्।
औरसो विभजन्दायं पित्र्यं पन्चममेव वा।।164।।
औरसक्षेत्रजौ पुत्रौ पितृरिक्थस्य भागिनौ।
दशापरे तु क्रमशो गोत्ररिक्थांशभागिन:।।165।।
स्वक्षेत्रे संस्कृतायां तु स्वयमत्त्पादयेद्धियम्।
तमौरसं विजानीयात्पुत्रं प्रथमकल्पितम्।।166।।
यस्तल्पज: प्रमीतस्य क्लीबस्य व्याधितस्य वा।
स्वधर्मेण नियुक्तायां पुत्र: क्षेत्रज: स्मृत:।।167।।
माता पिता वा दद्यातां यर्माद्भे: पुत्रमापदि।
सदृशं प्रीतिसंयुक्तं ज्ञेयो दात्त्रिम: सुत:।।168।।
सदृशं तु प्रकुर्याद्यं गुणदोषविचक्षणम्।
पुत्रं पुत्रगुणैर्युक्तं विज्ञेयश्च कृत्रिम:।।169।।
उत्पद्यते गृहे यस्य ज्ञायेत कस्य :
गृहे गूढ उत्पन्नस्तस्य स्याद्यस्य तल्पज:।।170।।
मातापितृभ्यामुत्सृष्टं तयोरन्यतरेण वा।
यं पुत्रं परिगृöीयादपविद्ध: उच्यते।।171।।
पितृवेश्मनि कन्या तु यं पुत्रं जनयेद्रह:
तं कानीनं वदेनाम्ना वोढु: कन्पासमुद्भवम्।।172।।
या गर्भिणी संस्क्रियते ज्ञाताज्ञाताऽपि वा सती।
वोढु: गर्भो भवति सहोढ इति चोच्यते।।173।।
क्रीणीयाद्यम्त्वपत्यार्थं मात्रापित्रोर्यमन्तिक्रात्।
क्रीतक: सुतस्तस्य सदृशोऽसदृशोऽपि वा।।174।।
या पत्या वा परित्यक्ता विधवा वा स्वयेच्छया।
उत्पादयेत्पुनर्भूत्वा पौनर्भव उच्यते।।175।।
सा चेदक्षतयोनि: स्याद्भतप्रत्यागतापि वा।
पौनर्भवेन भत्र्रा सा पुन: संस्कारमर्हति।।176।।
मातापितृविहीनो यस्त्यक्तो वा स्यादकारणात्।
आत्मानं स्पर्शयेद्यस्मै स्वयंदत्तस्तु स्मृत:।।177।।
यं ब्राह्मणस्तु शूद्रायां कामादुत्पादयेत्सुतम्।
पारयन्नेव शवस्तस्मात्पारशव: स्मृत:।।178।।
दास्यां वा दासदास्यां वा : शूद्रस्य सुतो भवेत्।
साऽनुज्ञातो हरेदंशमिति धर्मो व्यवस्थित:।।179।।
क्षेत्रजादीन्सुतानेतानेकादश यथोदितान्।
पुत्रप्रतिनिधीनाहु: क्रियालोपान्मनीषिण:।।180।।
एतेऽभिहिता: पुत्रा: प्रसंगादन्यबीजजा:
यस्य ते बीजतो जातास्तस्य ते नेतरस्य तु।।181।।
भ्रातृणामेकजातानामेकश्चेत्पुत्रवान्भवेत्।
सर्वास्तांस्तेन पुत्रेण पुत्रिणो मनुरब्रवीत्।।182।।
सर्वासामेकपत्नीनामेका चेत्पुत्रिणी भवेत्।
सर्वास्तास्तेन पुत्रेण प्राह पुत्रवतीर्मनु:।।183।।
अर्थात् वस्तुत: औरस पुत्र ही समस्त पैतृक धन का पूर्ण स्वामी होता है। औरस पुत्र के अभाव में क्षेत्रज पुत्र को वह धन प्राप्त होता है। यदि औरस और क्षेत्रज दोनों प्रकार के पुत्र हैं तो औरस पुत्र को चाहिये कि वह क्षेत्रज पुत्र को पांचवा या छठा हिस्सा दे दे। शेष दस प्रकार के पुत्र तो केवल गोत्र बान्धव होते हैं और उन्हें उतना ही सम्पत्ति अंश मिलता है जो गोत्र के अन्य बान्धवों को मिलता है। माता या पिता यदि पुत्र के अभाव में अपनी ही जाति के किसी अन्य के पुत्र को संकल्प पूर्वक और प्रीतिपूर्वक गोद ले लेते हैं तो उसे दात्त्रिम यानीदत्तकयादत्तपुत्र कहते हैं। यदि समान जाति के किसी पुत्र को अपना बना लिया जाये तो उसेकृत्रिम पुत्रकहते हैं। पत्नी द्वारा या कन्या अवस्था में रतिकर्म के परिणाम स्वरूप गुप्त रूप से उत्पन्न पुत्र को पति द्वारा अपना लेने पर वह पति कागूढपुत्र कहा जाता है। माता या पिता द्वारा त्यागी गई किसी संतति को जब कोई व्यक्ति पुत्र रूप में अपना लेता है तो उसेअपविद्धपुत्र कहा जाता है। जब कन्या अविवाहित अवस्था में अपने पिता के घर में रहते हुये ही गुप्त रूप से कोई पुत्र उत्पन्न करती है तो उसेकानीनपुत्र कहा जाता है और वह पुत्र उस कन्या को क्षमादान देते हुये सहर्ष विवाह करने वाले पति का होता है। जब जानकारी में या गैर जानकारी में किसी गर्भिणी कन्या का विवाह किया जाता है और पति उसके गर्भिणी होने को उदारतापूर्वक क्षमाभाव से स्वीकार कर लेता है, तो उसेसहोढपुत्र कहते हैं। दाम देकर खरीदे हुये पुत्र कोक्रीतपुत्र कहते हैं। पति द्वारा परित्यक्त अथवा विधवा स्त्री जब स्वेच्छा से अन्य विवाह करती है तब उस दूसरे पति से उत्पन्न पुत्र कोपौनर्भवपुत्र कहते हैं। यदि स्त्री अक्षतयोनि हो और पहले पति को त्याग कर दूसरे पति से विवाह करे तो ऐसी स्त्री कोपुनर्भूकहते हैं।
यहाँ उल्लेखनीय है कि पति को त्यागने के लिये केवल पांच प्रकार की विपदा की स्थितियों में ही धर्मशास्त्रों की अनुमति है:- (1) वह वर्षों से अदृश्य हो अर्थात् दूर कहीं परदेश जा बसा हो और उसका कुछ अता-पता नहीं चले, (2) मृत्यु हो जाने पर, (3) सन्यासी होने पर। (4) नपुंसक होने पर और (5) पति के धर्म से पतित हो जाने पर।
इन पांच स्थितियों में ही स्त्री अन्य पति कर सकती है, यह शास्त्र का विधान है। अत: इन पांचों में से ही किसी कारण से प्रथम पति का त्याग कर दूसरा पति करने वाली स्त्री कोपुनर्भूकहते हैं।पुनर्भूसे होने वाला पुत्रपौनर्भवकहलाता है। यदि कोई ब्राह्मण पुरूष किसी शूद्रा से विवाह करता है और उससे पुत्र उत्पन्न होता है तो उसेपारशवपुत्र कहते हैं। परंतु यदि कोई ब्राह्मण दासी के साथ कोई पुत्र उत्पन्न करता है या दास की दासी से कोई पुत्र उत्पन्न करता है तो उस पुत्र को शूद्र होने पर भी औरस पुत्र के समान ही पैत्रक धन का बराबर हिस्सा मिलता है, ऐसी धर्म की व्यवस्था है। परन्तु वस्तुत: औरस पुत्र ही मूल प्रतिनिधि पुत्र है, औरस पुत्र के अभाव में श्राद्ध आदि क्रियाओं का लोप ना हो, इसके लिये अन्य सभी प्रकार के पुत्रों को भी औरस का ही प्रतिनिधि स्वरूप माना जाता है।
सहोदर भाईयों में से यदि एक भाई को पुत्र हो जाये तो अन्य सभी भाई पुत्रवान माने जाने चाहिये। ऐसा मनु का विधान है। इसी प्रकार यदि एक पुरूष के अनेक पत्नियां हैं और उनमें से किसी भी एक से पुत्र हो जाता है तो वे सभी स्त्रियां पुत्रवती ही मानी जायेगी। यह मनु का विधान है।
यहाँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि पुत्र का महत्व धर्मशास्त्रकारों ने स्पष्ट रूप से आध्यात्मिक कारण से बताया है। क्योंकि श्राद्ध आदि सभी क्रियायें पुत्र द्वारा ही संपादित की जाती हैं। विधवा पुत्रहीन पति का श्राद्ध कर सकती है परन्तु वह पार्वण श्राद्ध नहीं कर सकती। जैमिनी के मीमांसा सूत्र (6/3/35) के भाष्य में शबरस्वामी ने कहा है किप्रतिनिधि की नियुक्ति से धार्मिक क्रिया सम्पन्न तो होती है, परन्तु उससे धार्मिक कृत्य का पूर्ण फल नहीं प्राप्त होता।धर्मशास्त्र का यह भी विधान है कि इन पांच का कोई भी अन्य प्रतिनिधि नहीं हो सकता - (1) पत्नी, (2) पुत्र, (3) याज्ञिक, (4) देश (स्थान) और (5) काल। अत: धार्मिक-आध्यात्मिक लाभ के लिये ही पुत्र का इतना गौरव है और उसके लिये ही पुत्रों के इतने प्रकार के प्रावधान किये गये हैं।

हिन्दू धर्म में कोई भी संतति अवैध नहीं कही जा सकती

सनातन धर्म की मूल प्रज्ञा से अनजान यूरोपीय ईसाई लोगों ने इस विषय में हास्यास्पद कथन किये हैं। डॉ. जाली का कथन है कि ऐसा लगता है कि अपने-अपने कुल में अधिक से अधिक शक्तिशाली कार्यकर्ता प्राप्त करने के लिये ही हिन्दू धर्म में इतने प्रकार के पुत्रों की मान्यता दी गई जिनमें से कुछ तो माता के अवैध संसर्ग के परिणाम हैं और कुछ का पिता से कोई रक्त संबंध है ही नहीं। परंतु जाली का यह कथन अज्ञान का परिणाम है। वस्तुत: इन तेरहों प्रकार के पुत्रों के विषय में धर्मशास्त्र के प्रावधान भली-भांति समझे जायें तो स्पष्ट हो जायेगा कि ये सारे विभाग एवं उपविभाग बहुत ही सूक्ष्म अंतर के आधार पर हैं। इसीलिये देवल स्मृति का कथन है कि वस्तुत: ये सभी 13 प्रकार के पुत्र चार वर्गों में बांटे जा सकते हैं - (1) आत्मज, (2) परज, (3) लब्ध, (4) यादृच्छिक।
वस्तुत: दत्तक, क्रीत, कृत्रिम, स्वयंदत्त और अपविद्ध नामक पांच प्रकार के पुत्र भिन्न-भिन्न परिस्थितियों से जुड़े हैं। इनमें से कोई भी माता के किसी अवैध संसर्ग का फल नहीं है। इसी प्रकार पौनर्भव और शौद्र वस्तुत: व्यक्ति के वैधानिक पुत्र ही हैं। उनके लिये ये विशेषण थोड़े कम सम्मान के अर्थ में ही प्रयुक्त हैं। किसी भी प्रकार का पुत्र अवैध नहीं है। क्योंकि धर्मशास्त्रों के अनुसार ऐसा करना नृशंसता है। किसी भी संतान को अवैध संतान कहना (जैसा कि ईसाइयत और इस्लाम तथा अन्यत्र कहा जाता है और आधुनिक यूरो-इण्डियन भारतीय विधि में भीइल्लेजिटिमेट चाइल्डके रूप में वर्णित है) सनातन धर्मशास्त्रों के आधार पर ऐसा कहना नृशंसता है, निर्दयता है और संवेदनहीनता है। इसीलिये हिंदू धर्म में किसी भी प्रकार के विवाह को और किसी भी प्रकार की संतान को अवैध नहीं कहा गया है।
माता द्वारा पुनर्विवाह करने से उत्पन्न पौनर्भव पुत्र पूरी तरह वैधानिक पुत्र है और ब्राह्मण द्वारा शूद्रा स्त्री से उत्पन्न पुत्र भी पूरी तरह वैधानिक पुत्र है। केवल ऐसे संबंधों को असम्मान की दृष्टि से देखा गया है। मनु ने तो पौनर्भव पुत्र को द्विज ही कहा है। यद्यपि उसे श्राद्ध के समय आमंत्रित करने का निषेध किया है।
अपनी बेटी को ही बेटा मान लेने की स्थिति में उसे पुत्रिका कहा जाता है। पुत्रिका का पुत्र भी व्यक्ति का अपना ही नाती है जिसे वह पौत्र मान लेता है। ये गोद लिये जाने के ही विशिष्ट उदाहरण हैं और इसमें माता के किसी अवैधानिक संसर्ग की कोई बात ही नहीं है। इस प्रकार 13 में से 9 प्रकार के पुत्र तो पूर्णत: आधुनिक यूरो-ईसाई अर्थ में भी वैधानिक पुत्र ही हैं। जो चार पुत्र बच रहते हैं, वे हैं क्षेत्रज, गूढ़ोत्पन्न, कानीन एवं सहोढ़। क्षेत्रज पुत्र संसार भर में मान्य रहे हैं। ईसाइयों, मुसलमानों आदि में भी। गूढ़ोत्पन्न पुत्र गुप्त प्रेम से उत्पन्न पुत्र है। आधुनिक यूरो-ईसाई चित्त गुप्त प्रेम की बहुत महिमा गाता है। अत: ऐसे प्रेम से उत्पन्न पुत्र को अवैध कहने का कोई औचित्य ही नहीं है। कानीन पुत्र भी कुमारी कन्या से उत्पन्न पुत्र है। जब पति ऐसी कन्या को पूर्व संबंध से धारण किये गये गर्भ के लिये क्षमा कर सकता है तो उसे अवैध कहना क्रूरता और निर्दयता के सिवाय कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार जब गर्भिणी कन्या से कोई पुरूष गर्भ के विषय में जानते हुये भी उदारता पूर्वक और स्वेच्छा से विवाह करते हैं तो उस पुत्र को सहोढ़ कहते हैं। जब स्वयं पिता ने उस पुत्र को स्वीकार कर लिया तो उसे अवैध कहना सब प्रकार अनुचित है और क्रूरता तथा निर्दयता का लक्षण है। जो धर्मशास्त्रकारों ने कभी भी नहीं किया है। क्योंकि शास्त्रों का बार-बार कहना है कि- ‘आनृशंस्य ही परम धर्म हैअर्थात् नृशंसता का संपूर्ण अभाव ही धर्म है। (‘आनृशंस्यं परो धर्म:’ - महाभारत)
इसीलिए महाभारत के अनुशासन पर्व में भी और नीलकंठ शास्त्री आदि की टीकाओं में भी यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे सभी प्रकार के पुत्रों के संस्कार अवश्य किये जाने चाहिये। संस्कार करने का अर्थ उन्हें सामाजिक मान्यता और प्रतिष्ठा देना तथा आध्यात्मिक मान्यता देना है।
स्पष्ट है कि सनातन धर्म की आधारभूत आध्यात्मिक चेतना से पूर्णत: अनभिज्ञ यूरो-ईसाई लोग विभिन्न प्रकार के पुत्रों की शास्त्रीय मान्यता देखकर, अपनी संस्कृति के अनुरूप, केवल देहबल और देहसंख्या की ओर ही अपना चित्त ले जा पाते हैं और वे इतने प्रकार के पुत्रों की मान्यता के पीछे कुल का शारीरिक बल बढ़ाने का ही उपाय समझ पाते हैं। इससे उनकी मनोदशा का परिचय मिलता है। तथ्य यह है कि इसके पीछे केवल आध्यात्मिक एवं धार्मिक दृष्टि है। इसका एक अन्य प्रमाण यह भी है कि व्यभिचारिणी पत्नी को भी शुद्ध करने के अनेक विधान धर्मशास्त्रों में दिये हैं और उसे पति संसर्ग से रहित तो किया जा सकता है, परंतु अन्न, वस्त्र आदि के रूप में भरण-पोषण आजीवन करना ही होगा। यही धर्म विधान है। वस्तुत: ऊपर वर्णित पांच विपदाओं के अतिरिक्त और किसी भी स्थिति में विवाह भंग नहीं होता। अत: विवाह संबंध सनातन धर्म में आजीवन चलने वाला संबंध है।
-क्रमश:

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