जीवन की उत्पत्ति

जीव में सामाजिक और जाति व्यवस्था भाग - 1

जीवन की उत्पत्ति

डॉ. चंद्र बहादुर थापा  वित्त एवं विधि सलाहकार-

 भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह

       किसी भी समूह अथवा समाज में जाति एक उप-समूह है जो अपने द्वारा किए जाने वाले कार्य में विशिष्ट होता है और अन्य उप-समूहों से शारीरिक या रूपात्मक अंतर के आधार पर अलग होता है। चींटियाँ, मधुमक्खियाँ, दीमक और ततैया जैसे सामाजिक कीड़े जाति व्यवस्था विकसित करने के लिए आधार मानी जाती हैं। कीट समाजों में (1) रानी जाति, प्रजनन के लिए (2) श्रमिक जाति, रानी और उसके अंडे और लार्वा के देखभाल के लिए (3) सैनिक जाति, कॉलोनी (समाज) के रक्षण के लिए जिम्मेदार होते हैं और इन जातियों के बीच रूपात्मक अंतर, उनके सदस्यों को विभिन्न कार्य करने में सक्षम बनाता है, जैसे श्रमिक मधुमक्खी (एपिस मेलिफ़ेरा) के पैरों पर पराग की टोकरी रानी जाति में मौजूद नहीं होती है, क्योंकि रानी जाति को पराग इकट्ठा करना नहीं पड़ता और रानी जाति की यौन क्षमता, श्रमिक जाति में नहीं होती, वे बाँझ होते हैं। कुछ कीड़े श्रमिक या सैनिक उपजातियाँ भी उत्पन्न करते हैं, जो रूपात्मक और कार्यात्मक रूप से भिन्न होती हैं। कुछ कीड़े श्रमिक या सैनिक उपजातियाँ भी उत्पन्न करते हैं, जो रूपात्मक और कार्यात्मक रूप से भिन्न होती हैं, जैसे फीडोल चींटियाँ छोटी और बड़ी उपजातियों के वर्ग बनाकर, छोटी चींटियाँ भोजन खोजने का काम करते हैं, जबकि बड़ी चींटियाँ जिनके शरीर और सिर बड़े होते हैं, मुख्य रूप से रक्षा में शामिल होते हैं, जिससे कॉलोनी के अस्तित्व को बढ़ावा मिलता है।
एक प्रजाति के जीवों का एक समूह जो एक दूसरे के साथ निकटता से रहते हैं और बातचीत करते हैं, तथा विभिन्न कारणों से अपने-अपने कॉलोनियाँ (समाज) बनाते हैं। ये कॉलोनियाँ स्थायी अथवा अस्थायी हो सकते हैं और कारण (1) प्रजनन गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए (2) शिकारियों से घोंसले की रक्षा में अपने प्रयासों को समन्वित करने के लिए (3) शिकार को पकड़ने , खिलाने या प्रजनन के लिए (4) अथवा अन्य सामूहिक आवश्यकता के लिए, हो सकते हैं। यह प्रवृत्ति एक कोशीय जीव से सृष्टा तक में अन्तर्निहित रहता है और सामूहिकता में सर्वजन हिताय क्रिया के पराकाष्ठा में उत्कृष्टता के भावना से किये जाने वाले कार्य प्रति प्रेरित करने वाले शक्ति को, मानव के ऋषि मुनियों ने परमात्मा तत्व नाम दिया है।
'जाति' शब्द की व्युत्पत्ति
आदिपुराण जैन धर्म का एक प्रख्यात पुराण है जो सातवीं शताब्दी में जिनसेन आचार्य द्वारा लिखा गया था। आदिपुराण (जैन धर्म साहित्य) में वर्ण और जाति की सबसे पुराना उल्लेख है। जिनसेन वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति को ऋग्वेद या पुरुष सुक्त से नहीं बताते हैं, बल्कि राजा भरत की कथा के रूप में के वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति को बताते हैं। इस पौराणिक कथा के अनुसार, भरत ने "अहिंसा परीक्षण" किया, और उनके समुदाय के जिन सदस्यों ने किसी भी जीवित व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने या चोट पहुंचाने से इंकार कर दिया, उन्हें प्राचीन भारत में पुजारी वर्ण कहा जाता था, और भरत उन्हें द्विज (दो बार पैदा हुआ) बताते हैं। जिनसेन आचार्य का कहना है कि जो लोग अहिंसा के प्रति प्रतिबद्ध हैं वे देव-ब्राह्मण, दैवीय ब्राह्मण हैं। 18वीं सदी के सिख साहित्य में, 'वर्ण' शब्द वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में, और जात या जात-बिरादरी के रूप में जाति व्यवस्था का उल्लेख है जात ब्रिटिश औपनिवेशिक युग के दौरान विशेष रूप से जाति व्यवस्था के रूप विकसित किया गया था। शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से जाति शब्द संस्कृत की 'जनि' (जन) धातु में 'क्तिन' प्रत्यय लगकर बना है। न्याय सूत्र के अनुसार 'समानप्रसावात्मिकाजाति' अर्थात्जाति समान जन्म वाले लोगों को मिला कर बनती है। 'न्यायसिद्धांतमुक्तावली' के अनुसार 'नित्यत्वे सति अनेकसमवेत्त्वम्जातिवर्त्त्य अर्थात् जाति उसे कहते हैं, जो नित्य है और अपनी तरह की समस्त वस्तुओं में समवाय संबंध से विद्यमान है। व्याकरण शास्त्र के अनुसार 'आकृति ग्रहण जातिलिंगनांचनसर्वं भाक्सकृदाख्यातनिर्गाह्या गोत्रंच चरणै: सह' अर्थात्जाति वह है जो आकृति के द्वारा पहचानी जाए, सब लिंगों के साथ बदल जाए और एक बार के बतलाने से ही जान ली जाए। इन परिभाषाओं और शब्द व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि 'जाति' शब्द का प्रयोग प्राचीन समय में विभिन्न मानव जातियों के लिये नहीं होता था। वास्तव मे जाति मनुष्यों के अंतर्विवाही समूह या समूहों का योग है जिसका एक सामान्य नाम होता है, जिसकी सदस्यता अर्जित होकर जन्मना प्राप्त होती है, जिसके सदस्य समान या मिलते-जुलते पैतृक धंधे या धंधा करते हैं और जिसकी विभिन्न शाखाएँ समाज के अन्य समूहों की अपेक्षा एक दूसरे से अधिक निकटता का अनुभव करती हैं।
ऐसा देखा गया है कि जातियों का उच्च या निम्न स्थान धार्मिक अनुष्ठान तथा सामाजिक प्रथा, आर्थिक स्थिति तथा सत्ता द्वारा स्थिर और परिवर्तित होता है। इसके अतिरिक्त कुछ पेशे निकृष्ट और कुछ शुद्ध तथा श्रेष्ठ माने जाते हैं। चमड़े का काम, मल-मूत्र की सफाई कपड़ों की धुलाई आदि निकृष्ट, बाल काटना, मिट्टी और धातु के बर्तन बनाना, टोकरी, सूप आदि बनाना, बिनाई, धुनाई आदि निम्न, खेती, व्यापार, पशुपालन, राजा की नौकरी मध्यम और विद्याध्ययन, अध्यापन, तथा शासन श्रेष्ठ कार्य माने जाते  हैं। इसी प्रकार भोजन के कुछ पदार्थ उत्तम और कुछ निकृष्ट माने जाते हैं। मृत पशु, विष्ठोपजीवी शूकर तथा मांसाहारी गीदड़, कुत्ते, बिल्ली आदि का मांस निकृष्ट खाद्य माना जाता है। शाकाहार करना और मदिरा त्याग उत्तम माना जाता है। धार्मिक संस्कार और उनकी विधियों का भी बहुत महत्व है। स्त्रियों का पुनर्विवाह और विधवा विवाह उच्च जातियों में बहुत कम और और निम्न जातियों में बहुतायत में स्वीकृत है। यह निषेध धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से उत्तम माना जाता है। 
वास्तव में भारत में जाति प्रथा के आलोचक प्रथमत: जाति को वर्ण व्यवस्था से घालमेल करते हैं और दूसरे तरफ जैवी प्रकृति-प्रवृत्ति की, जो विजित के प्रति विजेता के भाव और व्यवहार होते हैं, को अज्ञानवश अथवा जान-बूझकर अथवा अपने निहित स्वार्थ सिद्धि के लिए भूल जाते हैं, तथा तृतीय परन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू की विजित उच्च वर्ग के जाति विजेता के द्वारा निम्न वर्ग में समाहित कर देने भर से कभी भी उस निम्न वर्ग में पूर्णत: सम्मिलित होते दिखाई देने पर भी अपने पूर्व-जाति वर्ग से प्रतिशोध लेने के मौके के ताक में रहते हैं, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण पैगम्बर हजरत मोहम्मद के द्वारा प्रतिपादित इस्लाम है जो तत्कालीन यहूदी कबीलों के सम्पन्नता के प्रति द्वेष के कारण प्रतिशोध में 'काफिर' शब्द के प्रयोग करते हुए उनकी किताब 'कुरान' में ही उन के शब्द कहकर लिख दिया कि 'काफिर' को मारना फ़र्ज है, जबकि तब तक के किसी भी विचारधारा के प्रवर्तक ने मानव को मारना कहा, ही लिखा और आज भी इसके दुष्प्रभाव को इस्लामिक जिहाद के रूप में सारा संसार, विशेषकर भारत 'सेकुलरिज्म' के आड़ मे भुगतता रहा है। संसार भर के इस्लाम और ईसाई को मानने वाले अपने ही पूर्वजों द्वारा माना गया सनातन को संसार से मिटाने के स्वप्न देख रहे हैं। सनातनी भी भले दिखने के चक्कर में अथवा सत्ता के काबिज होने अथवा सत्ता के आस-पास रहकर सुख-सुविधा और सामाजिक ठसक प्राप्त करने के चक्कर में सनातन को ही नाना तरीके से कोसते रहते हैं।
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से पहले, दक्षिण एशिया में मुसलमानों के लिए शरिया (इस्लामी कानून) को फतवा--आलमगिरी में संहिताबद्ध किया गया, परन्तु गैर-मुसलमानों (जैसे हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी) के लिए कानून - इस्लामी शासन के 600 वर्षों के कालखण्ड में संहिताबद्ध नहीं किये गए।  ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों के आगमन के साथ, मनुस्मृति ने दक्षिण एशिया में गैर-मुस्लिमों के लिए एक कानूनी प्रणाली के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई 7 ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश क्राउन, अपने ब्रिटिश शेयरधारकों के लिए व्यापार के माध्यम से मुनाफा कमाना और न्यूनतम सैन्य हस्तक्षेप के साथ प्रभावी राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखना चाहते थे, अत: ब्रिटिश प्रशासन ने कम से कम प्रतिरोध का रास्ता अपनाया जो विभिन्न रियासतों में स्थानीय मध्यस्थों, अधिकांशत: मुसलमान और कुछ हिंदू, पर निर्भर थे। भारत के मुसलमानों के लिए अंग्रेजों ने कानूनी संहिता के रूप में शरिया के नियम अल-दीरियाह और फतवा- आलमगिरी पर आधारित शरिया को स्वीकार किया जिन्हें औरंगजेब ने लिखवाया था। हिन्दू और अन्य गैर-मुस्लिम जैसे बौद्ध, सिख, जैन, पारसी और आदिवासी लोगों के लिए मनुस्मृति से हिंदू कानून के तत्वों की खोज की गई थी। 
मनुस्मृति
चीन से प्राप्त पुरातात्विक प्रमाण के अनुसार मनुस्मृति कम से कम 10,220 ईसा पूर्व प्राचीनतम सिद्ध हुई है। विद्वानों के अनुसार मनु परम्परा की प्राचीनता होने पर भी वर्तमान मनुस्मृति ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी से प्राचीन नहीं हो सकती (यद्यपि इसमें प्राचीनतर काल के अनेक वचन संगृहीत हुए हैं), यह बात यवन, शक, कंबोज, चीन आदि जातियों के ग्रंथों में निहित निर्देशों से सिद्ध होती है। यह भी निश्चित है कि वर्तमान रूप द्वितीय शती ईसा पूर्व तक दृढ़ हो गया था और इस काल के बाद इसमें कोई संस्कार नहीं किया गया।
मनुस्मृति को सनातन धर्म मानव जाति का एक प्राचीन धर्मशास्त्र प्रथम संविधान (स्मृति) माना गया है। यह 1776 में अंग्रेजी में अनुवाद किये जाने वाले पहले संस्कृत ग्रंथों में से एक था जो ब्रिटिश भाषा एवं विधिशास्त्री तथा प्राचीन भारत संबंधी सांस्कृतिक अनुसंधानों का प्रारंभकर्ता, सर विलियम जोंस (1783 में बंगाल के उच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) में न्यायाधीश नियुक्त) द्वारा 1794 में प्रथम संस्करण प्रकाशित किया गया और ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के लाभ के लिए हिंदू कानून का निर्माण करने के लिए आधार बनाया गया था। मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं जिनमें 2684 श्लोक (कुछ संस्करणों में 2964) हैं।
मनुस्मृति की गणना विश्व के ऐसे ग्रन्थों में की जाती है, जिनसे मानव ने वैयक्तिक आचरण और समाज रचना के लिए प्रेरणा प्राप्त की है, केवल धार्मिक आस्था या विश्वास का नहीं। जर्मन के प्रसिद्ध दार्शनिक प्रौडरिच नीत्से ने  कहा कि 'मनुस्मृति बाइबल से उत्तम ग्रंथ है बल्कि उससे बाइबल की तुलना करना पाप है। 'बाइबल इन इण्डिया' नामक ग्रन्थ में लुई जैकोलिऑट (Louis Jacolliot) लिखते हैं: "मनुस्मृति ही वह आधारशिला है जिसके ऊपर मिस्र, परसिया, ग्रेसियन और रोमन कानूनी संहिताओं का निर्माण हुआ" आज भी यूरोप में मनु के प्रभाव का अनुभव किया जा सकता है। मनु के मन्तव्यों का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तकों में मैक्समूलर, .. मैकडानल, .बी. कीथ, पी. थामस, लुईसरेनो आदि पाश्चात्य लेखकों ने मनुस्मृति को धर्मशास्त्र के साथ - साथ एक 'लॉ बुक' भी माना है और उसके विधानों को सार्वभौम, सार्वजनीन तथा सबके लिए कल्याणकारी बताया है परन्तु ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों ने गलती से मनुस्मृति को कानून के कोड के रूप में समझ लिया, जबकि मनुस्मृति नैतिकता और कानून पर टिप्पणी थी, कि एक कानूनी प्रणाली पर।
 मनुस्मृति की संरचना एवं विषयवस्तु-जन्म के आधार पर जाति और वर्ण व्यवस्था पर चोट
मनुस्मृति के बारह अध्यायों में सृष्टि की उत्पत्ति, संस्कार, नित्य और नैमित्तिक कर्म, आश्रमधर्म, वर्णधर्म, राजधर्म प्रायश्चित आदि विषयों के उल्लेख निम्न शीर्षकों में किया गया है -
अध्याय - (1) जगत् की उत्पत्ति (2) संस्कारविधि, व्रतचर्या, उपचार (3) स्नान, दाराघिगमन, विवाहलक्षण, महायज्ञ, श्राद्धकल्प (4) वृत्तिलक्षण, स्नातक व्रत (5) भक्ष्याभक्ष्य, शौच, अशुद्धि, स्त्री धर्म  (6) गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ, मोक्ष, संन्यास (7) राजधर्म, (8) कार्य विनिर्णय, साक्षि प्रश्नविधान (9) स्त्री पुंसधर्म, विभाग धर्म, धूत, कंटक शोधन, वैश्य शूद्रोपचार (10) संकीर्ण जाति, आपद्धर्म (11) प्रायश्चित्त (12) संसार गति, कर्म, कर्म-गुणदोष, देश जाति, कुल धर्म, निश्रेयस।
मनुस्मृति में व्यक्तिगत चित्त शुद्धि से लेकर पूरी समाज-व्यवस्था तक ऐसी सटीक बातें हैं जो आज भी हमारे मार्गदर्शन कर सकती हैं। जन्म के आधार पर जाति और वर्ण की व्यवस्था पर सबसे पहली चोट मनुस्मृति में ही की गई है (श्लोक-12/109, 12/114, 9/335, 10/65, 2/103, 2/155-58, 2/168, 2/148, 2/28) सबके लिए शिक्षा और सबसे शिक्षा ग्रहण करने की बात भी इसमें है (श्लोक- 2/198-215) स्त्रियों की पूजा करने अर्थात् उन्हें अधिकाधिक सम्मान देने, उन्हें कभी शोक देने, उन्हें हमेशा प्रसन्न रखने और संपत्ति का विशेष अधिकार देने जैसी बातें भी हैं (श्लोक-3/56-62, 9/192-200) राजा (आधुनिक सन्दर्भ में समाज अथवा राज्य के शीर्ष नेतृत्व) से कहा गया है कि वह प्रजा (आधुनिक सन्दर्भ में समाज अथवा राज्य के जनसाधारण) से जबरदस्ती कुछ कराए (8/168) यह भी कहा गया कि प्रजा (आधुनिक सन्दर्भ में समाज अथवा राज्य के जनसाधारण) को हमेशा निर्भयता महसूस होनी चाहिए (8/303) सबके प्रति अहिंसा की बात की गई है (4/164), इत्यादि।
 सप्तांग राज्य का सिद्धान्त
भारतीय राजदर्शन में मनु द्वारा प्रतिपादित सप्तांग राज्य सिद्धान्त अनुसार राज्य (समाज) एक शरीर की भाँति है, जिसके सात अंग हैं। ये सभी राज्य-रूपी शरीर की प्रकृतियां है जिनके बिना राज्य संचालन की कल्पना करना कठिन है। मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्लोक 294 में राज्य के सात अंग गिनाये गये हैं-(1) स्वामी अर्थात् राजा (2) मंत्री (3) पुर (दुर्ग) (4) राष्ट्र (5) कोष (6) दण्ड तथा (7) मित्र। इन सात अंगों से निर्मित राज्य का प्रत्येक अंग एक विशिष्ट कार्य करता है और इसी कारण उसका महत्व है। मनु के अनुसार यदि इनमें से किसी भी एक अंश की उपेक्षा होती है तो राजा के लिये राज्य का कुशल संचालन सम्भव नहीं है। 
-क्रमश:

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