विश्व व्यापी जल संकट के समाधान का मार्ग क्या है?
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प्रो. कुसुमलता केडिया
विश्वव्यापी जल संकट की समस्या के स्वरूप को समझना आवश्यक है। पहली बात यह है कि यह जो हर समस्या का विश्व व्यापी स्वरूप प्रस्तुत करने की अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की भूमिका है, उसकी प्रकृति क्या है? सभी महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें द्वितीय महायुद्ध के बाद बनाई गई हैं और उनमें विजेता पक्ष अर्थात् संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस और उनके मित्रों की मुख्य भूमिका है। इनका उद्देश्य विश्व पर अपना नियंत्रण रखना है। इस नियंत्रण की विधि यह निकाली गई है कि संपूर्ण विश्व के हित और कल्याण की चिंता जताई जाये तथा इस बहाने विश्व के सभी प्रकार के संसाधनों को अपने संज्ञान और अपने नियंत्रण में रखा जाये। इससे संसाधनों को अपने अनुकूल नियोजित और समायोजित करना संभव होता है और विश्वभर की राष्ट्रीय सरकारों पर भी बड़ी सीमा तक प्रभाव डालना और नीतिगत नियंत्रण करना संभव होता है। दावा विश्व कल्याण का करने से अन्य पक्ष पहले ही बांध दिये जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के नेटवर्क के कारण सब जगह उनके अपने लोग विद्यमान हैं जो राष्ट्रीय सरकारों पर अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के पक्ष में दबाव डालते हैं, जो कि अन्तत: अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि के पक्ष में डाला गया दबाव ही होता है। यह तथ्य जानना चाहिये।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने अनुमान किया है कि विश्वभर में 14 खरब क्यूबिक घन फुट पानी धरती पर उपलब्ध है। इनमें से केवल 72वां भाग ही पीने योग्य और मनुष्यों के उपयोग योग्य पानी है। शेष पानी अन्धाधुंध औद्योगीकरण के कारण दूषित हो चुका है और साथ ही खारा तथा अनुपयुक्त है। तब भी जितना भी जल उपलब्ध है वह 90 अरब आबादी के लिये पर्याप्त है। जबकि कुल जनसंख्या अभी 9 अरब भी नहीं हुई है। अर्थात् अभी से 10 गुनी अधिक जनसंख्या हो जाये तो भी पीने और आवश्यक उपयोग के लिये पर्याप्त पानी धरती पर उपलब्ध है। परंतु यह पानी सब जगह एक सा नहीं है। भौगोलिक सरंचना और अलग-अलग इलाकों की अलग-अलग अवस्थिति के कारण कहीं जल अधिक है, कहीं कम और कहीं अत्यधिक कम। संसार के कुछ भागों में पेयजल का भयंकर अभाव है।
लाखों-करोड़ों वर्षों से अन्य जीवों के साथ मनुष्य भी नदियों, झरनों, झीलों आदि के जल से भरपूर तृप्ति प्राप्त करता रहा है। कुएं, तालाब, बावडिय़ां आदि भी अनंत काल से खोदे और बनाये जाते रहे हैं। विशाल हिमखंडों के पिघलने से और भूमिगत जल को बाहर निकालने के उपायों तथा प्रबंधन से भी सदा से जल प्राप्त किया जाता रहा है। परंतु मानवीय इतिहास में जिन समाजों को कृषि तथा फसलों का सबसे अधिक ज्ञान था या वनस्पतियों और औषधियों का प्रचुर ज्ञान था, उनके ज्ञान को अविकसित घोषित कर यूरोप के लोगों ने जो कुछ उनसे सीखा, उसमें अतिशय लोभ-लालच और जन्मों के भूखे तथा अभावग्रस्त अपने मानस की तरंगों और लिप्साओं से प्रभावित होकर हर वस्तु के उपभोग की सभी मर्यादायें तोड़ दीं और साथ ही अपनी ऊट-पटांग विधियों को ही वैज्ञानिक बताकर खेती और फसल के अजीब-अजीब तरीके निकाले तथा उनके लिये हर जगह एक सी सिंचाई व्यवस्था के विमूढ़ आग्रह के कारण भूमिगत जल का अंधाधुंध शोषण हुआ। इसके साथ ही अधिक और अमानवीय सीमा तक उत्पादन की लिप्सा ने भांति-भांति के रासायनिक उर्वरकों के द्वारा फसलों और खेती में मनमाने प्रयोग किये, जिससे भूमिगत जल बहुत बड़ी मात्रा में निकाला गया और साथ ही प्रदूषित भी किया गया। इससे भारत जैसे भरपूर जल संपदा वाले राष्ट्रों में भी जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई और जिस देश में प्यासों को पानी पिलाना पुण्य और धर्म माना जाता था, वहाँ पानी बेचे जाने की स्थिति आ गई। यह जल संकट का एक विशेष प्रकार है।
पर्यावरण के साथ मनमानी छेड़छाड़, जंगलों और पेड़ों की अंधाधुंध कटाई आदि के कारण भी भूमिगत जल तथा वर्षा- दोनों की स्थिति पर बहुत प्रभाव पड़ा। परिणाम यह है कि अनेक जगह पीने के पानी या नहाने तथा शौचाचार और फसलों की सिंचाई के लिये भी जल का गंभीर संकट उपलब्ध हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के ही अनुमान के अनुसार 2040 ईस्वीं तक लगभग 4 अरब 50 करोड़ लोग जल संकट का सामना कर रहे होंगे। दूसरी ओर जनसंख्या की वृद्धि के कारण अनाजों की मांग और खपत भी कई गुनी बढ़ती चली जा रही है तथा सिंचाई के लिये भी और अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती जा रही है। साथ ही, औद्योगिकीकरण के कारण जल प्रदूषण इतने भयंकर स्तर पर हुआ है कि उपलब्ध जल का बहुत बड़ा हिस्सा न केवल पीने योग्य नहीं बचा है अपितु अन्य मानवीय कार्यों के लिये भी हानिकर हो गया है। औद्योगिक रासायनिक प्रदूषण से कई जगह प्रदूषित जल प्रवाह के कारण उनमें पानी पीने के लिये प्रवेश करने वाले जानवरों के पैर गल जाते हैं या घायल हो जाते हैं और मुँह में भी कष्ट हो जाता है। पिया गया ऐसा पानी अनेक बीमारियों का भी कारण बनता ही है। शहरों में जल प्रबंधन और मल प्रबंधन को ऐसा पास-पास जोडक़र बनाया गया हैं कि जल प्रवाह में मल प्रवाह का मिल जाना एक सामान्य बात हो गई है और भूमिगत जल भी प्रदूषित हो गया है। इसीलिये शुद्ध पानी शहरों में एक दुर्लभ वस्तु बन गई है।
भूमिगत जल के अत्याधिक दोहन और उपयोग के कारण वस्तुत: फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। मूर्खतापूर्ण कथित वैज्ञानिक खेती के कारण प्रारंभ में फसलें अस्वाभाविक रूप से उपजाई गई और परिणाम यह है कि अब उनमें से हर जगह उनका उत्पादन गिर रहा है। अतिशय सिंचाई से कई जगह खेत बंजर और ऊसर बन रहे हैं तो कई जगह दलदली इलाके बन रहे हैं। पानी की कमी से आपसी झगड़े बहुत बढ़ गये हैं और अनेक जगह उसे लेकर युद्ध की स्थितियां भी बन रही हैं। इसके साथ ही सम्पूर्ण पर्यावरण, जैव विविधता और इको सिस्टम को भी भीषण हानि पहुंची है। सुरक्षित पेयजल तो दुर्लभ वस्तु ही बन गया है। उधर मध्य, पूर्व और उत्तरी अफ्रीका जैसे इलाकों में बारम्बार भुखमरी की स्थितियां आ रही हैं। अपनी शक्ति के बल पर यूरोप के लोग दुनियांभर से अनाज और फल आयातित कर रहे हैं अन्यथा वहां तो भुखमरी स्थाई हो जाये। जैसा कि 18वीं शताब्दी ईस्वी तक महामारियों, अकाल, भुखमरी और कंगाली से पीडि़त अधिकांश यूरोप रहा हैं। परंतु यूरोप अब अपनी समस्याओं की बात नहीं करता। दुनियां का कल्याण करने के दावों और घोषणाओं के आवरण में अपना कल्याण वह बिना शोरगुल के सुनिश्चित कर लेता है।
जलवायु परिवर्तन और जल संकट
वस्तुत: विकास के नाम पर जिस तरह अविवेक पूर्ण कार्य किये गये और लाखों वर्षों से संचित खनिज सम्पदाओं, पेट्रोलियम, वन-सम्पदा आदि का 150 वर्षों के भीतर अस्वाभाविक भक्षण और दोहन किया गया, उससे संसार भर में गंभीर पर्यावरण संकट आया और जलवायु परिवर्तन की समस्या भी आयी। जलवायु परिवर्तन ने भी जल संकट को गहरा किया है क्योंकि पृथ्वी का जल वैज्ञानिक चक्र जलवायु परिवर्तन से अत्यधिक प्रभावित हुआ है और पृथ्वी पर तापमान में भी असामान्य परिवर्तन आये हैं। तापमान की वृद्धि से वाष्पीकरण और अवक्षेपण की गति तीव्र हुई और अनेक क्षेत्रों में जलसंकट बढ़ा। सूखा और बाढ़ का आवर्तन बढ़ गया। हिमपात की गति में भी बड़े परिवर्तन आये और अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में असामान्य रूप से बर्फ पिघलती देखी गई है। इसके साथ ही तापमान में वृद्धि से जल की गुणवत्ता पर भी प्रभाव पड़ा है, ऐसा वैज्ञानिकों का कहना है। उधर वैज्ञानिक खेती के नाम पर सब जगह एक से उपाय सिंचाई और रासायनिक खादों के लिये अपनाये जाने से अनेक विकृतियां आई हैं। बिना विचारे बड़े-बड़े बांध बनाये जाने से अनेक महत्वपूर्ण नदियों के स्वाभाविक जल प्रवाह बाधित हुयें हैं। ग्रीन हाउस गैसों का असंतुलन एक अन्य बड़ी समस्या है। विकास के नाम पर लाखों वर्षों से संचित पर्यावरणीय पूंजी 150-200 वर्षों में खा ली गई यानी फूंक दी गई। इससे अभूतपूर्व वैश्विक संकट खड़ा हुआ है, जल संकट उसका ही एक अंग है।
पृथ्वी में कुल जितना पानी उपलब्ध है, उसका 50वां हिस्सा हिमखंडों के रूप में सुरक्षित है और गर्मी से उनके क्रमश: पिघलने से जल प्राप्त होता है। गंगा जी, यमुना जी और पंजाब की ओर जाने वाली पांचों प्रसिद्ध नदियों पर जल के लिये निर्भर जन-गण की संख्या 100 करोड़ से अधिक आंकी गई है, जो भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में रहते हैं। हिमखंडों के अधिक पिघलने से गर्मी में अधिक जल प्रवाह बह जाता है और शीत, शरद तथा हेमन्त एवं बसन्त ऋतुओं में जल प्रवाह बहुत कम हो जाता है। जिससे उन ऋतुओं में बड़ा जल संकट उत्पन्न हो जाता है। इसके साथ ही शासकों और प्रशासकों ने अंधाधुंध शहरीकरण को बढ़ावा दिया और शहरों में बेतरतीब आबादी बढ़ती चली गई है। इसके कारण शहरों में पीने के पानी का भारी अभाव हो गया है।
उपचार और उपाय
विश्व के प्रबुद्ध क्षेत्रों में यह मांग बल पकड़ रही है कि पृथ्वी में 3 करोड़ जीव प्रजातियां हैं जिन सबको इस भूमंडल पर जीवित रहने का समान अधिकार प्राप्त है। स्वयं मानव जीवन इन सभी जीव प्रजातियों पर बड़ी सीमा तक निर्भर है। साथ ही यह भी वैज्ञानिकों ने माना है कि चट्टानों, लैण्ड स्केपों, इको-सिस्टम्स आदि के बिना मनुष्य का सहज जीवन सम्भव ही नहीं है। इसीलिए प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग और अति उपयोग बन्द किया जाना चाहिए। प्रकृति के साथ अधिक प्रयोजनपूर्ण सम्बन्ध विकसित किया जाना चाहिए और पृथ्वी को अधिक सुरक्षित तथा उत्पादक बनाने के लिए इस प्रयोजनपूर्ण सम्बन्ध को वैधानिक गारण्टी के किसी उपाय के जरिए औपचारिक रूप दिया जाना चाहिए।
ऐसी जीवनशैली विकसित करनी आवश्यक है जो नवीनीकृत होते रहने वाले संसाधनों पर आधारित हो| अर्थात 'सॉफ्ट टेक्नोलॉजी' पर आधारित हो| अभी जो जीवनशैली विकास के नाम पर बढाई गयी है वह यांत्रिक एवं अविवेकपूर्ण है| |
इसके साथ ही ऐसी जीवनशैली विकसित करनी आवश्यक है जो नवीनीकृत होते रहने वाले संसाधनों पर आधारित हो। अर्थात् ‘सॉफ्ट टेक्नोलॉजी’ पर आधारित हो। अभी जो जीवनशैली विकास के नाम पर बढ़ाई गई है वह यांत्रिक एवं अविवेकपूर्ण है। जिसमें उपभोग की आवेगपूर्ण ललक को बढ़ाया गया है। जिसका अर्थ है कि विवेक के स्थान पर देह और मन के आवेगों को जीवन का बड़ा पुरूषार्थ प्रचारित कर दिया गया है। अब स्वयं वैज्ञानिक इसे बदलने की आवश्यकता पर बल दे रहे हैं। विश्वभर में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को मान्यता देना संयम प्रधान जीवनशैली के प्रति अन्तर्राष्ट्रीय प्रबुद्ध जनमत का ही परिणाम है। इसीलिये वैज्ञानिक इस बात पर बल दे रहे हैं कि एक समग्र विकास दृष्टि अपनाई जाये। अब तक चली आ रही विकास दृष्टि रूग्ण और विकृत है तथा वह समाज में मनोरोगों को और विषमता को बढ़ाने वाली है। पानी के संबंध में भी संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘अन्तर्राष्ट्रीय रिसोर्स पैनल’ ने यह कहा है कि विश्वभर में सरकारें विशाल बांधों, बड़ी नहरों, लंबी-लंबी पाईप लाइनों और रिजर्वायर के जरिये जल समस्या का जो समाधान अपनाती रही हैं, वह बड़ी सीमा तक अपर्याप्त समाधान है। पर्यावरण की चिंता और आर्थिक समृद्धि की चिंता के नाम पर जो कुछ किया गया, वह दोनों को हानि पहुंचाने वाला रहा है। इसलिये अब समग्र जल प्रबंधन योजनाओं की आवश्यकता है जो जलस्रोतों से लेकर जल वितरण, उनके संयमित उपयोग, नियमित उपचार, जल चक्र को अबाधित रखना और प्रयुक्त जल के पुन: प्रयोग तथा पर्यावरण से लिये गये जल को पर्यावरण में पुन: लौटाने की विधियों का विचार करके बनाई जानी चाहिए।
वस्तुत: संसार भर में जल आज भी भरपूर है। परंतु एक तो कतिपय इलाकों में उसकी अधिकता है और अन्यत्र कमी है और दूसरे बड़े बांध तथा जलाशय और पाईप लाइनें बिना क्षेत्रीय तथा स्थानीय स्थितियों का विचार किये मूढ़तापूर्वक बना दिये गये हैं। इसे किसी भी प्रकार ढांचागत विचारपूर्ण योजना नहीं कहा जा सकता। पानी की मांग अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग मात्रा में तथा अलग-अलग रूपों में है। इसलिये उन सबका विचार करके जलनीति बनाने की आवश्यकता है। टिकाऊ विकास और टिकाऊ जीवनशैली का ध्यान रखते हुये नई जलनीति और पानी के खर्च की उपयुक्त शैली और प्रविधि अपनाये जाने पर अभी पानी का जो अविवेकपूर्ण खर्च है, वह रूकेगा। यही जलसंकट का समाधान है।
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