भारतवर्ष के जन का सबसे पुराना नाम हिंदू ही है। वेदों में 'सिंधव:' शब्द देशवाचक अर्थ में प्रयुक्त है। निरुक्त के अनुसार सकार का हकार हो जाता है। सरस्वती को हरहवती भी कहा जाता है।
अत: 'सिंधव:' को ही 'हिंदव:' भी कहेंगे अर्थात् हिंदु जन। हिन्दु का बहुवचन है हिन्दव:। यह वैदिक शब्द है। पारसीक, चीन, जापान, मिश्र और यवन में भी हमे इंदु या हिंदु ही कहते थे। आर्य भारत के सब लोगों को नहीं कह सकते। सब हिंदुओं को भी आर्य नहीं कह सकते, क्योंकि आर्य ना ही जाति समूह सूचक है और ना ही स्थान सूचक। वह गुण सूचक शब्द है। एक ही घर, एक ही परिवार में एक व्यक्ति आर्य हो सकता है, दूसरा अनार्य। हमारे पूर्वजों का संकल्प था और प्रेरणा थी कि सभी आर्य बनें। जिसका अर्थ है सभी श्रेष्ठ संस्कारों से सम्पन्न, शील और सदाचार से सम्पन्न तथा वैदिक धर्म में निष्ठा रखने वाले बनें। अपने गुण और आचरण से ही कोई आर्य होता है। पूरा का पूरा कुल या पूरा समूह, समुदाय आर्य नहीं होता। होना चाहिए पर होता नहीं।
बेचारे जर्मन ईसाई, राजनीतिक प्रोपेगेंडा के चक्कर में अपने को आर्य कह बैठे और अनार्य आचरण में डूब गए। फिर बाकी लफंगों ने और कमाल ही कर दिया। उन्होंने आर्य नाम की कोई भाषा और भाषा परिवार और जाति की कल्पना कर डाली। संसार के सबसे विचित्र कार्टून ऐसे ही लोग होते हैं जो ख्रीस्त पथ जैसे मनोरंजक मतवादों से मद ग्रस्त होकर कुछ भी करने लगते हैं। विकसित होने पर संयत और संतुलित होने पर यूरोप के लोगों ने आर्य वाली कल्पना तज दी। क्योंकि उसका कोई आधार नहीं है, परंतु तब तक हमारे कुछ लोगों को आर्य आक्रमण सिद्धांत इतना रट गया था कि वे विवेकविहीन ढंग से आर्यों को एक नस्ल बताने लगे और यह विवाद करने लगे कि आर्य यहीं के हैं या बाहर से आये?
संस्कृत में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ। अत: व्यक्ति और समूह आर्य केवल सदाचार से हो सकेंगे। नस्ल या जाति से उसका कोई संबंध नहीं।
हिन्दव: यानी सिन्धव: शब्द का प्रयोग वेदों में अधिकांश स्थलों पर देशवाचक है। ऋग्वेद के अष्टम मंडल के 24वें सूक्त का 27वां मंत्र है -
य ऋक्षादंहसो मुचद्यो वार्यात् सप्त सिन्धुषु।
वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनम:।।
अर्थात् हे इन्द्र, आप हमें ऋक्ष (भालू) जैसे विकट मानसिक पापों से मुक्त करते हैं। इसी कारण हम इस आर्यभूमि सप्त सिन्धु देश में सुख-सौभाग्य से सम्पन्न हैं। आप दुष्ट उपद्रवकारी, अनार्य आचरण वाले लोगों के वध के लिए वज्र प्रहार करें।
ऋग्वेद में पांच अन्य स्थलों पर भी सप्त सिंधु आया है। इसी प्रकार अथर्ववेद में चतुर्थ काण्ड के द्वितीय अनुवाक् (छठे सूक्त) का दूसरा मंत्र है -
यावती द्यावा पृथिवी वरिम्णा
यावत सप्त सिंधवो वितष्ठिरे।
वाचं विषस्य दूषणीं,
तामितो निरवादिषम।।
अर्थात् इस सप्त सिंधु देश के सम्पूर्ण विस्तार में तथा समस्त पृथ्वी और द्यौ लोक में विषाक्त वाणी का अभाव हो। विष से रहित वाणी हो। विषाक्त वाणी को सर्वत्र दूर ही रखा जाय। इस प्रकार इस समस्त राष्ट्र को सप्त सिंधु कहा गया है।
संस्कृत का 'स' प्राकृत में 'ह' हो जाता है। हिन्दु शब्द सिन्धु का ही प्राकृत रूप है। वेद में निरूक्त के नियमानुसार सकार हकार रूप में भी उच्चरित होता है। अत: 'सिन्धव:' को 'हिन्धव:' तथा 'हिन्दव:' भी उच्चारित करेंगे। यह निरूक्त का नियम है। इस प्रकार हिन्दू शब्द वैदिक है और वह सिंधु का ही उच्चरित रूप है।
पारसीक भाषा में तो सिंधु को हिन्दु ही कहते हैं। सप्तसिंधु के लिये वहाँ हप्तहिन्दु कहा जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भविष्य पुराण में भी प्रतिसर्ग पर्व के अध्याय 5 में 'हप्तहिन्दु' शब्द का उल्लेख हुआ है।
यूनानी भाषा में भी 'ह' का लोप हो जाता है और 'स' के लिये वहाँ भी 'ह' का प्रयोग होता है। इस प्रकार प्राचीन वृहद भारत के विशाल क्षेत्र में 'सकार' का 'हकार' बोलने और लिखने की प्राचीन परंपरा है, इसीलिये निरूक्त में उसका उल्लेख किया गया है। इस प्रकार 'हिन्दू' शब्द वैदिक है और परम पवित्र है। मूल शब्द में ही सभी शब्दों का इतिहास और संस्कृति रहती है। इसलिये हिन्दू शब्द का भारत की समस्त संस्कृति से अभिन्न सम्बन्ध है।
वेद धर्म का मूल हैं। उनमें धर्म का ही मूल प्रतिपादन है। अपने देश और समाज को भारतवासी किस नाम से पुकारें? किस से नहीं, इसका कोई निर्देश वेद में नहीं है।
इसकी जगह प्रत्येक व्यक्ति में चिन्मय सत्ता का अंश वेद बताते हैं। अत: व्यक्ति और समाज मूल भाव के अनुरूप यथोचित शब्द प्रयोग के अधिकारी हैं। इसलिए वेदों में जिन्हें हिन्दू शब्द सीधे नहीं समझ में आये तो भी उन्हें यह जानना चाहिये कि ऐसी स्थिति में भी हिन्दू शब्द के प्रयोग में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि वेदों में तो वैदिक संस्कृत भाषा का ही प्रयोग है। वर्तमान में तो भारत के निवासियों द्वारा वैदिक संस्कृत के अतिरिक्त अन्य भाषाएं व्यवहार में हैं। संस्कृत से निकली प्राकृत, अपभ्रंश तथा वर्तमान भारत की समस्त भाषाएं इन दिनों स्वाभाविक प्रयोग में आती हैं। अत: 'सप्तसिन्धव:' और 'सिन्धव' वैदिक शब्द के स्थान पर 'हिन्दु' शब्द का प्रयोग स्वाभाविक है।
मूल तथ्य यह है कि स्वयं वैदिक नियमों के अनुसार 'सिन्धव:' ही 'हिन्दव:' है जो हिन्दू का बहुवचन है। अत: 'हिन्दू जन' यह वैदिक पद ही माना जाएगा। परन्तु राष्ट्रीय समाज जिस प्रकार वैदिक संस्कृत के स्थान पर उससे निकली विविध भाषाएं बोलते हैं, उसी प्रकार अपने समाज के लिए वर्तमान में प्रचलित 'हिन्दू' शब्द बोलते हैं, यह भी पर्याप्त आधार है।
इस सन्दर्भ में एक बात और है जो नितांत भिन्न प्रकार की है। वह यह कि संसार के अनेक प्रमुख समाज अपने लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, जो उनके मूल पवित्र ग्रंथों में नहीं हैं। जैसे, इस्लाम मजहब का सर्वमान्य दैवी ग्रन्थ कुरान शरीफ़ है। कुरान शरीफ़ में कहीं भी यह नहीं कहा है कि अल्लाह ने आखिरी पैगम्बर साहब के जरिए 'इस्लाम' नामक मजहब का पैगाम भेजा। वहाँ केवल मजहब के पैगाम दिए गए हैं। उसका अलग से नाम नहीं गिनाया गया है। फिर भी कुरान शरीफ़ एवं सर्वशक्तिमान अल्लाह और आखिरी पैगम्बर साहब पर ईमान लाने वाले लोग अपने मजहब को इस्लाम कहते हैं। उन पर कोई यह प्रश्न नहीं खड़ा करता कि आपकी पाक किताब में तो मजहब को इस्लाम नाम नहीं दिया गया है, तब आप लोग अपने मजहब को इस्लाम और स्वयं को मुसलमान क्यों कहते हैं? अभी 75 वर्ष पहले तक यूरोप के लोग इस्लाम को मुहम्मदनिज्म कहते थे, परंतु अब क्योंकि मजहब को मानने वाले लोग अपने मजहब को इस्लाम कहते हैं तो यूरोपीय लोगों ने भी उनके मजहब को इस्लाम कहना शुरू कर दिया है।
इसी तरह उस मजहब को मानने वाले, उस पर ईमान लाने वाले, आज्ञाकारी लोगों के लिए 'मोमिन' शब्द कुरान में है। उन्हें मुस्लिम या मुसलमान कहा जाए, ऐसा कोई पैगाम अल्लाह ने आखिरी पैगम्बर के जरिए नहीं भेजा। फिर भी वे स्वयं को मुस्लिम या मुसलमान कहते हैं। उस समाज का मुस्लिम नाम स्वाभाविक या सर्वमान्य है। अत: इसी प्रकार स्वयं को हिन्दू कहने वाले समाज का नाम हिन्दू है। यह भी स्वाभाविक एवं सर्वमान्य है।
इसी प्रकार, ईसाई लोगों (क्रिश्चियन्स) की पवित्र पुस्तक न्यू टेस्टामेंट (बाइबिल) में यह कहीं भी नहीं कहा है कि उन पर 'फ़ेथ' लाने वाले लोग 'क्रिश्चियन' या ईसाई कहे जाएंगे। फिर भी वे सभी लोग जो जीसस में 'फ़ेथ' लाते हैं, स्वयं को क्रिश्चियन या ईसाई कहते हैं। यही स्वाभाविक एवं सर्वमान है।
अत: इसी प्रकार हिन्दुओं द्वारा स्वयं को हिन्दू कहना स्वाभाविक एवं सर्वमान्य है।
वेद के पश्चात के अन्य प्राचीन सन्दर्भ
ऋग्वेद का आगम कहा जाता है बृहस्पति आगम को। 'आगम' का अर्थ है व्यवहार-परम्परा। जो निगम यानी श्रुति-परम्परा की पूरक है। बृहस्पति-आगम को ऋग्वेद का आगम माना जाता है। बृहस्पति-आगम का परम्परा से प्रसिद्ध श्लोक है -
हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं 'हिन्दुस्थानं' प्रचक्षते।।
अर्थात् हिमालय से प्रारम्भ कर इन्दु सरोवर तक विस्तृत स्वाभाविक (दैवकृत) देश को हिन्दुस्थान कहा जाता है। हिमालय के प्रथम अक्षर 'हि' से आरम्भ करके इन्दु सरोवर के अंतिम शब्द 'न्दु' की समाप्ति पर्यन्त विस्तृत देवनिर्मित देश को 'हिन्दुस्थान' कहा जाता है।
इसी प्रकार 'मेरू तंत्र' नामक प्राचीन शास्त्र का कथन है - जिसमें 33वें प्रकरण में भगवान शिव जगदम्बा पार्वती से कहते हैं -
हिंदूधार्मप्रलोप्तारो जायन्ते चक्रवर्तिन:।
हीनं च दूषयत्वेव स हिन्दु: उच्यते प्रिये।।
अर्थात् हे प्रिये! भविष्य में हिन्दू धर्म का विलोप करने अर्थात् उसे राजधर्म के रूप में संरक्षण नहीं देने वाले सम्राट भी होंगे। जो हीन विचारों, हीन भावों और हीन आचार को दूषित मानकर उन्हें त्याज्य मानता है, वह हिन्दू है।
'भविष्य पुराण' के प्रतिसर्ग पर्व के प्रथम खंड में कहा गया है -
'सप्त हिन्दुर्यावनी च'। अत: हिन्दु शब्द का वहाँ भी प्रयोग है।
भविष्य पुराण में हिन्दु शब्द का प्रयोग अनेक बार है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भविष्य पुराण में सिंधु स्थान और हिंदू शब्द दोनों का ही प्रयोग हुआ है। भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग पर्व के खंड दो में लिखा है -
सिन्धुस्थानमिति ज्ञेयं राष्ट्रमार्यस्य चोत्तमम्।
अर्थात् सिंधु स्थान 'या हिन्दू स्थान' आर्यों का उत्तम राष्ट्र है।
भविष्य पुराण में ही अनेक भारतीय राजाओं का विस्तार से वर्णन है। उसमें प्रतिसर्ग पर्व के तृतीय खंड में हिन्दुस्थान की सीमाओं का वर्णन है - ''पूर्व में कपिलस्थान अर्थात् गंगा सागर, पश्चिम में बाह्लीक, उत्तर में चीन देश और दक्षिण में सेतुबंध। इस क्षेत्र में महाराज अनंगपाल के शासन में तथा अन्य अग्निवंशीय राजाओं के शासन में म्लेच्छ लोग भी आर्यधर्म का ही पालन करते थे। जिससे कलियुग भयभीत होकर नीलाचल पर्वत पर चला गया था।''
इसी पुराण में प्रतिसर्ग पर्व के इसी खंड में कहा गया है कि ''चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का पौत्र शालिवाहन महाप्रतापी था और उसने दुष्टों को कठोर दंड दिया तथा उनका सारा कोष छीन लिया एवं सिंधु स्थान (हिन्दुस्थान) को आर्यों का उत्तम स्थान निर्धारित किया तथा म्लेच्छों को सिंधु के उस पार के प्रदेश में रहना नियत किया।''
कालिका पुराण में कहा है -
कालेन बलिना नूनमधर्मकलिते कलौ।
यवनैर्घोरमाक्रान्ता हिंदवो विन्ध्यमाविशन्।।
अर्थात् बलवान कलि के प्रभाव से जब धर्म की न्यूनता हो गई, तब गंगा-यमुना क्षेत्र से चलकर हिन्दु लोग विंधय क्षेत्र में भी बस गए। यहाँ हिन्दू शब्द का स्पष्ट प्रयोग है।
'अद्भुत कोष' में लिखा है 'हिन्दुहिन्दूश्च प्रसिद्धौ दुष्टानां च विघर्षणें।' अर्थात् 'हिन्दू दुष्टों के मान-मर्दन के लिये प्रसिद्ध है।' इसी प्रकार 'शब्द कल्पद्रुम कोष' में आया है 'हीनं दूषयति इति हिन्दु:'। अर्थात् 'जो हीन भावों एवं हीन आचरण से दूरी बनाकर रखता है, वह हिन्दू है।'
'हेमन्तकविकोष' की उक्ति है - 'हिंदूर्हि नारायणादिदेवताभक्त:।' अर्थात् 'हिंदू उसे कहा जाता है, जो नारायण आदि देवों का भक्त है।' 'रामकोष' की उक्ति है -
हिंदुर्दुष्टो न भवति नानार्यो न विदूषक:।
सद्धार्मपालको विद्वान् श्रौतधर्मपरायण:।।
तात्पर्य यह कि 'हिंदू न तो दुर्जन होता है, न अनार्य होता है और न निन्दक ही होता है। जो सच्चे धर्म का पालक, विद्वान् और वेदधर्म में निरत है, वही हिंदू है।'
'माधावदिग्विजय ग्रंथ' में हिन्दू की परिभाषा यह दी हुई है -
ओंकारमूलमन्त्राढय: पुनर्जन्मदृढाशय:।
गोभक्तो भारतगुरूर्हिन्दुर्हिंसनदूषक:।।
अर्थात् ओंकार को मूलमन्त्र मानने वाला, पुनर्जन्म में दृढ़ श्रद्धा रखने वाला, गौभक्त तथा किसी भारतीय को ही गुरू मानने वाला और हिंसा को निंदनीय मानने वाला व्यक्ति हिन्दू है। उल्लेखनीय है कि इस परिभाषा में सभी सनानत धर्मावलंबी हिन्दूजन तो आते ही हैं सिक्ख, जैन, बौद्ध तथा आर्यसमाजी भी इसमें समाहित हैं। इस प्रकार यह हिन्दू का सुस्पष्ट लक्षण है।
पारसीकों का प्राचीन धर्मग्रंथ है 'अवेस्ता'। उसमें भी हिन्दू शब्द का उल्लेख है।
'हुएनसांग की भारतयात्रा' पुस्तक के दूसरे अधयाय में हुएनसांग ने आरम्भ में ही कहा है- ''भारत का प्राचीन नाम 'शिन्तो' और 'हीन्दो' था। परंतु शुद्ध उच्चारण 'इन्दु' है। यह उच्चारण सुनने में सुंदर है। चीनी भाषा में इसका अर्थ चन्द्रमा होता है। यह प्रसिद्ध है कि सम्पूर्ण प्राणी अज्ञान रूपी रात्रि में संसार चक्र का निरन्तर चक्कर लगाते रहते हैं। उन्हें किसी अन्य नक्षत्र का सहारा नहीं है। चन्द्रमा ही उस रात्रि में प्रकाश देता है। ठीक ऐसा ही प्रकाश महात्माओं और पवित्र विद्वानों का है। वे चन्द्रमा के समान संसार के जीवों को मार्ग दिखाते हैं। अत: अपनी पवित्रता और विद्वता के कारण इन विद्वानों के देश को 'इन्दु' कहा जाता है। इतिहास में इसी कारण लोग सामान्यत: भारतवर्ष को ब्राह्मणों का देश कहते हैं। जिसका अर्थ है विद्वानों और महात्माओं का देश। इसीलिये इसका मूल नाम 'इन्दु' है और हम इसे इन्दु नाम से ही वर्णन करेंगे। इसके तीन तरफ़ समुद्र है और उत्तर में हिमालय पर्वत है। पूर्व में घाटियाँ और मैदान हैं जिनमें पानी की अधिकता है, इसलिये फल-फूल और अन्न आदि की बहुत अच्छी उपज होती है। दक्षिणी प्रांत वनों और जड़ी-बूटियों से भरा है जबकि पश्चिमी भागी रेतीला, पथरीला और ऊसर सा है। यही इस देश का साधाारण विवरण है।
इस प्रकार शास्त्रों, तंत्र ग्रन्थों तथा पुराणों में हिन्दु शब्द के प्राचीन प्रयोग हैं, साथ ही, यवनों और पारसीकों के शास्त्रों एवं वृतान्तों में हिन्दू शब्द का प्राचीन प्रयोग पाया जाता है।