जीवन की उत्पत्ति जीव में मातृ प्रभाव और लय-प्रलय
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डॉ. चंद्र बहादुर थापा
वित्त एवं विधि सलाहकार- भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं
विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह
वेदों में माँ और उसके शिशु के संबंध के विषय में कई पहलुओं से वर्णन किया गया है। केवल जन्म देने के उपरांत ही मातृत्व आता है, ऐसा नहीं है। दुर्बलों को प्रेमपूर्वक आधार देने वाला और उनका पालन-पोषण करने वाला प्रत्येक व्यक्ति माँ की ही भूमिका में होता है। अत: जन्म देने वाली अपनी माता के समान ही प्रेम से हमारा संगोपन करने वाले ईश्वर को भी वैदिक मानव मातृ तुल्य ही मानता है। वेदों में उल्लेखित 'मातृ' शब्द का अर्थ है 'निर्माण करने वाली ' । वेदकालीन समाज की कुटुंब व्यवस्था में माँ की भूमिका इसी से मिलती जुलती थी। बच्चों का संगोपन करने वाली और उनके व्यक्तित्व को आकार देने वाली माँ को पुरुष प्रधान संस्कृति में भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था।
मातृ प्रभाव एक ऐसी स्थिति है जहां किसी जीव का फेनोटाइप (Phenotype) न केवल उसके द्वारा अनुभव किए जाने वाले वातावरण और उसके जीनोटाइप (Genotype) से निर्धारित होता है, बल्कि उसकी माँ के पर्यावरण और जीनोटाइप से भी निर्धारित होता है। आनुवंशिकी में अक्सर माँ द्वारा अंडे को मैसेंजर आरएनए या प्रोटीन की आपूर्ति के कारण मातृ प्रभाव तब घटित होता है जब कोई जीव अपने स्वयं के जीनोटाइप के बावजूद माँ के जीनोटाइप से अपेक्षित फेनोटाइप दिखाता है। मातृ प्रभाव जीनोटाइप से स्वतंत्र मातृ वातावरण के कारण भी हो सकता है, जो कभी-कभी संतानों के आकार, लिंग या व्यवहार को नियंत्रित करता है। इन अनुकूली मातृ प्रभावों से संतानों के फेनोटाइप बनते हैं जो उनकी फिटनेस को बढ़ाते हैं। इसके अलावा, यह फेनोटाइपिक प्लास्टिसिटी की अवधारणा का परिचय देता है, जो एक महत्वपूर्ण विकासवादी अवधारणा है। पर्यावरणीय विविधता के प्रति अनुकूली प्रतिक्रियाओं के विकास के लिए मातृ प्रभाव महत्वपूर्ण हैं।
आनुवंशिकी में, मातृ प्रभाव तब होता है जब किसी जीव का फेनोटाइप उसकी माँ के जीनोटाइप द्वारा निर्धारित होता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई उत्परिवर्तन (Mutation) मातृ प्रभाव अप्रभावी है, तो उत्परिवर्तन के लिए एक महिला समयुग्मजी (Homogynous) फेनोटाइपिक रूप से सामान्य दिखाई दे सकती है, हालांकि उसकी संतान उत्परिवर्ती फेनोटाइप दिखाएगी, भले ही वे उत्परिवर्तन के लिए विषमयुग्मजी हों। मातृ प्रभाव अक्सर इसलिए होते हैं क्योंकि माँ अंडाणु को एक विशेष एमआरएनए या प्रोटीन की आपूर्ति करती है, इसलिए मातृ जीनोम यह निर्धारित करता है कि अणु कार्यात्मक है या नहीं। प्रारंभिक भ्रूण को एमआरएनए की मातृ आपूर्ति महत्वपूर्ण है, क्योंकि कई जीवों में भ्रूण शुरू में ट्रांसक्रिप्शनल रूप से निष्क्रिय होता है। मातृ प्रभाव उत्परिवर्तन के वंशानुक्रम पैटर्न के कारण, उन्हें पहचानने के लिए विशेष आनुवंशिक स्क्रीन की आवश्यकता होती है। इनमें सामान्यत: पारंपरिक युग्मिक (Zygotic) स्क्रीन की तुलना में एक पीढ़ी बाद के जीवों के फेनोटाइप की जांच करना शामिल होता है , क्योंकि उनकी माताएं उत्पन्न होने वाले मातृ प्रभाव उत्परिवर्तन के लिए संभावित रूप से समयुग्मजी होंगी।
जैव आनुवंशिकता और विकास के साथ सृजन अर्थात जन्म के लिए मातृ-प्रभाव अनिवार्य है। मातृ प्रभाव से अकोशिय, एक कोशीय से उत्तरोत्तर बृद्धि होते होते जीव अपने अपने वर्ग में 'विभूति' बनते और अगले जटिल चरण के वनस्पति और प्राणी के स्तरों को कर्म भोग से पार करते-करते अत्यंत जटिल मानव और मानव में भी उत्कृष्ट 'नराणां च नराधिपम्' स्तर के '16 कलाओं के साथ-साथ 64 गुणों से संपन्न' व्यक्तित्व पर पहुँच कर अपने नियत आयु भोग पश्चात् महालय तक विचरण करता है। जीव प्रत्येक कोशिका में सभी गुण सहित समाहित होते हुए भी, परमात्मा से प्रेरित प्राप्त स्वतंत्र एकल कोशिका अथवा उत्तरोत्तर जटिलता में सम्मिलित कोशिकाओं से बना हुआ शरीर आकार-प्रकार और स्तर अनुरूप भोजन करता और भोज्य बनते हुए, अपने गुणों को सुप्त अथवा प्रकट करते हुए जीवन-मरण के चक्र में प्रलय प्रयन्त सहभागी बनता है।
पुराण में सृजन- नासदीय सूक्त के 7 मंत्र
ब्रह्मांड एक खुला स्थान है, जिसकी कोई सीमायें नहीं हैं, कोई अंत नहीं है। इसकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई और गहराई अनंत हैं। इसकी रचना के संबंध में, ऋग्वेद के 10वें मंडल का 129वां सूक्त, नासदीय सूक्त: जो की सृष्टि की रचना के मंत्र के रूप में भी जाना जाता है, में वर्णित है-
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नम्भ: किमासीद्गहनं गभीरम् ।।1।।
अर्थात, इस जगत् की उत्पत्ति से पहले न ही किसी का आस्तित्व था और न ही अनस्तित्व, मतलब इस जगत् की शुरुआत शून्य से हुई। तब न हवा थी, ना आसमान था और ना उसके परे कुछ था, चारों ओर समुद्र की भांति गंभीर और गहन बस अंधकार के आलावा कुछ नहीं था।
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेत:।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न पर: किञ्चनास॥2॥
अर्थात, उस समय न ही मृत्यु थी और न ही अमरता, मतलब न ही पृथ्वी पर कोई जीवन था और न ही स्वर्ग में रहने वाले अमर लोग थे, उस समय दिन और रात भी नहीं थे। उस समय बस एक अनादि पदार्थ था (जिसे प्रकृति कहा गया है), मतलब जिसका आदि या आरंभ न हो और जो सदा से बना चला आ रहा हो।
तम आसीत्तमसा गूहळमग्रे प्रकेतं सलिलं सर्वाऽइदम् ।
तुच्छयेनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना- जायतैकम् ॥3॥
अर्थात, शुरू में सिर्फ अंधकार में लिपटा अंधकार और वो जल की भांति अनादि पदार्थ था जिसका कोई रूप नहीं था, अर्थात जो अपना आयतन न बदलते हुए अपना रूप बदल सकता है। फिर उस अनादि पदार्थ में एक महान निरंतर तप से वो 'रचयिता' (परमात्मा/भगवान) प्रकट हुआ।
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥4॥
अर्थात, सबसे पहले रचयिता को कामना/विचार/भाव/इरादा आया सृष्टि की रचना का, जो की सृष्टि उत्पत्ति का पहला बीज था, इस तरह रचयिता ने विचार कर आस्तित्व और अनस्तित्व की खाई पाटने का काम किया।
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामध: स्विदासीदुपरि स्विदासीत्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयति:परस्तात्॥5॥
अर्थात, फिर उस कामना रुपी बीज से चारों ओर सूर्य किरणों के समान ऊर्जा की तरंगें निकलीं, जिन्होंने उस अनादि पदार्थ (प्रकृति) से मिलकर सृष्टि रचना का आरंभ किया।
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि:।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव॥6॥
अर्थात, अभी वर्तमान में कौन पूरी तरह से ठीक-ठीक बता सकता है कि कब और कैसे इस विविध प्रकार की सृष्टि की उत्पत्ति और रचना हुई, क्यूंकि विद्वान लोग तो खुद सृष्टि रचना के बाद आये। अत: वर्तमान समय में कोई ये दावा करके ठीक-ठीक वर्णन नहीं कर सकता कि सृष्टि बनने से पूर्व क्या था और इसके बनने का कारण क्या था।
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥7॥
अर्थात, सृष्टि रचना का स्रोत क्या है? कौन है इसका कर्ता-धर्ता? सृष्टि का संचालक, अवलोकन करता, ऊपर कहीं स्वर्ग में है बैठा। हे विद्वानों, उसको जानो, तुम नहीं जान सकते तो कौन जान सकता है?
श्वास-प्रश्वास काल गणना के आधार
पुराणों में सूर्य सिद्धांत अनुसार प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति की श्वासें नियुक्त हैं। जब तक श्वास चलेंगी तब तक ही कोई वस्तु या व्यक्ति जिंदा रहेगा। वेद अनुसार जिंदा व्यक्ति ही नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड और इसमें निहित प्रत्येक पदार्थ और पदार्थ को बनाने वाले प्रत्येक अणु के आधार परमाणु श्वास ले रहा है, तभी तो चलायमान है। वायु ही है सभी की आयु। पेड़, पौधे, जल और जंगल सभी श्वास ले रहे हैं। सभी एक दूसरे के आश्रित भी हैं, यथा प्राणियों से निकलता कार्बन डाई ऑक्साइड वनस्पति के प्राणवायु (जीवन आधार) और वनस्पति से निकलता ऑक्सीज़न प्राणियों के प्राणवायु (जीवन आधार), प्राणी के पाचन पश्चात के अवशिष्ट सहित मृतप्राणी के शरीर वनस्पति के खाद्य और वनस्पति एवं वनस्पति के विभिन्न अवयव प्राणियों के खाद्य, इत्यादि।
प्रत्येक जैव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश विभु के संयोग से सिद्ध है। सूक्ष्म जैव के श्वसन क्रम अणु में निहित परमाणुओं के अन्तर्निहित इन्हीं पंचभूतों के प्रचलन चक्र पर निर्भर करता है और सूक्ष्मतर कोशीय जैव के श्वास गति के माप के नाम परमाणु दिया गया। परमाणु समय की सबसे सूक्ष्मतम इकाई है। यहीं से समय की शुरुआत मानी जा सकती है। यह इकाई अति लघु श्रेणी की है, पृथ्वी, जल, तेज और वायु इस चार भूतों का वह छोटे से छोटा भाग जिसके फिर विभाग नहीं हो सकते, इससे छोटी कोई इकाई नहीं। वैशेषिक दर्शन में चार भूतों के चार तरह के परमाणु माने हैं—पृथ्वी परमाणु, जल परमाणु, तेज परमाणु और वायु परमाणु, पाँचवाँ भूत आकाश विभु है। जिसके टुकड़े नहीं हो सकते। परमाणु इसलिए मानने पड़े हैं कि जितने पदार्थ देखने में आते हैं सब छोटे-छोटे टुकड़ों से बने हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शन के प्रशस्तपाद भाष्य में लिखा गया है कि जब जीवों के कर्मकल के भोग का समय आता है तब महेश्वर की उस भोग के अनुकूल सृष्टि करने की इच्छा होती है। इस इच्छा के अनुसार जीवों के अदृष्ट के बल से वायु परमाणुओं में चलन उत्पन्न होता है। इस चलन से उन परमाणुओं में परस्पर संयोग होता है। दो-दो परमाणुओं के मिलने से 'द्वयणुक' उत्पन्न होते हैं । तीन द्वयणुक मिलने से 'त्रसरेणु'। चार द्वयणुक मिलने से 'चतुरणुक' इत्यादि उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार एक महान् वायु उत्पन्न होता है। उसी वायु में जल परमाणुओं के परस्पर संयोग से जलद्वयणुक जलत्रसेरणु आदि की योजना होते-होते महान् जलनिधि उत्पन्न होता है। इस जलनिधि में पृथ्वी परमाणुओं के संयोग से द्वयणुकादी क्रम से महापृथ्वी उत्पन्न होती है। उसी जलनिधि में तेजस् परमाणुओं के परस्पर संयोग से महान् तेजोराशि की उत्पत्ति होती है। इसी क्रम से चारों महाभूत उत्पन्न होते हैं। यही संक्षेप में वैशेषिकों का परमाणुवाद है। परमाणु अत्यंत सूक्ष्म और केवल अनुमेय है। कारण गुणपूर्वक ही कार्य के गुण होते हैं, अत: जैसे गुण परमाणु में होंगे वैसे ही गुण उनसे बनी हुई वस्तुओं में होगे। जैसे- गंध, गुरुत्व आदि जिस प्रकार पृथ्वी परमाणु में रहते हैं उसी प्रकार सब पार्थिव वस्तुओं में होते हैं। प्राचीन लोग पंचमहाभूत मानते थे, जिनमें से आकाश को छोड़ शेष चार भूतों के अनुसार चार प्रकार के परमाणु भी उन्हें मानने पड़े थे। पर इन चार भूतों में से अब तीन तो कई मूलभूतों के योग से बने पाए गए हैं। जैसे, जल दो गैसों (वायु से भी सूक्ष्म भूत) के योग से बना सिद्ध हुआ। इसी प्रकार वायु में भी भिन्न गैसो का संयोग विश्लेषण द्वारा पाया गया। रहा तेज, उसे विज्ञान भूत नहीं मानता केवल भूत की शक्ति (गति शक्ति) का एक रूप मानता है। ताप से परिमाण (तौल) की वृद्धि नहीं होती। ठण्डे लोहे का जो वजन रहेगा वही उसे तपाने पर भी रहेगा ।
वैदिक ऋषियों ने हजारों वर्ष पहले ही उपरोक्त परमाणु श्वसन आधार पर एक वैज्ञानिक समय मापन पद्धति से कैलेंडर या पंचांग बनाया, जो पूर्णत: वैज्ञानिक हो। उससे धरती और ब्रह्मांड का समय निर्धारण किया जा सकता हो। धरती का समय निर्माण अर्थात कि धरती पर इस वक्त कितना समय बीत चुका है और बीत रहा है और ब्रह्मांड अर्थात अन्य ग्रहों पर उनके जन्म से लेकर अब तक कितना समय हो चुका है- यह निर्धारण करने के लिए उन्होंने एक सटीक समय मापन पद्धति विकसित की, जिसके अनुसार-
क्रति = सैकन्ड का 34000वाँ भाग, 1 त्रुति = सैकन्ड का 300वाँ भाग, 2 त्रुति = 1 लव, 1 लव = 1 क्षण, 30 क्षण = 1 विपल, 60 विपल = 1 पल, 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ), 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा), 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार), 7 दिवस = 1 सप्ताह, 4 सप्ताह = 1 माह, 2 माह = 1 ऋतु, 6 ऋतु = 1 वर्ष, 100 वर्ष = 1 शताब्दी, 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी, 432 सहस्राब्दी = 1 युग, 2 युग = 1 द्वापर युग, 3 युग = 1 त्रेता युग, 4 युग = सतयुग, 1 महायुग = सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग, 76 महायुग = मनवन्तर, 1000 महायुग = 1 कल्प, 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ), 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प (देवों का अन्त और जन्म), 1 महाकाल = 730 कल्प (ब्रह्मा का अन्त और जन्म), 12,000 दिव्य वर्ष = एक महायुग (चारों युगों को मिलाकर एक महायुग-सतयुग : 4000 देवता वर्ष (सत्रह लाख अठाईस हजार मानव वर्ष), त्रेतायुग : 3000 देवता वर्ष (बारह लाख छियानवे हजार मानव वर्ष), द्वापरयुग : 2000 देवता वर्ष (आठ लाख चौसठ हजार मानव वर्ष), कलियुग : 1000 देवता वर्ष (चार लाख बत्तीस हजार मानव वर्ष), 71 महायुग = 1 मन्वंतर (लगभग 30,84,48,000 मानव वर्ष बाद प्रलय काल), चौदह मन्वंतर = एक कल्प। एक कल्प = ब्रह्मा का एक दिन। (ब्रह्मा का एक दिन बीतने के बाद महाप्रलय होती है और फिर इतनी ही लंबी रात्रि होती है)। इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु 100 वर्ष होती है। उनकी आधी आयु निकल चुकी है और शेष में से यह प्रथम कल्प है। ब्रह्मा का वर्ष यानी 31 खरब 10 अरब 40 करोड़ वर्ष। ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु अथवा ब्रह्मांड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष) ।
30 कल्प : 1. श्वेतकल्प, 2. नीललोहित, 3. वामदेव, 4. रथन्तरकलप, 5. रौरवकल्प, 6. देवकल्प, 7. बृहत्कल्प, 8. कन्दर्पक्ल्प, 9. सद्य:कल्प, 10. ईशानकल्प, 11. तम:कल्प, 12. सारस्वतकल्प, 13. उदानकल्प, 14. गारुडकल्प, 15. कौर्मकल्प, 16. नारसिंहकल्प, 17. समानकल्प, 18. आग्नेयकल्प, 19. सोमकल्प, 20. मानवकल्प, 21. तत्पुमानंकल्प, 22. वैकुण्ठकल्प, 23. लक्ष्मीकल्प, 24. सावित्रीकल्प, 25. घोरकल्प, 26. वाराहकल्प, 27. वैराजकल्प, 28. गौरीकल्प, 29. माहेश्वरकल्प (इस कल्प में त्रिपुर का विनाश हुआ था), 30. पितृकल्प ।
14 मन्वंतर : 1. स्वायम्भुव, 2. स्वारोचिष, 3. उत्तम, 4. तामस, 5. रैवत, 6. चाक्षुष, 7. वैवस्वत, 8. सावर्णि, 9. दक्षसावर्णि, 10. ब्रह्मसावर्णि, 11. धर्मसावर्णि, 12. रुद्रसावर्णि, 13. देवसावर्णि तथा 14. इन्द्रसावर्णि।
60 संवत्सर : संवत्सर को वर्ष कहते हैं : प्रत्येक वर्ष का अलग नाम होता है। कुल 60 वर्ष होते हैं तो एक चक्र पूरा हो जाता है।
(1) प्रभव, (2) विभव, (3) शुक्ल, (4) प्रमोद, (5) प्रजापति, (6) अंगिरा, (7) श्रीमुख, (8) भाव, (9) युवा, (10) धाता, (11) ईश्वर, (12) बहुधान्य, (13) प्रमाथी, (14) विक्रम, (15) विषु, (16) चित्रभानु, (17) स्वभानु, (18) तारण, (19) पार्थिव, (20) व्यय, (21) सर्वजित्, (22) सर्वधारी, (23) विरोधी, (24) विकृति, (25) खर, (26) नंदन, (27) विजय, (28) जय, (29) मन्मथ, (30) दुर्मुख, (31) हेमलम्ब, (32) विलम्ब, (33) विकारी, (34) शर्वरी, (35) प्लव, (36) शुभकृत्, (37) शोभन, (38) क्रोधी, (39) विश्वावसु, (40) पराभव, (41) प्लवंग, (42) कीलक, (43) सौम्य, (44) साधारण, (45) विरोधकृत्, (46) परिधावी, (47) प्रमादी, (48) आनन्द, (49) राक्षस, (50) नल, (51) पिंगल, (52) काल, (53) सिद्धार्थ, (54) रौद्रि, (55) दुर्मति, (56) दुंदुभि, (57) रुधिरोद्गारी, (58) रक्ताक्ष, (59) क्रोधन तथा (60) अक्षय।
सनातन संकल्प
सनातन में कोई भी श्राद्ध, पूजा, अनुष्ठान, इत्यादि में संकल्प कराते समय निम्न संस्कृत वाक्य सदियों से बोला जा रहा है। इसमें यदि कुछ परिवर्तन होता है तो वह केवल देश, प्रदेश, संवत्सर, मास और तिथि ही परिवर्तन होता रहता है। यह संस्कृत वाक्य यह दर्शाता है कि इस वक्त कितना समय बीत चुका है-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु, ॐ नम: परमात्मने श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्री ब्रह्मणो द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवराहकल्पे वैवस्वत् मन्वन्तरेअष्टाविंशतितमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे जम्बुद्वीपे भारतवर्षे भारतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गते ब्रह्मावर्तैक देशे पुण्यप्रदेशे (यदि विदेश में कहीं हो तो उस देश, शहर, ग्राम का नाम बोलें।) वर्तमाने पराभव नाम संवत्सरे दक्षिणायने अमुक ऋतौ (ऋतु का नाम) महामांगल्यप्रदे मासानाम् मासोत्तमे अमुक मासे (महीने का नाम) अमुक पक्षे (शुक्ल या कृष्ण पक्ष का नाम) अमुक तिथौ (तिथि का नाम) अमुक वासरे (वार का नाम) अमुक नक्षत्रे (नक्षत्र का नाम) अमुक राशि स्थि ते चन्द्रे (जिस राशि में चन्द्र हो का नाम) अमुक राशि स्थिते सूर्ये (सूर्य जिस राशि में स्थित हो का नाम) अमुक राशि स्थिते देवगुरौ बृहस्पति (गुरु जिस राशि में स्थित हो का नाम) अमुक गेत्रोत्पन्न (अपने गौत्र तथा स्वयं का नाम) अमुक शर्मा/ वर्माअहं समस्त पितृपितामहानां नाना गौत्राणां पितरानां क्षुत्पिपासा निवृत्तिपूर्वकं अक्षय तृप्ति सम्पादनार्थं ब्राह्मण भोजनात्मकं सांकल्पित श्राद्धं पंचबलि कर्म (अथवा अन्य जो भी कर्म हों, नाम लेवें) च करिष्ये। हाथ में जल लेकर इतना कहकर जल छोड़ें। आमान्न यानी कच्चा भोजन देने के लिए 'इदं अन्नं भवदभ्यो नम' कहें।