हिपेटाइटिस

लिवर सिरोसिस (Liver Cirrhosis) तथा लिवर कैंसर

हिपेटाइटिस

डॉ. नागेन्द्रनीरजनिर्देशक चिकित्सा प्रभारी
योग-प्राकृतिक-पंचकर्म चिकित्सा एवं अनुसंधान केन्द्र
योग-ग्राम, पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार

   विभिन्न प्रकार के लिवर रोग वायरल हिपेटाइटिस, अल्कोहलिक लिवर रोग, नॉन-अल्कोहलिक लिवर रोग, जॉण्डिस आदि विभिन्न लिवर रोगों का सही उपचार नहीं होने पर अन्तिम दुष्पपरिणाम लिवर सिरोसिस होता है। लिवर कितना क्षतिग्रस्त हुआ है। इस पर लिवर सिरोसिस का इलाज निर्भर करता है। सामान्य लिवर का औसत साइज महिलाओं में 7 सेमी. तथा पुरुषों में 10.5 सेमी. तथा वजन क्रमश: 1200-1400 ग्राम तथा 1400-1500 ग्राम होता है। शरीर की यह सबसे बड़ी बाह्य स्रावी ग्रंथि है। इसमें कम-से-कम 500 प्रकार की दवाइयाँ बनती हैं।
लिवर के विभिन्न रोग निम्नलिखित होते हैं-

1.    अल्कोहलिक फैटी लिवर डिजीज

जो लोग शराब तथा सिगरेट पीते रहते है, उनमें फैट एवं ट्राइग्लिसराइडस लिवर में जमा होकर अल्कोहलिक फैटी लिवर डिजीज पैदा होता है। बाद में फैटी लिवर डिजीज लिवर सिरोसिस तथा लिवर कैंसर पैदा करता है।

2.    नॉन अलकोहलिक स्टीएटो (Non alcoholic steato) फैटी लिवर डिजीज

यह रोग उन लोगों में ज्यादा होता है जो लोग शराब तो नहीं पीते है लेकिन उल्टा-पुल्टा खाना जैसे मलाई, मक्खन, तले-भुने आहार प्रचुर मात्रा में खाते है। हलवा, पूरी, चाट, पकौड़ी, फास्ट-फूड, जंक-फूड हमेशा खाने की जिनकी आदत होती है उनमें शरीर मोटा होने के साथ लिवर भी मोटा हो जाता है। शरीर पर चर्बी जमने के साथ लिवर पर भी चर्बी जमा होकर नन अल्कोहलिक फैटी लिवर डिजीज हो जाता है।
3.    हिपेटाइटिस-
हिपेटाइटिस- संदूषित जल तथा आहार से फैलता है। आहार-विहार ठीक करने से स्वत: ठीक हो जाता है।
4.    एक्यूट हिपेटाइटिस-
      संदूषित जल या कोई पेय पीने से होता है।
 5.    हिपेटाइटिस-बी
शार्ट टर्म वाली तीव्र तथा ज्यादा दिन तक चलने वाली लांगटर्म क्रोनिक हिपेटाइटिस होती है। एच.आई.वी. (एड्स संक्रमण की तरह) हिपेटाइटिस बी संक्रमित शरीर द्रव जैसे रक्त, वीर्य, देह द्रव, इन्जेक्शन या रक्त चढ़ाने से फैलता है।
एलोपैथी में हिपेटाइटिस का उपचार होता तो है किन्तु स्वास्थ्य नहीं मिलता है। नेचुरोपैथी, योग आयुर्वेद में ट्रीटमेंट भी है तथा श्योर क्योर भी है।
6.    हिपेटाइटिस-सी
तीव्र (एक्यूट) तथा जीर्ण (क्रोनिक) दोनों प्रकार का होता है। हिपेटाइटिस ग्रस्त रोगी का ब्लड चढ़ाने या संक्रमित इन्जेक्शन से फैलता है। प्रारम्भिक अवस्था में इस रोग का पता नहीं चलता है, बाद में इस रोग से स्थायी रूप से लिवर क्षतिग्रस्त हो जाने पर पता चलता है।
7.    हिपेटाइटिस-डी
  अत्यन्त खतरनाक किस्म का होता है। प्राय: यह रोग हिपेटाइटिस बी वालों को ही होता है। रक्त संक्रमण, होमोसेक्सुअलिटी, नस से नशीली दवाएं लेना, संक्रमित रक्त चढ़ाने तथा इन्जेक्शन से फैलता है। ज्यादातर पुरुषों में यह रोग होता है। हिपेटाइटिस-डी (शार्ट टर्म एक्यूट) तीव्र तथा (लॉगटर्म क्रोनिक) जीर्ण होता है। उपर्युक्त यकृत रोग भलिभांति उपचार नहीं करने पर मानव जीवन को हमेशा के लिए अभिशप्त कर देते हैं।
8.    हिपेटाइटिस-जी
यह लिवर रोग की नयी खोज है। वास्तव में यह हिपेटाइटिस-सी वायरस का सगा-सम्बन्धी, भाई-बहन है। सर्वप्रथम यह 1996 में हिपेटाइटिस-जी की खोज हुई थी। हिपेटाइटिस-जी के वायरस को Humanpegivirus- HPGVU भी कहते हैं। हिपेटाइटिस-डी वायरस का संक्रमण प्राय: हिपेटाइटिस-बी वायरस से संक्रमित लोगों में होता है। जो लोग हिपेटाइटिस-बी से संक्रमित नहीं हुए उन्हे हिपेटाइटिस-डी वायरस का संक्रमण नहीं होता है। हिपेटाइटिस-बी, हिपेटाइटिस-सी तथा हिपेटाइटिस-जी प्राय: संक्रमित रोगी का ब्लड ट्रान्सफ्यूसन, इन्जेक्शन, रक्तदाता संक्रमित रोगी (Infected Homo/Hetero Binary Sexual Activities and Drugs Addicted Intra Venous Injection Exchange) या संक्रमित माता से शिशु को हो सकता है। अभी तक हिपेटाइटिस-जी को भलिभांति समझा नहीं गया है।
9.    ऑटोइम्यून हिपेटाइटिस
हमारे समस्त रोगरक्षक जाबाज सैनिक लिवर कोशिकाओं को ही अपना शिकार बनाने लगते है परिणामत: लिवर इन्फ्लामेशन, लिवर सिरोसिस तथा अन्त में लिवर फेल्योर की स्थिति पैदा हो जाती है।
10.   पैतृक जेनेटिक लिवर रोग
माता-पिता के किसी एक या दोनों के परिवार में स्वयं माता-पिता में से किसी एक या दोनों को लिवर रोग है तो बच्चे में लिवर रोग होने की संभावना 40 से 50 फीसदी बढ़ जाती है। यह भी दो प्रकार का होता है-
एस्ट्रोजन का लेवल बढऩे से त्वचा पर छोटी-छोटी कोशिकाएँ मकरी के जाले की तरह स्पाइडर एन्जियोमॉस (Spider angiomos) तथा चेरिएन्जियोमॉस (Chcrriangiomos) संरचना दिखने लगती है।
11.   पैतृक हिमोक्रोमेटोसिस लिवर रोग
शरीर में आवश्यकता से अधिक आयरन इकट्ठा हो जाता है। यह आयरन शरीर के विभिन्न स्थानों के साथ-साथ सर्वाधिक लिवर में जमा होता है। यदि उचित उपचार से लोहा को ठिकाने लगाने की व्यवस्था की जाये तो यह लिवर को क्षति ग्रस्त करके लिवर रोग पैदा करता है।
हिमोक्रोमेटोसिस रोग HEF नामक जीन के डिफेक्टिव वेरिएन्ट म्यूटेशन के कारण होता है। जो माता-पिता दोनों या किसी एक से संतान में आता है। इसमें लिवर से स्त्रवित हेपसिडिन (Hepcidin) हार्मोन जो लोहे को शरीर के लिए उपयोगी बनाता है, उसका अभाव हो जाता है। शरीर में लोहे की किस अंग को जरूरत है तथा लोहे को कहाँ पर स्टोर करना है सारा कार्य हेपसिडन हार्मोन करता है। हेपसिडिन के अभाव में यह काम ठप्प हो जाने से लोहा लिवर तथा अन्य अंगों जैसे किडनी, लिवर तथा हार्ट में जरूरत से ज्यादा जमा होने से फेल्योर की स्थिति पैदा होती है।
नवजात शिशुओं, किशोरों के कुछ विशेष खून की कमी वाले रोग जैसे- थैलेसिमिया, कुलीज एनीमिया, हिमोफिलिया, सिकल सेल एनीमिया या कैंसर आदि में बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। प्री-मेनोपॉज या पोस्ट-मेनोपॉज तथा गर्भाशय एवं अन्य अंगों के रोग में भी खून चढ़ाना पड़ता है, ऐसी स्थिति में लिवर में लोहा जमा होकर सेकण्ड्री हिमोक्रोमेटोसिस लिवर रोग पैदा करता है।
जोड़ों में दर्द, पेट दर्द, थकान, कमजोरी, मधुमेह, नपुंसकता, हार्ट फेल्योर के लक्षण दिखते हैं। खाने में नॉन हिम आयरन फूड तथा कैल्शियम, फायटेट एवं फास्फेट वाले आहार, जैसे- सभी प्रकार के अनाज ज्वार, बाजरा, रागी, बीन्स, सब्जियाँ, फल, सुखे मेवे, मूंगफली, बादाम, अखरोट, चाय, दूध तथा दूध से बने पदार्थ, तर्बूजा, मशरूम, एवोकोडो, ब्रोकोली आदि दें।
निषेध : हिम आयरन वाले आहार आर्गन मांस, मछली, अण्डा, लाल मांस, सी-फूड, आयरन के अवशोषण में सहायता करने वाले विटामिन-सी तथा वाले आहार, शुगर आयरन फोटिफायड फूड, मल्टी विटामिन टबलेट, शराब पूर्णतया निषेध है।
12.   पैतृक विलसन रोग
जिन गर्भस्थ अजन्मे शिशुओं मेंसेरुलोप्लासमिनएन्जाइम का अभाव होता है उनमें जन्म के बाद भी 95% कॉपर उपयोगी नहीं हो पाता है। प्लाज्मा में कॉपर की कमी होने से फेरस ऑयरन फेरिक आयॅरन में बदल नहीं पाता है, परिणामत: लिवर में कॉपर का लेवल बढऩे लगता है जिससे लिवर क्षतिग्रस्त तो होता ही है, इसके अतिरिक्त रक्त प्रवाह में कॉपर की मात्रा बढऩे से शरीर के अन्य अंगों तथा दिमाग में पहुंच कर मेन्टल रिटार्डेशन, पार्किन्सन रोग, आँखों में ब्राउनरिंग जिसेकेयसर फ्लिश्चर रिंगकहते हैं बनने लगता है। विल्सन रोग को हिपेटो लेन्टीकुलर डिजेनरेशन रोग भी कहते हैं।
विल्सन रोग भी ATP7B जीन के डिफेक्टिव वेरिएन्ट म्यूटेशन के कारण होता है। यह जीन ही अतिरिक्त कॉपर को लिवर से आँतों के रास्ते निकाल बाहर करता है। ATP7B जीन के 300 से अधिक अलग-अलग म्यूटेशन पाये गये हैं। यह जीन माता-पिता तथा उनके अति नजदिकी सगे संबंधियों द्वारा शिशुओं में स्थानान्तरित होता है। सेरूलोप्लास्मिन इसी जीन द्वारा निर्देशित एवं नियंत्रित होता है। विशेष प्रोटीन सेरूलो प्लास्मिन कॉपर को लिवर से रक्त प्रवाह तथा जिस अंग में आवश्यकता होती है वहाँ पहुचाने का काम करता है। अतिरिक्त कॉपर को आँतों के रास्ते निकाल बाहर करता है। कॉपर धारक सेरूलोप्लासमिन प्रोटीन आयरन के मेटाबॉलिज्म में भी सहायता करता है। इसलिए सी.पी. जीन द्वारा इनकोडेड सेरूलोप्लास्मिन एक फेरोऑक्सीडेज एन्जाइम के रूप में जाना जाता है।
कॉपर का उपयोग विभिन्न एन्जाइम निर्माण में होता है। साइटोक्रोम सी ऑक्सीडेज, CU/ZN डिपेन्डेन्ट सुपर ऑक्साइड डिस्म्यूटेस, टायरोसिनेस, डोपामिन बीटा हाइड्रोक्सीलेस, सेरूलोप्लास्मिन तथा पेप्टीडाइल-अल्फा-मोनोऑक्सीलेस के लिए कॉपर अतिआवश्यक होता है। ऊर्जा तथा लाल रक्त कण के निर्माण के लिए कॉपर जरूरी है। यह कनेक्टिव टिशूज सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम के कार्य को भी संचालित करता है। टायरोसिनेस एन्जाइम त्वचा एवं बालों के रंग निखार हेतु मेलानिन का निर्माण करता है। डोपामिन बीटा हाइड्रोक्सीलेस डोपामिन को नारएपिनेफ्रिन में बदल देता है। कोशिकाओं के माइट्रोकॉण्ड्रिया में स्थित साइटोक्रोम सी जीवन रक्षक ऊर्जा .टी.पी. के निर्माण तथा एपोपटौपिक क्रिया द्वारा क्षतिग्रस्त कोशिकाओं तथा रोगाणुओं को नष्ट करता है। शरीर में कॉपर का बहुआयामी उपयोग है, लेकिन यही कॉपर तथा सेरूलोप्लासमिन का लेवल बढऩे से संक्रमण, हार्ट डिजीज, आर्थराइटिस, ल्यूकेमिया, हॉजकिन लिम्फोमा होता है।
आहार में कॉपर की कम मात्रा वाला गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी, चावल, दूध, दही, घी, फल, कॉफी, चना, गूड़ इत्यादि कच्चा आम, लेट्स, पालक, चुकन्दर, गाजर, आलू, करेला, लौकी, फूलगोभी, ककड़ी, फली, भिण्डी, टिण्डा, जौ, सेवई, काला चना, मसूर, चौलाई, पत्तागोभी, सेलेरी, करी पत्ता, मेथी पत्ता, चचिण्डा, तरोई, हरा टमाटर खायें।
निषेध : कॉपर की अधिक मात्रा वाला आहार चॉकलेट, सुखे मेवे बादाम, अखरोट, मूँगफली, पिस्ता, खूर्बानी आदि मशरूम, लाल एवं आर्गन मांसाहार, शेलफिस आदि मछली, अल्कोहल, कॉसा बर्तन तथा कॉपर बर्तन वाला जल, सप्लीमेन्ट वाले आहार एवं मल्टी विटामिन, हार्लिक्स, सोयाबीन, कोकोनट, अरहर का दाल, सिंघाड़ा, कमल ककड़ी, अजवाइन, धनिया, काली मिर्च इत्यादि नहीं खायें।
13.   अल्फा- एन्टीट्रिप्सिन (ATT) अभाव जन्य
लिवर रोग
जब लिवर पर्याप्त मात्रा में ..टी. बनाने में असमर्थ हो जाता है तो एक खास प्रकार का प्रोटीन सारे शरीर में इस एन्जाइम को टूटने से बचाता है लेकिन शरीर की यह अवस्था फेफड़े के रोग के साथ लिवर रोग भी पैदा करती है।
यह लिवर तथा फेफड़े का एक असंभाव्य जनेटिक रोग है। यह 20-50 वर्ष के आयु के लोगों को होता है। इसमें ATT अभाव जन्य रोग SERPINA-1 जीन में पैथोजेनिक वेरियन्ट म्यूटेशन के कारण होता है। यह जीन ही लिवर को अल्फा एण्टीट्रिप्सिन बनाने हेतु निर्देश देता है। WBC एक अन्य प्रोटीन न्यूट्रोफिल एलेसटेस (Neutrophil Elastase) बनाता है। इसका भी नियंतरण भी AAT द्वारा होता है। न्यूट्रोफिल एलेसटेस शरीर को संक्रमण एवं रोगाणुओं से लड़ता है। शरीर की रक्षा करता है। जब AAT न्यूट्रोफिल को नियंत्रण करने में असफल हो जाता है तो यह फेफड़े तथा यकृत के स्वस्थ कोशिकाओं का भी नष्ट करने लगता है। जेनेटिक परिवर्तन होने से लिवर कोशिकाए AAT का निर्माण कम करती है या ठप्प कर देती है अथवा वेरियन्ट AAT बनने से अच्छी तरह काम नहीं करता है। खतरनाक एवं असामान्य AAT का निर्माण होता है। न्यूट्रोफिल एलेस्टेस विकृत होकर फेफड़े एवं यकृत के उत्तकों को नष्ट करने लगता है। परिणामस्वरूप सांस लेने में कठिनाई होने लगती है, ज्यादा मात्रा में लस-लस थूक बनता है फेफड़े तथा यकृत में लस-लसापन बढऩे से व्यायाम तथा काम करने की शक्ति कम हो जाती है। थकान, सांस के साथ छाती में दर्द, घड़घड़ाहट, सांय-सायं एवं सिटी जैसी आवाज एवं घबराहट होती है। करीब 10 प्रतिशत बच्चे तथा 15 प्रतिशत वयस्क AAT से ग्रस्त होते हैं।
फेफड़े तथा लिवर में लस-लसा पदार्थ बनने तथा वहाँ के कोशिकाओं में स्कार (क्षत् चिन्ह) बनने लगता है। यह असंभाव्य रोग (Rare) रोग नहीं है लेकिन इसका निदान असंभाव्य हो जाता A-1 AT का अभाव लिवर में पैदा होता है जिससे चलते लिवर Scar tissue बनते है जिससे लिवर सिरोसिस हो जाता है। A-1 ATP प्राय: रक्त प्रवाह द्वारा लिवर से होते हुए फेफड़े (Lungs) तथा अन्य अंगों में पहुँच कर उनकी रक्षा करता है। जीन में पैथोजेनिक म्यूटेशन के कारण लिवर का कार्य ठप्प हो जाता है, जिससे लिवर क्षतिग्रस्त होने लगता है। लिवर सिरोसिस तथा लिवर कैंसर तक हो जाता है। इसका सबसे बड़ा लक्षण शिशु तथा बड़ों में आँख एवं त्वचा पीली होने लगती है। इस रोग से ग्रस्त रोगियों की औसत जीवन (Average life Expectance) 60 वर्ष तक होती है। इसकी कोई चिकित्सा नहीं है। सामान्य पोषक आहार में विटामिन E, D, K के साथ मल्टीविटामिन वाले आहार एवं टैबलेट दें। पीलिया को कन्ट्रोल करने के लिए तथा तीव्र खुजली तथा द्रव संचय सूजन को दूर करने के लिए दवाइयाँ देते है। निसर्गोपचार करने से लाभ होता है।  रोग बढऩे पर सिरोसिस, लिवर कैंसर, लिवर फेल्योर आदि जान-लेवा रोग होते हैं।
जब लिवर सही ढ़ंग से काम नहीं करता है तो शरीर में एस्ट्रोजन का लेवल बढ़ जाता है, साथ ही शरीर टायरोसिनेस (Tyrosinase) नामक एन्जाइम का स्तर भी बढ़ जाता है। टायरोसिनेस में कॉपर की मात्रा होती है जो मेलानिन का उत्पादन बढ़ाता है, परिणामत: पिगमेन्टशन की स्थिति पैदा होती है।
आहार में प्रोटीन वाले आहार कीटोजेनिक दें। कार्बोहाइड्रेट वाले आहार का निषेध करें। शरीर की आवश्यकता से अधिक कैलोरी वाले आहार का त्याग करें। लिक्विड एवं जल को नियंत्रित रखें। शरीर में फ़ॉस्फोरस के लेबल को सतत बनाये रखें। दूध, दही, बीन्स, अंकुरित मूँग, मोठ, मसूर, मटर, चना, मूँगफली का प्रयोग करें। बीन्स, बादाम, अखरोट, काजू तथा सर्वांग अनाज (Whole Grains) का प्रयोग करें।
14.   जीव विष एपलाटॉक्सिन जन्य हिपेटाइटिस
जीव विष एपलाटॉक्सिन फंगस वाले मक्का, मूंगफली, बिनौला, राइ, गेहूँ तथा कुछ बादाम, अखरोट आदि काष्टज मेवों पर पलने वाले फफूंद (Fungus) एसपेरगिल्लस पैरासाइटिकस तथा एस-फ्रलेवस (S-Flavas) से उत्पन्न जीव विष एफ्लाटॉक्सिन्स लिवर को क्षतिग्रस्त करके हिपेटाइटिस तथा कैंसर पैदा करते हैं। ऐसे आहार खाने में कड़वे लगें तो खायें, थूक दें। खाद्य पदार्थ को 1,00C पर उबालने पर एफ्लाटॉक्सिन्स नष्ट हो जाते हैं।
हथेलियों पर जलन, लालिमा तथा खुजली बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। इसे पामर एरिथेमा (Palmar Erythema) कहते हैं, जो हार्मोन असंतुलन होने का संकेत देता है।
15.   टॉक्सिक हर्बल हिपेटाइटिस
यह कुछ दवाइयों या जहरीले पदार्थों के खाने या हिपेटोक्सिन्स के कारण हो सकता है। कुछ वनौषधियों जैसे मंगोलिया, रूस तथा चीन की प्रसिद्ध जड़ी-बूटी हब्र्स कवा-कवा (Kava-Kava) तथा प्रशान्त द्वीप समूह की जड़ी-बूटी मा-हुआंग के अधिक प्रयोग से टॉक्सिक हर्बल हिपेटाइटिस होता है। ब्लैक कोहोश (महिला स्वास्थ्य) केसकेश छाल (रेचक) चपर्रल, कॉम्फ्रे तथा एलोवेरा पौध जड़ी-बूटी की कुछ प्रजातियां हिपेटाइटिस पैदा करती हैं।
16.   एलोपैथी औषधि दुष्प्रभावजन्य हिपेटाइटिस
कुछ एलोपैथी दवाइयाँ जैसे टी.बी., मिर्गी, दर्द तथा बुखार की दवा पेरासिटामॉल, एनाबॉलिक स्टरॉयड दवाइयों, एण्टीबायोटिक, बर्थ कन्ट्रोल की दवा, सल्फा मेडिसिन, कॉले स्टरॉल, स्टेटिन्स, एस्प्रिन तथा ज्वरनाशक तथा नॉन स्टेरॉयडियल एण्टी इन्फ्लामेटरी मेडिसिन का अधिक प्रयोग लिवर को क्षतिग्रस्त करता है।
17.   अन्य कारक जन्य हिपेटाइटिस
) नीडलों के अदला-बदली। 
) नॉन स्टाराइल नीडल से टेटू बनवाने से।
) ऐसी नौकरी जहाँ ब्लड या अन्य देह द्रव (Body fluid) से एक्सपोज्ड होने की संभावना।
) बिना सुरक्षा के सेक्स।
) मधुमेह या ज्यादा कोलेस्टरॉल डिसलिपिडेमिया।
) पारिवारिक इतिहास।
) अधिक वजन।
) पेस्टीसाइड्स से या अन्य टॉक्सिन्स एक्सपोजर।
) कुछ दवाइयां तथा अल्कोहल एक साथ लेने से।
मा) कुछ दवाइयों का अत्यधिक प्रयोग खतरनाक हो सकता है।
) लिवर रोगी, एच.आई.वी. रोगी, बूढ़े रोगी, ज्यादातर महिलाएँ, लगातार ज्यादा दिन तक दवाओं प्रयोग करने वाले रोगी, हिपेटाइटिस से ग्रस्त होते है। ऐसे रोगियों में पेट दर्द, थकान कमजोरी, ज्वर, मितली, वमन, भूख की कमी, गहरा पीला पेशाब, पीला, राख मिट्टी जैसा पाखाना, आँख एवं त्वचा पीली आदि लक्षण दिखते हैं।
) कुछ वेटलॉस तथा बॉडी बिल्डिंग सप्लीमेन्टस हिपेटाइटिस पैदा करती हैं।
    उपर्युक्त विविध हिपेटाइटिस को समय पर उपचार नहीं होने से यही रोग लिवर सिरोसिस में बदल जाता है।  
-क्रमश:

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