विश्व पटल पर घटनाक्रम वैश्विक समीकरणों को तेजी से प्रभावित कर रहे हैं। हमास नामक आतंकवादी गुट द्वारा इजरायल पर आक्रमण की प्रबल प्रतिक्रिया हुई है और विश्व जनमत मजहबी उग्रवाद के विरोध में जाग्रत है। ऐसे में हमास जैसे आतंकवादी गिरोहों का साथ देने वाले या उनका समर्थन करने वाले या उनके पक्ष में कुतर्क देने वाले लोगों की पहचान विश्व स्तर पर होती जा रही है और इजराइल ने आतताइयों को समाप्त करने का अभियान छेड़ दिया है। यह घटना विश्व राजनीति में नये मोड़ का कारण बन सकती है। यद्यपि जो लोग इसके कारण तीसरा महायुद्ध सन्निकट मान रहे हैं, उनकी शंकायें सही सिद्ध नहीं होने वाली। वस्तुत: दोनों महायुद्ध यूरोप के ईसाई नेशन स्टेट्स की आपसी लड़ाइयाँ थीं। इस बार कोई भी यूरोपीय देश हमास के पक्ष में सामने नहीं आने वाला है। इसलिये विश्वयुद्ध की कोई संभावना नहीं है। तुर्की यूँ तो स्वयं को यूरोपीय राज्य ही बताता है और मानता है परंतु यूरोप के ईसाई राज्य तुर्की को यूरोप नहीं मानते। इस बात की कोई संभावना नहीं है कि रूस खुलकर हमास के पक्ष में आयेगा। सीरिया, लेबनान तथा अमन, ओमान, यमन आदि देश इस मामले में छिपी लड़ाई ही लड़ते रहे हैं। ईरान एक राज्य के रूप में बहुत थोड़े से अन्य राज्यों का ही समर्थन जुटा पाता है और उसकी जनसंख्या में आंतरिक परिवर्तन तेजी से हो रहे हैं। उग्रवादियों के विरूद्ध वहाँ भी प्रबल जनमत जाग्रत हो रहा है। ऐसी स्थिति में विश्वयुद्ध के योग्य दो समान पक्ष उभरते नहीं दिख रहे हैं। इसलिये विश्वयुद्ध की कोई संभावना नहीं है। परंतु युद्ध चलता रहेगा। यह मुख्यत: इजरायल और मजहबी उग्रवाद के बीच की लड़ाई है।
इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उम्मा की दावेदारी पूरी तरह असत्य सिद्ध हो रही है। उम्मा का अर्थ है- विश्व भर के मुसलमानों को एक ही इकाई मानना। परंतु व्यवहार में आज तक यह साकार नहीं हो सका। उग्रवादी मुसलमानों ने जितना गैरमुस्लिमों को मारा है, उससे बहुत अधिक संख्या में स्वयं मुसलमानों को मारा है। परंतु इससे भी बढक़र जिस बात पर विश्व जनमत का ध्यान जा रहा है, वह यह है कि मुश्किल से दो या तीन लाख मुसलमानों को जो फिलिस्तीन और उसके आसपास रहते हैं और बार-बार पिटते रहे हैं तथा बार-बार आतंकवाद की छाया में संगठित होकर लड़ते रहे हैं और हारकर शरणार्थी बनकर दुनिया भर में दौड़ते रहे हैं, उन थोड़े से मुसलमानों को कुल मिलाकर कई करोड़ की जनसंख्या वाले मुस्लिम नेशन स्टेट सहारा और शरण देने में विफल रहे हैं और उनकी रक्षा करने में भी विफल रहे हैं। अत: उम्मा की दावेदारी निराधार तो सिद्ध होती ही है, हास्यास्पद भी हो गई है। अगर आप अपने दुखी और भूखों मर रहे भाई-बहनों को खुलकर अपना नहीं बना सकते, तो कैसा उम्मा? यदि उम्मा सचमुच होता तो इन बेबस और दुखियारे लोगों को ईसाई राज्यों की शरण में बार-बार जाने की शर्म नहीं झेलनी पड़ती। आखिर इससे मजहब पर भी तो प्रश्न उठ जाते हैं। क्या मजहब इन लोगों को अपना नहीं मानता? क्या उम्मा की कोई भावना सचमुच है? या वह अन्य लोगों पर आक्रमण और लूट तथा अन्य अमानवीय कृत्यों के लिये एक आड़ मात्र है। यह प्रश्न विश्व में गूंज रहा है।
यूक्रेन में संयुक्त राज्य अमेरिका रूस से लगभग हार चुका है। कहा जाता है कि वहाँ से हटने का निर्णय हो जाने के बाद अमेरिकी हथियारों के सौदागरों को अपने लिये और अपने माल की बिक्री के लिये कोई छिपा बाजार चाहिये। हमास तथा अन्य उग्रवादी संगठन ऐसे ही छिपे खरीदार हैं। परंतु सार्वजनिक तौर पर तो मजहबी उग्रवाद के पक्ष में सहानुभूति जुटा पाना संभव नहीं है। इसलिये उसकी आड़ में कोई समीकरण नहीं बन पाता।
हमास ने अपने अभियान का नाम ऑपरेशन अलअक्सा रखा है। इसका अर्थ और पृष्ठभूमि समझना चाहिये। जिसे अलअक्सा कहते हैं, वह मूल रूप में ईसापूर्व छठी शताब्दी में निर्मित एक भव्य यहूदी मंदिर था। वस्तुत: जेरूसलम हिन्दू तीर्थों की तरह यहूदियों का तीर्थ रहा है और हिन्दू शैली में ही यहाँ सिंहद्वार तथा मंदिरों की शृंखला रही है। यह पूरा नगर अनेक मंदिरों वाला रहा है जिसमें सबसे प्रमुख मंदिर यही स्थल था जिसे अब यहूदियों का दूसरा मंदिर (सेंकड टेम्पल) कहा जाता है। 1871 ईस्वी में हुई खुदाई में अनेक पुराने यहूदी मंदिर मिले, जिसमें यह मंदिर सबसे बड़ा परिसर था। इसके प्रवेश स्थान में सिंहद्वार बना था। जिसे अंग्रेज लोग ‘लॉयन गेट’ कहते हैं। इस मंदिर के जो अवशेष मिले उसमें इसके ईसापूर्व छठी शताब्दी में बनाये जाने का उल्लेख है और उत्खनन में एक प्रस्तर लेख मिला है, जिसमें लिखा गया है -
‘यह पवित्र मंदिर है। इसमें किसी भी विधर्मी का प्रवेश वर्जित है। इसके परिसर में भी यदि कोई विधर्मी पकड़ा गया तो उसे मृत्युदंड दिया जायेगा।’
यह प्रस्तर लेख इस्ताम्बूल के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित रखा हुआ है। पश्चिम एशिया का यह यहूदी तीर्थ अपने समय में दूर-दूर तक प्रसिद्ध था और रोम के ईसाइयों ने द्वेषवश इसे पहली शताब्दी ईस्वी के अंत में नष्ट करने का प्रयास किया और दूसरी शताब्दी में पूरी तरह नष्ट कर दिया। फिर भी इसके एक हिस्से पर यहूदियों ने पुन: कब्जा कर लिया। ईसापूर्व छठी शताब्दी से ईसा की सातवीं शताब्दी तक अर्थात् 1300 वर्षों तक यह सम्पूर्ण क्षेत्र यहूदियों का पवित्र क्षेत्र था। जिसके कुछ हिस्सों पर बर्बर ईसाइयों ने कब्जा करने में सफलता पाई थी। जब पैगम्बर मुहम्मद साहब कुछ शक्तिशाली हुये और उन्हें इसके महत्व का पता चला तो उन्होंने एक दिन बताया कि कल रात सपने में मैं पंखों वाली सफेद घोड़ी पर सवार होकर अल्लाहताला से मिलने गया था और बीच में यहूदियों के इस पवित्र मन्दिर में घोड़ी थोड़ी देर सुस्ताई और फिर मैं उस पर सवार होकर सातवें आसमान में जाकर अल्लाह से मिला और उसी रात वापस लौट आया। यह बात पैगम्बर साहब के साथियों ने याद रखी। कायदे से तो इसके बाद से यहूदियों का यह मन्दिर सभी मोमिनों के लिये परम पूज्य होना चाहिये था। लेकिन कब्जा और मारकाट की भावना से प्रेरित समुदायों को सुन्दर और पवित्र वस्तुओं पर अपने कब्जे का लालच होता है। अत: आठवीं शताब्दी ईस्वी में तुर्क खलीफा ने इस पवित्र मन्दिर पर यह कह कर आक्रमण किया कि हजरत पैगम्बर सपने में यहाँ थोड़ी देर रूके थे। अत: यह हमारे लिये महत्वपूर्ण स्थान है और इस पर हम कब्जा करेंगे। मारकाट कर उन्होंने कब्जा कर लिया और इसे ‘अलअक्सा’मस्जिद का नाम दिया गया। परंतु फिर इसके एक हिस्से पर ईसाइयों ने और दूसरे हिस्से पर यहूदियों ने कब्जा कर लिया। इसीलिये इस संपूर्ण परिसर में कब्जा करने के लिये मजहबी उग्रवादी सदा प्रयास करते रहते हैं और इस नारे की आड़ में भोले और विश्वासी मोमिनों से तन-मन-धन की सहायता प्राप्त करते रहते हैं। दो आतंकवादी गुट- हमास और फतह भी इसके लिये सक्रिय हैं। क्योंकि इस पवित्र क्षेत्र पर कब्जा बहुत महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है और आतंकवादियों की योजना है कि इस पर कब्जा करके सम्पूर्ण इजरायल से यहूदियों को मार भगायें। इसीलिये हमास ने इस आक्रमण का नाम ऑपरेशन अलअक्सा रखा।
अब विचित्र बात यह है कि सातवीं शताब्दी ईस्वी में इस्लाम का उदय लाल सागर के किनारे दो छोटे-छोटे कस्बों में हुआ। जिनमें से एक की आबादी लगभग 5 हजार और दूसरे की लगभग 10 हजार थी। जो क्रमश: मक्का और यत्रिब (मदीना) कहे जाते हैं। शेष सम्पूर्ण क्षेत्र यहूदियों और पारसियों के अधीन था। अत: इजरायल का इस सम्पूर्ण क्षेत्र पर पारम्परिक अधिकार रहा है। इसलिये फिलिस्तीन और गाजा पट्टी पर मजहबी उग्रवादी गुटों की दावेदारी का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। यह कुछ वैसा ही है, जैसे लाखों साल तक सनातन धर्म का केन्द्र रहे कश्मीर को मुस्लिम राज्य बताने का आतंकवादियों का प्रयास। इसलिये मजहबी उग्रवादी गुटों के पास दावेदारी के लिये कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। केवल ताकत के बल पर ही दावेदारी का सारा जज्बा टिका है।
अब स्थिति यह है कि सोवियत संघ से निपटने के लिये इंग्लैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका ने विश्व में जगह-जगह मुस्लिम उग्रवाद को बढ़ावा दिया। जिस प्रकार उन्होंने कभी कम्युनिज्म को बढ़ावा दिया था और फिर उससे ही उन्हें लडऩा पड़ा। आज मजहबी उग्रवाद भी इन ईसाई देशों के लिये एक बड़ा खतरा बन गया है। परन्तु ईसाइयत के फैलाव का आरंभ में सबसे अधिक विरोध यहूदियों ने ही किया था और वे अत्यधिक सम्मानित और सम्पन्न लोग थे। इसलिये अनेक ईसाई समूह यहूदियों से अत्यधिक घृणा करते रहे हैं और द्वेषभाव रखते हैं। दूसरी ओर उनके धन और प्रभाव पर वे बहुत कुछ आश्रित भी हैं। यही इन ईसाई राज्यों की दुविधा है। परंतु इन दिनों प्रबुद्ध विश्व जनमत और स्वयं ईसाई जनमत भी मजहबी उग्रवाद से परेशान है। इसलिये इस बार खुलकर हमास का साथ देना ईसाई राज्यों के लिये भी संभव नहीं है। उन्हें इजरायल का पक्ष लेना ही पड़ रहा है। यद्यपि हथियारों के अमेरिकी सौदागर हमास और फतह दोनों ही गुटों को इजरायल के विरूद्ध लडऩे के लिये हथियारों की बिक्री करते रहते हैं। यही पेंच यहाँ फँसा हुआ है।
हमास ने जो बर्बर आक्रमण किया, वह आधुनिक संचार माध्यमों के कारण विश्व भर ने देखा है और सबके मन में इन बर्बर समुदायों के प्रति गहरी घृणा और क्षोभ है। जिस तरह उन्होंने अपने अभ्यास के अनुरूप स्त्रियों के साथ घिनौनी नृशंसता की, वह आधुनिक विश्व में उनके प्रति अत्यधिक क्रोध जगाने वाली सिद्ध हुई है। इसके साथ ही हमास ने 10 निर्दोष नेपाली विद्यार्थियों की हत्या की है और 7 नेपाली नागरिक भी बुरी तरह घायल हुये हैं। थाईलैण्ड, रूस, कनाडा, पेराग्वे, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, आयरलैंड, पुर्तगाल, स्पेन, श्रीलंका, कोलंबिया और कंबोडिया के नागरिक भी मारे गये हैं। इसलिये इन सभी देशों में हमास के विरूद्ध रोष है और इजरायल हमास को बर्बाद कर दे तथा नेस्तनाबूद कर दे, यह सभी चाहते हैं। स्वयं इजिप्त ‘मिश्र’इजरायल के साथ है। अनेक मुस्लिम देश बिना ज्यादा मुखर हुये इजरायल के साथ हैं। केवल तुर्की, पाकिस्तान और सीरिया जैसे कुछ देश खुल कर हमास के साथ हैं। इसलिये इजरायल के समक्ष यह भरपूर अवसर है कि वह मजहबी उग्रवादियों का सफाया कर दे। भारत की भूमिका इस मोड़ पर निर्णायक है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने खुलकर इजरायल के पक्ष में वक्तव्य दिया है। मोसाद और भारतीय गुप्तचर एजेंसियाँ सघनता से एकजुट होकर कार्य करती रही हैं। यह सहयोग आगे और सघन होगा। यूक्रेन-रूस के युद्ध में निष्पक्षता दिखाकर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने विश्वमंच पर अपनी धाक जमाई है और भारत की कीर्ति बढ़ाई है।
संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस ने तुर्की साम्राज्य को तोडक़र उसके भीतर अनेक छोटे-छोटे समूहों को बढ़ावा दिया और तेल की लालच में बाद में सम्पूर्ण अरब और मध्य एशिया तथा पश्चिम एशिया में बहुत छोटे-छोटे नेशन स्टेट्स अपने नियंत्रण में बनाये और कुछ हजार से लेकर कुछ लाख तक की आबादी के इन नये बनाये गये नेशन स्टेट्स को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाकर वहाँ वोटों की अपनी ताकत बढ़ाई है। वीटो पॉवर तो उनके पास है ही। परन्तु अब बदली परिस्थिति में ये छोटे-छोटे नेशन स्टेट्स स्वयं संयुक्त राज्य अमेरिका एवं इंग्लैंड, फ्रांस के लिये बड़ा सिरदर्द बन जाते हैं। इसलिये उन्हें इस रणनीति पर पुन: विचार करना होगा। भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी विश्व मंच पर बारम्बार स्वयं को 140 करोड़ भारतीयों के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का चरित्र बदलने की बात भी वे जोर देकर करते रहे हैं। ऐसे में जनसंख्या के आधार पर राष्ट्रों की शक्ति और उनको दिये जाने वाले वोट की शक्ति और संख्या बढ़ाने की बात हो सकती है ताकि यदि 5 लाख या 2 लाख की जनसंख्या वाला कोई राज्य एक वोट का अधिकारी हो तो 140 करोड़ के राष्ट्र की वोट संख्या 3000 से अधिक होनी चाहिये या फिर भारत को भी वीटो का अधिकार मिलना चाहिये। इस प्रकार नये परिवर्तनों की आहट वातावरण में सुगबुगा रही है। भारत की भूमिका विश्व में निर्णायक की हो चली है।