ऋतुएँ एवं स्वास्थ्य

ऋतुएँ एवं स्वास्थ्य

वैद्या नेहा बरुआ, सह-अध्यापक
पतंजलि आयुर्वेद महाविद्यालय, हरिद्वार

   परिवर्तन प्रकृति का स्वभाव है, पूरे वर्ष में ऋतु कुछ अल्प कालखण्ड होते हैं, जो मौसम के बदलने से परिवर्तित होते है। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों को ऋतुओं में विभाजित किया है-
शिशिर ऋतु  - माघ - फाल्गुन
बसंत ऋतु    - चैत्र - वैशाख      आदान काल
ग्रीष्म ऋतु   - ज्येष्ठ - अषाढ
 
वर्षा ऋतु     - श्रावण - भाद्रपद
शरद ऋतु    - अश्विन  -कार्तिक   विसर्ग काल
हेमन्त ऋतु   - अगहन - पौष
शिशिर, बसंत और ग्रीष्म इन तीन ऋतुओं में सूर्य उत्तर दिशा में गमन करता है अत: इन्हें तरायण अथवा आदान काल की ऋतुएँ कहते हैं। इसी प्रकार वर्षा, शरद, हेमन्त ऋतुओं में सूर्य दक्षिण दिशा में गमन करता है अत: इन्हें दक्षिणायन अथवा विसर्ग काल की ऋतुएँ कहते हैं।
ऋतु परिवर्तन अथवा काल परिवर्तन व्यक्ति के शरीर बल पर प्रभाव पड़ता है। देखा जाता है कि विसर्ग काल के आरम्भ अर्थात् वर्षा ऋतु में तथा आदान काल के अन्त में अर्थात् ग्रीष्म ऋतु में शरीर बल में दुर्बलता, विसर्ग काल के मध्य अर्थात् शरद ऋतु तथा आदान काल के मध्य अर्थात् बसंत ऋतु में मध्यमा बल तथा विसर्ग काल के अन्त अर्थात् हेमन्त ऋतु तथा आदान काल के प्रारंभ अर्थात् शिशिर ऋतु में शरीर का बल श्रेष्ठ रहता है।
आदान काल में सूर्य अपनी किरणों द्वारा संसार के स्नेह भाग अर्थात् जलीयांश को लेता है, इसी समय वायु भी तीव्र एवं रुद्र होकर संसार के स्नेह भाग का शोषण करता है, जिससे की इन तीनों ऋतुओं शिशिर, बसंत, ग्रीष्म में रुक्षता उत्पन्न हो जाने से शरीर में दुर्बलता उत्पन्न होती है। वर्षा, शरद तथा हेमन्त इन ऋतुओं में क्रमश: जब सूर्य दक्षिण दिशा की ओर गमन करता आरंम्भ करता है उस समय काल एवं स्वाभाविक मार्ग (विसर्ग काल एवं दक्षिणायन) तथा मेघ वायु एवं वर्षा से उसका तेज कम हो जाता है। अत: मनुष्यों के शरीर में बल प्रतिदिन बढऩे लगता है।
जो व्यक्ति यह जानता है कि किस ऋतु में कैसा आहार-विहार करना चाहिए। उसे ही आहार का समुचित फल प्राप्त होता है, अन्यथा मात्रापूर्वक आहारपूर्वक आहार ग्रहण करने पर भी उसे आहार का सम्पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता अत: उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रत्येक ऋतु में अनके अनुकूल आहार-विहार का पालन करना चाहिए। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ऋतुचर्या का पर्याप्त वर्णन किया है। कि प्रत्येक ऋतु में किस आहर-विहार का पालन करना चाहिए।

हेमन्त ऋतुचर्या

हेमन्त स्वाभावत शीत होता है अत: इस समय पुरुषो के शरीर में जाठराग्नि बलवान होकर मात्रा एवं द्रव्य में गुरु आहार को पचाने में समर्थ रहती है। अत: इस ऋतु में स्निग्ध पदार्थ, अम्ल रस, लवण, दूध के विकार, ईख के विकार (गुड़, चीनी, मिश्री), तेल, नये चावल आदि का प्रयोग करने से शरीर बल की हानि नहीं होती अर्थात् व्यक्ति स्वस्थ रहते है। इस ऋतु में प्रतिदिन तैल की मालिश, शिर पर तैल लगायें, उत्सादन अर्थात् उबटन लगाना, धूप में बैठना, गर्म जगह पर निवास करना, शरीर पर लेप लगाना, गर्म वस्त्र पहनना ये सभी लाभदायक है।
परहेज : इस ऋतु में वात का प्रकोप होता है अत: वात बढ़ाने वाले एवं लघु अन्न पान (शीघ्र पचने वाले) नहीं करना चाहिए। तीव्र वायु  का  सेवन करें, भूख रहे।

शिशिर ऋतुचर्या

सामान्यत: हेमन्त एवं शिशिर में काफी कुछ समानता हैं, परन्तु इस ऋतु में वायु, मेघ के कारण कुछ ज्यादा ही शीत पडऩे लगती है। इस ऋतु में हेमन्त ऋतु के समान ही गुरु आहार, स्निग्ध आहार का सेवन करना चाहिए। गर्म जगह पर रहना चाहिए। वातवर्धक आहार, लघु एवं शीध्र पचने वाले आहार एवं शीतल अन्न पान का त्याग करना चाहिए।

बसंत ऋतुचर्या

इस समय संचित हुआ कफ (पूर्व ऋतु में) सूर्य की किरणों से द्रवीभूत होकर जठराग्नि को मंद कर देता है अत: अनेक रोग होने की संभावना होती है अत: आहार-विहार का विशेष रुप से ध्यान रखना चाहिए। ज्यादा भोजन करने से अजीर्ण में भोजन करने, ठंड़ा एवं बासी खाने से, कफ प्रकुपित होता है। इस ऋतु में हल्का सुपाच्य आहार एवं ताजा भोजन अति उत्तम है।
पुराना गेहूँ, बाजरा, जौ, अरहर, मूंग दाल, हरड़, लहसुन, पालक, सौंठ, मौसमी फल का प्रयोग लाभकारी है। इस ऋतु में प्रात: व्यायाम और योगासन अवश्य करें। मालिश, उबटन, लेप आदि का प्रयोग हितकर है
परहेज : इस ऋतु में गुरु, अम्ल, स्निग्ध और मीठा  (मधुर) आहार का प्रयोग करें। बसंत ऋतु में दिन में नहीं सोना चाहिए।

ग्रीष्म ऋतुचर्या

इस ऋतु को सूर्य अपनी किरणों द्वारा संसार के स्नेह को सोख लेता है अत: इस मौसम में मधुर रसयुक्त, शीतल, स्निग्ध और तरल पदार्थों को सेवन उत्तम होता है। दूध, घी, छाछ का प्रयोग करें। सब्जियों में पत्तीदार शाक, परवल, लौकी, टमाटर, करेला, नींबू का प्रयोग हितकर है। मूंग मसूर की दाल, मौसमी फलों का सेवन लाभकारी है। शीतल जगह पर निवास, शीतल, उद्यान, शीतल जल का प्रयोग करें।
परहेज : लवण, अम्ल, कुट रसयुक्त आहार जैसे- कड़वे-खट्टे, नमकीन, मिर्च-मसालेदारयुक्त आहार एवं भारी पदार्थों के सेवन से बचें। खट्टी दही, उड़द दाल, खटाई आदि पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए। घर से बाहर निकलते समय सिर को ढककर रखें एवं पानी पीकर निकलें।

वर्षा ऋतुचर्या

इस समय शरीर बल दुर्बल रहता है जिससे तीनों दोष कुपित हो जाते है अत: इस समय त्रिदोषनाशक वस्तुओं का  सेवन लाभकारी है। इस ऋतु में अग्नि दीपक द्रव्यों का सेवन उचित है। इस मौसम में खाने-पीने की चीजों को बनाते समय अल्प मात्रा में मधु मिलाना लाभकारी होता है। भोजन में अम्ल एवं लवण रस एवं स्नेह द्रव्य घृतादि की प्रधानता हितकर है। पुराना जौ, गेहूँ, चावल का प्रयोग उचित है।
इस मौसम में हल्क सुपाच्य, ताजे, गर्म एवं पाचक अग्नि बढ़ाने वाले आहार का सेवना करना चाहिए। पुराना अनाज, मूंग, मक्का, सरसों, खिचड़ी, दलिया का सेवन लाभकारी है। सब्जियों में लौकी, भिण्डी, तोरई, टमाटर, अदरक आदि लाभकारी हैं। ऋतु में शरीर का प्रघर्षण, उद्वर्तन (उबटन), स्नान, गंध आदि प्रयोग हितकर है।
वर्षा ऋतु में घरों को स्वच्छ एवं सूखा रखें। हल्के एवं पवित्र वस्त्र धारण करें। घरों के अंदर नीम पत्र, गुग्गुल आदि औषध द्रव्यों का प्रयोग हितकर होता हैं। इस मौसम में जल दूषित होने से मलेरिया, टाइफाइड, अतिसार आदि रोग फैलने की संभावना रहती हैं। अत: विशेष रूप से खाने-पीने की चीजों का ध्यान रखें, उबालकर शीतल किया हुआ जल हितकर है। बाहर के गरिष्ठ भोजन परहेज करें। घरो में बनाया सुपाच्य आहार ही उत्तम है।

शरद ऋतुचर्या

पूर्व ऋतु में संचित हुआ पित्त शरद ऋतु में प्रकुपित हो जाता है अत: इस ऋतु में अच्छी भूख लगने पर मात्रापूर्वक भोजन करें। भोजन में मधुर, शीतल, तिक्त एवं पित्त को शांत करने वाले अन्नपान को मात्रापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। चावल, जौ, गेहूँ का प्रयोग हितकर है।
परहेज : शरद ऋतु में धूप का सेवन नहीं करना चाहिए। पूर्वी वायु का सेवन भी नहीं करें, दिन का शयन त्याग दें। वसा, तैल, क्षार, दही का सेवन नहीं करना चाहिए। इस ऋतु में फूलों की मात्रा, स्वच्छ वस्त्र, चन्द्रमा की किरणों का सेवन उत्तम हैं।
उपरोक्त ऋतुचर्या अत्यंत प्राचीन है, आयुर्वेदीय शास्त्रों में विस्तृत रूप से वर्णित है, उत्तम स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रत्येक व्यक्ति को चााहिए कि ऋतु में बनायें गये नियमों का पालन करें। एक ऋतु के समाप्ति काल तथा दूसरी ऋतु के प्रारंभ काल में सहसा नियमों का त्याग करने से असात्म्यज रोग उत्पन्न हो सकते है। अत: मनुष्यों को चाहिए कि एक ऋतु के अन्तिम सात दिनों में क्रमश: उस ऋतु के नियमों का त्याग करते हुए अग्रिम ऋतु के प्रारंभ के सात दिनों तक पूर्णतया त्याग कर देना चाहिए तथा अग्रिम ऋतु के सेवनीय आहार-विहार को इन चौदह दिनों में क्रमश: शनै:-शनै: सेवन करना चाहिए।
इस प्रकार विधिपूर्वक नियमों का पालन प्रत्येक ऋतु में करते हुए आरोग्य प्राप्ति का लाभ उठायें।

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