जीवन की उत्पत्ति जीव में मातृ प्रभाव और लय-प्रलय भाग -2

जीवन की उत्पत्ति जीव में मातृ प्रभाव और लय-प्रलय भाग -2

डॉ. चंद्र बहादुर थापा 
वित्त एवं विधि सलाहकार- भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं
विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह

आधुनिक विज्ञान में सृजन

   आधुनिक विज्ञान के अनुसार, लगभग बारह से चौदह अरब वर्ष पूर्व संपूर्ण ब्रह्मांड एक परमाण्विक इकाई (atomic unit) के रूप में सिमटा हुआ था, मानवीय समय और स्थान जैसी कोई अवधारणा अस्तित्व में नहीं थी। लगभग 13.7 अरब वर्ष पूर्व हुए एक महाविस्फोट के कारण इसमें सिमटा हर एक कण फैलता गया जिसके फलस्वरूप ब्रह्मांड की रचना हुई। इस धमाके में ऊर्जा का उत्सर्जन इतना अधिक था कि आज तक ब्रह्मांड फैलता ही जा रहा है। सारी भौतिक मान्यताएं इस एक ही घटना से परिभाषित होती हैं जिसे बिग बैंग (Big Bang) सिद्धान्त कहा जाता है। इस महाविस्फोट के धमाके के मात्र 1.43 सेकेंड अंतराल के बाद, अंतरिक्ष की वर्तमान मान्यताएं अस्तित्व में चुकी थीं। भौतिकी के नियम लागू होने लग गये थे। 1.34वें सेकेंड में ब्रह्मांड 1030 गुणा फैल चुका था और क्वार्क, लैप्टान और फोटोन का गर्म द्रव्य बन चुका था। 1.4 सेकेंड पर क्वार्क मिलकर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन बनाने लगे और ब्रह्मांड अब कुछ ठंडा हो चुका था। हाइड्रोजन, हीलियम आदि के अस्तित्व का आरंभ होने लगा था और अन्य भौतिक तत्व बनने लगे थे। और उनके ठोस, द्रव या वायु रूप के अन्दर ऊर्जा जिसको सनातनी परमात्मा () से पुकारते हैं, समाहित करते हुए आकार जिसको शरीर (Body) नाम दिया है, बन जाते हैं और आश्चर्य है, इलेक्ट्रान, प्रोटोन, न्यूट्रॉन, फोटोन और भी किसी अज्ञात शक्ति के कारण स्वयं अथवा मिलकर एक रहते अथवा मिले हुए के सामूहिकता से निर्जीव, अर्धजीव, अजीवातजीवोत्पत्ति प्रक्रिया के वायरस और कवक से लेकर जैव और जैव के जटिलतम कृति मानव, फिर उससे परे भूमण्डल पृथ्वी लगाएत ब्रह्माण्ड के नक्षत्र, ग्रह, तारे जैसे पिंडों, सब के सब अपने आप में बिलकुल अलग पहचान और विशिष्टता रखते हैं, अपनी-अपनी आयु पाते हैं और आयु पूर्ण होने पर अज्ञात में विलीन होते हैं, जिसको मानव सनातनियों ने जन्म-मृत्यु का नाम दिया है।
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई? यह वैज्ञानिक के लिए सबसे बड़ा प्रश्न है जिसके लिए अभी तक सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं मिले हैं। अधिकांश विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि वर्तमान में धरती पर जितना भी जीवन है, वह सब किसी एक आदि जीव से उत्पन्न हुआ है। किन्तु यह पता नहीं है कि यह आदि जीव-रूप कैसे बना या उत्पन्न हुआ। लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि यह किसी प्राकृतिक प्रक्रिया के द्वारा हुआ (अप्राकृतिक या दैवी प्रक्रिया से नहीं) जो आज से लगभग 3.9 अरब  वर्ष पहले घटित हुई। जीवोत्पत्ति के अध्ययन के लिए मुख्यत: तीन तरह की परिस्थितियों का ध्यान रखना पड़ता है- भूभौतिकी, रासायनिक और जीवविज्ञानी। यह सर्वमान्य है कि आज के सभी जीव आर.एन.. अणुओं के वंशज हैं (जरुरी नहीं है कि आर.एन.. आधारित जीवन अस्तित्व में आने वाला पहला जीवन था) प्रयोगों ने साबित किया है कि अधिकांश अमीनो अम्लों (जो कि जीवन के बुनियादी रसायन हैं) का संश्लेषण प्राचीन पृथ्वी जैसी परिस्थितियों में अजैविक यौगिकों से हो सकता है। कार्बनिक यौगिक के संश्लेषण की कई क्रियाविधियों का अध्ययन किया गया है, इनमें तडि़त (lightening) और विकिरण (radiation) शामिल हैं। अन्य अध्ययन, जैसे किमेटाबोलिज्म फर्स्ट हाइपोथिसिस, यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि प्रतिलिपि बनाने वाले अणुओं की उत्पत्ति के लिए जरुरी रसायनों को बनाने के लिए क्या प्राचीन पृथ्वी पर उत्प्रेरक पदार्थों ने कोई भूमिका निभाई होगी। जटिल कार्बनिक यौगिक, सौर मण्डल और तारों के बीच के अंतरिक्ष में भी मिलें हैं। यह संभव है कि इन कार्बनिक यौगिकों ने पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत के लिए सामग्री प्रदान की हो।
आधुनिक पुरातत्व खोज के अनुसार वर्तमान पृथ्वी की उम्र लगभग 4.5 अरब वर्ष (सनातन शास्त्रों और वेदों के अनुसार ब्रह्मा जी के 100 वर्ष आयु = 4.32 अरब वर्ष) है। सबसे पुराना निर्विवादित जैव सबूत वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया में मिले 3.48 अरब वर्ष पुराने बलुआ पत्थर में माइक्रोबियल चटाई (microbial mat) के जीवाश्म हैं। इस से पुराने सबूत (1) ग्रीनलैंड में मिला ग्रेफाइट, जो की एक बायोजेनिक पदार्थ और (2) 2015 में पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में 4.1 अरब वर्ष पुराने पत्थरों में मिलेबायोटिक जीवन (biotic life) के अवशेष हैं। पृथ्वी में विगत 1.97 अरब वर्षों में लगभग पांच अरब जैव प्रजातियां उत्पन्न हुई, और  99 प्रतिशत से अधिक विलुप्त होने का अनुमान है। पृथ्वी की वर्तमान में ज्ञात-अज्ञात उपलब्ध जैव  प्रजातियों की संख्या का अनुमान 1 करोड़ से 1.4 करोड़ तक है (सनातन शास्त्रों में 84 लाख योनियाँ कहा गया है) उपलब्ध और विलुप्त के अनुमानित 1.9 करोड़ (1%) जैव प्रजातियों का आंकलन एक केंद्रीय डेटाबेस में कालानुक्रम तालिका बनाने की प्रक्रिया चल रहा है, इनमें से 12 लाख प्रलेखित हैं। परन्तु कम से कम 80 प्रतिशत अभी तक वर्णित नहीं है। माना जाता है कि अत्यधिक ऊर्जावान रसायन (Highly energetic chemistry) लगभग 4 अरब साल पहले स्व-प्रतिकृति अणु का उत्पादन कर चुका था, और आधा अरब साल बाद सभी जीवों के अंतिम सामान्य पूर्वज अस्तित्व में थे। वर्तमान वैज्ञानिक सर्वसम्मत यह है कि जटिल जैव रसायन जो जीवन को बनाते हैं, वह सरल रासायनिक प्रतिक्रियाओं से आया था। जीवन की शुरुआत में आर.एन.. और सरल कोशिकाओं की विधानसभा जैसे स्व-प्रतिकृति अणुओं को शामिल किया हो सकता है।
पृथ्वी के सभी जीवों का एक साझाअंतिम सार्वजानिक पूर्वजजो 3.5– 3.8 अरब वर्ष पूर्व था, जीवों के जीवन क्रम-विकासिक इतिहास में बार-बार नयी जातियों का बनना (प्रजातिकरण- speciation), जातियों के अंतर्परिवर्तन (Anagenesis), और जातियों का विलुप्त होना (विलुप्ति- extinction), साझे रूपात्मक और जैव रासायनिक लक्षणों (common morphological and biochemical traits) - जिसमें डी.एन.. भी शामिल है - से साबित होता है। सबसे पुराने बने जीवाश्म जैविक प्रक्रियाओं से बने ग्रेफाइट के हैं, उसके बाद बने जीवाश्म सूक्ष्मजीवी चटाई (microbial mat) के हैं, जबकि बहुकोशिकीय जीवों के जीवाश्म अपेक्षाकृत बहुत बाद के और मानव के सबसे बाद के हैं, अर्थात जैव जीवन सरल से जटिल की तरफ विकसित हुआ है। लगभग 3-4 अरब साल पहले पृथ्वी पर प्रोक्योरोत (prokaryotic cell) निवास किया। अगले कुछ अरब वर्षों में आकृति विज्ञान या सेलुलर संगठन में कोई स्पष्ट परिवर्तन इन जीवों में नहीं हुआ। यूकेरियोटिक कोशिकाओं (Eukaryotic cell) 1.6-2.7 अरब साल पहले के बीच उभरी। सेल संरचना में अगला बड़ा परिवर्तन आया जब बैक्टीरिया को यूकेरियोटिक कोशिकाओं द्वारा घेरे गए (एंडोस्मोसिस- endosmosis) और घिरी हुई जीवाणु और मेजबान कोशिका को फिर से उत्क्रांति मिली, जिस प्रक्रिया से जीवाणु या तो माइटोकांड्रिया (mitochondria) या हाइड्रोजनोसोम (hydrogenosomes) में विकसित होते हैं। साइनोबैक्टीरियल (Cyanobacterial) जैसे जीवों की एक अन्य सजगता से शैवाल और पौधों में क्लोरोप्लास्ट बनने का कारण बन गया। 6.1 करोड़ वर्ष पूर्व जब तक एडीआअकायन (Ediacaran) काल में महासागरों में प्रकट होने लगी, तब तक एकेक्षीय यूकेरियोट्स, प्रोकर्योट्स और आर्चिया का था। मल्टीकोलेरीरिटी का विकास कई स्वतंत्र घटनाओं में हुआ, यथा स्पंज, ब्राउन शैवाल, साइनोबैक्टीरिया, कीचड़ ढूंशी (slime molds) और मायक्कोबैक्टीरिया जैसे विविध जीवों में। जनवरी 2016 में, वैज्ञानिकों ने बताया कि, लगभग 80.0 करोड़ वर्ष पहले जीके-पीआईडी नामक एक अणु में एक मामूली आनुवंशिक परिवर्तन ने जीवों को एक कोशिका जीव से कई कोशिकाओं में से एक के लिए जाने की अनुमति दे दी है। इन सबसे पहले बहुकोशिकीय जीवों के उदय के तुरंत बाद, जैविक विविधता का एक उल्लेखनीय मात्रा लगभग 1.0 करोड़ वर्षों में प्रकट हुआ, जिसको कैम्ब्रियन विस्फोट कहा जाता है। लगभग 5.0 करोड़ वर्ष पहले, पौधे और कवक थे और जल्द ही आर्थोपोड और अन्य जैव विशेष रूप से जलचर- थलचर कीड़े- मकोड़े प्रकट हुए, एम्फिबियन  3.64 करोड़ वर्ष पहले दिखाई दिए, इसके बाद लगभग 1.55 करोड़ वर्ष पूर्वसरीसृपऔर पक्षियों, लगभग 1.29 करोड़ वर्ष पूर्व स्तनधारियों, लगभग 1.0 करोड़ साल पहले और आधुनिक मानव लगभग 2.50 लाख साल पहले दिखाई दिए फिर भी, इस प्रक्रिया के प्रारंभ में विकसित होने वाले छोटे जैव प्रजाति बायोमास (biomass) और प्रोक्योराइट्स (prokaryotes) अपने अस्तित्व बचाने में अत्यधिक सफल रहे और धरती पर हावी हो गए तथा अभी भी यत्र-तत्र सर्वत्र सर्वव्यापी हैं। जीवों का सर्वोत्तम और जटिलतम विकसित जैव मानव प्रकृति के सबसे पुराने जैव वर्ग वायरस और कवक आदि से कहीं लाभान्वित कहीं रोगग्रस्त यहाँ तक की मृत्यु के कगार तक पहुँचता है और अपने उपचार के लिए वनस्पति अथवा रसायनों से नए-नए यौगिक तरीके बनाता रहता है, तथा अपने ही कर्मों से प्रलय लाने के कगार तक पहुँचने वाला है। 

 पुराण में प्रलय

'सृष्टि के आदिकाल में सत् था असत्, वायु था आकाश, मृत्यु थी और अमरता, रात थी दिन, उस समय केवल वही एक था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से सांस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं था।- ऋग्वेद (नासदीयसूक्त) 10-129 जो बनेगा वह बिगड़ेगा अर्थात् नष्ट होगा, जो जन्मा है वह मरेगा - परमाणु, अणु पर्यन्त, पदार्थ, पेड़, पौधे, प्राणी, मनुष्य, पितर और देवताओं की आयु नियत है, उसी तरह समूचे ब्रह्मांड की भी आयु है। इस धरती, सूर्य, चंद्र सभी की आयु है। आयु के इस चक्र को लय-प्रलय कहा जाता है। प्रलय जन्म और मृत्यु और पुन: जन्म की एक प्रक्रिया है। जन्म एक सृजन है तो मृत्यु एक प्रलय। प्रलय का अर्थ होता है संसार का अपने मूल कारण प्रकृति में सर्वथा लीन हो जाना। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड को ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।
पल-प्रतिपल प्रलय होती रहती है। किंतु जब महाप्रलय होता है तो सम्पूर्ण ब्रह्मांड वायु की शक्ति से एक ही जगह खिंचकर एकत्रित हो भस्मीभूत हो जाता है। तब प्रकृति अणु वाली हो जाती है अर्थात् सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणुरूप में बदल जाती है। अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड भस्म होकर पुन: पूर्व की अवस्था में हो जाता है, जबकि सिर्फ ईश्वर ( तत्व) ही विद्यमान रह जाते हैं। ग्रह होते हैं, नक्षत्र, अग्नि, जल, वायु, आकाश और जीवन। अनंत काल के बाद पुन: सृष्टि प्रारंभ होती है।

प्रलय के प्रकार

सृष्टिक्रम और विकास की गणना के लिए कल्प हिन्दुओं का एक परम प्रसिद्ध मापदंड है। जैसे मानव की साधारण पूर्ण आयु सौ वर्ष है, वैसे ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की भी आयु सौ वर्ष मानी गई है। ब्रह्मा का एक दिन (कल्प) कहलाता है, उसके बाद प्रलय होती है। प्रलय ब्रह्मा की एक रात है जिसके पश्चात् फिर नई सृष्टि होती है। कल्प हिन्दू समय चक्र की बहुत लम्बी मापन इकाई है। मानव वर्ष गणित के अनुसार 360 दिन का एक दिव्य अहोरात्र होता है। इसी हिसाब से दिव्य 12,000 वर्ष का एक चतुर्युगी होता है। 71 चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है और 14 मन्वन्तर/ 1,000 चतुर्युगी का एक कल्प होता है। कल्प के अंत में महाप्रलय होता है। हिन्दू शास्त्रों में प्रलय के चार प्रकार बताए गए हैं- नित्य, नैमित्तिक, द्विपार्थ और प्राकृत, अथवा नित्य, नैमित्तक आत्यन्तिक और प्राकृतिक प्रलय।
नित्य प्रलय: वेदांत के अनुसार जीवों की नित्य होती रहने वाली मृत्यु को नित्य प्रलय कहते हैं। जो जन्म लेते हैं उनकी प्रतिदिन की मृत्यु अर्थात् प्रतिपल सृष्टी में जन्म और मृत्य का चक्र चलता रहता है। हर वस्तु अथवा जैव की निश्चित आयु-सीमा होती है, और प्रत्येक के प्रकटीकरण जन्म से अज्ञात में लयीकरण के साथ मृत्यु तक के समय को आयु कहा जाता है। उस जीव के वर्ग के समूह के सामान्य अवस्था में मृत्यु पर्यन्त की आयु, उस जीव वर्ग की पूर्ण आयु, और किसी कारणवश पूर्ण आयु से पूर्व के मृत्यु को अकालमृत्यु कहा जाता है। उस जीव की मृत्यु उसके लिए नित्य प्रलय है।
आत्यन्तिक प्रलय: आत्यन्तिक प्रलय योगीजनों के ज्ञान के द्वारा ब्रह्म में लीन हो जाने को कहते हैं। अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर उत्पत्ति और प्रलय चक्र से बाहर निकल जाना ही आत्यन्तिक प्रलय है।
नैमित्तिक प्रलय: वेदांत के अनुसार प्रत्येक कल्प के अंत में होने वाला तीनों लोकों का क्षय या पूर्ण विनाश हो जाना नैमित्तिक प्रलय कहलाता है। पुराणों अनुसार जब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त होता है, तब विश्व का नाश हो जाता है। चार हजार युगों का एक कल्प होता है। ये ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है। इसी प्रलय में धरती या अन्य ग्रहों से जीवन नष्ट हो जाता है। नैमत्तिक प्रलयकाल के दौरान कल्प के अंत में आकाश से सूर्य की आग बरसती है। इनकी भयंकर तपन से सम्पूर्ण जलराशि सूख जाती है। समस्त जगत जलकर नष्ट हो जाता है। इसके बाद संवर्तक नाम का मेघ अन्य मेघों के साथ सौ वर्षों तक बरसता है। वायु अत्यन्त तेज गति से सौ वर्ष तक चलती है।
प्राकृत प्रलय: ब्राह्मांड के सभी भूखण्ड या ब्रह्माण्ड का मिट जाना, नष्ट हो जाना या भस्मरूप हो जाना प्राकृत प्रलय कहलाता है। वेदांत के अनुसार प्राकृत प्रलय अर्थात् प्रलय का वह उग्र रूप जिसमें तीनों लोकों सहित महत्त्व अर्थात् प्रकृति के पहले और मूल विकार तक का विनाश हो जाता है और प्रकृति भी ब्रह्म में लीन हो जाती है अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड शून्यावस्था में हो जाता है। जल होता है, वायु, अग्नि होती है और आकाश और अन्य कुछ। ब्रह्मा के सौ वर्ष बीतने पर अर्थात् ब्रह्मा की आयु पूर्ण होते ही सब जल में लय हो जाता है। कुछ भी शेष नहीं रहता। जीवों को आधार देने वाली ये धरती भी उस अगाध जलराशि में डूबकर जलरूप हो जाती है। उस समय जल अग्नि में, अग्नि वायु में, वायु आकाश में और आकाश महत्त्व में प्रविष्ट हो जाता है। महत्त्व प्रकृति में, प्रकृति पुरुष में लीन हो जाती है।
उक्त चार प्रलयों में से नैमित्तिक एवं प्राकृतिक महाप्रलय ब्रह्माण्डों से सम्बन्धित होते हैं तथा शेष दो प्रलय देहधारियों से सम्बन्धित हैं।

मातृत्व के विशेष गौरव

किसी भी पदार्थ अथवा जैव के व्युत्पत्ति होते ही वह स्वयं में अपने और उस समूह का बीज बन जाता है और उस बीज को जीवन पाने के लिए आधार और संरक्षण की जरुरत रहता है जो अजीवातजीवोत्पत्ति अथवा समविभाजन अथवा अण्डसिंचन अथवा मातृ गर्भ और गर्भ से बाहर निकलने के बाद स्वरक्षण सक्षम होने तक धारण से पालन-पोषण की क्षमता स्त्री में ही है, पुरुष में नहीं। पुरुषतत्व बीज देता है उसको पुष्ट कर जीवन प्रदान स्त्री करती है और दोनों शक्तियां परमात्मा में निहित हैं, इसीलिए उस परमात्मा को अर्धनारीश्वर कहा जाता है। वेदों की सूक्तियों में विश्व की उत्पत्ति का चिंतन किया गया है, इस चरावर के अस्तित्व के विषय में कौतुहल व्यक्त किया गया है, उससे भी वैदिक काल के लोगों का देवताओं और प्रकृति के संदर्भ में ममतापूर्ण भाव प्रकट होता है। वेद कालीन लोगों की यह धारणा थी कि मातृशक्ति गृहस्वामिनी और पूरे परिवार की विधात्री है। विद्वान और स्वतंत्र महिलाओं को अपने बच्चों का प्रथम गुरु माना जाता था।
पृथ्वी मनुष्य और सभी जीवों का पोषण करती है। यह वैज्ञानिक सत्य है। परंतु अपना सब कुछ देने वाली पृथ्वी को माता के समान मानकर उसकी अमूल्य सम्पदा को नष्ट कर अत्यंत संयत और कृतज्ञ भाव से स्वीकार करने की वैदिक मानसिकता अनुकरणीय है। इसके अलावा भटकने वाले वैदिक लोगों की स्थिरता पूर्ण जीवन यात्रा जिनके कारण सुलभ हुई उन नदियों को भी माता का स्थान दिया गया है। ऋग्वेद की एक सूक्ति में सरस्वती नदी का उल्लेख अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वतिके रूप में किया गया है। जिसमें उसेअम्बितमेकह कर गौरवान्वित किया गया है। ऋग्वेद में देवों के साथ देवियों की प्रार्थना की गई है। गिनती में देवियों की संख्या कम होने पर भी जनमानस में उनका महत्वपूर्ण स्थान था, और मां के रूप में पूजा जाता है। इन देवियों में अदिति का वर्णन देवमाता के रूप में किया जाता है। आदित्यों की माता अर्थात् देवों की जन्मदात्री अदिति सभी राजाओं और विश्व की सभी श्रेष्ठ और सामथ्र्यशाली पुत्रों की माता है। इतना ही नहीं विश्व के चराचर पर नियंत्रण करने वाली अर्थात् वैश्विक नियमों की भी स्वामिनी वही है। अदिति सभी का संरक्षण करने वाली है। सभी का कुशलता से मार्गदर्शन करने वाली है। उसके पुत्रों अर्थात् आदित्यों के साथ किया गया उसका स्तवन दुखों से रक्षा और कल्याण की कामना के साथ किया जाता है। पापों से और अपराधबोध से मुक्ति के लिये उसकी सर्वाधिक प्रार्थना की जाती है। इस वर्णन से यह कहा जा सकता है कि इस प्रार्थना के पीछे का स्थायी भाव यही है कि हम चाहें कितनी भी गलतियां करें, कोई हमें क्षमा करे करे, हमारी माता हमें अवश्य क्षमा कर देंगी।
अदिति शब्द की व्याख्या दीयते खण्ड्यते बध्यते बृहत्वात्के रूप में की जाती है। सभी बंधनों से मुक्त और अपने आराधकों को भी बंधनों से मुक्त रखने वाली माता के रूप में अदिति की प्रतिमा है। कई जगहों पर अदिति की कल्पना पृथ्वी के रूप में की गई है। वेदों के ऋषि कहते हैं कि यह पृथ्वी या अदिति ही माता, पिता, पुत्र, देव आदि है। जो उत्पन्न हुआ है, हो रहा है और होगा वह पृथ्वी से ही। अन्न उत्पन्न करने वाली पृथ्वी का भूमाता के रूप में ऋषि गुणगान करते हैं। भूमिसूक्त में पृथ्वी माता का स्तवन करने वाले सूक्त में ऋषि पृथ्वी के साथ अपने संबंधों का वर्णन करते हुए कहते हैं माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:’ (अथर्ववेद 12.1.12) और प्रार्थना करते हैं कि जिस तरह माता अन्न के सार के रूप में दूध पिलाकर अपने बेटे का पोषण करती है उसी तरह पृथ्वी माता भी हमें पुष्ट करें। हमारी कामना सफल करें। वे पृथ्वी से प्रार्थना करते हैं कि तुम्हारे अंदर जीवों को पुष्ट करने वाले जो पदार्थ उत्पन्न होते हैं उनका लाभ मुझे मिले।
पृथ्वी को संतुष्ट करने के लिये चावल के दानों को स्मरण कर ऋषि कहते हैं कि उचित मंत्रपाठों के साथ तुम्हें अग्नि में समर्पित करता हूँ। जिस तरह माँ अपने बेटों के करीब होती है उसी तरह तुम भी अपनी माँ अर्थात् पृथ्वी के करीब रहो। अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:’ (अथर्ववेद 3.30.1) वैदिक ऋषि कहते हैं कि बच्चों का व्यवहार माता के अनुकूल और उसके मन को अल्हादित करने वाला होना चाहिये। सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि : अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या (अथर्ववेद 3. 30. 2)।। इसमें परिवार के सदस्य एक दूसरे पर निरपेक्ष प्रेम करने की कामना करते हैं जिस तरह एक गाय अपने बछड़े पर करती है। सभी रिश्ते माँ और बेटे के संबंधों जितने ही पवित्र और दृढ़ हों यह कहने से परोक्ष रूप में यह सिद्ध होता है कि वैदिक लोगों के जीवन में इस रिश्ते का कितना महत्व था।
ऋषि विश्वामित्र विपाश और शुतुद्री नदियों की स्तुति करते हुए उन्हें मातृतुल्य कहते हैं। वे उन नदियों से अनुरोध करते हैं कि वे अपना प्रवाह कम करें जिससे आगे मार्गक्रमण किया जा सके। उनके इस निवेदन पर नदियां भी उसी तरह नीचे झुक जाती हैं जैसे कोई माँ अपने शिशु को स्तनपान कराने के लिये नीचे झुकती है। वेदों में मातृका नाम से अष्टमातृकाओं का वर्णन है, यथाब्राह्मी माहेश्वरी चण्डी वाराही वैष्णवी तथा। कौमारी चैव चामुण्डा चर्चिकेत्यष्टमातर:।। इन मातृकाओं के मंदिर या मूर्तियां आज भी भारत में विभिन्न स्थानों पर दिखती हैं। दक्षिण भारत, नेपाल जैसी जगहों पर आज उनकी आराधना की जाती है। माता के रूप में पूजन की जाने वाली इन देवियों में स्त्री के संगोपन और संहार करने वाले दोनों रूप दिखाये गये हैं। इससे स्पष्ट होता है कि माता अपने बच्चे के हित के लिये प्रसंगानुरूप मृदु और कठोर हो सकती है। इसके अलावा वेदों में उषा, वाक् यानि वाणी, ईड़ा, पृष्णी, बृहद्दिवा, एकाष्टका इत्यादि का भी सभी देवों की या अग्नि इत्यादि देव की माता के रूप में वर्णन मिलता है। साथ ही वेदमाता के रूप में गायत्री या छन्दा की भी स्तुति दिखाई देती है। वेदों के बाद पुराणकाल में और आज भी जिनकी प्रमुखता से उपासना की जाती है वे लक्ष्मी, पार्वती, सरस्वती आदि देवियों की ओर भी माता के रूप में ही देखा जाता है। उनकी आराधना करके हम यही मनीषा रखते हैं कि उनका मातृवत् कृपाछत्र हमें प्राप्त हो।
अर्धनारीनटेश्वर जैसी देवता की उपासना भी यही सिद्ध करती है कि किसी भी देवता को माता रूपी स्त्रीत्व के बिना पूर्णता प्राप्त नहीं होती। प्रकृति के मूर्त-अमूर्त आविष्कारों के आगे नतमस्तक होकर उसमें माता का प्रेम देखने वाले वैदिक ऋषियों से लेकर हमारे सारे अपराधों को क्षमा कर प्रेम की छाया देने वाले वि_ भगवान को माँ (माऊली) मानकर उनके दर्शन हेतु जाने वाले वारकरी समाज तक सभी को भगवान के अंदर के देवत्व से अधिक मातृत्व भाव आकर्षित करता है। अस्तु। 
 

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