शास्त्रों के अनुसार राजधर्म का स्वरूप

शास्त्रों के अनुसार राजधर्म का स्वरूप

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

    सनातन धर्मशास्त्रों के अनुसार समाज की सुरक्षा एवं न्याय व्यवस्था मुख्य राजधर्म है। इसके साथ ही प्रजारक्षण संबंधी अन्य अनेक कर्तव्य राजधर्म का अंग हैं। परंतु सर्वोपरि राजधर्म है - समाज को खंडित या क्षतिग्रस्त करने वालों तथा अधर्म और अमर्यादा फ़ैलाने वालों के लिये दंड सुनिश्चित करना। दंडनीति ही प्रधान राजनीति है। परंत दंडविधान मनमाना नहीं हो सकता। धर्मशास्त्रों के अनुसार ही दंड दिया जाना विहित है।
समाज के प्रत्येक वर्ग के लिये कर्तव्य कर्मों यानी धर्म का प्रतिपादन धर्मशास्त्रों में है। सभी वर्णों और सभी आश्रमों के धार्मों का प्रतिपादन शास्त्रों में है। क्योंकि सर्वाधिक महत्वपूर्ण जीवन लक्ष्य धर्म ही है। परंतु गृहस्थ धर्म अलग है और राजधर्म अलग है। राजधर्म गृहस्थ धर्म नहीं होता और वह यतिधर्म भी नहीं होता तथा वह ब्राह्मण धर्म से भी भिन्न है।
राजधर्म ब्राह्मण-धर्म, द्विजधर्म तथा गृहस्थ धर्म से विशिष्ट, भिन्न एवं विलक्षण है। सर्वतेजोमय रहना, शासन करना, सबकी रक्षा करना एवं अधर्म को दंडित करना राजधर्म है। जगत में सब अपना-अपना भोग भोगें, दूसरे का भोगांश छीनें, इसके लिए दंड-भय अत्यावश्यक है (दण्डस्य हि भयात् सर्वं जगद् भोगाय कल्पते-मनुस्मृति 7/22) दंडनीति दूषित हो तो समस्त समाज दूषित हो जाता है। अत: राज्यकर्ता की वाणी तो मधुर एवं विनम्र होना कर्तव्य है, परन्तु हृदय तीक्ष्ण एवं तेजस्वी रहना चाहिए (शांतिपर्व) दुष्ट से या शत्रु से किसी कारण विनम्र व्यवहार करना पड़े तो काम हो जाने पर उसे क्षत-विक्षत कर देना राजधर्म है, जबकि गृहस्थ के लिए यह छल हो सकता है। ध्यान रहे, शठता केवल शठ के साथ ही करणीय है, सो भी राज्यकर्ता द्वारा। शांतिपर्व में भीष्म ने शठै शाठ्यं समाचरेतराजधर्म के अंग के रूप में कहा है और वहाँ भी स्पष्ट बल दिया है कि सामान्यत: राज्यकर्ता ऋजु (सरल निश्छल) मार्ग पर ही चले। अत: अपने साथ के और पड़ोस के साधारण लोगों को भी शठ कहकर कोई गृहस्थ यों हीशाठ्यम्करने लगे तो यह स्वयं उस गृहस्थ व्यक्ति की शठता ही कही जाएगी, धर्म नहीं। ऐसी शठता इसीलिए राज्य द्वारा दंडनीय है। परन्तु राज्यकर्ताओं को स्वधर्म-सम्पादन के लिए छल एवं शठत्व की छूट है।
विद्या, यज्ञ एवं दान का रक्षण, संवर्धन एवं व्यवस्था राजधर्म है। प्रजापालन परम राजधर्म है। राज्य के शत्रुओं को युद्ध, छल-घात, कूटनीति एवं नय के द्वारा हराना राजधर्म है। दुष्टों को दंड देना एवं न्याय करना राजधर्म है। राष्ट्र, दुर्गों, कोश, मंत्रिगण एवं सैन्यबल सहित स्वयं प्रधान शासक-इन सप्तांगों का संरक्षण, संवर्धन, पोषण एवं समृद्धि राजधर्म है। भारत के तीनों प्रमुख वेदों एवं धर्म- परम्पराओं का गहन ज्ञान, आन्वीक्षिकी का ज्ञान, वात्र्ताशास्त्र का ज्ञान एवं दंडनीति का ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक राजधर्म है। अत: मंत्रियों, सासंदों, प्रशासकों एवं विधायकों को इसका ज्ञान प्राप्त करना ही चाहिए। तभी वे भारतीय अर्थ-चिन्तन का पोषण कर सकते हैं। विद्या से अर्जित अनुशासन के बिना दंडनीति की पात्रता नहीं आती। वार्त्ता की चिन्ता की जाएगी तो राष्ट्र नष्ट हो जाएगा और वात्र्ता का ज्ञान श्रुतियों तथा शास्त्रों के ज्ञान पर ही सम्भव है, यह वाल्मीकि रामायण (अयोध्या कांड) तथा महाभारत (शांतिपर्व एवं सभापर्व) में सुस्पष्ट प्रतिपादित है। वात्र्ता का अर्थ है-कृषि, वाणिज्य, व्यापार, शिल्प, पशुपालन, खानों का उपयोग आदि। इस प्रकार वार्त्ता का अर्थ है आर्थिक व्यवस्था। कृषि, पशुपालन एवं शिल्प संवर्धन पर महाभारत, मनु, कौटिल्य, याज्ञवल्क्य आदि ने तथा पुराणों ने विशद विमर्श किया है। राजधर्म के पालन द्वारा ही राज्यकत्र्ता को मोक्षसिद्धि होती है। अत: राज्य कार्यकर्ताओं के लिए राजधर्म एवं मोक्षधर्म परस्पराश्रित है, परस्पर भिन्न नहीं।

व्यवहार : राजधर्म

निष्पक्ष न्याय करना एवं अपराधी को दंड देना राज्य के प्रमुख कार्यों में से है। लोगों के विवादों को निपटाने की न्यायपूर्ण व्यवस्था राजधर्म है। मनुस्मृति ने न्याय-शासन को ही धर्म का पर्याय कहा है। याज्ञवल्क्य स्मृति कहती है कि निष्पक्ष न्याय से वही फ़ल मिलता है, जो पवित्र वैदिक यज्ञों से मिलता है। मनु कहते हैं कि जिस राज्य में निरपराधी दंडित हों अपराधाी छूट जाएँ, उस राज्य के राज्यकर्ता पापी हैं तथा नरक में पड़ेंगे। रामायण एवं महाभारत दोनों में राजा ने न्याय-व्यवस्था करने कहा गया है। इसीलिए व्यवहार पदों पर हमारे यहाँ विस्तृत विचार हुआ। धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं राजशासन ये चार किसी भी विवाद में अंतिम निर्णय के पाद हैं। अभियोग, उत्तर परीक्षण, क्रिया एवं निर्णय ये चार न्याय प्रक्रिया के चरण हैं। इन सबकी सम्यक व्यवस्था भी अर्थ-चिन्तन का अंग है। इस तरह भारतीय राजनीतिशास्त्रीय-चिन्तन-परम्परा अति विस्तृत, गम्भीर, व्यावहारिक एवं फ़लप्रद है।
स्पष्ट है कि भारतीय राजनीतिशास्त्र का आधार भारतीय दृष्टि एवं भारतीय धर्म-परम्परा के अंग के रूप में ही होगा। इस विषय में कुछ स्पष्टताएँ आवश्यक हैं। भारतीय बौद्धिक परम्पराएँ बहुत समय से यथोचित रूप में प्रतिष्ठित नहीं रही हैं, इसलिए ये स्पष्टताएँ अपेक्षित हैं।

समाज का लक्ष्य है धर्म

समाज का लक्ष्य है धर्म। धर्म-पालन से मोक्ष-प्राप्ति अनिवार्य नहीं है। धर्म-पालन से पुण्य होता है। पुण्य-संचय से इस लोक में तथा परलोक में सुख, सौभाग्य, अभ्युदय एवं स्वर्ग-लाभ होता है। मोक्ष-साधाना तो एक विशेष धर्म-साधाना है। सामान्यत: धर्म-साधाना से उत्कर्ष, सुख-सौभाग्य, स्वर्ग आदि ही उपलब्ध होते हैं। समाज के विविधास्व-धर्महो सकते हैं। उनमें से एक प्रकार के लोगों कास्व-धर्ममोक्ष-साधाना होता है, शेष के अन्य लक्ष्य होते हैं। यही जीवन का सत्य है। जीवन मात्र का कोई एक लक्ष्य नहीं है। जीवन के विविध लक्ष्य हैं। सत्य, ऋत एवं धर्म इन सभी लक्ष्यों के नियामक हैं। सर्वविदित है किधर्मशब्दधृधातु से बना है, जिसका अर्थ है-धारण करना, आलम्बन देना, पालन करना। अत: जो सबका धारण करता है, सबका पालन करता है-वही है धर्म। इसीलिए धर्म सनातन है। केवल मोक्ष-साधकों का ही जो पालन करे, वह सार्वभौम धर्म नहीं हो सकता। जो समस्त मनुष्यों के लिए पालनीय हैं- वे हैं सामान्य धर्म या सामासिक धर्म। फिऱ अपनी कुल परम्पराओं के शाश्वत आदर्शों को प्रवाहित रखनाकुल-धर्महै। श्रीमद्भगवद्गीता में इसे हीकुल धर्मा सनातना:’ तथाकुलधर्माश्च शाश्वता:’ कहा है। इस प्रकार कुल-धर्म भी शाश्वत है। पुन: अपनी रूचि, योग्यता, प्रवृत्ति आदि गुण-कर्मों के अनुरूप बरतना वर्ण-धर्म है। इसी प्रकार जनपद - धर्म, श्रेणि-धर्म, आश्रम-धर्म आदि विशेष धर्म हैं। इन सबके साथ ही व्यक्ति के अपने विवेक एवं संस्कारों के अनुरूप उसका स्वधर्म निश्चित होता है। राजनीतिशास्त्रीय चिन्तन का उद्देश्य इन सभी प्रकार के धर्मों का पालन सुकर बनाना होना चाहिए।
इसीलिए हमारे यहाँ सदा से यह स्पष्ट है कि राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र का ही अंग है। अपनी-अपनी आर्थिक उन्नति का प्रयास यथाशक्ति, यथाअवसर प्रत्येक व्यक्ति करता है। वे प्रयास धर्म-मर्यादा में रहें, यह देखना राज्यकर्त्ता का धर्म है यानी अर्थानुशासन राजधर्म का अंग है। इसीलिए कहा है-‘धर्मशास्त्रन्तगर्तमेव राजनीति-लक्षणम् अर्थशास्त्रम् इदं विवक्षितम्।

राज्य के अधिकार और कर्तव्य

प्रजा को सब प्रकार से वर्णाश्रम और धर्ममर्यादा में व्यवस्थित रखते हुये प्रत्येक कुल और व्यक्ति द्वारा स्वधर्म पालन को निर्बाध बनाये रखना और इस प्रकार समाज में आनंद का प्रवाह मुक्त रखना तथा इस प्रवाह के अवरोधक कंठकों का शमन और दमन राजधर्म है। अपने इस कर्तव्य से ही राज्यकर्ता को अधिकार प्राप्त होते हैं। कर्तव्य बहुत कठिन और बहुस्तरीय है। इसलिये अधिकार भी बहुत और बहुस्तरीय हैं। ये अधिकार व्यापक धर्मबोध से ही निगमित हैं।
यूरोप में केवल राज्य को केंद्र में रखकर किये जाने वाले चिंतन की नकल में विभिन्न भारतीय शास्त्रों से संदर्भच्युत अंशों का संकलन कर उनको यूरोपीय ढंग से प्रस्तुत करना आत्मवंचना है। यूरोप में आधुनिक राष्ट्रराज्य का उदय केवल 150 से 175 वर्ष पहले ही हुआ है और यही अवधि वहां राजनीतिशास्त्रीय चिंतन की है।
वस्तुत: जर्मन प्रोटेस्टेंट पादरी एवं राजनीतिशास्त्री मैक्समिलियन कार्ल एमिल वेबर ने पहली बार 20वीं शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ में राज्य की एक व्यवस्थित व्याख्या प्रारंभ की। यद्यपि दुर्खाइम से कुछ बातों में उनका भिन्न मत था। उन्होंने सदा इस बात पर बल दिया कि प्रत्येक महत्वपूर्ण संस्थारूपी कार्य के पीछे अनेक कारण होते हैं। परंतु साथ ही उन्होंने राज्य का व्यवस्थित सिद्धांत पहली बार दिया। वेबर का कहना है किराज्य किसी निश्चित क्षेत्र में भौतिक बल और राजकीय हिंसा के प्रयोग के एकाधिकार को वैधता देने वाली मनुष्य निर्मित संस्था है।
यूरोप के लोगों ने रोमन राज्य आदि के बारे में जो भी कल्पनायें प्रस्तुत की हैं, वे वस्तुत: किसी प्राचीन ग्रंथ या संदर्भ पर आधारित नहीं हैं अपितु कतिपय फ़ुटकर उल्लेखों की परिश्रम पूर्वक और मनोयोजना पूर्वक सजाई गई और प्रस्तुत की गई रचनायें मात्र हैं। इसीलिये उन्होंने सामान्यत: यह सर्वानुमति से कहा है कि प्राचीन समाज राज्यरहित दशा में थे। इसका महाभारत तथा अन्य शास्त्रों में वर्णित सतयुग के वर्णन से कोई भी साम्य निकाल लेना घोर तमस है। क्योंकि सतयुग का वर्णन अत्यंत प्राचीनकाल के अर्थ में है जो लाखों से लेकर करोड़ों वर्षों पूर्व की बात है। जबकि यूरोप के लोग जब प्राचीन समाजों की बात करते हैं तो वह ईसा से केवल दो या तीन हजार वर्ष पहले की ही बात करते हैं। इसलिये दोनों बातों में समानता देखना मूढ़ता का ही प्रमाण है।
इस प्रकार श्रेष्ठ राज्य वस्तुत: जनगण की यानी प्रजा की अथवा समाज की आवश्यकता है। अत: राज्य का कर्तव्य प्रजा की इस आवश्यकता की पूर्ति है। वर्णाश्रम धर्म का प्रतिपालन और मर्यादा की रक्षा तथा शांति और सुव्यवस्था सुनिश्चित करना राजा का कर्तव्य है और इस कर्तव्य के पालन के लिये दंडबल और दंडनीति का प्रयोग का उसे अधिकार है। साथ ही शासन व्यवस्था के संचालन के लिये राजकोष का संग्रहण भी राजा का अधिकार है और उस राजकोष में अपने उचित अंश का दान प्रजा का कर्तव्य है। यहां राजा को अपने मन से कोई कानून बनाने या कोई मर्यादा स्थापित करने की कोई बात नहीं कही गई है। अपितु समाज की बनी हुई मर्यादा और चली रही परंपराओं का पालन सुनिश्चित करना तथा उनके पालन में बाधा डालने वाले लोगों या तत्वों को दंडित करना राजधर्म है।
यह स्थिति आधुनिक यूरोपीय राजनीतिशास्त्रीय कसौटियों से भिन्न है। जहां लॉ का निर्माण राजा स्वयं करता है और प्रजा का कार्य उसका पालन करना है। जॉन नेवेल फि़ग्गिस ने अपनी पुस्तकदि डिवाइन राइट्स ऑफ़ किग्स(कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रकाशन, 1896) में लिखा है कि- ‘‘राजत्व डिवाइन है और राजा केवलजीसस पिता गॉडके प्रति उत्तरदायी है और किसी के प्रति नहीं। इसीलिये प्रजा को उसकी आज्ञा माननी ही होगी। राजा का विरोधा करनासिन(पाप) है।’’
स्पष्ट रूप से यह स्थिति महाभारत तथा भारतीय धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित दर्शन और दृष्टि से पूरी तरह भिन्न है।
भारतीय धर्मशास्त्र तो यह स्पष्ट व्यवस्था देते हैं कि राजा मनमानी नहीं कर सकता, उसे धर्म के अनुसार और सनातन परंपराओं के अनुसार ही चलना होगा। कोई भी नया नियम बनाने के विषय में राजा की शक्ति सीमित है और वह धर्मशास्त्रों के प्रावधान के अनुसार ही कोई नियम बना सकता है, उससे बाहर जाकर नहीं। यदि राजा धर्म का पालन नहीं करता और सनातन परंपराओं के अनुसार नहीं चलता तो उसे गद्दी से उतार दिया जायेगा और अधिक हठ करने पर उसे मार डाला जायेगा।
महाभारत के शांतिपर्व के अध्याय 92 में श्लोक 15 में यह स्पष्ट लिखा है कि जो राजा उदार नहीं है और दंड का अनुचित प्रयोग करता है वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। राजा वेन द्वारा अधर्माचरण करने पर ऋषियों और ब्राह्मणों ने उसे मार डाला और फिऱ पृथु को पृथ्वी का शासन दिया था। 92वें अधयाय में ही श्लोक 9 में लिखा है -
असत्पापिष्ठसचिवो वध्यो लोकस्य धर्महा।
सहैव परिवारेण क्षिप्रमेवावसीदति।।
अर्थात् असत् कार्य करने वाला और पापिष्ठ सचिवों वाला राजा वध के योग्य है क्योंकि वह लोक की परम्पराओं और सर्वमान्य मान्यताओं को हानि पहुंचाता है। इसलिये लोग उसे नष्ट कर देते हैं और वह सपरिवार शीघ्र ही अवसाद में पड़ जाता है। अगले श्लोक में यह भी कहा है कि अपने मन से नियम बनाने वाला राजा भले ही समस्त पृथ्वी का स्वामी हो जाये परन्तु वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। शुक्रनीति में भी यही कहा गया है।
मनुस्मृति का भी कथन है -
मोहाद्राजा स्वराष्ट्रं : कर्षयत्यनवेक्षया।
सोऽचिराद् भ्रश्यते राज्याज्जीविताश्च सबान्धाव:।।
अर्थात् जो राजा मोहवश प्रजा की रक्षा नहीं करता और केवल कर लेता है वह शीघ्र ही राज्य से भ्रष्ट हो जाता है और अपने बंधु-बांधवों सहित जीवन से भी नष्ट हो जाता है।
प्रजापालन राजा का सर्वोपरि कर्तव्य है और प्रजाएं केवल देह नहीं हैं अपितु मन और बुद्धि तथा आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं से सम्पन्न चिदंश सम्पन्न सत्ता हैं। अत: प्रजापलन का अर्थ रोटी, कपड़ा और मकान देना नहीं है। अपितु ज्ञान परम्परा, धर्म परम्परा, अध्यात्म परंपरा और विद्या परम्परा तथा पुरूषार्थ परम्परा की रक्षा करना है। इनमें कंटक या अवरोध डालने वालों को दंडबल के प्रयोग से नष्ट करना भी राजधर्म है। इसीलिये महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया है कि-
किं तस्य तपसा राज्ञ: किं तस्याध्वरैरपि।
सुपालितप्रजो : स्यात् सर्वधर्मविदेव :।।
(महाभारत शांतिपर्व, अध्याय 69, श्लोक 73)
अर्थात् जिस राजा ने प्रजा का अच्छी तरह पालन किया है, उसे ना तो किसी अन्य तपस्या की आवश्यकता है और ना ही यज्ञ अनुष्ठान की, उसे तो समस्त धर्मों का ज्ञाता और पालन करने वाला ही मानना चाहिये।
इन आधारभूत प्रतिमानों के साथ भारत में अत्यंत प्राचीनकाल से राजधर्म का विस्तार से विवेचन किया जाता रहा है और शासन विधान के विषय में जितने प्राचीन तथा जितने विस्तृत शास्त्र भारतवर्ष में हैं वे अन्य किसी प्राचीन समाज में प्राचीनकाल के ग्रंथों के रूप में नहीं मिलते। उत्साहशक्ति, प्रभुशक्ति और मंत्रशक्ति के त्रिवर्ग के द्वारा राष्ट्र, कोश, दुर्ग और मंत्री परिषद सहित सम्पूर्ण राज्य को दंडविधान के अधीन अनुशासित रखने के विषय में भारतीय राजशास्त्रों में विस्तार से नियम और प्रक्रिया दी गई है। दंडनीति के ही अंतर्गत न्याय और व्यवहार भी आता है तथा न्यायपूर्वक दोषियों को दंड देना व्यवहार का अनिवार्य अंग है। इस प्रकार राजा के कर्तव्य भारतीय धर्मशास्त्रों में बहुत विस्तार से दिये गये हैं।

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