भारतवर्ष में प्राचीनतम समय से राजशास्त्र और दंडनीति के शास्त्र विद्यमान रहे हैं। इन्हें ही अर्थशास्त्र भी कहा गया है। समस्त धर्मशास्त्रकारों ने राजधर्म का सांगोपांग विवेचन किया है, क्योंकि राजधर्म एक विशिष्ट महत्व का विषय है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र और बौधायन धर्मसूत्र में राजा के अनेक कार्यों एवं कर्तव्यों का उल्लेख मिलता है। महाभारत के अनुशासन पर्व एवं शांतिपर्व में विस्तार से राजधर्म की विवेचना है। ब्रह्माजी ने धर्म की रक्षा के लिये एक लाख अध्यायों वाला एक महाग्रंथ लिखा जिसमें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र एवं मोक्षशास्त्र चारों की विस्तृत विवेचना थी, ऐसा शांतिपर्व में अध्याय 59 श्लोक 29 से 52 तक इस प्रकार बताया गया है-
ब्रह्माजी ने एक लाख अध्यायों वाला महाग्रंथ लिखा। उक्त ग्रंथ में चारों पुरूषार्थों की विवेचना की और दंडजनित त्रिवर्ग की भी विवेचना की। दंड का त्रिवर्ग है- स्थान, वृद्धि और क्षय। अर्थात् धनियों की स्थिति की रक्षा, धर्मात्मा धनियों की वृद्धि और दुरात्मा धनियों का विनाश। इसी प्रकार मोक्ष के त्रिवर्ग में सत्व गुण, रजो गुण और तमो गुण की गहन मीमांसा की गई। फ़िर आत्मा, देश, काल, उपाय, कार्य और सहायक आदि के प्रति कैसी नीति राज्य द्वारा अपनाई जाये, यह लिखा। फ़िर वेदत्रयी, आन्वीक्षिकी, वार्ता और दण्डनीति की विपुल विद्याओं का वर्णन किया। तत्पश्चात राज्य द्वारा आत्मरक्षा, राजपुत्रों के लक्षण, राजदूतों की नियुक्ति, गुप्तचर व्यवस्था और साम, दाम, भेद, दण्ड और उपेक्षा इन पांच उपायों का प्रतिपादन किया। साथ ही मंत्रणा, भेदनीति के प्रयोग के प्रयोजन, मंत्रणा की सिद्धि और असिद्धि के फ़लों का प्रतिपादन किया। उत्तम, मध्यम और अधम इन तीन संधियों की मीमांसा की और वित्त संधि, सत्कार संधि तथा भय संधि के प्रकारों का वर्णन किया, अपने मित्रें की वृद्धि, कोष के भरपूर संग्रह, शत्रु के मित्रों का नाश और शत्रु के कोश की हानि इन चार प्रयोजनों से शत्रु पर चढ़ाई के अवसरों की मीमांसा की और धर्मविजय, अर्थविजय तथा आसुरविजय के भेद बताये। मंत्री, राष्ट्र, दुर्ग, सेना और कोष इनके लक्षणों का और उत्तम, मध्यम तथा अधम भेदों का वर्णन किया। प्रकट और गुप्त सेनाओं का वर्णन किया, जिनके अनेक भेद हैं। हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल, विष्टि, नौकारोही, गुप्तचर और गुरु- इन आठ सैन्य अंगों की विवेचना की तथा जंगम और अजंगम विषों के प्रयोग का और चूर्ण योग आदि विनाशकारक औषधियों का ज्ञान दिया। शत्रु, मित्र और उदासीन की विवेचना की। मार्ग और भूमि के गुण और लक्षण बताये तथा आत्मरक्षा के उपाय बताये और सेना की पुष्टि करने वाली विविध युक्तियां बताईं। व्यूह रचना और रण कौशल के नाना प्रकार बताये तथा युद्ध करने और आवश्यकता पड़ने पर भली भांति पलायन करने के भी उपाय बताये। शस्त्रों के संरक्षण और प्रयोग का ज्ञान दिया। सेना की विपत्ति से रक्षा करने और सेना का हर्ष और उत्साह निरंतर बढ़ाने तथा समय-समय पर पैदल सैनिकों की स्वामी भक्ति की परीक्षा करने आदि के भी उपाय उस शास्त्र में थे। दुर्ग के चारों ओर खाई खुदवाना, सेना का युद्ध के लिये तैयार होना और रणयात्रा करना, शत्रु के राज्य को चोरों और जंगली लुटेरों द्वारा पीड़ा देना, गुप्तचरों द्वारा शत्रु को हानि पहुंचाना, शत्रु के प्रधान लोगों में भेद डालना, आवश्यकता पड़ने पर उनकी फ़सल नष्ट कर देना, हाथियों को भड़काना और लोगों में आतंक पैदा करना तथा शत्रु पक्ष के लोगों में अपने प्रति विश्वास जगाना आदि उपायों का भी ब्रह्मा जी ने वर्णन किया। फ़िर सात अंगो से युक्त राज्य की वृद्धि कैसे होती है और ह्रास किन कारणों से होता है, इसे विस्तार से बताया और राष्ट्र की वृद्धि के उपाय बताये तथा बलवान शत्रुओं को कुचल डालने या समयानुसार व्यवहार की भी विधि बताई।
इसके साथ ही उक्त ग्रंथ में और भी अनेक वर्णन बड़े ही विस्तार से थे, विशेषत: कोष की वृद्धि और माया के प्रयोगों की भी विधि बताई।
बाद में भगवान शंकर ने इस नीतिशास्त्र को कुछ संक्षिप्त किया। उसके बाद इन्द्र ने उसे और संक्षेप करके देवताओं के शासन की विधि प्रतिपादित की तथा राजाओं के लिये भी निर्देश दिये। इस प्रकार राजशास्त्र प्रणेताओं की बहुत विस्तृत सूची हमारे धर्मशास्त्रों में है, जो अत्यन्त प्राचीनकाल से दंडनीति और राजशास्त्र के भारत में प्रतिष्ठित होने का प्रमाण है।
भगवान शिव के बाद उस महान राजशास्त्र को देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। फ़िर उन्होंने उसे और संक्षेप कर 5000 अध्यायों का ग्रंथ कर दिया, जिसे बाहुदन्तक राजशास्त्र नाम दिया गया। फ़िर महान सामर्थ्यशाली बुद्धि वाले देवगुरु बृहस्पति ने उसे और संक्षिप्त कर 3000 अध्यायों का बार्हस्पत्य राजशास्त्र रचा। तदुपरान्त महायोगी शुक्राचार्य ने अपनी अमित प्रज्ञा से उसे 1000 अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। तब से इसका नाम शुक्रनीति हुआ।
भगवान के मानस पुत्र विरजा के प्रपौत्र से राजपद चला
देवताओं ने भगवान विष्णु से अनुरोध किया कि कोई एक श्रेष्ठ राजपुरुष दीजिये, जो राजा बनने का अधिकारी हो। अत: भगवान ने अपने मानस पुत्र 'विरजा' की सृष्टि की। परंतु विरजा ने संन्यास का निश्चय किया। उसके पहले भगवान की आज्ञा से विरजा का पुत्र कीर्तिमान हुआ और फ़िर कीर्तिमान के पुत्र कर्दम हुये। ये दोनों ही संन्यास मार्ग में आगे बढ़ गये, तब कर्दम के पुत्र अनंग को राजपद दिया गया। वहां से राजपद की परंपरा चली। अनंग महान दंडनीति विशारद थे। उनके पुत्र अतिबल भी दंडनीति के महान ज्ञाता हुये। परंतु दंडबल से राज्यश्री को भोगते हुये वे इंद्रियों के वश में हो गये। तब उनकी पुत्री के पुत्र वेन को राजपद दिया गया, परंतु वह राग और द्वेष के वश होकर स्वधर्म से विचलित हो गया। वेदज्ञ ऋषियों ने प्रजा की रक्षा का ध्यान कर, हाहाकार कर रही प्रजा को उसके अत्याचार से बचाने के लिये वेन को मार डाला। शास्त्र की दृष्टि से यह परम अहिंसा कर्म था। ऋषियों ने वेन की दक्षिण जंघा का मंथन कर निषाद नामक एक व्यक्ति को उत्पन्न किया। उसे विंध्यगिरि में रहने के लिए भेज दिया, जिसके वंशज निषाद तथा अन्य जातियां हुईं।
महाराज पृथु के नाम से यह भूमि पृथ्वी कहलायी। तदुपरान्त ऋषियों ने एक और पुरुष को वेन की दाहिनी भुजा से मथ कर प्रगट किया। वे पृथु नाम से प्रसिद्ध हुये और वे पूर्णत: धर्मनिष्ठ राजा हुये। उन्होंने समस्त पृथ्वी का पालन किया और उनके द्वारा पालित होने से ही यह भूमि पृथ्वी कहलाने लगी। सभी देवताओं और ऋषियों ने राजपद पर पृथु का अभिषेक किया और समस्त पृथ्वी पर पृथु ने शासन किया। संम्पूर्ण जगत में धर्म की प्रधानता स्थापित करने के कारण महाराज पृथु को महात्मा कहा गया और प्रजा को प्रसन्न करने वाले तथा आनन्द का वर्धन करने वाले होने के कारण उन्हें राजा कहा गया। ब्राह्मणों को क्षति से बचाने के कारण वे क्षत्रिय कहे गये। इस प्रकार क्षत्रिय शिरोमणि महात्मा राजा पृथु लोक में पूजित हुये। भगवान विष्णु ने उन्हें आदेश दिया कि हे नरेश्वर! तुम चारों ओर गुप्तचर नियुक्त करके राज्य की रक्षा करो, जिससे कि आसुरी शक्तियां इसका धर्षण न कर सकें-
तेन धर्मोत्तरश्चायं कृतो लोको महात्मना।
रंजिताश्च प्रजा: सर्वास्तेन राजेति शब्दते।।125।।
ब्राह्मणानां क्षतत्रणात् तत: क्षत्रिय उच्यते।
प्रथिता धर्मतश्चेयं पृथिवी बहुभि: स्मृता।।126।।
स्थापनं चाकरोद् विष्णु: स्वयमेव सनातन:।
नातिवर्तिष्यते कश्चिद् राजंस्त्वामिति भारत।।127।।
दण्डनीत्या च सततं रक्षितव्यं नरेश्वर।
नाधर्षयेत् तथा कश्चिच्चारनिष्पन्ददर्शनात्।।129।।
प्रजा राजा का मान क्यों करे?
आगे पितामह भीष्म बताते हैं कि हे युधिष्ठिर! राजा के वश में लोक क्यों रहता है, यह समझना चाहिये। चित्त और क्रिया द्वारा सदा सम भाव रखने वाले तथा समस्त प्रजा के प्रति शुभ कर्म करने वाले दैवी गुणों के कारण ही प्रजा राजा को अपना स्वामी मानती है। अन्यथा और कोई कारण नहीं है कि लोग एक व्यक्ति की अधीनता स्वीकार करें।
धर्म की ही संगिनी है श्री। श्री देवी से अर्थ की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार राज्य में धर्मनिष्ठ और धर्मज्ञ राजा के शासन के कारण धर्म, अर्थ और श्री प्रतिष्ठित होते हैं। कोई महान पुण्यात्मा व्यक्ति पुण्यों का थोड़ा क्षय होने के बाद स्वर्गलोक से पृथ्वी पर आकर दंडनीति विशारद राजा के रूप में प्रतिष्ठित होता है और बुद्धि सम्पन्न शासन के कारण महात्मा कहलाता है-
अथ धर्मस्तथैवार्थ: श्रीश्च राज्ये प्रतिष्ठिता।
सुकृतस्य क्षयाच्चैव स्वर्लोकादेत्य मेदिनीम्।।
पार्थिवो जायते तात दण्डनीतिविशारद:।
महत्त्वेन च संयुक्तो वैष्णवेन नरो भुवि।।
बुद्धया भवति संयुक्तो माहात्म्यं चाधिगच्छति।
भीष्म कहते हैं कि राजा अन्य मनुष्यों के समान ही होता है, परंतु उसमें दैवी सम्पत्ति और धर्म तथा शुभकर्म के परिणाम से लोग उसकी आज्ञा मानते हैं।
दंड और दंडनीति का महत्व
आगे कहा गया है कि दंड के महत्व के कारण और स्पष्ट लक्षणों वाली नीति तथा न्याय को सम्पन्न करने वाले आचरण के कारण यह सारा जगत सहज गतिशील रहता है-
महत्त्वात् तस्य दण्डस्य नीतिर्विस्पष्टलक्षणा।
नयचारश्च विपुलो येन सर्वमिदं ततम्।।138।।
पितामह भीष्म बताते हैं कि राजशास्त्र में इन विषयों का समावेश है- इतिहास, वेद, न्याय, तप, ज्ञान, अहिंसा, सत्य और असत्य तथा दोनों से परे का तत्व, वृद्धजनों की सेवा, दान, आंतरिक और बाहरी पवित्रता, उत्कर्ष, समस्त प्राणियों पर दया, पुराणशास्त्र, चारों आश्रमों और चारों वर्णों तथा चारों विद्याओं का शास्त्र एवं नक्षत्रों आदि का ज्ञान और तीर्थों का ज्ञान एवं यज्ञ कर्मों का विशद ज्ञान।
स्पष्ट है कि इन सब विद्याओं का ज्ञाता ही भारतीय शास्त्रों के अनुसार सुयोग्य राजा और महात्मा राजा कहे जाने का अधिकारी है।
सामान्य मानवधर्म
आगे 60वें अध्याय में पितामह बताते हैं कि सामान्यत: किसी पर क्रोध न करना, सत्य वचन बोलना, सम्पत्ति का धर्मशास्त्रों के अनुसार उचित वितरण, क्षमाभाव रखना, अपनी पत्नी से संतान की उत्पत्ति, बाहरी और भीतरी पवित्रता तथा प्राणियों के प्रति द्रोह का अभाव एवं मन की सरलता तथा भरण पोषण, योग्य लोगों का पालन-पोषण करना- ये नौ सभी मनुष्यों के द्वारा पालनीय धर्म हैं। इसीलिये ये सार्ववर्णिक धर्म, सामान्य धर्म, साधारण धर्म और मानव धर्म- इन नामों से वर्णित किये जाते हैं। राजा को यह देखना चाहिये और दंडनीति के द्वारा यह सुनिश्चित करना चाहिये कि सभी मनुष्य इन मानवधर्म, सामान्य धर्म, साधारण धर्म या सार्ववर्णिक धर्म का पालन अवश्य करें।
विविध वर्णधर्म
इसके अतिरिक्त इन सामान्य धर्मों के साथ ही ब्राह्मण को इन्द्रिय संयम अन्य से अधिक करना चाहिये तथा वेदों और शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये। अगर यह सब करते हुये समाज के सद्गृहस्थों द्वारा ब्राह्मण को दान दिया जाये, तो उस दान से अथवा ब्राह्मणोचित कर्म करने के फ़लस्वरूप प्राप्त धन से परिवार पालने का सामर्थ्य आ जाने पर विवाह करे और संतान पैदा करे अथवा विवाह का मन न हो तो दान से प्राप्त समस्त धन को अन्य सुपात्र को दान कर दे तथा यज्ञ में लगा दे।
क्षत्रिय को दान तो करना चाहिये, परंतु दान की याचना कभी नहीं करना चाहिये। यज्ञ करना चाहिये, परंतु दूसरों का यज्ञ पुरोहित बनकर नहीं करना चाहिये। अध्ययन करे, परंतु अध्यापन न करे।
धर्म का उल्लंघन करने वालों और लुटेरों, डाकुओं तथा दस्युओं का वध करने के लिये सदा तत्पर रहे और युद्धभूमि में पराक्रम प्रकट करने के लिये भी सदा तत्पर रहे। जो क्षत्रिय शरीर पर घाव हुये बिना ही समर भूमि से लौट आता है, उसकी प्रशंसा इतिहासवेत्ता लोग कभी भी नहीं करते। इसीलिए युद्ध ही क्षत्रियों का प्रधान धर्म है। सनातन धर्म को बाधित करने वाले तथा वर्णाश्रम धर्म का पालन कर रहे सद्गृहस्थों के जीवन में एवं ब्रह्मचारियों तथा वानप्रस्थियों और संन्यासियों के जीवन में किसी भी प्रकार का विघ्न डालने वाले दस्युओं का संहार क्षत्रिय का श्रेष्ठतम कर्म है। राजा और कुछ कर्म करे या न करें, यदि वह प्रजापालन और प्रजा का रक्षण करता है, तो इसी से वह परिनिष्ठित कार्य अर्थात् कृतकृत्य माना जाता है।
वैश्यों को सदा उद्योगशील रहना चाहिये और कृषि पशुओं का तथा अपनी सम्पत्ति का पालन करना चाहिये। धर्मपूर्वक क्रय और विक्रय का व्यापार करना चाहिये और अनाजों, फ़सलों तथा बीजों की रक्षा करनी चाहिये। इसी प्रकार परिचर्या कर्म करने वालों को सेवाकर्म भलीभांति करना चाहिये। धर्मात्मा शूद्र राजाज्ञा के अनुसार कोई भी धार्मिक कृत्य कर सकता है। सभी लोगों को सदा शूद्र के भरण-पोषण को अपना कर्तव्य मानना चाहिये और उन्हें अन्न, वस्त्र तथा आवश्यक सामानों की कभी भी कमी नहीं होने देनी चाहिये। अपनी सेवा में उपस्थित शूद्र की आजीविका की व्यवस्था करना धर्मकर्तव्य है, ऐसा धर्मवेत्ताओं का कथन है। अगर कोई स्वामी संतानहीन मर जाये तो उसका पिंडदान भी सेवक शूद्र को ही करना चाहिये। अपने स्वामी का किसी भी स्थिति में परित्याग नहीं करना चाहिये। अगर किसी कारण स्वामी के धन का नाश हो जाये तो अब तो उसे जो धन मिला है, उससे कुटुंब पालन के बाद बचे हुये धन से अशक्त हुये स्वामी का भी भरण पोषण करना चाहिये। यज्ञ चारों वर्णों का धर्म है। सभी वर्णों के लोगों को यज्ञ करना चाहिये। परंतु शूद्र के यज्ञ में स्वाहा, वषट्कार तथा वैदिक मंत्रों का प्रयोग नहीं होता है। ऐसे अनेक शूद्र हुये हैं जिन्होंने इन मंत्रों के बिना विधिपूर्वक यज्ञ किये हैं और दक्षिणा के रूप में ब्राह्मणों को हजारों या एक लाख तक पूर्णपात्र दान किये हैं। सभी वर्ण के लोगों ने यज्ञों का अनुष्ठान किया है और उनसे मनोवांछित फ़ल प्राप्त किया है। इसीलिये सभी वर्ण यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणों को देवता ही मानते हैं। ब्राह्मणों के निर्देशानुसार ही यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता है। इसके साथ मानसिक संकल्प द्वारा भावनात्मक यज्ञ भी किये जाते हैं, जिन पर सभी वर्णों का अधिकार है। वह यज्ञ भी श्रद्धा के कारण परम पवित्र होता है। वस्तुत: सभी वर्ण ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हुये हैं और इसलिये मूल रूप में तो सभी वर्ण ब्राह्मणों के ज्ञाति ही हैं। इसीलिये ब्राह्मणों के साथ सबकी अभिन्नता है। सभी को ब्राह्मण का सम्मान करना चाहिये। अभिन्नता का द्योतक अंतिम 47वां श्लोक इस प्रकार है -
तस्माद् वर्णा ऋजवो ज्ञातिवर्ण:
संसृज्यन्ते तस्य विकार एव।
एकं साम यजुरेकमृगेका
विप्रश्चैको निश्चये तेषु सृष्ट:।।
अर्थात भगवान ने तीनों वर्णों की सृष्टि ब्राह्मणों से ही की है। अत: शेष तीन वर्ण भी वस्तुत: ब्राह्मणों के ही विकार हैं। अर्थात् आचरण और अध्ययन संबंधी न्यूनता एवं स्खलन के कारण शास्त्र के अनुसार ये वर्ण अन्यत्र को प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार एक ओंकार से ही ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद तीनों की सृष्टि है उसी प्रकार एक ब्राह्मण वर्ण से ही शेष तीन वर्णों की विकृति पूर्वक निष्पत्ति है। अत: आध्यात्मिक स्तर पर ब्राह्मण के साथ उन सबकी अभिन्नता है, क्योंकि सभी रूप मूलत: ब्राह्मण से ही प्रकट हुये हैं। इसीलिये श्रद्धा ही प्रधान है- 'श्रद्धा वै कारणं महत्।'
आश्रमों के धर्म
इसके बाद पितामह भीष्म ने सभी आश्रमों के धर्म की भी विवेचना की। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदाध्ययन पूर्ण करना चाहिये। यदि ब्रह्मचारी के मन में मोक्ष की तीव्र अभिलाषा जग जाये, तो उसे सीधे ही संन्यास ग्रहण करने का अधिकार होता है। अन्यथा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिये। शुभ कर्मों का अनुष्ठान करना और पत्नी के साथ न्यायोचित भोग भोगना तथा संतान उत्पन्न करना गृहस्थ आश्रम का धर्म है। गृहस्थ आश्रमी को देवताओं और पितरों की तृप्ति के लिये हव्य और कव्य समर्पित करने में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये। निरंतर अन्नदान करना चाहिये और शेष तीनों आश्रमों का पालन करना चाहिये तथा यज्ञ याग आदि में प्रवृत्त रहकर ईर्ष्या, द्वेष से रहित जीवन जीना चाहिये। क्योंकि गृहस्थ आश्रम के धर्म का पालन करने पर स्वर्ग लोक अवश्य मिलता है। स्वर्ग लोक में पुण्य फ़ल भोगकर पुन: पृथ्वी पर मानव रूप में अगले जन्म में आने पर यहां भी उसके सभी मनोरथ सहज सिद्ध होते हैं।
गृहस्थ आश्रम के दायित्व सम्पन्न कर व्यक्ति को, विशेषकर प्रत्येक ब्राह्मण को, यदि पत्नी साथ जाये, तो पत्नी के साथ और यदि पत्नी घर में ही बाल-बच्चों के साथ सुख का अनुभव करे, तो अकेले ही वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिये। वहां आरण्यक शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिये तथा संयमित जीवन जीते हुये स्वाध्याय करते रहना चाहिये।
तत्पश्चात् संन्यास आश्रम में प्रवेश करना चाहिये। वहां रहते हुये मुनिवृत्ति से रहे। अपना कोई घर नहीं बनाये। किसी भी भोग वस्तु की कामना न करे। जो कुछ भी उपलब्ध हो जाये उसी से जीवन निर्वाह करे और हृदय में किसी प्रकार का विकार नहीं आने दे। सबके प्रति समभाव रखे तथा अविनाशी ब्रह्म के ज्ञान की साधना करे।
अबाधित रही है राजधर्म की प्राचीनतम परंपरा
इस प्रकार प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा प्रवर्तित राजधर्म की प्राचीनतम परंपरा है और भारतीय शास्त्रों में प्राचीनतम काल से इसका निरूपण और प्रतिपादन है। संसार में और कहीं भी राजधर्म तथा राजनीतिशास्त्र का इससे अधिक प्राचीन और विस्तृत विवेचन नहीं मिलता। इसे ही नृपनीति, दंडनीति, अर्थशास्त्र तथा राजशास्त्र नाम भी दिये गये हैं।
आप स्तम्ब धर्मसूत्र, गौतम धर्मसूत्र, विष्णु पुराण, मतस्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि में राजधर्म पर विस्तार से लिखा गया है, क्योंकि राजधर्म सभी धर्मों का तत्व और सार है। विश्व का सबसे बड़ा उद्देश्य राजधर्म का पालन ही है, क्योंकि उससे ही सभी का पालन होता है। समस्त जीवलोक की रक्षा और प्रतिष्ठा राजधर्म से ही है। यूरोपीय पॉलिटिकल (साइंस) में राजधर्म की कोई अवधारणा नहीं है। क्योंकि वहाँ जीव लोक की रक्षा और प्रतिष्ठा 'स्टेट' का प्रयोजन ही प्रतिपादित नहीं है। अत: राजधर्म को 'स्टेट' के कर्तव्यों का पर्याय नहीं माना जा सकता। क्योंकि 'स्टेट' भारतीय अर्थ में 'राज्य' नहीं है। वह लोगों पर नियंत्रण और प्रभुत्व का तंत्र है, न कि लोकपरंपरा और धर्मपरंपरा का संरक्षक और पोषक तंत्र। यद्यपि आधुनिक काल में 'स्टेट' के कर्तव्यों में इनमें से कुछ बातों का समावेश किया जा रहा है।
इस प्रकार राजधर्म का अध्ययन भारत की ज्ञान परंपरा और शासन परंपरा को जानने के लिये तो आवश्यक है ही, यह विश्व के कल्याण के लिये और विश्वव्यापी सनातन धर्म की रक्षा के लिये भी अनिवार्य है।