गीता के अनुसार‘स्वधर्म व स्वकर्म’ क्या है तथा इसका पालन करने से क्या फल मिलता है?
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डॉ. साध्वी देवप्रिया, प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्षा- दर्शन विभाग
पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार
‘स्व-धर्म’पर अविचल रहना- इस पर गीता ने विशेष बल दिया है- ‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।’‘स्व-धर्म’क्या है, ‘स्व-कर्म’क्या है? व्यापारी का ‘स्व-धर्म’तथा ‘स्व-कर्म’वाणिज्य-व्यापार करना है, डॉक्टर का ‘स्व-धर्म’तथा ‘स्व-कर्म’ रोगियों का इलाज करना है, शिक्षक का ‘स्व-धर्म’तथा ‘स्व-कर्म’बालकों को शिक्षा देना है। गीता का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी प्रकृति होती है, अपना-अपना गुण-कर्म होता है, वही उसका ‘धर्म’है, वही उसका ‘कर्म’है, वही-कुछ उसे करना चाहिए, उसी से उसे सिद्धि प्राप्त होगी, परन्तु वही करते रहें तो परलोक कैसे मिले? मनुष्य चाहता है कि दुनियादारी भी करता रहे और भगवान् को भी पा ले। तभी कुछ चतुर सेठ-साहूकार दिनभर लोगों की जेबें कतरते हैं और शाम को मन्दिरों में जाकर घण्टा घडिय़ाल खडख़ड़ाते हैं। गीता का कहना है कि यह रास्ता गलत है। तो सही रास्ता क्या है? दुनियादारी भी करते रहो और भगवान् को भी पा लो- इसका रास्ता है अपने काम को ही आध्यात्मिकता के रंग में रंग देना, व्यावहारिक तथा पारमार्थिक के बीच खड़ी दीवार को ही निकाल फेंकना वह कैसे हो सकता है? गीता ने कहा- ‘यज्ञार्थ कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:’- जो कर्म करे यज्ञार्थ करे- वाणिज्य करें, व्यापार करें, डॉक्टरी करें, अध्ययन करें, ‘स्व-धर्म’और ‘स्व-कर्म’कुछ भी क्यों न हो, वह कर्म आध्यात्मिक हो जाता है, तब संसारी व्यावहारिक-जीवन में और आध्यात्मिक-जीवन में भेद ही नहीं रहता, तब दुनियादारी का जीवन ही आध्यात्मिक-जीवन हो जाता है, क्योंकि तब जो ‘स्व-धर्म’और ‘स्व-कर्म’किया जाता है वह स्वार्थ के लिए न करके परार्थ के लिए, ‘यथार्थ’किया जाता है।
जब ‘स्व-धर्म’तथा ‘स्व-कर्म’के प्रति यह दृष्टि विकसित हो जाती है तब उसका व्यवहारिक रूप क्या होता है? कल्पना कीजिये, एक व्यापारी है। गीता के ‘स्व-धर्म’और ‘स्व-कर्म’का पालन करता हुआ वह ‘यथार्थ-कर्म’कैसे करेगा? वह दिन-रात अपने धन्धे में लगा रहेगा, खूब पैसा कमाएगा, कोठे भर देगा, परन्तु यह सब ‘यथार्थ’व परमार्थ तब बनेगा, जब अपने इस्तेमाल में जो-कुछ आयेगा उसका बचा हुआ समाज तथा राष्ट्र के हित में लगा देगा। यह व्यापारी अगर अपनी प्रकृति के प्रतिकूल भगवा डालकर साधु हो जाय, तो वह भगवान् के निकट इतनी शीघ्रता से नहीं पहुँचेगा जितनी शीघ्रता से ‘स्व-धर्म’और ‘स्व-कर्म’का पालन करता हुआ, दिन-रात व्यापार में लगा हुआ, रुपया-पैसा कमाता हुआ, उसे समाज तथा राष्ट्र की सेवा में अर्पित करता हुआ पहुँच जायगा। गीता की परिभाषा में ‘स्वधर्म’ तथा ‘स्व-कर्म’का इस प्रकार पालन करने वाला यह व्यापारी जो अपना सब काम-धन्धा ‘यज्ञार्थ’ करता है, आध्यात्मिक पुरुष है, योगी है, साधु है, संन्यासी है। अगर यह व्यक्ति जिसकी मनोवृत्ति व्यापार की है, भगवान् को पाने के लिए ‘स्व-धर्म’और ‘स्व-कर्म’को छोड़कर साधु-संन्यासी हो जाता है, घर से भाग खड़ा होता है, तो पहले तो वह ऐसा कर ही न सकेगा, उसकी वृत्ति बार-बार उसे दुनियादारी की तरफ खींचेगी, वह भगवा डालकर भी किसी व्यापार-धन्धे में फँस जायेगा और अगर वह ठोक-पीट कर संन्यासी बन भी गया तो संन्यास-धर्म का पालन नहीं कर सकेगा, क्योंकि वह उसके लिए ‘स्व-धर्म’या ‘स्व-कर्म’नहीं है।
हमने कहा कि गीता जब ‘स्व-धर्म’तथा ‘स्व-कर्म’में अविचल रहने को कहती है तब गीता का अभिप्राय ‘यथार्थ- कर्म’से है। हम अपने काम को दो दृष्टियों से कर सकते हैं- ‘यथार्थ-दृष्टि’तथा ‘अयज्ञार्थ-दृष्टि’। यज्ञार्थ-दृष्टि का अर्थ है- ‘समाज-सेवा’की दृष्टि, अयज्ञार्थ-दृष्टि का अर्थ है- ‘स्व-सेवा’की दृष्टि। आज हम जितने काम करते हैं उन्हें स्वार्थ-भाव से करते हैं, इसलिए हमारे कर्म में आध्यात्मिकता की पुट नहीं रहती, कर्म बन्धन का कारण बन जाता है। गीता का कहना है कि जो भी काम करो, छोटा हो, बड़ा हो, उसी में रम कर करो, तन्मयता से करो, कर्त्तव्य-बुद्धि से करो, परार्थ-भावना से करो, समाज-सेवा की दृष्टि से करो, ऐसा करने से कर्म में आध्यात्मिकता की पुट आ जायेगी।
यह स्वधर्म हमें निसर्गत: ही प्राप्त होता है। स्वधर्म को कहीं खोजने नहीं जाना पड़ता। ऐसी बात नहीं है कि हम आकाश से गिरे और धरती पर सँभले। हमारा जन्म होने से पहले यह समाज था, हमारे माता-पिता थे, अड़ोसी-पड़ोसी थे। ऐसे इस प्रवाह में हमारा जन्म होता है। अत: जिन माता-पिता की कोख से मैं जन्मा हूँ, उनकी सेवा करने का धर्म मुझे जन्मत: ही प्राप्त हो गया है और जिस समाज में मैंने जन्म लिया, उसकी सेवा करने का धर्म भी मुझे इसी क्रम से अपने-आप ही प्राप्त हो गया। सच तो यह है कि हमारे जन्म के साथ ही हमारा स्वधर्म भी जन्मता है, बल्कि यह भी कह सकते हैं कि वह तो हमारे जन्म के पहले से ही हमारे लिए तैयार रहता है, क्योंकि वह हमारे जन्म का हेतु है। हमारा जन्म उसकी पूर्ति के लिए होता है। कोई-कोई स्वधर्म को पत्नी की उपमा देते हैं और कहते हैं कि जैसे पत्नी का संबंध अविच्छेद्य माना गया है, वैसे ही यह स्वधर्म-संबंध भी अविच्छेद्य है। लेकिन मुझे यह उपमा भी गौण मालूम होती है। मैं स्वधर्म के लिए माता की उपमा देता हूँ। मुझे अपनी माता का चुनाव इस जन्म में करना बाकी नहीं रहा। वह पहले ही निश्चित हो चुकी है। वह कैसी भी क्यों न हो, अब टाली नहीं जा सकती। ऐसी ही स्थिति स्वधर्म की है। इस जगत् में हमारे लिए स्वधर्म के सहारे ही हम आगे बढ़ सकते हैं। अत: यह स्वधर्म का आश्रय कभी किसी को नहीं छोडऩा चाहिए- यह जीवन का एक मूलभूत सिद्धांत स्थिर होता है।
स्वधर्म हमें इतना सहजप्राप्त है कि हमसे अपने-आप उसी का पालन होना चाहिए। परंतु अनेक प्रकार के मोहों के कारण ऐसा नहीं होता, अथवा बड़ी कठिनाई से होता है और हुआ भी, तो उसमें अनेक प्रकार के दोष- मिल जाते हैं। स्वधर्म के मार्ग में काँटे बिखेरने वाले मोहों के बाहरी रूपों की तो कोई गिनती ही नहीं है। फिर भी जब हम उनकी छानबीन करते हैं, तो उन सबकी तह में एक मुख्य बात दिखायी देती है- संकुचित और छिछली देह-बुद्धि। मैं और मेरे शरीर से संबंध रखने वाले व्यक्ति, बस इतनी ही मेरी व्याप्ति- फैलाव है। इस दायरे के बाहर जो है, वह सब मेरे लिए पराया है।
‘यह स्वधर्म निश्चित कैसे किया जाये?’- ऐसा कोई प्रश्न करे, तो उसका उत्तर है- ‘वह स्वाभाविक होता है।’स्वधर्म सहज होता है। उसे खोजने की कल्पना ही विचित्र मालूम होती है। मनुष्य के जन्म के साथ ही उसका स्वधर्म भी जन्मा है। बच्चे के लिए जैसे उसकी माँ खोजनी नहीं पड़ती, वैसे ही स्वधर्म भी किसी को खोजना नहीं पड़ता। वह तो पहले से ही प्राप्त है। हमारे जन्म के पहले भी संसार था, हमारे बाद भी वह रहेगा। हमारे पीछे भी एक बड़ा प्रवाह था और आगे भी वह रहेगा ही- ऐसे प्रवाह में हमारा जन्म हुआ है। जिन माता-पिता के यहां मैने जन्म लिया है, उनकी सेवा, जिन आस-पड़ोसियों के बीच जन्मा हूँ, उनकी सेवा-ये कर्म मुझे निसर्गत: ही मिले हैं। फिर मेरी वृतियाँ तो मेरे नित्य अनुभव की ही हैं न? मुझे भूख लगती है, प्यास लगती है, अत: भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी पिलाना, यह धर्म मुझे सहज ही प्राप्त हो गया। इस प्रकार यह सेवारूप, भूतदयारूप स्वधर्म हमें खोजना नहीं पड़ता। जहाँ कहीं स्वधर्म की खोज हो रही हो, वहाँ निश्चित समझ लेना चाहिए कि कुछ-न-कुछ परधर्म अथवा अधर्म हो रहा है।
सेवक को सेवा खोजने कहीं जाना नहीं पड़ता। वह स्वयं उसके पास आ जाती है। परन्तु एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जो अनायास प्राप्त हो, वह सदा धर्म ही होता है, ऐसी बात नहीं है। कोई किसान रात को मुझसे कहे-चलो, वह बाड़ चार-पाँच हाथ आगे हटा दें। मेरा खेत बढ़ जायेगा। अभी कोई है नहीं, बिना शोरगुल के सब काम हो जायेगा!’ यद्यपि यह काम मुझे अपना पड़़ोसी बता रहा है और यह सहज प्राप्त-सा भी दीखता है, तो भी असत्य होने के कारण वह मेरा कर्त्तव्य नहीं ठहरता।
चातुर्वर्ण-आश्रम व्यवस्था जो मुझे अच्छी लगती है, उसका कारण यही है कि उसमें स्वाभाविक और धर्म दोनों हैं। इस स्वधर्म को टालने से काम नहीं चल सकता। जो माता-पिता मुझे प्राप्त हुए हैं, मेरे माता-पिता रहेंगे। यदि मैं कहूँ कि वे मुझे पसंद नहीं हैं, तो कैसे काम चलेगा? माता-पिता का व्यवसाय स्वभावत: ही लडक़े को विरासत में मिलता है। जो व्यवसाय वंश-परम्परा से चला आया है, वह यदि नीति-विरूद्ध न हो, तो उसी को करना, उसी उद्योग को आगे चलाना, चातुर्वर्ण की एक बड़ी विशेषता है। यह वर्ण-व्यवस्था आज अस्तव्यस्त हो गयी है। उसका पालन आज बहुत कठिन हो गया है, परन्तु यदि वह फिर से सुव्यवस्थित स्थापित की जा सके, तो बहुत अच्छा होगा। आज शुरू के पच्चीस-तीस साल तो नये धंधे सीखने में चले जाते हैं। काम सीख लेने पर फिर मनुष्य अपने लिए सेवा-क्षेत्र, कार्य-क्षेत्र खोजता रहता है। इस तरह शुरू के पच्चीस साल तो वह सीखता ही रहता है। इस शिक्षा का उसके जीवन से कोई संबंध नहीं रहता। कहते हैं, वह भावी जीवन की तैयारी कर रहा है। शिक्षा प्राप्त करते समय मानो वह जीता ही न हो जीना बाद में है! कहते हैं, पहले सब सीखना और बाद में जीना। मानो जीना और सीखना, ये दोनों विषय अलग-अलग कर दिये गये हों। जिसका जीने के साथ संबंध नहीं, उसे मरना ही तो कहेंगे। हिंदुस्तान की औसत आयु 80 साल है और पचीस साल तक तो वह तैयारी ही करता रहता है। इस तरह नया काम-धंधा सीखने में ही दिन चले जाते हैं, फिर कहीं काम-धंधा शुरू होता है। इससे उमंग और महत्त्व के वर्ष व्यर्थ चले जाते हैं। जो उत्साह, जो उमंग जनसेवा में खर्च करके जीवन सार्थक किया जा सकता है, वह यों ही व्यर्थ चला जाता है। जीवन कोई खेल नहीं है। पर दु:ख की बात है कि जीवन का पहला अमूल्य अंश तो जीवन का काम-धंधा खोजने में ही चला जाता है। हिंदु धर्म ने इसीलिए वर्ण धर्म की युक्ति निकाली है।
चातुर्वर्ण-व्यवस्था को एक ओर रख दें, तो भी सभी राष्ट्रों में सर्वत्र, जहाँ यह व्यवस्था नहीं है वहां भी, स्वधर्म सबको प्राप्त ही है। हम सब एक प्रवाह में किसी एक परिस्थिति को साथ लेकर जन्में हैं, इसीलिए स्वधर्माचरण रूपी कर्त्तव्य स्वत: ही हमें प्राप्त रहता है। अत: जो दूरवर्ती कर्त्तव्य हैं - जिन्हें वास्तव में कर्त्तव्य कहना ठीक नहीं-वे कितने ही अच्छे दिखायी देने पर भी ग्रहण नहीं करने चाहिए। बहुत बार दूरके ढ़ोल सुहावने लगते हैं। मनुष्य दूर की बातों पर लट्टू हो जाता है। मनुष्य जहाँ खड़ा है, वहाँ भी गहरा कुहरा फैला रहता है, परन्तु पास का घना कुहरा उसे नहीं दिखता। वह दूर अंगुली बताकर कहता है- ‘वहाँ घना कुहरा फैला है।’उधर का मनुष्य इधर अंगुली करके कहता है- ‘उधर कुहरा घना है।’कुहरा सब जगह है, परंतु पास का दिखायी नहीं देता। मनुष्य को दूर का आर्कषण रहता है। निकट का कोने में पड़ा रहता है और दूर का स्वप्न में दीखता है। परंतु यह मोह है। इसे छोडऩा ही चाहिए। प्राप्त स्वधर्म यदि साधारण हो, तुच्छ हो, नीरस लगता हो, तो भी जो मुझे प्राप्त है, वही अच्छा है। वही मेरे लिए सुंदर है। जो मनुष्य समुंद्र में डूब रहा हो, उसे कोई टेढ़ा-मेढ़ा ओर भद्दा-सा लकड़ी का टुकड़ा मिले, पॉलिश किया हुआ चिकना और सुंदर न मिले, तो भी वही तारने वाला है। बढ़ई के कारखाने में बहुत बढिय़ा चिकने और बेलबूटेदार काष्ठखण्ड पड़े होंगे, परन्तु वे तो कारखाने में हैं और यह यहाँ समुन्द्र में डूब रहा है! अतएव वह बेढंगा लकड़ी का टुकड़ा ही उसका तारक है, उसी को पकड़ लेना चाहिए। इसी तरह जो सेवा मुझे प्राप्त हुई है, गौण मालूम होने पर भी वह मेरे काम की हैं उसी में मग्न हो जाना मुझे शोभा देता है। उसी में मेरा उद्धार है। यदि मैं दूसरी सेवा खोजने के चक्कर में पडूँगा, तो पहली सेवा भी जायेगी और दूसरी भी। इससे मनुष्य सेवा-वृत्ति से दूर भटक जाता है। अत: स्वधर्मरूप कर्त्तव्य में ही मग्न रहना चाहिए। जब हम स्वधर्म में मग्न रहने लगते हैं, तो रजोगुण फीका पड़ जाता है, क्योंकि तब चित्त एकाग्र होता है और वह स्वधर्म छोडक़र कहीं जाता ही नहीं। इससे चंचल रजोगुण का सारा बल ढ़ीला पड़ जाता है। नदी जब शांत और गहरी होती है, तो कितना ही पानी उसमें बढ़ जाये, तो भी वह उसे अपने पेट में समा लेती है। इसी तरह स्वधर्मरूपी नदी मनुष्य का सारा बल, सारा वेग, सारी शक्ति, अपने भीतर समा ले सकती है। स्वधर्म में आप शक्ति-सर्वस्व लगा देंगे, तो फिर रजोगुण की दौड़ धूप वाली वृत्ति समाप्त हो जायेगी। मानो चंचलता का डंक ही कुचल दिया। यही रीति है रजोगुण को जीतने की।
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन् ।।3-26।।
ज्ञानी पुरुष कर्मफलासक्त अज्ञानी व्यक्तियों में बुद्धिभेद (अकर्मण्यता की भ्रान्ति) उत्पन्न न करे, स्वयं स्थितप्रज्ञ हो अपने कर्त्तव्य रूप कर्मों को करते हुए अन्यों को भी सत्कर्मों में प्रेरित करें।
कहने का तात्पर्य यह है कि लोकसंग्रह के लिए स्वयं तो अपने कर्त्तव्य को अनासक्त भाव से पूरा करें ही दूसरों से भी प्रसन्नतापूर्वक कराए। यदि उन्हें फलासक्ति त्याग कर कर्म करने को न समझाया गया तो हो सकता है कि वे अपने कर्त्तव्य कर्म से विचलित होकर अकर्मण्य हो जाएं। इस प्रकार लोकसंग्रह में विघ्न उत्त्पन्न हो जाएगा, जो कर्मयोगी का उद्देश्य नहीं है।
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:।।3-30।।
विवेकवती बुद्धि के द्वारा सम्पूर्ण कत्र्तव्य-कर्मों को मेरे प्रति समर्पित करके कामनारहित, ममतारहित और दु:ख सन्ताप रहित होकर युद्धरूप कत्र्तव्य कर्म को कर। कर्मों को अपना मानकर करने से फलासक्ति रहती है, उसे दूर करने के लिए भगवान् कह रहे हैं- कर्त्तव्य कर्मों को मुझे समर्पित करते रहें। इससे फलासक्ति नहीं होगी।
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा:।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभि:।।3-31।।
जो व्यक्ति मेरे आदेशों के अनुसार अपना कर्त्तव्य पालन करते रहते हैं और दोष दृष्टि से रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।
श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।।3-35।।
परधर्म, जो हमारे स्वभाव के अनुरूप नहीं है वह भले ही कुछ समय के लिए प्रयत्नपूर्वक अच्छी प्रकार से अनुष्ठित कर लिया जाए तो भी उससे अल्पगुण वाला अपना सहज प्राप्त स्वधर्म ही श्रेयस्कर है। ऐसे स्वधर्म में मरना भी कल्याणकारी है, परन्तु दूसरों के धर्म का पालन करना भयावह है।
अत: मनुष्य को चाहिए कि वह अन्यों के लिए नियतकर्मों की अपेक्षा अपने नियत कर्मों को ईश्वर अर्पित बुद्धि से करे।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।18-45।।
अपने-अपने स्वभावजन्य गुणों के अनुसार प्राप्त कर्त्तव्य कर्म को करने में सदा लगा रहने वाला व्यक्ति उसी से परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। स्वकर्म में निरत मनुष्य जिस प्रकार सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। ‘यज्ञार्थ’किया हुआ वह कर्म ही तुम्हें भगवान् के आमने-सामने लाकर खड़ा कर देगा। ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:’ का यही अर्थ है।
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