देवभूमि की दैवीय चिकित्सा
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स्वामी आनंद देव पतंजलि संन्यासाश्रम
पावन तीर्थ, प्राकृतिक सुंदरता, ईश्वरीय ऊर्जा, विविध संस्कृति से परिपूर्ण देवभूमि संज्ञा से शोभायुक्त राज्य उत्तराखण्ड के देवालय, हरिद्वार में गंगा माँ के श्री चरणों में स्थित पतंजलि योगपीठ प्राकृतिक चिकित्सा (पंचभौतिक चिकित्सा) द्वारा संपूर्ण मानव जाति को जीवन दान का उपहार दे रहा है। ईश्वरकृत रचना ‘वेदों में चतुर्थ वेद’अथर्ववेद में प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को दैवीय चिकित्सा की संज्ञा दी गई है-
‘आर्थवणीराङ्गिरसीदैवीर्मनुष्यजा उत।
औषधय: प्रजायन्ते यदा त्वं प्राण जिन्वसि।।’
भारत के राष्ट्र पिता गांधी जी के अनुसार हरिजन २-६-१४६ पृष्ठ ३६५ में लिखा गया-
‘जो मनुष्य प्राकृतिक चिकित्सा को स्वीकार करता है... वह शरीर से जहर खत्म करके खुद को ठीक करने के लिए कदम उठाता है और भविष्य में बीमार पडऩे से बचता है।’चिकित्सा पद्धति जनक (हिप्पोक्रेट्स) भी इस पद्धति के साधक थे।
वैज्ञानिक मान्यता, सांस्कृतिक विनियोग, यजुर्वेद के सिद्धान्त ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्माण्डे, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिंडे’ एवं महर्षि पतंजलि के योगश्चित्तवृत्ति निरोध: सिद्धान्त पर आधारित यह चिकित्सा पद्धति वैदिक एवं वैज्ञानिक पद्धति है जो जल, वायु, मिट्टी, योग, यज्ञ एवं आहार चिकित्सा के दिव्य संगम से शरीर के विजातीय तत्वों का निवारण कर अशुद्ध रक्त का निवारण कर जीवनीय शक्ति एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है, उदाहरण स्वरूप क्रोनिक हार्ट फेल्योर से पीडि़त रोगी में १५ मिनट के लिए ६० डिग्री सेल्सियस पर गर्म पानी से स्नान (जल चिकित्सा) और कम तापमान वाले सौना स्नान से थर्मल वैसोडिलेटेशन से हृदय की कार्यप्रणाली में सुधार होता है। इसी प्रकार अनेकों असाध्य रोगों (T1DM, MS, AVN आदि) का निवारण दवारहित, गैर आक्रामक तर्क संगत साक्ष्य चिकित्सा पर आधारित है। अर्थात् देवभूमि की चिकित्सा का मुख्य संकल्प ईश्वर की प्रकृति से रोग निवारण है।
‘आरोग्यं परं भाग्यं स्वास्थयं सर्वार्थसाधनम्।।’
प्राकृतिक (दैवीय) चिकित्सा से ‘रोग मुक्त भारत’ के निर्माण हेतु स्वास्थ्य साधकों के स्वास्थ्य रक्षण हेतु साधकों को स्वास्थ्य लक्षण एवं रोग निवारण हेतु समग्र दृष्टिकोण प्रदान कर दैवीय चिकित्सा के मूल सिद्धांत एवं लाभान्वित साधकों को ज्ञान कराना चाहिए अर्थात् अपेक्षाकृत कम समय में सफलतापूर्वक स्थायी रोग निवारण चिकित्सा पद्धति निम्र वर्ग केलिए चिकित्सा है, इसका भी बोध कराना चाहिए। महर्षि चरक के अनुसार स्वस्थ्य शरीर से स्वस्थ मन और धर्मार्थकाममोक्ष की प्राप्तिसिद्ध होती है।
धर्मार्थकाममोक्षणाम् आरोग्यं मूलमुत्तम्।
रोगास्तस्यापहर्तार: श्रेयसो जीवितस्य च।।
(चरक संहिता सु. २/१५)
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