गुरुकुलीय शिक्षा का विराट् स्वरूप

गुरुकुलीय शिक्षा का विराट् स्वरूप

साध्वी देवप्रिया

कुलानुशासिका एवं संकायाध्यक्षा,

                                                        पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार, उत्तराखंड, भारत

 

स्व-केन्द्रित विकास की अंधी मानसिकता से मानवता के सभी आदर्श तार-तार होते जा रहे हैं। नीतिगत निर्णय लेने से पूर्व हमें प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति व उनके द्वारा प्रतिस्थापित मानवीय मूल्यों के प्रति गंभीरता से पुनरावलोकन करने की बहुत आवश्यकता है। इसके लिए आधुनिक शिक्षा केंद्र्रों में ऐसे आचार्यों के नियोजन की नितान्त आवश्यकता है जो अपनी प्रज्ञा का उपयोग करते हुए शिष्यों के अन्दर बुद्धिमत्ता, भावनात्मकता, सच्चरित्रता तथा पुरुषार्थ के उदात्त गुणों के साथ-साथ आध्यात्मिकता के पवित्र बोध को अंकुरित कर उसके सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त कर सके।

7. Sustainable & Enjoyable Education (With Life Skill)

     (संतोषकीय, जीवन की कुशलता एवं आनन्द से युक्त शिक्षा) -
 आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने यह भी महसूस किया है कि शिक्षा, जीवन की मौलिक कुशलताओं से युक्त होनी चाहिए जैसे भ्रातृत्व, सह-अस्तित्व, अहिंसक, स्वतन्त्रता से युक्त, आनंद से युक्त सामुहिक प्रज्ञा से युक्त इत्यादि। प्राचीनकाल में गुरुकुल में गुरु के सान्निध्य में रहते हुए अनेक ब्रह्मचारियों के साथ बालक रहता था। उनमें सब एक-दूसरे के सुख-दु:ख, सेवा, सुश्रुषा आदि का परस्पर ध्यान रखते थे। जो पाठ गुरु पढ़ाते थे, सब उनको एक साथ मिलकर दोहराते थे, इससे सामुहिक प्रज्ञा, भ्रातृत्व, सहअस्तित्व आदि गुणों का सहज ही विकास होता था।
तं शिष्यगुरुसब्रह्मचारिविशिष्टश्रेयोर्थिभिरनसूयुभिरभ्युपेयात् ।। [52]
गुरुकुलीयशिक्षा में छात्र एक समय भिक्षा का अन्न मांगकर खाते हैं इससे भ्रातृत्व एवं सह-अस्तित्व की भावना का विकास होता है। गुरुकुल में आचार्य अपने शिष्य को अहिंसा का उपदेश देते हुए कितने सुन्दर ढंग से सिखाते हैं-
ओऽम् मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्। वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधुसंदृश: ।। [53]
मेरी संसार में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही माधुर्य से पूर्ण हों। वाणी से मधुर ही बोलूं और इस प्रकार इस मधुरता के रहस्य को जानकर, मधुरूप ईश्वर के सदृश बन जाऊँ। शिक्षा के इससे ऊँचा आदर्श और क्या हो सकता है?

8. Solution Based Education.

      (समाधानपरक शिक्षा) -
 नई शिक्षा नीति में ये माना जा रहा है कि शिक्षा जीवन की समस्याओं के समाधन को लाने वाली होनी चाहिये, क्योंकि आज तक के अनुभव से यह देखा जा रहा कि आज का शिक्षित युवा मात्र एक सर्टिफिकेट लेकर इधर-उधर नौकरी की तलाश में ढेर सारी समस्याएं लेकर घूम रहा है और कभी-कभी ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित होने के बावजूद भी आत्महत्या करते हुए दिखाई देता है यह सब संस्कारविहीन शिक्षा का ही फल है। यह शिक्षा का सच्चा स्वरूप नहीं हो सकता है। गुरुकुलीय शिक्षा के एक उदाहरण से आप जान पायेंगे कि वह शिक्षा अपने आप में कितनी पूर्ण थी। छान्दोग्योपनिषद् में गुरुजी अपने शिष्य आरुणि से खेत में पानी को रोकने के लिए मेड बनाने का आदेश देते हैं, जब पानी का प्रवाह नहीं रुक पाता है तो आरुणि गुरु जी को कोई विवशता न बताकर स्वयं अपने शरीर को जल प्रवाह के सामने लिटाकर जल प्रवाह को रोक देते हैं। इसी प्रकार रामायण में श्रीराम, लक्ष्मण, भरत, हनुमान्, माता सीता, अंजना, महर्षि दयानन्दादि महापुरुष प्रत्येक समस्या का समाधान खोजने वाले दिखाई देते हैं क्योंकि इनकी शिक्षा-दीक्षा गुरुकुलों में हुई थी, आधुनिक युग में परम पूज्य गुरुदेव श्रद्धेय स्वामी रामदेव जी महाराज एवं श्रद्धेय आचार्य बालकृष्ण जी महाराज ने शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक समस्याओं का समाधन योग, आयुर्वेद एवं स्वदेशी से निकालकर भारत ही नहीं पूरे विश्व को एक नूतन तरीके से जीने की कला सिखायी हैं। जो गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति एक प्रखर प्रमाण हमारे समक्ष है।

9. Self-Reliant Education.

      (आत्मनिर्भर शिक्षा)
  आज चीन, ऑस्ट्रेलिया, जापान आदि बड़े-बड़े देश इसी प्रकार की शिक्षानीति का आलम्बन लेने के कारण अधिकतर विषयों में आत्मनिर्भर हैं, लेकिन लगता है यह गुण उन्होंने कहीं न कहीं भारतीय शिक्षा पद्धति से ग्रहण किया है। प्राचीन गुरुकुलों में प्रात:काल से सायं पर्यन्त दी जाने वाली शिक्षा आत्मनिर्भर बनाने वाली शिक्षा होती थी।
प्रतिदिनं रात्रो: पश्चिमे यामे चोत्त्थायावश्यकं कृत्वा
दन्तधवनस्नानसन्ध्योपासनेश्व- रस्तुतिप्रार्थनोपासनायोगाभ्यासान्नित्यमाचर।। [54]
सुशीलो मितभाषी सभ्यो भव।। [55]
मेखलादण्डधरणभैक्ष्यचर्यसमिदाधनोदकस्पर्शनाचार्यप्रियाचरणप्रात:सायमभिवादनविद्या-संचयजितेन्द्रियत्वादीन्येते ते नित्यधर्मा:।। [56]
सभी विद्यार्थी ब्रह्ममुहूत्र्त में उठकर अपनी दिनचर्या के पश्चात् अपनी-अपनी रुचि एवं योग्यतानुसार अनेक प्रकार की विद्याओं में कुशलता प्राप्त करके, समावर्तन संस्कार के पश्चात् जीवन में आत्मनिर्भर बनकर शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक, सांस्कृतिक एवं भौतिक समृद्धि से युक्त होकर लोक जीवन में सर्वसमावेशी एवं विश्वबन्धुत्व से युक्त भावना का समारोपण करते थे।

उपसंहार

    प्राचीन युग की अपेक्षा आधुनिक काल में शिक्षा के प्रचार और प्रसार में तकनीकी रूप से काफी बढ़ोतरी हो गयी है। शिक्षकों, छात्रों एवं शिक्षा केन्द्रों की संख्या में भी इसी अनुरूप काफी उछाल भी आया है। किन्तु इस समयानुकूल वृद्धि के साथ-साथ आज के अर्थ युग में शिक्षा के मायने भी काफी बदल चुके हैं। आन्तरिक बोध् के अभाव में हो रहे बौद्धिक संवद्र्धन की यह पाश्चात्य प्रक्रिया मानव को एक विचारहीन तथा संवेदनहीन तथा दिशाहीन यांत्रिक प्राणी के रूप में ही परिवर्तित करती जा रही है। स्व-केन्द्रित विकास की अंधी मानसिकता से मानवता के सभी आदर्श तार-तार होते जा रहे हैं। नीतिगत निर्णय लेने से पूर्व हमें प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति व उनके द्वारा प्रतिस्थापित मानवीय मूल्यों के प्रति गंभीरता से पुनरावलोकन करने की बहुत आवश्यकता है। इसके लिए आधुनिक शिक्षा केंद्र्रों में ऐसे आचार्यों के नियोजन की नितान्त आवश्यकता है जो अपनी प्रज्ञा का उपयोग करते हुए शिष्यों के अन्दर बुद्धिमत्ता, भावनात्मकता, सच्चरित्रता तथा पुरुषार्थ के उदात्त गुणों के साथ-साथ आध्यात्मिकता के पवित्र बोध को अंकुरित कर उसके सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त कर सके। भारतीय शिक्षा का मूल आधार विषयगत दक्षता के साथ-साथ मानव निर्माण (मनुर्भव) का भी रहा है। विद्वान् उसे ही माना गया जो मातृवत् परदारेषु परद्रव्याणि लोष्वत्। आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स: पण्डित:। [57] हितोपदेश, मित्रालाभ शिक्षा की इन भारतीय अवधरणाओं को पुन:स्थापित करने का दायित्व हमारे कंधे पर ही है। अत: शिक्षा व शिक्षण पद्धतियों को राष्ट्रानुकूल तथा सांस्कृतिक भाव-भूमि में पनपे परिवेशानुकूल आधार पर व्यवस्थित करने के लिए भारतीय ज्ञान परंपरा के मर्मज्ञ अध्येताओं के सहयोग से एक उद्देश्यपूर्ण शिक्षा नीति व तद्नुरूप पाठ्यक्रमों के पुनर्संयोजन का कटिबद्ध प्रयास करना होगा और तभी जाकर आत्मनिर्भरता के बोध् वाले इस वेद मंत्रा का संकल्प पूर्ण करने में यह राष्ट्र समर्थ हो सकेगा-
उद्यानं ते पुरुष नावयानं जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि।। [58]
हे नर, देख जीवन में सदा तेरी उन्नति ही होनी चाहिए, अधोगति नहीं, पतन नहीं, तेरे अन्दर मैं जीवन बल फूँकता हूँ। यह मनुष्य के लिए भगवान् का आदेश है। अर्थात् वास्तव में विद्या वही है जो हमें समस्त बन्धनों से विमुक्त कर सके। अत: आज पुन: उसी गुरुकुलीय शिक्षा व्यवस्था को अपनाने की नितान्त आवश्यकता है।

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